ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 68.1 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं ।
तिहुवणपहाणदैयं माहप्पं जस्स सो अरिहो ॥71॥
अर्थ:
जिनके भामण्डल, केवलदर्शन, केवलज्ञान, ऋद्धि, अतीन्द्रिय सुख, ईश्वरता, तीन लोक में प्रधान देव आदि माहात्म्य हैं; वे अरहंत भगवान हैं ॥७१॥
तात्पर्य-वृत्ति:
तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं तिहुवणपहाणदइयं तेजः प्रभामण्डलं,जगत्त्रयकालत्रयवस्तुगतयुगपत्सामान्यास्तित्वग्राहकं केवलदर्शनं, तथैव समस्तविशेषास्तित्वग्राहकं केवलज्ञानं, ऋद्धिशब्देन समवसरणादिलक्षणा विभूतिः, सुखशब्देनाव्याबाधानन्तसुखं, तत्पदाभिलाषेण इन्द्रादयोऽपि भृत्यत्वं कुर्वन्तीत्येवंलक्षणमैश्वर्यं, त्रिभुवनाधीशानामपि वल्लभत्वं दैवं भण्यते । माहप्पं जस्स सो अरिहो इत्थंभूतं माहात्म्यं यस्य सोऽर्हन् भण्यते । इति वस्तुस्तवनरूपेण नमस्कारंकृतवन्तः ॥७१॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
(अब सर्वज्ञ-नमस्कार परक दो गाथाओं वाला पाँचवे स्थल का चौथा भाग प्रारम्भ होता है ।)
[तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं तिहुवणपहाणदइयं] -
- प्रभामण्डल,
- तीनलोक तीनकालवर्तीं सम्पूर्ण वस्तुओं के सामान्य-अस्तित्व को एक साथ ग्रहण करनेवाला केवलदर्शन,
- उसीप्रकार सभी के विशेष-अस्तित्व को ग्रहण करने वाला केवल-ज्ञान,
- ऋद्धि शब्द से समवशरणादि लक्षण विभूति,
- सुख शब्द से अव्याबाध अनंतसुख,
- उस पद की इच्छा से इन्द्र आदि भी भृत्यता (सेवा-नौकरी) करते हैं - इस लक्षण वाली ईश्वरता,
- तीन-लोकों के राजाओं के भी प्रिय-स्वामी देव कहे जाते हैं
इसप्रकार वस्तु-स्तवनरूप से नमस्कार किया गया है ।