ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 57 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा । (57)
उवलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अप्पणो होदि ॥59॥
अर्थ:
[तानि अक्षाणि] वे इन्द्रियाँ [परद्रव्यं] पर द्रव्य हैं [आत्मनः स्वभाव: इति] उन्हें आत्म-स्वभावरूप [न एव भणितानि] नहीं कहा है; [तै:] उनके द्वारा [उपलब्धं] ज्ञात [आत्मनः] आत्मा को [प्रत्यक्षं] प्रत्यक्ष [कथं भवति] कैसे हो सकता है ? ॥५७॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथेन्द्रियज्ञानं न प्रत्यक्षं भवतीति निश्चिनोति -
आत्मानमेव केवलं प्रति नियतं किल प्रत्यक्षं । इदं तु व्यक्तिरिक्तास्तित्वयोगितया परद्रव्यता-मुपगतैरात्मन: स्वभावतां मनागप्यसंस्पृशद्भिरिन्द्रियैरुपलभ्योपजन्यमानं न नामात्मन: प्रत्यक्षं भवितुमर्हति ॥५७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, यह निश्चय करते हैं कि इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है :-
जो केवल आत्मा के प्रति ही नियत हो वह (ज्ञान) वास्तव में प्रत्यक्ष है । यह (इन्द्रियज्ञान) तो, जो भिन्न अस्तित्ववाली होने से परद्रव्यत्व को प्राप्त हुई है, और आत्म-स्वभावत्व को किंचित्मात्र स्पर्श नहीं करतीं (आत्मस्वभावरूप किंचित्मात्र भी नहीं हैं) ऐसी इन्द्रियों के द्वारा उपलब्धि करके (ऐसी इन्द्रियों के निमित्त से पदार्थों को जानकर) उत्पन्न होता है, इसलिये वह (इन्द्रियज्ञान) आत्मा के लिये प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ॥५७॥