ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 35 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा । (35)
णाणं परिणमदि सयं अट्टा णाणट्ठिया सव्वे ॥36॥
अर्थ:
[यः जानाति] जो जानता है [सः ज्ञानं] सो ज्ञान है (अर्थात् जो ज्ञायक है वही ज्ञान है), [ज्ञानेन] ज्ञान के द्वारा [आत्मा] आत्मा [ज्ञायक: भवति] ज्ञायक है [न] ऐसा नहीं है । [स्वयं] स्वयं ही [ज्ञानं परिणमते] ज्ञान-रूप परिणमित होता है [सर्वे अर्था:] और सर्व पदार्थ [ज्ञानस्थिता:] ज्ञान-स्थित हैं ॥३५॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथात्मज्ञानयो: कर्तृकरणताकृतं भेदमपनुदति -
अपृथग्भूतकर्तृकरणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति स एव ज्ञानमन्तर्लीनसाधकतमोष्णत्वशक्ते: स्वतंत्रस्य जातवेदसो दहनक्रियाप्रसिद्धेरुष्णव्यपदेशवत् । न तु यथा पृथग्वर्तिना दात्रेण लावको भवति देवदत्तस्तथा ज्ञानेन ज्ञायको भवत्यात्मा । तथा सत्युभयोरेचेतनत्वमचेतनयो: संयोगेऽपि न परिच्छित्तिनिष्पत्ति: । पृथक्त्ववर्तिनोरपि परिच्छेदाभ्युपगमे परपरिच्छेदेन परस्य परिच्छित्तिर्भूतिप्रभृतीनां च परिच्छित्तिप्रसूतिरनङ्कुशा स्यात् । किंच - स्वतोऽव्यतिरिक्तसमस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतं ज्ञानं स्वयं परिणममानस्य कार्य-भूतसमस्तज्ञेयाकारकारणीभूता: सर्वेऽर्था ज्ञानवर्तिन एव कथंचिद्भवन्ति, किं ज्ञातृज्ञान-विभागक्लेशकल्पनया ॥३५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, आत्मा और ज्ञान का कर्त्तृत्व-करणत्वकृत भेद दूर करते हैं (अर्थात् परमार्थतः अभेद आत्मा में, 'आत्मा ज्ञातृक्रिया का कर्ता है और ज्ञान करण है' ऐसा व्यवहार से भेद किया जाता है, तथापि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं इसलिये अभेदनय से 'आत्मा ही ज्ञान है' ऐसा समझाते हैं) :-
आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और करणत्व की शक्ति-रूप १पारमैश्वर्यवान होने से जो स्वयमेव जानता है (अर्थात् जो ज्ञायक है) वही ज्ञान है; जैसे - जिसमें २साधकतम उष्णत्व-शक्ति अन्तर्लीन है, ऐसी ३स्वतंत्र अग्नि के ४दहन-क्रिया की प्रसिद्धि होने से उष्णता कही जाती है । परन्तु ऐसा नहीं है कि जैसे पृथग्वर्ती हँसिये से देवदत्त काटने वाला कहलाता है उसीप्रकार (पृथग्वर्ती) ज्ञान से आत्मा जानने-वाला (ज्ञायक) है । यदि ऐसा हो तो दोनों के अचेतनता आ जायेगी और अचेतनों का संयोग होने पर भी ज्ञप्ति उत्पन्न नहीं होगी । आत्मा और ज्ञान के पृथग्वर्ती होने पर भी यदि आत्मा के ज्ञप्ति का होना माना जाये तो पर-ज्ञान के द्वारा पर को ज्ञप्ति हो जायेगी और इसप्रकार राख इत्यादि के भी ज्ञप्ति का उद्भव निरंकुश हो जायेगा । ('आत्मा और ज्ञान पृथक् हैं किन्तु ज्ञान आत्मा के साथ युक्त हो जाता है इसलिये आत्मा जानने का कार्य करता है' यदि ऐसा माना जाये तो जैसे ज्ञान आत्मा के साथ युक्त होता है, उसीप्रकार राख, घड़ा, स्तंभ इत्यादि समस्त पदार्थों के साथ युक्त हो जाये और उससे वे सब पदार्थ भी जाननेका कार्य करने लगें; किन्तु ऐसा तो नहीं होता, इसलिये आत्मा और ज्ञान पृथक् नहीं हैं) और, अपने से अभिन्न ऐसे समस्त ज्ञेयाकाररूप परिणमित जो ज्ञान है उसरूप स्वयं परिणमित होनेवाले को, कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों के कारणभूत समस्त पदार्थ ज्ञानवर्ति ही कथंचित् हैं । (इसलिये) ज्ञाता और ज्ञान के विभाग की क्लिष्ट कल्पना से क्या प्रयोजन है? ॥३५॥
१पारमैश्वर्य = परम सामर्थ्य; परमेश्वरता
२साधकतम = उत्कृष्ट साधन वह करण
३जो स्वतंत्र रूपसे करे वह कर्ता
४अग्नि जलानेकी क्रिया करती है, इसलिये उसे उष्णता कहा जाता है