ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 261 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
दिट्ठा पगदं वत्थु अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं । (261)
वट्ठदु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसो ॥299॥
अर्थ:
[प्रकृत वस्तु] प्रकृत वस्तु को [दृट्वा] देखकर (प्रथम तो) [अभ्युत्थानप्रधानक्रियाभि:] अभ्युत्थान आदि क्रियाओं से [वर्तताम्] (श्रमण) वर्तो; [ततः] फिर [गुणात्] गुणानुसार [विशेषितव्य:] भेद करना,—[इति उपदेश:] ऐसा उपदेश है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथाविपरीतफलकारणाविपरीतकारणसमुपासनप्रवृत्तिं सामान्यविशेषतो विधेयतया सूत्रद्वैतेनोपदर्शयति -
श्रमणानामात्मविशुद्धिहेतौ प्रकृते वस्तुनि तदनुकूलक्रियाप्रवृत्त्या गुणातिशयाधानमप्रति-षिद्धम् ॥२६१॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, अविपरीत फल का कारण ऐसा जो 'अविपरीत कारण' उसकी उपासनारूप प्रवृत्तिसामान्य और विशेषरूप से करने योग्य है ऐसा दो सूत्रों द्वारा बतलाते हैं -
यदि कोई श्रमण अन्य श्रमण को देखे तो प्रथम ही, मानो वे अन्य श्रमण गुणातिशयवान् हों इस प्रकार उनके प्रति (अभ्युत्थानादि) व्यवहार करना चाहिये । फिर उनका परिचय होने के बाद उनके गुणानुसार बर्ताव करना चाहिये ॥२६१॥