ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 94 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जे पज्जएसु णिरदा जीवा परसमइग त्ति णिद्दिट्ठा । (94)
आदसहावम्हि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥104॥
अर्थ:
जो जीव पर्यायों में लीन हैं वे परसमय हैं -ऐसा कहा गया है; जो जीव आत्म-स्वभाव में स्थित हैं वे स्वसमय जानना चाहिये ॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ प्रसंगायातां परसमयस्वसमयव्यवस्थां कथयति --
जे पज्जएसु णिरदा जीवा ये पर्यायेषु निरताः जीवाः परसमइग त्ति णिद्दिट्ठा ते परसमया इति निर्दिष्टाः कथिताः । तथाहितथाहि —मनुष्यादिपर्यायरूपोऽहमित्यहङ्कारो भण्यते, मनुष्यादिशरीरं तच्छरीराधारोत्पन्नपञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वरूपं च ममेति ममकारो भण्यते, ताभ्यां परिणताः ममक ाराहङ्काररहितपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतेश्च्युता ये ते कर्मोदयजनितपरपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो भण्यन्ते । आदसहावम्हि ठिदा ये पुनरात्मस्वरूपेस्थितास्ते सगसमया मुणेदव्वा स्वसमया मन्तव्या ज्ञातव्या इति । तद्यथातद्यथा --
अनेकापवरक संचारितैक -रत्नप्रदीप इवानेक शरीरेष्वप्येकोऽहमिति दृढसंस्कारेण निजशुद्धात्मनि स्थिता ये ते कर्मोदयजनित-
पर्यायपरिणतिरहितत्वात्स्वसमया भवन्तीत्यर्थः ॥१०४॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जे पज्जयेसु णिरदा जीवा] जो पर्यायों में लीन-आसक्त जीव हैं, [परसमयिग त्ति णिद्दिट्ठा] वे परसमय है- ऐसा कहा गया है । वह इसप्रकार -- मनुष्यादि पर्यायरूप मैं हूँ - ऐसी परिणति को अहंकार कहते हैं । मनुष्यादि शरीर, उस शरीर के आधार से उत्पन्न पाँच इन्द्रियाँ, उनके विषय तथा तज्जन्य सुख -ये मेरे है- ऐसी परिणति ममकार हैं, ममकार- अहंकार रहित परम चैतन्य चमत्कार परिणति से रहित जो जीव उन दोनों रूप परिणत हैं वे जीव कर्म के उदय में उत्पन्न पर-पर्याय में लीन - आसक्त होने से परसमय- मिथ्यादृष्टि कहे गये हैं । [आदसहावम्मिठिदा] और जो आत्म- स्वरूप में स्थित है- लीन हैं [ते सगसमया मुणेदव्वा] वे स्वसमय हैं, ऐसा मानना-जानना चाहिये । वह इसप्रकार-जो अनेक कमरों में ले जाये गये एक रत्नदीप के समान अनेक शरीरों में भी 'मैं एक हूँ' इसप्रकार के दृढ़ संस्कार से निज शुद्धात्मा में स्थित रहते हैं -लीन रहते हैं वे कर्म के उदय से उत्पन्न पर्यायरूप परिणमन से रहित होने के कारण स्वसमय हैं- यह अर्थ है ॥१०४॥