ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 69 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु । (69)
उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ॥73॥
अर्थ:
[देवतायतिगुरुपूजासु] देव, गुरु और यति की पूजा में, [दाने च एव] दान में [सुशीलेषु वा] एवं सुशीलों में [उपवासादिषु] और उपवासादिक में [रक्त: आत्मा] लीन आत्मा [शुभोपयोगात्मक:] शुभोपयोगात्मक है ॥६९॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ यद्यपिपूर्वं गाथाषट्केनेन्द्रियसुखस्वरूपं भणितं तथापि पुनरपि तदेव विस्तरेण कथयन् सन् तत्साधकं
शुभोपयोगं प्रतिपादयति, अथवा द्वितीयपातनिका -- पीठिकायां यच्छुभोपयोगस्वरूपं सूचितं तस्येदानीमिन्द्रियसुखविशेषविचारप्रस्तावे तत्साधकत्वेन विशेषविवरणं करोति --
देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु देवतायतिगुरुपूजासु चैव दाने वा सुशीलेषु उववासादिसु रत्तो तथैवोपवासादिषु चरक्त आसक्तः अप्पा जीवः सुहोवओगप्पगो शुभोपयोगात्मको भण्यते इति । तथाहि --
देवता निर्दोषिपरमात्मा, इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूपप्रयत्नपरो यतिः, स्वयं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकस्तदर्थिनांभव्यानां जिनदीक्षादायको गुरुः, पूर्वोक्तदेवतायतिगुरूणां तत्प्रतिबिम्बादीनां च यथासंभवं द्रव्यभावरूपा पूजा, आहारादिचतुर्विधदानं च आचारादिकथितशीलव्रतानि तथैवोपवासादिजिनगुणसंपत्त्यादिविधिविशेषाश्व । एतेषु शुभानुष्ठानेषु योऽसौ रतः द्वेषरूपे विषयानुरागरूपे चाशुभानुष्ठाने विरतः, स जीवः शुभोपयोगी भवतीति सूत्रार्थः ॥७३॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
(अब यहाँ द्वितीयाधिकार के अन्तर्गत प्रथम ज्ञानकण्डिका रूप प्रथम अन्तराधिकार का चार स्वतंत्र गाथा प्रतिपादक चार गाथाओं में निबद्ध पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)
वह इसप्रकार - अब यद्यपि पहले छह गाथाओं (६५ से ७०) द्वारा इन्द्रिय-सुख का स्वरूप कहा गया है, तथापि उसे ही और भी विस्तार से कहते हुये उसके साधक शुभोपयोग का प्रतिपादन करते हैं ।
अथवा दूसरी पातनिका - पीठिका में जिस शुभोपयोग के स्वरूप की सूचना दी थी उसका इस समय इन्द्रिय-सुख का साधक होने से इन्द्रिय-सुख के विशेष विचार के प्रसंग में विशेष विवरण करते हैं -
[देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु] - देवता, यति और गुरु की पूजा में तथा दान और सुशीलों में [उववासादिसु रत्तो] - और उसी प्रकार उपवासादि में आसक्त-लीन [अप्पा] - जीव [सुहोवओगप्पगो] - शुभोपयोगात्मक कहा गया है ।
वह इसप्रकार -
- निर्दोषी परमात्मा देव हैं,
- इन्द्रिय-जय से शुद्धात्म-स्वरूपलीनता में प्रयत्नशील यति हैं,
- स्वयं भेदाभेद रत्नत्रय के आराधक तथा उस रत्नत्रय के अभिलाषी भव्यों को जिनदीक्षा देने वाले गुरु हैं
पूर्वोक्त देवता, यति, गुरुओं तथा उनके प्रतिबिम्बादि के प्रति यथासम्भव द्रव्य - भावादि पूजा और आहारादि चार प्रकार का दान तथा आचारादि ग्रंथों (चरणानुयोग के ग्रंथों) में कहे हुये शील व्रत और उसी प्रकार जिनगुणसम्पत्ति आदि विधि-विशेषरूप उपवासादि । जो इन शुभ अनुष्ठानों में लीन है और द्वेषरूप, विषयानुरागरूप अशुभ-अनुष्ठानों से विरक्त है, वह जीव शुभोपयोगी है - यह गाथा का अर्थ है ।