ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 252 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । (252)
दिट्ठा समणं साहू पडिवज्जदु आदसत्तीए ॥292॥
अर्थ:
[रोगेण वा] रोग से, [क्षुधया] क्षुधा से, [तृष्णया वा] तृषा से [श्रमेण वा] अथवा श्रम से [रूढ़म्] आक्रांत [श्रमणं] श्रमण को [दृट्वा] देखकर [साधु:] साधु [आत्मशक्त्या] अपनी शक्ति के अनुसार [प्रतिपद्यताम्] वैयावृत्यादि करो ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्ते: श्रमणस्य तत्प्रच्यावनहेतो: कस्याप्युपसर्गस्योपनिपात: स्यात्, स शुभोपयोगिन: स्वशक्तया प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकाल: । इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्ते: समधिगमनाय केवलं निवृत्तिकाल एव ॥२५२॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, प्रवृत्ति के काल का विभाग बतलाते हैं (अर्थात् यह बतलाते हैं कि - शुभोपयोगी-श्रमण को किस समय प्रवृत्ति करना योग्य है और किस समय नहीं) :-
जब शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त श्रमण को, उससे च्युत करे ऐसा कारण, कोई भी उपसर्ग - आ जाये, तब वह काल, शुभोपयोगी को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिकार करने की इच्छारूप प्रवृत्ति का काल है; और उसके अतिरिक्त का काल अपनी शुद्धात्मपरिणति की प्राप्ति के लिये केवल निवृत्ति का काल है ।