ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 76 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । (76)
जं इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥80॥
अर्थ:
[यत्] जो [इन्द्रियै: लब्धं] इन्द्रियों से प्राप्त होता है [तत् सौख्य] वह सुख [सपरं] पर-सम्बन्ध-युक्त, [बाधासहितं] बाधासहित [विच्छिन्नं] विच्छिन्न [बंधकारणं] बंधका कारण [विषमं] और विषम है; [तथा] इस प्रकार [दुःखम् एव] वह दुःख ही है ॥७६॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ पुनरपि पुण्यजन्यस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दु:खत्वमुद्योतयति -
सपररत्वात् बाधासहितत्वात् विच्छिन्नत्वात् बंधकारणत्वात् विषमत्वाच्च पुण्यजन्यमपीन्द्रियसुखं दु:खमेव स्यात् । सपरं हि सत् परप्रत्ययत्वात् पराधीनतया, बाधासहितं हि सदशनायोदन्यावृषस्यादिभिस्तृष्णाव्यक्तिभिरुपेतत्वात् अत्यन्ताकुलतया, विच्छिन्नं हि सदसद्वेद्योदयप्रच्यावितसद्वेद्योदयप्रवृत्ततयाऽनुभवत्वादुद्भूतविपक्षतया, बंधकारणं हि सद्विषयोपभोगमार्गानुलग्नरागादिदोषसेनानुसारसंगच्छमानघनकर्मपांसुपटलत्वादुदर्कदु:सहतया, विषमं हि सदभिवृद्धिपरिहाणिपरिणतत्वादत्यन्तविसंष्ठुलतया च दु:खमेव भवति । अथैवं पुण्यमपि पापवद् दु:खसाधनमायातम् ॥७६॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
पर-सम्बन्ध-युक्त होने से, बाधा सहित होने से, विच्छन्न होने से, बन्ध का कारण होने से, और विषम होने से - इन्द्रियसुख, पुण्यजन्य होने पर भी, दुःख ही है ।
इन्द्रियसुख
- 'पर के सम्बन्धवाला' होता हुआ पराश्रयता के कारण पराधीन है,
- बाधासहित होता हुआ खाने, पीने और मैथुन की इच्छा इत्यादि तृष्णा की व्यक्तियों से (तृष्णा की प्रगटताओं से) युक्त होने से अत्यन्त आकुल है,
- 'विच्छिन्न' होता हुआ असाता-वेदनीय का उदय जिसे १च्युत कर देता है ऐसे साता-वेदनीय के उदय से प्रवर्तमान होता हुआ अनुभव में आता है, इसलिये विपक्ष की उत्पत्तिवाला है,
- 'बन्ध का कारण' होता हुआ विषयोपभोग के मार्ग में लगी हुई रागादि दोषों की सेना के अनुसार कर्म-रज के २घन-पटल का सम्बन्ध होने के कारण परिणाम से दु:सह है, और
- 'विषम' होता हुआ हानि- वृद्धि में परिणमित होने से अत्यन्त अस्थिर है;
१च्युत करना = हटा देना; पदभ्रष्ट करना; (साता-वेदनीय का उदय उसकी स्थिति अनुसार रहकर हट जाता है और असाता-वेदनीय का उदय आता है)
२घन पटल = सघन (गाढ) पर्त, बड़ा झुण्ड