ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 53 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिंदियं इंदियं च अत्थेसु । (53)
णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ॥55॥
अर्थ:
[अर्थेषु ज्ञानं] पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान [अमूर्तं मूर्तं] अमूर्त या मूर्त, [अतीन्द्रिय ऐन्द्रिय च अस्ति] अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिय होता है; [च तथा सौख्यं] और इसी-प्रकार (अमूर्त या मूर्त, अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिय) सुख होता है । [तेषु च यत् परं] उसमें जो प्रधान-उत्कृष्ट है [तत् ज्ञेयं] वह उपादेय-रूप जानना ॥५३॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथातीन्द्रियसुखस्योपादेयभूतस्य स्वरूपं प्रपञ्च-यन्नतीन्द्रियज्ञानमतीन्द्रियसुखं चोपादेयमिति, यत्पुनरिन्द्रियजं ज्ञानं सुखं च तद्धेयमिति प्रतिपादनरूपेण
प्रथमतस्तावदधिकारस्थलगाथया स्थलचतुष्टयं सूत्रयति --
अत्थि अस्ति विद्यते । किं कर्तृ । णाणं ज्ञानमिति भिन्नप्रक्रमो व्यवहितसम्बन्धः । किंविशिष्टम् । अमुत्तं मुत्तं अमूर्तं मूर्तं च । पुनरपिकिंविशिष्टम् । अदिंदियं इंदियं च यदमूर्तं तदतीन्द्रियं मूर्तं पुनरिन्द्रियजम् । इत्थंभूतं ज्ञानमस्ति । केषुविषयेषु । अत्थेसु ज्ञेयपदार्थेषु, तहा सोक्खं च तथैव ज्ञानवदमूर्तमतीन्द्रियं मूर्तमिन्द्रियजं च सुखमिति । जं तेसु परं च तं णेयं यत्तेषु पूर्वोक्तज्ञानसुखेषु मध्ये परमुत्कृष्टमतीन्द्रियं तदुपादेयमिति ज्ञातव्यम् । तदेव विव्रियते --
अमूर्ताभिः क्षायिकीभिरतीन्द्रियाभिश्चिदानन्दैकलक्षणाभिः शुद्धात्मशक्तिभिरुत्पन्नत्वादतीन्द्रियज्ञानं सुखं चात्माधीनत्वेनाविनश्वरत्वादुपादेयमिति; पूर्वोक्तामूर्तशुद्धात्मशक्तिभ्यो विलक्षणाभिः क्षायोपशमिकेन्द्रियशक्तिभिरुत्पन्नत्वादिन्द्रियजं ज्ञानं सुखं च परायत्तत्वेन विनश्वरत्वाद्धेयमिति तात्पर्यम् ॥५३॥
एवमधिकारगाथया प्रथमस्थलं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब 'सुखप्रपंच' नामक चतुर्थान्तराधिकार में अठारह गाथायें हैं । यहाँ पाँच स्थल हैं - उनमें से
- पहले स्थल में [अत्थि अमुत्तं] इत्यादि एक अधिकार गाथा,
- इसके बाद दूसरे स्थल में अतीन्द्रियज्ञान की मुख्यता से [जं पेच्छदो] इत्यादि एक गाथा;
- इसके बाद तीसरे स्थल में इन्द्रियज्ञान की मुख्यता से [जीवो सयं अमुत्तो] इत्यादि चार गाथायें;
- तत्पश्चात् चौथे स्थल में अतीन्द्रिय-सुख की मुख्यता से [जादं सयं] इत्यादि चार गाथायें तथा
- तदनन्तर पाँचवे स्थल में इन्द्रियसुख के प्रतिपादन रूप से आठ गाथायें हैं । पांचवें स्थल की उन आठ गाथाओं में से भी
- सर्वप्रथम इन्द्रियसुख को दुःखरूप से स्थापन के लिये [मणुआसुरा] इत्यादि दो गाथायें,
- उसके बाद मुक्तात्माओं को शरीर के अभाव में भी सुख है - यह बताने के लिये शरीर सुख का कारण नहीं है- इस कथनरूप से [पप्पा इट्ठे विसये] इत्यादि दो गाथायें,
- तत्पश्चात् इन्द्रिय-विषय भी सुख के कारण नहीं हैं - इस कथन रूप से [तिमिरहरा] - इत्यादि दो गाथायें और
- इसके बाद सर्वज्ञ नमस्कार की मुख्यता से [तेजोदिट्ठि] - इत्यादि दो गाथायें हैं ।
(अब यहाँ अधिकार - गाथा रूप से पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब उपादेयभूत अतीन्द्रियसुख के स्वरूप का विस्तार करते हुये अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख उपादेय हैं, तथा इन्द्रिय जन्य ज्ञान सुख हेय हैं - इसप्रकार प्रतिपादन रूप से सबसे पहले प्रथम अधिकार स्थल गाथा द्वारा चार स्थलों को सूत्रित करते हैं (व्यवस्थित करते हैं) -
[अत्थि] - है । क्या है- इस क्रिया का कर्ता कौन है? [णाणं] - ज्ञान है - यहाँ भिन्न विशिष्ट क्रम परस्पर सम्बन्ध-रहितता का सूचक है । वह ज्ञान किस विशेषतावाला है? [अमुत्तं मुत्तं] - अमूर्त और मूर्त है । वह ज्ञान और किस विशेषतावाला है? [अदिंदियं इदियं च] - जो ज्ञान अमूर्त है, वह अतीन्द्रिय है और जो मूर्त है, वह इन्द्रियजन्य है । इन विशेषताओं वाला ज्ञान है । इन विशेषताओ वाला ज्ञान किन विषयों में है? [अत्थेसु] - ऐसा ज्ञान, ज्ञेय पदार्थों के सम्बन्ध में है । [तहा सोक्खं च] - उसीप्रकार ज्ञान के समान अमूर्त, अतीन्द्रिय और मूर्त, इन्द्रियजन्य सुख होता है । [जं तेसु परं च तं णेयं] - उन पूर्वोक्त ज्ञान और सुख के मध्य जो उत्कृष्ट अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख है, वह उपादेय है - ऐसा जानना चाहिये ।
उसका ही विस्तार करते हैं – अमूर्त, क्षायिकी, अतीन्द्रिय, चिदानन्द एक लक्षणवाली शुद्धात्म-शक्तियों से उत्पन्न होने के कारण स्वाधीन और अविनश्वर होने से अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख उपादेय है; तथा पूर्वोक्त अमूर्त शुद्धात्म-शक्तियों से विरुद्ध लक्षणवाली क्षायोपशमिक इन्द्रिय- शक्तियों से उत्पन्न होने के कारण पराधीन और विनश्वर होने से इन्द्रियजन्य ज्ञान और सुख हेय है- यह तात्पर्य है ।