ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 4-5 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं ।
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ॥4॥
तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज ।
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ॥5॥
अर्थ:
[अर्हद्भय:] इस प्रकार अरहन्तों को, [सिद्धेभ्य:] सिद्धों को, [तथा गणधरेभ्य:] आचार्यों को, [अध्यापकवर्गेभ्य:] उपाध्याय-वर्ग को [च एवं] और [सर्वेभ्यः साधुभ्य:] सर्व साधुओं को [नम: कृत्वा] नमस्कार करके [तेषां] उनके [विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं] *विशुद्ध दर्शन-ज्ञान प्रधान आश्रम को [समासाद्य] प्राप्त करके [साम्यं उपसंपद्ये] मैं *साम्य को प्राप्त करता हूँ [यत:] जिससे [निर्वाण संप्राप्ति:] निर्वाण की प्राप्ति होती है ॥४-५॥
*विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान = विशुद्ध दर्शन और ज्ञान जिसमें प्रधान (मुख्य) हैं, ऐसे
*साम्य = समता, समभाव
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ किच्चा कृत्वा । कम् । णमो नमस्कारम् । केभ्यः । अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव अर्हत्सिद्धगणधरो-पाध्यायसाधुभ्यश्चैव । कतिसंख्योपेतेभ्यः । सव्वेसिं सर्वेभ्यः । इति पूर्वगाथात्रयेण कृतपञ्च-परमेष्ठिनमस्कारोपसंहारोऽयम् ॥४॥
एवं पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं कृत्वा किं करोमि । उवसंपयामि उपसंपद्ये समाश्रयामि । किम् । सम्मं साम्यं चारित्रम् । यस्मात् किं भवति । जत्तो णिव्वाणसंपत्ती यस्मान्निर्वाणसंप्राप्तिः । किं कृत्वा पूर्वं । समासिज्ज समासाद्य प्राप्य । कम् । विसुद्धणाणदंसणपहाणासमं विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणप्रधानाश्रमम् । केषां सम्बन्धित्वेन । तेसिं तेषां पूर्वोक्तपञ्चपरमेष्ठिनामिति ।
तथाहि -- अहमाराधकः, एते चार्हदादय आराध्या, इत्याराध्याराधकविकल्परूपो द्वैतनमस्कारो भण्यते । रागाद्युपाधिविकल्परहितपरमसमाधिबलेनात्मन्येवाराध्याराधकभावः पुनरद्वैतनमस्कारो भण्यते । इत्येवं-लक्षणं पूर्वोक्तगाथात्रयकथितप्रकारेण पञ्चपरमेष्ठिसम्बन्धिनं द्वैताद्वैतनमस्कारं कृत्वा । ततः किं करोमि ।रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभावः परमात्मेति भेदज्ञानं, तथा स एव सर्वप्रकारोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वमित्युक्तलक्षणज्ञानदर्शनस्वभावं, मठचैत्यालयादिलक्षणव्यवहाराश्रमाद्विलक्षणं, भावाश्रमरूपं प्रधानाश्रमं प्राप्य, तत्पूर्वकं क्रमायातमपि सरागचारित्रं पुण्यबन्धकारणमिति ज्ञात्वा परिहृत्य निश्चलशुद्धात्मानुभूतिस्वरूपं वीतरागचारित्रमहमाश्रयामीति भावार्थः । एवं प्रथमस्थले नमस्कारमुख्यत्वेन गाथापञ्चकं गतम् ॥५॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब, [किच्चा] करके । क्या करके? [णमो] नमस्कार करके । किन्हे नमस्कार करके? [अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव] अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार करके । कितनी संख्या वाले अरहन्तादि को नमस्कार करके? [सव्वेसिं] सभी को नमस्कार करके ॥४॥
इस प्रकार पंच-परमेष्ठियों को नमस्कार करके क्या करता हूँ ? [उवसंपयामि] आश्रय लेता हूँ । किसका आश्रय लेता हूँ ? [सम्मं] साम्य-चारित्र का । उस चारित्र का आश्रय लेने से क्या होता है? [जत्तो णिव्वाणसंपत्ति] उससे निर्वाण की प्राप्ति होती है । उसका आश्रय लेने से पूर्व क्या करके? [समासेज] प्राप्त करके । किसे प्राप्त करके? [विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं] विशुद्ध ज्ञान दर्शन है लक्षण जिसका, ऐसे प्रधान आश्रम को प्राप्त करके । किनसे सम्बन्धित उस प्रधान आश्रम को प्राप्त करके? [तेसिं] उन पूर्वोक्त पंच-परमेष्ठियों के उस प्रधान आश्रम को प्राप्त करके ।
वह इसप्रकार- मैं आराधक हूँ, और ये अरहंत आदि आराध्य हैं- इसप्रकार आराधक-आराध्य की भिन्नता-रूप नमस्कार को द्वैत नमस्कार कहते हैं, तथा रागादि उपाधि-रूप विकल्पों से रहित परम समाधि के बल से स्वयं में ही आराध्य-आराधक भाव अद्वैत नमस्कार कहलाता है ।
इसप्रकार पूर्वोक्त ३ गाथाओं द्वारा कहे गये पंच-परमेष्ठियों को पूर्वोक्त लक्षण द्वैताद्वैत नमस्कार करके । पंचपरमेष्ठियों को द्वैताद्वैत नमस्कार करके क्या करता हूँ? मठ-चैत्यालय आदि रूप व्यवहार आश्रम से भिन्न लक्षण वाले रागादि से भिन्न अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न यह सुख स्वभावी परमात्मा है- ऐसा भेदज्ञान तथा वह सुख स्वभावी आत्मा ही पूर्णत: उपादेय है- ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व इन लक्षणों वाले ज्ञान-दर्शन स्वभावी भावाश्रम-रूप प्रधान आश्रम को प्राप्त कर उस पूर्वक होने वाला सराग-चारित्र क्रमापतित अवश्यम्भावी होने पर भी पुण्य बंध का कारण है, ऐसा जानकर उसे छोड़कर शुद्धात्मा में स्थिर अनुभूति स्वरूप वीतराग-चारित्र का मैं आश्रय लेता हूँ- यह गाथा का भाव है ॥५॥