ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 245 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
समणा सुद्धुवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि । (245)
तेसु वि सुद्धुवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ॥285॥
अर्थ:
[समये] शास्त्र में (ऐसा कहा है कि), [शुद्धोपयुक्ताः श्रमणाः] शुद्धोपयोगी वे श्रमण हैं, [शुभोपयुक्ताः च भवन्ति] शुभोपयोगी भी श्रमण होते हैं; [तेषु अपि] उनमें भी [शुद्धोपयुक्ताः अनास्रवाः] शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, [शेषाः सास्रवाः] शेष सास्रव हैं, (अर्थात् शुभोपयोगी आस्रव सहित हैं ।) ॥२४५॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
ये खलु श्रामण्यपरिणतिं प्रतिज्ञायापि, जीवितकषायकणतया, समस्तपरद्रव्यनिवृत्ति-प्रवृत्तसुविशुद्धदृशिज्ञप्तिस्वभावात्मतत्त्ववृत्तिरूपां शुद्धोपयोगभूमिकामधिरोढुं न क्षमन्ते, ते तदुपकण्ठनिविष्टा: कषायकुण्ठीकृतशक्तयो, नितान्तमुत्कण्ठुलमनस: श्रमणा: किं भवेयुर्न वेत्यत्राभिधीयते ।
‘धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्ते व सग्गसुहं ॥’
- इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवाय: । तत: शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसद्भावाद्भवेयु: श्रमणा: । किंतु तेषां शुद्धोपयोगिभि: समं समकाष्ठत्वं न भवेत्, यत: शुद्धोपयोगिनो निरस्तसमस्तकषायत्वादनास्रवा एव । इमे पुनरनवकीर्णकषाय-कणत्वात्सास्रवा एव । अत एव च शुद्धोपयोगिभि: समममी न समुच्चीयन्ते, केवलमन्वाचीयन्त एव ॥२४५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, शुभोपयोग का प्रज्ञापन करते हैं । उसमें (प्रथम), शुभोपयोगियों को श्रमण रूप में गौणतया बतलाते हैं --
जो वास्तव में श्रामण्य-परिणति की प्रतिज्ञा करके भी, कषाय कण के जीवित (विद्यमान) होने से, समस्त परद्रव्य से निवृत्ति-रूप से प्रवर्तमान ऐसी जो सुविशुद्ध-दर्शन-ज्ञान-स्वभाव आत्म-तत्त्व में परिणति-रूप शुद्धोपयोग-भूमिका उसमें आरोहण करने को असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी) जीव, जो कि शुद्धोपयोग-भूमिका के उपकंठ निवास कर रहे हैं, और कषाय ने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित (आतुर) मन वाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जाता हैं --
((धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥)) इस प्रकार (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ने ११वीं गाथा में) स्वयं ही निरूपण किया है, इसलिये शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थ-समवाय है । इसलिये शुभोपयोगी भी, उनके धर्म का सद्भाव होने से, श्रमण हैं । किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के साथ समान कोटि के नहीं है, क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों को निरस्त किया होने से निरास्रव ही हैं और ये शुभोपयोगी तो कषायकण अविनष्ट होने से सास्रव ही हैं । और ऐसा होने से ही शुद्धोपयोगियों के साथ इन्हें (शुभोपयोगियों को) नहीं लिया (नहीं वर्णन किया) जाता, मात्र पीछे से (गौणरूप में ही) लिया जाता है ॥२४५॥