ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 78 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
एवं विदिदत्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा । (78)
उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं ॥82॥
अर्थ:
[एवं] इसप्रकार [विदितार्थ:] वस्तु-स्वरूप को जानकर [यः] जो [द्रव्येषु] द्रव्यों के प्रति [रागं द्वेषं वा] राग या द्वेष को [न एति] प्राप्त नहीं होता, [स] वह [उपयोगविशुद्ध:] उपयोगविशुद्ध होता हुआ [देहोद्भवं दुःखं] देहोत्पन्न दुःख का [क्षपयति] क्षय करता है ॥७८॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैवमवधारितशुभाशुभोपयोगाविशेष: समस्तमपि रागद्वेषद्वैतमपहासयन्नशेषदु:खक्षयाय सुनिश्चितमना: शुद्धोपयोगमधिवसति -
यो हि नाम शुभानामशुभानां च भावानामविशेषदर्शनेन सम्यक्परिच्छिन्नवस्तुस्वरूप: स्वपरविभागावस्थितेषु समग्रेषु ससमग्रपर्यायेषु द्रव्येषु रागं द्वेषं चाशेषमेव परिवर्जयति सकिलै कान्तेनोपयोगविशुद्धतया परित्यक्तपरद्रव्यालम्बनोऽग्निरिवाय:पिण्डादननुष्ठिताय:सार: प्रचण्डघनघातस्थानीयं शारीरं दु:खं क्षपयति । ततो ममायमेवैक: शरणं शुद्धोपयोग: ॥७८॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जो जीव शुभ और अशुभ भावों के अविशेष दर्शन से (समानता की श्रद्धा से) वस्तु-स्वरूप को सम्यक-प्रकार से जानता है, स्व और पर दो विभागों में रहने वाली, समस्त पर्यायों सहित समस्त द्रव्यों के प्रति राग और द्वेष को निरवशेष रूप से छोड़ता है, वह जीव, एकान्त से उपयोग-विशुद्ध (सर्वथा शुद्धोपयोगी) होने से जिसने पर-द्रव्य का आलम्बन छोड़ दिया है ऐसा वर्तता हुआ-लोहे के गोले में से लोहे के १सार का अनुसरण न करने वाली अग्नि की भाँति-प्रचंड घन के आघात समान शारीरिक दुःख का क्षय करता है । (जैसे अग्नि लोहे के तप्त गोले में से लोहे के सत्व को धारण नहीं करती इसलिये अग्नि पर प्रचंड घन के प्रहार नहीं होते, उसी प्रकार पर-द्रव्य का आलम्बन न करने वाले आत्मा को शारीरिक दुःख का वेदन नहीं होता ।) इसलिये यही एक शुद्धोपयोग मेरी शरण है ॥७८॥
१सार = सत्व, घनता, कठिनता