ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 74 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि । (74)
जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं ॥78॥
अर्थ:
[यदि हि] (पूर्वोक्त पकार से) यदि [परिणामसमुद्भवानी] (शुभोपयोग-रूप) परिणाम से उत्पन्न होने वाले [विविधानि पुण्यानि च] विविध पुण्य [संति] विद्यमान हैं, [देवतान्तानां जीवानां] तो वे देवों तक के जीवों को [विषयतृष्णां] विषयतृष्णा [जनयन्ति] उत्पन्न करते हैं ॥७४॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैवमभ्युपगतानां पुण्यानां दु:खबीजहेतुत्वमुद्भावयति -
यदि नामैवं शुभोपयोगपरिणामकृतसमुत्पत्तीन्यनेकप्रकाराणि पुण्यानि विद्यंत इत्यभ्युपगम्यते, तदा तानि सुधाशनानप्यवधिं कृत्वा समस्तसंसारिणां विषयतृष्णामवश्यमेव समुत्पादयन्ति । न खलु तृष्णामन्तरेण दुष्टशोणित इव जलूकानां समस्तसंसारिणां विषयेषु प्रवृत्तिरवलोक्यते । अवलोक्यते च सा । ततोऽस्तु पुण्यानां तृष्णायतनत्वमबाधितमेव ॥७४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
यदि इस प्रकार शुभोपयोग परिणाम से उत्पन्न होने वाले अनेक पकार के पुण्य विद्यमान हैं ऐसा स्वीकार किया है, तो वे (पुण्य) देवों तक के समस्त संसारियों को विषय-तृष्णा अवश्यमेव उत्पन्न करते हैं (ऐसा भी स्वीकार करना पड़ता है) वास्तव में तृष्णा के बिना; जैसे जोंक (गोंच) को दूषित रक्त में, उसी प्रकार समस्त संसारियों को विषयों में प्रवृत्ति दिखाई न दे; किन्तु वह तो दिखाई देती है । इसलिये पुण्यों की तृष्णायतनता अबाधित ही है (अर्थात् पुण्य तृष्णा के घर हैं ऐसा अविरोध रूप से सिद्ध होता है) ॥७४॥