ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 31 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जदि ते ण संति अट्ठा णाणे णाणं ण होदि सव्वगयं । (31)
सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा ॥32॥
अर्थ:
[यदि] यदि [ते अर्था:] वे पदार्थ [ज्ञाने न संति] ज्ञान में न हों तो [ज्ञानं] ज्ञान [सर्वगत] सर्वगत [न भवति] नहीं हो सकता [वा] और यदि [ज्ञानं सर्वगतं] ज्ञान सर्वगत है तो [अर्था:] पदार्थ [ज्ञानस्थिता:] ज्ञानस्थित [कथं न] कैसे नहीं हैं? (अर्थात् अवश्य हैं) ॥३१॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ पूर्वसूत्रेण भणितं ज्ञानमर्थेषु वर्तते व्यवहारेणात्र पुनरर्था ज्ञाने वर्तन्तइत्युपदिशति --
जइ यदि चेत् ते अट्ठा ण संति ते पदार्थाः स्वकीयपरिच्छित्त्याकारसमर्पणद्वारेणादर्शेबिम्बवन्न सन्ति । क्व । णाणे केवलज्ञाने । णाणं ण होदि सव्वगयं तदा ज्ञानं सर्वगतं न भवति । सव्वगयं वा णाणं व्यवहारेण सर्वगतं ज्ञानं सम्मतं चेद्भवतां कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा तर्हिव्यवहारनयेन स्वकीयज्ञेयाकारपरिच्छित्तिसमर्पणद्वारेण ज्ञानस्थिता अर्थाः कथं न भवन्ति किंतु
भवन्त्येवेति । अत्रायमभिप्रायः --
यत एव व्यवहारेण ज्ञेयपरिच्छित्त्याकारग्रहणद्वारेण ज्ञानं सर्वगतंभण्यते, तस्मादेव ज्ञेयपरिच्छित्त्याकारसमर्पणद्वारेण पदार्था अपि व्यवहारेण ज्ञानगता भण्यन्त इति ॥३२॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जइ] - यदि [ते अट्ठा न सन्ति] - वे पदार्थ अपने ज्ञानाकार समर्पण की अपेक्षा दर्पण में बिम्ब के समान नहीं हैं । दर्पण में बिम्ब के समान वे पदार्थ कहाँ नहीं हैं? [णाणे] - यदि वे पदार्थ केवलज्ञान में नहीं हैं । [णाणं ण होदि सव्वगयं] - तो ज्ञान सर्वगत नहीं हो सकता । [सव्वगयं वा णाणं] - यदि आपको व्यवहार से सर्वगत ज्ञान स्वीकृत है, [कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा] - तो अपने ज्ञेयाकारों को जानकारी रूप से समर्पित करने की अपेक्षा व्यवहारनय से वे पदार्थ ज्ञान में स्थित कैसे नहीं हैं, वरन् हैं ही ।
यहाँ अभिप्राय यह है कि जिस कारण व्यवहार से ज्ञेय सम्बन्धी ज्ञानाकारों को ग्रहण करने की अपेक्षा ज्ञान सर्वगत कहलाता है, उसी कारण व्यवहार से ज्ञेय सम्बन्धी ज्ञानाकार समर्पण की अपेक्षा पदार्थ भी ज्ञानगत कहलाते हैं ।