ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 34 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सुत्तं जिणोवदिट्ठं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं । (34)
तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ॥35॥
अर्थ:
[सूत्रं] सूत्र अर्थात् [पुद्गलद्रव्यात्मकै: वचनै:] पुद्गल-द्रव्यात्मक वचनों के द्वारा [जिनोपदिष्टं] जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट वह [तज्ज्ञप्ति: ही] उसकी ज्ञप्ति [ज्ञानं] ज्ञान है [च] और उसे [सूत्रस्य ज्ञप्ति:] सूत्र की ज्ञप्ति (श्रुतज्ञान) [भणिता] कहा गया है ॥३४॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ शब्दरूपंद्रव्यश्रुतं व्यवहारेण ज्ञानं निश्चयेनार्थपरिच्छित्तिरूपं भावश्रुतमेव ज्ञानमिति कथयति ।अथवात्मभावनारतो निश्चयश्रुतकेवली भवतीति पूर्वसूत्रे भणितम् । अयं तु व्यवहारश्रुतकेवलीतिकथ्यते --
सुत्तं द्रव्यश्रुतम् । कथम्भूतम् । जिणोवदिट्ठं जिनोपदिष्टम् । कैः कृत्वा । पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं पुद्गलद्रव्यात्मकैर्दिव्यध्वनिवचनैः । तं जाणणा हि णाणं तेन पूर्वोक्त शब्दश्रुताधारेण ज्ञप्तिरर्थपरिच्छित्तिर्ज्ञानं भण्यते हि स्फुटम् । सुत्तस्स य जाणणा भणिया पूर्वोक्तद्रव्यश्रुतस्यापि व्यवहारेणज्ञानव्यपदेशो भवति न तु निश्चयेनेति । तथा हि --
यथा निश्चयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावो जीवःपश्चाद्वयवहारेण नरनारकादिरूपोऽपि जीवो भण्यते; तथा निश्चयेनाखण्डैकप्रतिभासरूपं समस्त-वस्तुप्रकाशकं ज्ञानं भण्यते, पश्चाद्वयवहारेण मेघपटलावृतादित्यस्यावस्थाविशेषवत्कर्मपटलावृता-खण्डैकज्ञानरूपजीवस्य मतिज्ञानश्रुतज्ञानादिव्यपदेशो भवतीति भावार्थः ॥३४॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब, व्यवहार से शब्दरूप द्रव्यश्रुत ज्ञान है, तथा निश्चय से पदार्थों की जानकारी रूप भावश्रुत ही ज्ञान है, ऐसा कहते है ।
अथवा, आत्मभावना में लीन निश्चय श्रुतकेवली हैं ऐसा पिछली गाथा (गाथा ३४) में कहा था । इस गाथा में ये व्यवहार-श्रुतकेवली हैं ऐसा कहते हैं -
[सुत्तं] - द्रव्यश्रुत । वह द्रव्यश्रुत कैसा है? [जिणोवदिट्ठम्] - जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है । वह द्रव्यश्रुत जिनेन्द्र भगवान ने कैसे कहा है? [पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं] - पुद्गलद्रव्यात्मक दिव्यध्वनि-रूप वचनों से वह द्रव्यश्रुत जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । [तं जाणणा हिणाणं] - उस पूर्वोक्त शब्दश्रुत के आधार से ज्ञप्ति-पदार्थों की जानकारी ज्ञान कहलाती है, [हि] - वास्तव में । [सुत्तस्स य जाणणा भणिया] - इसलिये व्यवहार से पूर्वोक्त द्रव्यश्रुत की भी ज्ञान संज्ञा है, परन्तु निश्चय से नहीं । वह इसप्रकार --
जैसे निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव सम्पन्न जीव है, पश्चात् व्यवहार से नर-नारकादि रूप भी जीव कहा जाता है, उसीप्रकार निश्चय से समस्त वस्तुओं को जाननेवाला अखण्ड एक प्रतिभासरूप ज्ञान कहा गया है, पश्चात् व्यवहार से मेघसमूह से ढंके हुये सूर्य की विशिष्ट अवस्था के समान कर्मसमूह से ढंके हुये अखण्ड एक ज्ञानरूप जीव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि नाम होते हैं - यह भाव है ।