ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 80 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । (80)
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥86॥
अर्थ:
[यः] जो [अर्हन्तं] अरहन्त को [द्रव्यत्व-गुणत्वपर्ययत्वै:] द्रव्यपने गुणपने और पर्यायपने [जानाति] जानता है, [सः] वह [आत्मानं] (अपने) आत्मा को [जानाति] जानता है और [तस्य मोह:] उसका मोह [खलु] अवश्य [लयं याति] लय को प्राप्त होता है ॥८०॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ 'चत्ता पावारंभं' इत्यादिसूत्रेण यदुक्तं शुद्धोपयोगाभावे मोहादिविनाशो न भवति, मोहादि-विनाशाभावे शुद्धात्मलाभो न भवति, तदर्थमेवेदानीमुपायं समालोचयति --
जो जाणदि अरहंतं यः कर्ताजानाति । कम् । अर्हन्तम् । कैः कृत्वा । दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं द्रव्यत्वगुणत्वपर्यायत्वैः । सो जाणदि अप्पाणं स पुरुषोऽर्हत्परिज्ञानात्पश्चादात्मानं जानाति, मोहो खलु जादि तस्स लयं तत आत्मपरिज्ञानात्तस्य मोहोदर्शनमोहो लयं विनाशं क्षयं यातीति । तद्यथा --
केवलज्ञानादयो विशेषगुणा, अस्तित्वादयःसामान्यगुणाः, परमौदारिकशरीराकारेण यदात्मप्रदेशानामवस्थानं स व्यञ्जनपर्यायः, अगुरुलघुक गुण-षड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्यायाः, एवंलक्षणगुणपर्यायाधारभूतममूर्तमसंख्यातप्रदेशं शुद्धचैतन्यान्वयरूपं द्रव्यं चेति । इत्थंभूतं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं पूर्वमर्हदभिधाने परमात्मनि ज्ञात्वापश्चान्निश्चयनयेन तदेवागमसारपदभूतयाऽध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मभावनाभिमुखरूपेण सविकल्पस्व-संवेदनज्ञानेन तथैवागमभाषयाधःप्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञदर्शनमोहक्षपणसमर्थपरिणाम-विशेषबलेन पश्चादात्मनि योजयति । तदनन्तरमविकल्पस्वरूपे प्राप्ते, यथा पर्यायस्थानीयमुक्ताफ लानिगुणस्थानीयं धवलत्वं चाभेदनयेन हार एव, तथा पूर्वोक्तद्रव्यगुणपर्याया अभेदनयेनात्मैवेति भावयतो
दर्शनमोहान्धकारः प्रलीयते । इति भावार्थः ॥८६॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जो जाणदि अरहंतं] - कर्तारूप जो जानता है - इस कथन में कर्ता कारक में प्रयुक्त जो जानता है । किसे जानता है? जो अरहन्त को जानता है । किस रूप से अरहंत को जानता है? [दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं] - जो द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से अरहन्त को जानता है । [सो जाणदि अप्पाणं] - वह पुरुष अरहन्त के परिज्ञान के बाद आत्मा को जानता है, [मोहो खलु जादि तस्स लयं] - उस आत्म-परिज्ञान से उसका मोह-दर्शनमोह विनाश को प्राप्त होता है ।
वह इसप्रकार - केवलज्ञानादि विशेषगुण, अस्तित्वादि सामान्यगुण, परमौदारिक शरीराकार-रूप जो आत्म-प्रदेशों का अवस्थान (आकार) वह व्यंजन-पर्याय, अगुरुलघुक गुण की षडवृद्धि-हानि रूप से प्रति-समय होने वाली अर्थ-पर्यायें - इन लक्षण वाले गुण-पर्यायों का आधारभूत अमूर्त असंख्यात प्रदेशी शुद्ध चैतन्य के अन्वयरूप (नित्य-वही-वही) द्रव्य है ।
इसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप को पहले कहे हुये अरहन्त नामक परमात्मा में जानकर, तदनन्तर निश्चय नय से उसी आगम के सारपदभूत अध्यात्म-भाषा (की अपेक्षा) से स्वशुद्धात्म-भावना के सम्मुख रूप सविकल्प 'स्वसंवेदन ज्ञान से', - उसीप्रकार आगम भाषा (की अपेक्षा) से अध:प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण नामक दर्शनमोह के क्षय में समर्थ परिणाम-विशेष के बल से पश्चात् (अपने ज्ञान को) आत्मा में जोड़ता है ।
इसके बाद निर्विकल्प स्वरूप प्राप्त होने पर, जैसे अभेदनय से पर्याय स्थानीय मुक्ताफल (मोती) और गुण स्थानीय धवलता (सफेदी) हार ही है, उसीप्रकार अभेद नय से पूर्वोक्त द्रव्य-गुण-पर्याय आत्मा ही हैं - इसप्रकार परिणमित होता हुआ (उसका) दर्शन-मोहरूप अन्धकार विनाश को प्राप्त होता है - यह गाथा का भाव है ।