ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 40 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति । (40)
तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥41॥
अर्थ:
[ये] जो [अक्षनिपतितं] अक्षपतित अर्थात् इन्द्रिय-गोचर [अर्थं] पदार्थ को [ईहापूवैं:] ईहादिक द्वारा [विजानन्ति] जानते हैं, [तेषां] उनके लिये [परोक्षभूतं] परोक्षभूत पदार्थ को [ज्ञातुं] जानना [अशक्यं] अशक्य है [इति प्रज्ञप्तं] ऐसा सर्वज्ञ-देव ने कहा है ॥४०॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथातीतानागतसूक्ष्मादिपदार्थानिन्द्रियज्ञानं न जानातीति विचारयति --
अत्थं घटपटादिज्ञेयपदार्थं । कथंभूतं । अक्खणिवदिदं अक्षनिपतितं इन्द्रियप्राप्तंइन्द्रियसंबद्धं । इत्थंभूतमर्थं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति अवग्रहेहावायादिक्रमेण ये पुरुषा विजानन्ति हिस्फुटं । तेसिं परोक्खभूदं तेषां सम्बन्धि ज्ञानं परोक्षभूतं सत् णादुमसक्कं ति पण्णत्तं सूक्ष्मादिपदार्थान्ज्ञातुमशक्यमिति प्रज्ञप्तं कथितम् । कैः । ज्ञानिभिरिति । तद्यथा --चक्षुरादीन्द्रियं घटपटादिपदार्थपार्श्वेगत्वा पश्चादर्थं जानातीति सन्निकर्षलक्षणं नैयायिकमते । अथवा संक्षेपेणेन्द्रियार्थयोः संबन्धःसन्निकर्षः स एव प्रमाणम् । स च सन्निकर्ष आकाशाद्यमूर्तपदार्थेषु देशान्तरितमेर्वादि-पदार्थेषु कालान्तरितरामरावणादिषु स्वभावान्तरितभूतादिषु तथैवातिसूक्ष्मेषु परचेतोवृत्ति-पुद्गलपरमाण्वादिषु च न प्रवर्तते । कस्मादिति चेत् । इन्द्रियाणां स्थूलविषयत्वात्, तथैवमूर्तविषयत्वाच्च । ततः कारणादिन्द्रियज्ञानेन सर्वज्ञो न भवति । तत एव चातीन्द्रियज्ञानोत्पत्तिकारणंरागादिविकल्परहितं स्वसंवेदनज्ञानं विहाय पञ्चेन्द्रियसुखसाधनभूतेन्द्रियज्ञाने नानामनोरथविकल्प-
जालरूपे मानसज्ञाने च ये रतिं कुर्वन्ति ते सर्वज्ञपदं न लभन्ते इति सूत्राभिप्रायः ॥४०॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[अत्थं] - घट, पट आदि ज्ञेय पदार्थ । वे ज्ञेय पदार्थ कैसे हैं ? [अक्खणिवदिदं] - इन्द्रियों से सम्बन्धित वे पदार्थ हैं । इसप्रकार के पदार्थ को [ईहापुब्व्वेहिं जे विजाणंति] - जो पुरुष अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदि क्रम से वास्तव में जानते हैं । [तेसिं परोक्खभूदं] - उनका वह ज्ञान परोक्ष होता हुआ [णादुमसक्कं ति पण्णत्तं] - सूक्ष्मादि पदार्थों को जानने में असमर्थ है - ऐसा कहा है । वह परोक्ष ज्ञान उनको जानने में असमर्थ है - ऐसा किनने कहा है? ऐसा ज्ञानियों ने कहा है ।
वह इसप्रकार - नेत्र आदि इन्द्रियाँ घट, पट आदि पदार्थो के निकट जाकर बाद में पदार्थ को जानती हैं - ऐसा सन्निकर्ष का लक्षण नैयायिक मत में कहा गया है । अथवा संक्षेप से, इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध ही सन्निकर्ष है, और वही प्रमाण है । और वह सन्निकर्ष
- आकाशादि अमूर्तिक पदार्थों में,
- दूर देशवर्ती मेरु आदि पदार्थों मे,
- दूर कालवर्ती राम-रावणादि में,
- स्वभाव से अदृश्य भूतादि में,
इसलिये ही अतीन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति के कारणभूत, रागादि विकल्प रहित, स्वसंवेदन ज्ञान को छोड़कर जो पंचेन्द्रिय-सुख के साधनभूत इन्द्रिय ज्ञान में और विविध इच्छाओं के विकल्प-जालरूप मानस ज्ञान में स्नेह करते हैं, वे सर्वज्ञ-पद प्राप्त नहीं करते - यह गाथा का अभिप्राय है ।