ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 247 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती । (247)
समणेसु समावणओ ण णिंदिदा रागचरियम्हि ॥302॥
अर्थ:
[श्रमणेषु] श्रमणों के प्रति [वन्दननमस्करणाभ्यां] वन्दन-नमस्कार सहित [अभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्ति:] अभ्युत्थान और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति करना तथा [श्रमापनय:] उनका श्रम दूर करना वह [रागचर्यायाम्] रागचर्या में [न निन्दिता] निन्दित नहीं है ॥२४७॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ शुभोपयोगिश्रमणलक्षणमासूत्रयति -
शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया, समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषु वन्दन-नमस्करणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्ति: शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्त श्रमापनयनप्रवृत्तिश्च न दुष्येत् ॥२४७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, शुभोपयोगी श्रमणों की प्रवृत्ति बतलाते हैं :-
शुभोपयोगियों के शुद्धात्मा के अनुरागयुक्त चारित्र होता है, इसलिये जिनने शुद्धात्मपरिणति प्राप्त की है ऐसे श्रमणों के प्रति जो वन्दन-नमस्कार-अभ्युत्थान-अनुगमनरूप विनीत वर्तन की प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिणति की रक्षा की निमित्तभूत ऐसी जो श्रम दूर करने की (वैयावृत्यरूप) प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियों के लिये दूषित (दोषरूप, निन्दित) नहीं है । (अर्थात् शुभोपयोगी मुनियों के ऐसी प्रवृत्ति का निषेध नहीं हैं) ॥२४७॥