ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 9 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो ।
सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ॥9॥
अर्थ:
[जीव:] जीव [परिणामस्वभाव:] परिणामस्वभावी होने से [यदा] जब [शुभेन वा अशुभेन] शुभ या अशुभ भावरूप [परिणमति] परिणमन करता है [शुभ: अशुभ:] तब शुभ या अशुभ (स्वयं ही) होता है, [शुद्धेन] और जब शुद्धभावरूप परिणमित होता है [तदा शुद्ध: हि भवति] तब शुद्ध होता है ॥९॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वं निश्चिनोति –
यदाऽयमात्मा शुभेनाशुभेन वा रागभावेन परिणमति तदा जपातापिच्छरागपरिणतस्फटिक-वत् परिणामस्वभाव: सन् शुभोऽशुभश्च भवति । यदा पुन: शुद्धेनारागभावेन परिणमति तदा शुद्धारागपरिणतस्फटिकवत्परिणामस्वभाव: सन् शुद्धो भवतीति सिद्धं जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वम् ।
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब यहाँ जीव का शुभ, अशुभ और शुद्धत्व (अर्थात् यह जीव ही शुभ, अशुभ और शुद्ध है ऐसा) निश्चित करते हैं -
जब यह आत्मा शुभ या अशुभ राग भाव से परिणमित होता है तब जपा कुसुम या तमाल पुष्प के (लाल या काले) रंग-रूप परिणमित स्फटिक की भाँति, परिणाम-स्वभाव होने से शुभ या अशुभ होता है (उस समय आत्मा स्वयं ही शुभ या अशुभ है); और जब वह शुद्ध अरागभाव से परिणमित होता है तब शुद्ध अरागपरिणत (रंग रहित) स्फटिक की भाँति, परिणाम-स्वभाव होने से शुद्ध होता है । (उस समय आत्मा स्वयं ही शुद्ध है) । इस प्रकार जीव का शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध हुआ ॥९॥