ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 312 - तात्पर्य-वृत्ति
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अर्थ: GP:प्रवचनसार - गाथा 312 - अर्थ
तात्पर्य-वृत्ति: GP:प्रवचनसार - गाथा 312 - तात्पर्य-वृत्ति
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
((अज्ञानतमसा लिप्तो मार्गो रत्नत्रयात्मकः ।
तत्प्रकाशसमर्थाय नमोऽस्तु कुमुदेन्दवे ॥1॥))
अज्ञानरूपी अन्धकार से यह रत्नत्रयमय मोक्षामार्ग लिप्त हो रहा है उसके प्रकाश करने को समर्थ श्री कुमुदचन्द्र या पद्मचन्द्र मुनि को नमस्कार हो ॥1॥
((सूरिः श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेऽपि सत्तपाः ।
नैर्ग्रन्थ्यपदवीं भेजे जातरूपधरोऽपि यः ॥2॥))
इस मूलसंघ में भी, परम तपस्वी श्री वीरसेन नामक आचार्य हुए हैं, जो निर्ग्रन्थ पदवी के धारी जातरूपधर -- दिगंबर भी थे ।
((ततः श्री सोमसेनोऽभूद्गणी गुणगणाश्रयः ।
तद्विनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभृते ॥3॥))
उनके शिष्य अनेक गुणों के धारी आचार्य श्री सोमसेन हुए। उनका शिष्य यह जयसेन तपस्वी हुआ।
((शीघ्रं बभूव मालु साधुः सदा धर्मरतो वदान्यः ।
सूनुस्ततः साधुमहीपतिर्यस्तस्मादयं चारुभटस्तनूजः ॥4॥
यः संततं सर्वविदा: सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति ।
स श्रेयसे प्राभृतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्तिविलोपभीरुः ॥5॥))
सदा धर्म में रत प्रसिद्ध मालु साधु नाम के हुए हैं । उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है, उससे यह चारुभट नाम का पुत्र उपजा है, जो सर्वज्ञान प्राप्त कर सदा आचार्यों के चरणों की आराधना पूर्वक सेवा करता है, उस चारुभट अर्थात जयसेनाचार्य ने जो अपने पिता को भक्ति के विलोप करने से भयभीत था इस प्रवचन-प्राभृत नाम ग्रन्थ की टीका की है।
((श्रीमन्त्रिभुवनचंद्रं निजमतवाराशितायना चन्द्रम् ।
प्रणमामि कामनामप्रबलमहापर्वतैकशतधारम् ॥6॥))
श्रीमान् त्रिभुवनचन्द्र गुरु को नमस्कार करता हूँ, जो आत्मा के भावरूपी जल को बढ़ाने के लिये चन्द्रमा के तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वत के सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं।
((जगत्समस्तसंसारिजीवाकारणबन्धवे ।
सिंधवे गुणरत्नानां नमत्रिभुवनेन्दवे ॥7॥))
मैं श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जो जगत् के सब संसारी जीवों के निष्कारण बन्धु हैं और गुण रूपी रत्नों के समुद्र हैं ।
((त्रिभुवनचंद्रं चंद्रं नौमि महासंयमोत्तमं शिरसा ।
यस्योदयेन जगतां स्वान्ततमोराशिकृन्तनं कुरुते ॥8॥))
फिर मैं महासंयम के पालने में श्रेष्ठ चन्द्रमा-तुल्य श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जिसके उदय से जगत के प्राणियों के अन्तरंग का अन्धकार समूह नष्ट हो जाता है।
((॥इति प्रशस्ति॥))