ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 87 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया । (87)
तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो ॥94॥
अर्थ:
[द्रव्याणि] द्रव्य, [गुणा:] गुण [तेषां पर्याया:] और उनकी पर्यायें [अर्थसंज्ञया] 'अर्थ' नाम से [भणिता:] कही गई हैं । [तेषु] उनमें, [गुणपर्यायाणाम् आत्मा द्रव्यम्] गुण-पर्यायों का आत्मा द्रव्य है (गुण और पर्यायों का स्वरूप-सत्त्व द्रव्य ही है, वे भिन्न वस्तु नहीं हैं) [इति उपदेश:] इसप्रकार (जिनेन्द्र का) उपदेश है ॥८७॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ द्रव्यगुणपर्याया-णामर्थसंज्ञां कथयति --
दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया द्रव्याणि गुणास्तेषां द्रव्याणांपर्यायाश्च त्रयोऽप्यर्थसंज्ञया भणिताः कथिता अर्थसंज्ञा भवन्तीत्यर्थः । तेसु तेषु त्रिषु द्रव्यगुणपर्यायेषुमध्ये गुणपज्जयाणं अप्पा गुणपर्यायाणां संबंधी आत्मा स्वभावः । कः इति पृष्टे । दव्व त्ति उवदेसो द्रव्यमेव स्वभाव इत्युपदेशः, अथवा द्रव्यस्य कः स्वभाव इति पृष्टे गुणपर्यायाणामात्मा एव स्वभाव इति । अथ विस्तरः — अनन्तज्ञानसुखादिगुणान् तथैवामूर्तत्वातीन्द्रियत्वसिद्धत्वादिपर्यायांश्चइयर्ति गच्छति परिणमत्याश्रयति येन कारणेन तस्मादर्थो भण्यते । किम् । शुद्धात्मद्रव्यम् ।तच्छुद्धात्मद्रव्यमाधारभूतमिय्रति गच्छन्ति परिणमन्त्याश्रयन्ति येन कारणेन ततोऽर्था भण्यन्ते । के ते ।ज्ञानत्वसिद्धत्वादिगुणपर्यायाः । ज्ञानत्वसिद्धत्वादिगुणपर्यायाणामात्मा स्वभावः क इति पृष्टे शुद्धात्म-द्रव्यमेव स्वभावः, अथवा शुद्धात्मद्रव्यस्य कः स्वभाव इति पृष्टे पूर्वोक्तगुणपर्याया एव । एवंशेषद्रव्यगुणपर्यायाणामप्यर्थसंज्ञा बोद्धव्येत्यर्थः ॥९४॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया] - द्रव्य-गुण और उन द्रव्यों की पर्यायें- तीनों को 'अर्थ' नाम से कहा गया है - इन सभी का अर्थ नाम है - यह अर्थ - भाव है । [तेसु] - उन तीनों द्रव्य-गुण-पर्यायों के मध्य [गुणपज्जयाणं अप्पा] - गुण-पर्यायों का सम्बन्धी आत्मा - स्वभाव है । गुण-पर्यायों का सम्बन्धी आत्मा कौन है? ऐसा पूछने पर [दव्व त्ति उवदेसो] - द्रव्य ही उन गुण-पर्यायों का आत्मा-स्वभाव है - ऐसा उपदेश है । अथवा - द्रव्य का क्या स्वभाव है? ऐसा पूछने पर गुण-पर्यायों का आत्मा - स्वरूप ही उसका स्वभाव है - ऐसा उपदेश है ।
अब यहाँ उसका विस्तार करते है- जिस कारण अनन्तज्ञान-सुख आदि गुणों को और उसीप्रकार अमूर्तत्व, अतीन्द्रियत्व, सिद्धत्व आदि पर्यायों को प्राप्त करता है - उसरूप से परिणमन करता है - उनका आश्रय लेता है, उसकारण अर्थ कहलाता है । अर्थ कौन कहलाता है? शुद्धात्म-द्रव्य अर्थ कहलाता है ।
जिस कारण आधारभूत उस शुद्धात्मद्रव्य को प्राप्त करते हैं - उसरूप से परिणमन करते है - उसका आश्रय लेते हैं, उस कारण वे अर्थ कहलाते हें। वे अर्थ कहलाने वाले कौन हैं? वे अर्थ कहलाने वाले ज्ञानत्व आदि गुण तथा सिद्धत्वादि पर्यायें हैं ।
ज्ञानत्व-सिद्धत्वादि गुण-पर्यायों का आत्मा अर्थात् स्वभाव क्या है? ऐसा पूछने पर शुद्धात्मद्रव्य ही स्वभाव है, अथवा शुद्धात्मद्रव्य का स्वभाव क्या है? ऐसा पूछने पर पूर्वोक्त गुण-पर्यायें ही उसका स्वभाव है।
इसीप्रकार शेष द्रव्य-गुण-पर्यायों की भी अर्थ संज्ञा जानना चाहिये - यह अर्थ है ।