ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 7 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥7॥
अर्थ:
[चारित्रं] चारित्र [खलु] वास्तव में [धर्म:] धर्म है । [यः धर्म:] जो धर्म है [तत् साम्यम्] वह साम्य है [इति निर्दिष्टम्] ऐसा (शास्त्रों में) कहा है । [साम्यं हि] साम्य [मोहक्षोभविहीनः] मोह-क्षोभ रहित ऐसा [आत्मनः परिणाम:] आत्मा का परिणाम (भाव) है ॥७॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ चारित्रस्वरूपं विभावयति -
स्वरूपे चरणं चारित्रं, स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थ: । तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्म: । शुद्धचैतन्य-प्रकाशनमित्यर्थ: । तदेव च यथावस्थितात्मगुणत्वात्साम्यम् । साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयो-दयापादितसमस्तमोहक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणाम: ॥७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब चारित्र का स्वरूप व्यक्त करते हैं :-
स्वरूप में चरण करना (रमना) सो चारित्र है । स्वसमय में प्रवृत्ति करना (अपने स्वभाव में प्रवृत्ति करना) ऐसा इसका अर्थ है । यही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है । शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना यह इसका अर्थ है । वही यथावस्थित आत्म गुण होने से (विषमता-रहित सुस्थित आत्मा का गुण होने से) साम्य है । और साम्य, दर्शन-मोहनीय तथा चारित्र-मोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभ के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार ऐसा जीव का परिणाम है ॥७॥