ग्रन्थ:प्रवचनसार - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, यहाँ (भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य विरचित) गाथा-सूत्रों का अवतरण किया जाता है --
यह *स्वसंवेदनप्रत्यक्ष *दर्शन-ज्ञान-सामान्यस्वरूप मैं, जो
- सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा वन्दित होने से तीन लोक के एक (अनन्य सर्वोत्कृष्ट) गुरु हैं,
- जिनमें घाति कर्म-मल के धो डालने से जगत पर अनुग्रह करने में समर्थ अनन्त शक्ति-रूप परमेश्वरता है,
- जो तीर्थता के कारण योगियों को तारने में समर्थ हैं,
- धर्म के कर्ता होने से जो शुद्ध स्वरूप परिणति के कर्ता हैं,
- उन परम भट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर, परमपूज्य, जिनका नाम ग्रहण भी अच्छा है
*स्वसंवेदनप्रत्यक्ष = स्वानुभवसे प्रत्यक्ष (दर्शनज्ञानसामान्य स्वानुभवसे प्रत्यक्ष है)
*दर्शन-ज्ञान-सामान्यस्वरूप = दर्शनज्ञानसामान्य अर्थात् चेतना जिसका स्वरूप है ऐसा
तत्पश्चात जो विशुद्ध सत्तावान् होने से ताप से उत्तीर्ण हुए (अन्तिम ताव दिये हुए अग्नि में से बाहर निकले हुए) उत्तम सुवर्ण के समान शुद्ध दर्शन-ज्ञान स्वभाव को प्राप्त हुए हैं, ऐसे शेष *अतीत तीर्थंकरों को और सर्व सिद्धों को तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार युक्त होने से जिन्होंने परम शुद्ध उपयोग भूमिका को प्राप्त किया है, ऐसे श्रमणों को-- जो कि आचार्यत्व, उपाध्यायत्व और साधुत्वरूप विशेषों से विशिष्ट (भेदयुक्त) हैं उन्हें -- नमस्कार करता हूँ ॥२॥
<sup*अतीत = गत, हो गये, भूतकालीन
तत्पश्चात् इन्हीं पंचपरमेष्ठियों को, उस-उस व्यक्ति में (पर्याय में) व्याप्त होनेवाले सभी को, वर्तमान में इस क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभाव होने से और महाविदेहक्षेत्र में उनका सद्भाव होने से मनुष्य-क्षेत्र में प्रवर्तमान तीर्थ-नायक युक्त वर्तमान काल गोचर करके, (-महाविदेहक्षेत्र में वर्तमान श्री सीमधरादि तीर्थंकरों की भाँति मानों सभी पंच परमेष्ठी भगवान वर्तमान काल में ही विद्यमान हों, इस प्रकार अत्यन्त भक्ति के कारण भावना भाकर-चिंतवन करके उन्हें) युगपद् युगपद् अर्थात् समुदायरूप से और प्रत्येक प्रत्येक को अर्थात् व्यक्तिगत रूप से *संभावना करता हूँ । किस प्रकार से संभावना करता हूँ? मोक्षलक्ष्मी के स्वयंवर समान जो परम निर्ग्रंथता की दीक्षा का उत्सव (आनन्दमय प्रसंग) है उसके उचित मंगलाचरण-भूत जो *कृतिकर्म शास्त्रोपदिष्ट वन्दनोच्चार (कृतिकर्मशास्त्र मे उपदेशे हुए स्तुति-वचन) के द्वारा सम्भावना करता हूँ ॥३॥
*संभावना = संभावना करना, सन्मान करना, आराधन करना
*कृतिकर्म = अंगबाह्य १४ प्रकीर्णकों में छट्टा प्रकीर्णक कृतिकर्म है जिसमें नित्य-नैमित्तिक क्रिया का वर्णन है
अब इस प्रकार अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को प्रणाम और वन्दनोच्चार से प्रवर्तमान द्वैत के द्वारा, भाव्यभावक भाव से उत्पन्न अत्यन्त गाढ इतरेतर मिलन के कारण समस्त स्वपर का विभाग विलीन हो जाने से जिसमें अद्वैत प्रवर्तमान है, ऐसा नमस्कार करके, उन्हीं अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व-साधुओं के आश्रम को , --जो कि (आश्रम) विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-प्रधान होने से सहजशुद्ध-दर्शन-ज्ञान स्वभाव वाले आत्म तत्त्व का श्रद्धान और ज्ञान जिसका लक्षण है ऐसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सम्पादक है उसे-- प्राप्त करके, सम्यग्दर्शन-ज्ञान सम्पन्न होकर, जिसमें कषाय-कण विद्यमान होने से जीव को जो पुण्य बंध की प्राप्ति का कारण है ऐसे सराग चारित्र को -- वह (सराग चारित्र) क्रम से आ पड़ने पर भी (गुणस्थान-आरोहण के क्रम में बलात् अर्थात् चारित्रमोह के मन्द उदय से आ पड़ने पर भी) -- दूर उल्लंघन करके, जो समस्त कषाय-क्लेश-रूपी कलंक से भिन्न होने से निर्वाण प्राप्ति का कारण है ऐसे वीतराग-चारित्र नामक साम्य को प्राप्त करता हूँ । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की ऐक्य स्वरूप एकाग्रता को मैं प्राप्त हुआ हूँ यह (इस) प्रतिज्ञा का अर्थ है । इस प्रकार तब इन्होंने (श्रीमद्भगवत्कृन्दकुन्दाचार्य देव ने) साक्षात् मोक्षमार्ग को अंगीकार किया ॥४-५॥
अब वे ही (कुन्दकुन्दाचार्यदेव) वीतरागचारित्र इष्ट-फल वाला है इसलिये उसकी उपादेयता और सरागचारित्र अनिष्ट फलवाला है इसलिये उसकी हेयता का विवेचन करते हैं : -
दर्शन-ज्ञान प्रधान चारित्र से, यदि वह (चारित्र) वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है; और उससे ही, यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र-असुरेन्द्र-नरेन्द्र के वैभव--क्लेश रूप बन्ध की प्राप्ति होती है । इसलिये मुमुक्षुओं को इष्ट फल-वाला होने से वीतराग चारित्र ग्रहण करने योग्य (उपादेय) है, और अनिष्ट फलवाला होने से सराग-चारित्र त्यागने योग्य (हेय) है ॥६॥
अब चारित्र का स्वरूप व्यक्त करते हैं :-
स्वरूप में चरण करना (रमना) सो चारित्र है । स्वसमय में प्रवृत्ति करना (अपने स्वभाव में प्रवृत्ति करना) ऐसा इसका अर्थ है । यही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है । शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना यह इसका अर्थ है । वही यथावस्थित आत्म गुण होने से (विषमता-रहित सुस्थित आत्मा का गुण होने से) साम्य है । और साम्य, दर्शन-मोहनीय तथा चारित्र-मोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभ के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार ऐसा जीव का परिणाम है ॥७॥
अब आत्मा की चारित्रता (अर्थात् आत्मा ही चारित्र है ऐसा) निश्चय करते हैं :-
वास्तव में जो द्रव्य जिस समय जिस भावरूप से परिणमन करता है, वह द्रव्य उस समय उष्णता रूप से परिणमित लोहे के गोले की भाँति उस मय है, इसलिये यह आत्मा धर्मरूप परिणमित होने से धर्म ही है । इसप्रकार आत्मा की चारित्रता सिद्ध हुई ॥८॥
अब यहाँ जीव का शुभ, अशुभ और शुद्धत्व (अर्थात् यह जीव ही शुभ, अशुभ और शुद्ध है ऐसा) निश्चित करते हैं -
जब यह आत्मा शुभ या अशुभ राग भाव से परिणमित होता है तब जपा कुसुम या तमाल पुष्प के (लाल या काले) रंग-रूप परिणमित स्फटिक की भाँति, परिणाम-स्वभाव होने से शुभ या अशुभ होता है (उस समय आत्मा स्वयं ही शुभ या अशुभ है); और जब वह शुद्ध अरागभाव से परिणमित होता है तब शुद्ध अरागपरिणत (रंग रहित) स्फटिक की भाँति, परिणाम-स्वभाव होने से शुद्ध होता है । (उस समय आत्मा स्वयं ही शुद्ध है) । इस प्रकार जीव का शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध हुआ ॥९॥
अब परिणाम वस्तु का स्वभाव है यह निश्चय करते हैं :-
परिणाम के बिना वस्तु अस्तित्व धारण नहीं करती, क्योंकि वस्तु द्रव्यादि के द्वारा (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से) परिणाम से भिन्न अनुभव में (देखने में) नहीं आती, क्योंकि
- परिणाम रहित वस्तु गधे के सींग के समान है
- तथा उसका, दिखाई देने वाले गोरस इत्यादि (दूध, दही वगैरह) के परिणामों के साथ 1विरोध आता है ।
1यदि वस्तुको परिणाम रहित माना जावे तो गोरस इत्यादि वस्तुओंके दूध, दही आदि जो परिणाम प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं उनके साथ विरोध आयेगा
2कालकी अपेक्षासे स्थिर होनेको अर्थात् कालापेक्षित प्रवाहको ऊर्ध्वता अथवा ऊँचाई कहा जाता है । ऊर्ध्वतासामान्य अर्थात् अनादि- अनन्त उच्च (कालापेक्षित) प्रवाहसामान्य द्रव्य है
अब जिनका चारित्र परिणाम के साथ सम्पर्क (सम्बन्ध) है ऐसे जो शुद्ध और शुभ (दो प्रकार के) परिणाम हैं उनके ग्रहण तथा त्याग के लिये (शुद्ध परिणाम के ग्रहण और शुभ परिणाम के त्याग के लिये) उनका फल विचारते हैं :-
जब यह आत्मा धर्म-परिणत स्वभाव वाला होता हुआ शुद्धोपयोग परिणति को धारण करता है-बनाये रखता है तब, जो विरोधी शक्ति से रहित होने के कारण अपना कार्य करने के लिये समर्थ है ऐसा चारित्रवान होने से, (वह) साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करता है; और जब वह धर्मपरिणत स्वभाव वाला होने पर भी शुभोपयोग परिणति के साथ युक्त होता है तब जो *विरोधी शक्ति सहित होने से स्वकार्य करने में असमर्थ है और कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है ऐसे चारित्र से युक्त होने से, जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्य पर डाल दिया जावे तो वह उसकी जलन से दुःखी होता है, उसी प्रकार वह स्वर्ग सुख के बन्ध को प्राप्त होता है, इसलिये शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है ।
*दान, पूजा, पंच-महाव्रत, देवगुरुधर्म प्रति राग इत्यादिरूप जो शुभोपयोग है वह चारित्रका विरोधी है इसलिये सराग (शुभोपयोगवाला) चारित्र विरोधी शक्ति सहित है और वीतरग चारित्र विरोधी शक्ति रहित है
अब चारित्र परिणाम के साथ सम्पर्क रहित होने से जो अत्यन्त हेय है ऐसे अशुभ-परिणाम का फल विचारते हैं :-
जब यह आत्मा किंचित् मात्र भी धर्मपरिणति को प्राप्त न करता हुआ अशुभोपयोग परिणति का अवलम्बन करता है, तब वह कुमनुष्य, तिर्यंच और नारकी के रूप में परिभ्रमण करता हुआ (तद्रूप) हजारों दुःखों के बन्धन का अनुभव करता है; इसलिये चारित्रके लेशमात्र का भी अभाव होने से यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय ही है ॥१२॥
इसप्रकार यह भाव (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य देव) समस्त शुभाशुभोपयोग-वृत्ति को (शुभ उपयोगरूप और अशुभ उपयोगरूप परिणति को) अपास्त कर (हेय मानकर, तिरस्कार करके, दूर करके) शुद्धोपयोग-वृत्ति को आत्मसात् (आत्मरूप, अपने-रूप) करते हुए शुद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ करते हैं । उसमें (पहले) शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं ।
इसप्रकार यह भाव (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य देव) समस्त शुभाशुभोपयोगवृत्ति को(शुभउपयोगरूप और अशुभ उपयोगरूप परिणति को) अपास्त कर (हेय मानकर, तिरस्कार करके, दूर करके) शुद्धोपयोगवृत्ति को आत्मसात् (आत्मरूप, अपनेरूप) करते हुए शुद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ करते हैं । उसमें (पहले) शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं -
- अनादि संसार से जो पहले कभी अनुभव में नहीं आया ऐसे अपूर्व, परम अद्भुत आह्लादरूप होने से 'अतिशय',
- आत्मा का ही आश्रय लेकर (स्वाश्रित) प्रवर्तमान होने से 'आत्मोत्पन्न',
- पराश्रय से निरपेक्ष होने से (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द के तथा संकल्प-विकल्प के आश्रय की अपेक्षा से रहित होने से) 'विषयातीत',
- अत्यन्त विलक्षण होने से (अन्य सुखों से सर्वथा भिन्न लक्षण वाला होने से) 'अनुपम',
- समस्त आगामी काल में कभी भी नाश को प्राप्त न होने से 'अनन्त' और
- बिना ही अन्तर के प्रवर्तमान होने से 'अविच्छिन्न'
अब शुद्धोपयोग-परिणत आत्मा का स्वरूप कहते हैं :-
सूत्रों के अर्थ के ज्ञानबल से स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग के १परिज्ञान में, श्रद्धान में, और विधान में (आचरण में) समर्थ होने से (स्वद्रव्य और परद्रव्य की भिन्नता का ज्ञान, श्रद्धान और आचरण होने से) जो श्रमण पदार्थों को और (उनके प्रतिपादक) सूत्रों को जिन्होंने भली-भाँति जान लिया है ऐसे हैं, समस्त छह जीव-निकाय के हनन के विकल्प से और पंचेन्द्रिय सम्बन्धी अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को २व्यावृत्त करके आत्मा का शुद्धस्वरूप में संयमन करने से, और ३स्वरूप-विश्रान्त ४निस्तरंग ५चैतन्य-प्रतपन होने से जो संयम और तप-युक्त हैं, सकल मोहनीय के विपाक से भेद की भावना की उत्कृष्टता से (समस्त मोहनीय कर्म के उदय से भिन्नत्व की उत्कृष्ट भावना से) निर्विकार आत्म-स्वरूप को प्रगट किया होने से जो वीतराग हैं, और परमकला के अवलोकन के कारण साता वेदनीय तथा असाता वेदनीय के विपाक से उत्पन्न होनेवाले जो सुख-दुख उन सुख-दुख जनित परिणामों की विषमता का अनुभव नहीं होने से (परम सुख-रस में लीन, निर्विकार स्वसंवेदन रूप परमकला के अनुभव के कारण इष्टानिष्ट संयोगों में हर्ष-शोकादि विषय परिणामों का अनुभव न होने से) जो समसुखदुःख हैं, ऐसे श्रमण शुद्धोपयोगी कहलाते हैं ॥१४॥
१परिज्ञान = पूरा ज्ञान; ज्ञान
२व्यावृत्त करके = विमुख करके; रोककर; अलग करके
३स्वरूपविश्रान्त = स्वरूपमें स्थिर हुआ
४निस्तरंग = तरंग रहित; चंचलता रहित; विकल्प रहित; शांत
५प्रतपन होना = प्रतापवान होना, प्रकाशित होना, दैदीप्यमान होना
अब, शुद्धोपयोग की प्राप्ति के बाद तत्काल (अन्तर पड़े बिना) ही होनेवाली शुद्धआत्मस्वभाव (केवलज्ञान) प्राप्ति की प्रशंसा करते हैं :-
जो (आत्मा) चैतन्य परिणाम-स्वरूप उपयोग के द्वारा यथा-शक्ति विशुद्ध होकर वर्तता है, वह (आत्मा) जिसे पद-पद पर (प्रत्येक पर्याय में) विशिष्ट (असाधारण) विशुद्ध शक्ति प्रगट होती जाती है, ऐसा होने से, अनादि संसार से बँधी हुई दृढ़तर मोह-ग्रंथी छूट जाने से अत्यन्त निर्विकार चैतन्यवाला और समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के नष्ट हो जाने से निर्विघ्न विकसित आत्म-शक्तिवान स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयता (पदार्थों) के अन्त को पा लेता है ।
यहाँ (यह कहा है कि) आत्मा ज्ञान-स्वभाव है, और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है; इसलिये समस्त ज्ञेयों के भीतर प्रवेश को प्राप्त (ज्ञाता) ज्ञान जिसका स्वभाव है ऐसे आत्मा को आत्मा शुद्धोपयोग के ही प्रसाद से प्राप्त करता है ।
अब, शुद्धोपयोग से होनेवाली शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष (स्वतंत्र) होने से अत्यन्त आत्माधीन है (लेशमात्र पराधीन नहीं है) यह प्रगट करते हैं :-
शुद्ध उपयोग की भावना के प्रभाव से समस्त घाति-कर्मों के नष्ट होने से जिसने शुद्ध अनन्त-शक्तिवान चैतन्य स्वभाव को प्राप्त किया है, ऐसा यह (पूर्वोक्त) आत्मा,
- शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञायक स्वभाव के कारण स्वतंत्र होने से जिसने कर्तृत्व के अधिकार को ग्रहण किया है ऐसा,
- शुद्ध अनन्त-शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही प्राप्य होने से (स्वयं ही प्राप्त होता होने से) कर्मत्व का अनुभव करता हुआ,
- शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव से स्वयं ही साधकतम (उत्कृष्ट साधन) होने से करणता को धारण करता हुआ,
- शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होने से (अर्थात् कर्म स्वयं को ही देने में आता होने से) सम्प्रदानता को धारण करता हुआ,
- शुद्ध अनन्त-शक्तिमय ज्ञानरूप से परिणमित होने के समय पूर्व में प्रवर्तमान विकलज्ञान स्वभाव का नाश होने पर भी सहज ज्ञान स्वभाव से स्वयं ही ध्रुवता का अवलम्बन करने से अपादान को धारण करता हुआ, और
- शुद्ध अनन्त-शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव का स्वयं ही आधार होने से अधिकरणता को आत्मसात् करता हुआ
यहाँ यह कहा गया है कि - निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का सम्बन्ध नहीं है, कि जिससे शुद्धात्म-स्वभाव की प्राप्ति के लिये सामग्री (बाह्य साधन) ढूँढने की व्यग्रता से जीव (व्यर्थ ही) परतंत्र होते हैं ।
अब इस स्वयंभू के शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के अत्यन्त अविनाशीपना और कथंचित्(कोई प्रकार से) उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य युक्तता का विचार करते हैं :-
वास्तव में इस (शुद्धात्म-स्वभाव को प्राप्त) आत्मा के शुद्धोपयोग के प्रसाद से हुआ जो शुद्धात्म-स्वभाव से (शुद्धात्म-स्वभावरूप से) उत्पाद है वह, पुन: उस रूप से प्रलय का अभाव होने से विनाश रहित है; और (उस आत्मा के शुद्धोपयोग के प्रसाद से हुआ) जो अशुद्धात्म-स्वभाव से विनाश है वह पुन: उत्पत्ति का अभाव होने से, उत्पाद रहित है । इससे (यह कहा है कि) उस आत्मा के सिद्ध-रूप से अविनाशीपन है । ऐसा होने पर भी आत्मा के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का समवाय विरोध को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह विनाश रहित उत्पाद के साथ, उत्पाद रहित विनाश के साथ और उन दोनों के आधार-भूत द्रव्य के साथ समवेत (तन्मयता से युक्त-एकमेक) है ।
अब, उत्पाद आदि तीनों (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) सर्व द्रव्यों के साधारण है इसलिये शुद्धआत्मा (केवली भगवान और सिद्ध भगवान) के भी अवश्यम्भावी है ऐसा व्यक्त करते हैं :-
जैसे उत्तम स्वर्ण की बाजूबन्द रूप पर्याय से उत्पत्ति दिखाई देती है, पूर्व अवस्था रूप से वर्तने वाली अँगूठी इत्यादिक पर्याय से विनाश देखा जाता है और पीलापन इत्यादि पर्याय से दोनों में (बाजूबन्द और अँगूठी में) उत्पत्ति-विनाश को प्राप्त न होने से ध्रौव्यत्व दिखाई देता है । इस प्रकार सर्व द्रव्यों के किसी पर्याय से उत्पाद, किसी पर्याय से विनाश और किसी पर्याय से ध्रौव्य होता है, ऐसा जानना चाहिए । इससे (यह कहा गया है कि) शुद्ध आत्मा के भी द्रव्य का लक्षण-भूत उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप अस्तित्व अवश्यम्भावी है ।
अब, शुद्धोपयोगके प्रभाव से स्वयंभू हुए इस (पूर्वोक्त) आत्मा के इन्द्रियों के बिना ज्ञान और आनन्द कैसे होता है ? ऐसे संदेह का निवारण करते हैं :-
शुद्धोपयोग के सामर्थ्य से जिसके घाति-कर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं, क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन के साथ असंपृक्त (संपर्क रहित) होने से जो अतीन्द्रिय हो गया है,
- समस्त अन्तराय का क्षय होने से अनन्त जिसका उत्तम वीर्य है,
- समस्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण का प्रलय हो जाने से अधिक जिसका केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज है- ऐसा यह (स्वयंभू) आत्मा,
- समस्त मोहनीय के अभाव के कारण अत्यंत निर्विकार शुद्ध चैतन्य स्वभाव वाले आत्मा का (अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्य जिसका स्वभाव है ऐसे आत्मा का) अनुभव करता हुआ
अब अतीन्द्रियता के कारण ही शुद्ध-आत्मा के (केवली भगवान के) शारीरिक सुख-दुःख नहीं है यह व्यक्त करते हैं :-
जैसे अग्नि को लोह-पिण्ड के तप्त पुद्गलों का समस्त विलास नहीं है (अर्थात् अग्नि लोहे के गोले के पुद्गलों के विलास से-उनकी क्रियासे- भिन्न है) उसी प्रकार शुद्ध आत्मा के (अर्थात् केवलज्ञानी भगवान के) इन्द्रिय-समूह नहीं है; इसीलिये जैसे अग्नि को घन के घोर आघातों की परम्परा नहीं है (लोहे के गोले के संसर्ग का अभाव होने पर घन के लगातार आघातों की भयंकर मार अग्नि पर नहीं पड़ती) इसी प्रकार शुद्ध आत्मा के शरीर सम्बन्धी सुख दुःख नहीं हैं ॥२०॥
अब, ज्ञान के स्वरूप का विस्तार और सुख के स्वरूप का विस्तार क्रमशः प्रवर्तमान दो अधिकारों के द्वारा कहते हैं । इनमें से (प्रथम) अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होने से केवली-भगवान के सब प्रत्यक्ष है, यह प्रगट करते हैं :-
केवली-भगवान इन्द्रियों के आलम्बन से अवग्रह-ईहा-अवाय पूर्वक क्रम से नहीं जानते, (किन्तु) स्वयमेव समस्त आवरण के क्षय के क्षण ही, अनादि-अनन्त, अहेतुक और असाधारण ज्ञान-स्वभाव को ही कारण-रूप ग्रहण करने से तत्काल ही प्रगट होने वाले केवल-ज्ञानोपयोग रूप होकर परिणमित होते हैं; इसलिये उनके समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष संवेदन की (प्रत्यक्ष ज्ञान की) आलम्बन-भूत समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं ॥२१॥
अब अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होने से ही इन भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं है, ऐसा अभिप्राय प्रगट करते हैं :-
समस्त आवरण के क्षय के क्षण ही
- जो (भगवान) सांसारिक ज्ञान को उत्पन्न करने के बल को कार्यरूप देने में हेतुभूत ऐसी अपने-अपने निश्चित विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियों से अतीत हुए हैं,
- जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द के ज्ञानरूप सर्व इन्द्रिय-गुणों के द्वारा सर्व ओर से समरसरूप से समृद्ध हैं (अर्थात् जो भगवान स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्द को सर्व आत्म-प्रदेशों से समानरूप से जानते हैं) और
- जो स्वयमेव समस्तरूप से स्व-पर का प्रकाशन करने में समर्थ अविनाशी लोकोत्तर ज्ञान-रूप हुए हैं,
अब, आत्मा का ज्ञान-प्रमाणपना और ज्ञान का सर्वगतपना उद्योत करते हैं :-
'समगुणपर्यायं द्रव्यं (गुण-पर्यायें अर्थात् युगपद् सर्वगुण और पर्यायें ही द्रव्य है)' इस वचन के अनुसार आत्मा ज्ञान से हीनाधिकता-रहित-रूप से परिणमित होने के कारण ज्ञान-प्रमाण है, और ज्ञान १ज्ञेयनिष्ठ होनेसे, २दाह्य-निष्ठ दहन की भाँति, ज्ञेय प्रमाण है । ज्ञेय तो लोक और अलोक के विभाग से ३विभक्त, ४अनन्त पर्याय-माला से आलिंगित स्वरूप से सूचित (प्रगट, ज्ञान), नाशवान दिखाई देता हुआ भी ध्रुव ऐसा षट्द्रव्य-समूह, अर्थात् सब कुछ है (ज्ञेय छहों द्रव्यों का समूह अर्थात् सब कुछ है) इसलिये निःशेष आवरण के क्षय के समय ही लोक और अलोक के विभाग से विभक्त समस्त वस्तुओं के आकारों के पार को प्राप्त करके इसीप्रकार अच्युत-रूप रहने से ज्ञान सर्वगत है ।
१ज्ञेयनिष्ठ = ज्ञेयों का अवलम्बन करने वाला; ज्ञेयों में तत्पर
२दहन = जलाना; अग्नि
३विभक्त = विभागवाला (षट्द्रव्यों के समूह में लोक-अलोक रूप दो विभाग हैं)
४अनन्त पर्यायें द्रव्य को आलिंगित करती है (द्रव्य में होती हैं) ऐसे स्वरूप-वाला द्रव्य ज्ञात होता है
अब आत्मा को ज्ञान प्रमाण न मानने में दो पक्ष उपस्थित करके दोष बतलाते हैं :-
यदि यह स्वीकार किया जाये कि यह आत्मा ज्ञान से हीन है तो आत्मा से आगे बढ़ जाने-वाला ज्ञान (आत्मा के क्षेत्रसे आगे बढ़कर उससे बाहर व्याप्त होने-वाला ज्ञान) अपने आश्रय-भूत चेतन-द्रव्य का समवाय (सम्बन्ध) न रहने से अचेतन होता हुआ रूपादि गुण जैसा होने से नहीं जानेगा; और यदि ऐसा पक्ष स्वीकार किया जाये कि यह आत्मा ज्ञान से अधिक है तो अवश्य (आत्मा) ज्ञान से आगे बढ़ जाने से (ज्ञान के क्षेत्र से बाहर व्यास होने से) ज्ञान से पृथक् होता हुआ घट-पटादि जैसा होने से ज्ञान के बिना नहीं जानेगा । इसलिये यह आत्मा ज्ञान-प्रमाण ही मानना योग्य है ।
अब, ज्ञान की भाँति आत्मा का भी सर्वगतत्व न्यायसिद्ध है ऐसा कहते हैं :-
ज्ञान त्रिकाल के सर्व द्रव्य-पर्याय रूप प्रवर्तमान समस्त ज्ञेयाकारों को पहुँच जाने से (जानता होने से) सर्वगत कहा गया है; और ऐसे (सर्वगत) ज्ञानमय होकर रहने से भगवान भी सर्वगत ही हैं । इसप्रकार सर्व पदार्थ भी सर्वगत ज्ञान के विषय होने से, सर्वगत ज्ञान से अभिन्न उन भगवान के वे विषय हैं ऐसा (शास्त्र में) कहा है; इसलिये सर्व पदार्थ भगवान-गत ही ( भगवान में प्राप्त ही) हैं ।
वहाँ (ऐसा समझना कि) - निश्चयनय से अनाकुलता लक्षण सुख का जो संवेदन उस सुख-संवेदन के १अधिष्ठानता जितना ही आत्मा है और उस आत्मा के बराबर ही ज्ञान स्वतत्त्व है; उस निज-स्वरूप आत्म-प्रमाण ज्ञान को छोड़े बिना, समस्त २ज्ञेयाकारों के निकट गये बिना, भगवान (सर्व पदार्थों को) जानते हैं । निश्चयनय से ऐसा होने पर भी व्यवहारनय से यह कहा जाता है कि भगवान सर्वगत हैं । और ३नैमित्तिक-भूत ज्ञेयाकारों को आत्मस्थ (आत्मा में रहे हुए) देखकर ऐसा उपचार से कहा जाता है; कि 'सर्व पदार्थ आत्मगत (आत्मा में) हैं'; परन्तु परमार्थत: उनका एक दूसरे में गमन नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वरूप-निष्ठ (अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में निष्चल अवस्थित) हैं ।
यही क्रम ज्ञान में भी निश्चित करना चाहिये । (अर्थात् आत्मा और ज्ञेयों के सम्बन्ध में निश्चय-व्यवहार से कहा गया है, उसी प्रकार ज्ञान और ज्ञेयों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए) ॥२६॥
१अधिष्ठान = आधार, रहनेका स्थान (आत्मा सुख-संवेदन का आधार है । जितने में सुख का वेदन होता है उतना ही आत्मा है)
२ज्ञेयाकार = पर पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय जो कि ज्ञेय हैं । (यह ज्ञेयाकार परमार्थत: आत्मा से सर्वथा भिन्न है ।)
३नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकार = ज्ञान में होनेवाले (ज्ञान की अवस्था-रूप) ज्ञेयाकार । (इन ज्ञेयाकारो को ज्ञानाकार भी कहा जाता है, क्योंकि ज्ञान इन ज्ञेयाकार-रूप परिणमित होते हैं । यह ज्ञेयाकार नैमित्तिक हैं और पर पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय उनके निमित्त हैं । इन ज्ञेयाकारों को आत्मा में देखकर 'समस्त पर पदार्थ आत्मा में हैं', इसप्रकार उपचार किया जाता है । यह बात ३१ वीं गाथा में दर्पण का दृष्टान्त देकर समझाई गई है ।)
अब, आत्मा और ज्ञान के एकत्व-अन्यत्व का विचार करते हैं :-
क्योंकि शेष समस्त चेतन तथा अचेतन वस्तुओं के साथ समवाय सम्बन्ध (अभिन्न-प्रदेशरूप सम्बन्ध; तादात्म्य सम्बन्ध) नहीं है, इसलिये जिसके साथ अनादि अनन्त स्वभाव-सिद्ध समवाय-सम्बन्ध है ऐसे एक आत्मा का अति निकटतया [अभिन्न प्रदेश-रूप से] अवलम्बन करके प्रवर्तमान होने से ज्ञान आत्मा के बिना अपना अस्तित्व नहीं रख सकता; इसलिये ज्ञान आत्मा ही है । और आत्मा तो अनन्त धर्मों का अधिष्ठान (आधार) होने से ज्ञान-धर्म के द्वारा ज्ञान है और अन्य धर्म के द्वारा अन्य भी है ।
और फिर, इसके अतिरिक्त (विशेष समझना कि) यहाँ अनेकान्त बलवान है । यदि यह माना जाय कि एकान्त से ज्ञान आत्मा है तो, (ज्ञानगुण आत्मद्रव्य हो जाने से) ज्ञान का अभाव हो जायेगा, (और ज्ञान-गुण का अभाव होने से) आत्मा के अचेतनता आ जायेगी अथवा विशेष-गुण का अभाव होने से आत्मा का अभाव हो जायेगा । यदि यह माना जाये कि सर्वथा आत्मा ज्ञान है तो, (आत्म-द्रव्य एक ज्ञान-गुणरूप हो जाने पर ज्ञानका कोई आधार-भूत द्रव्य नहीं रहने से) निराश्रयता के कारण ज्ञान का अभाव हो जायेगा अथवा (आत्मद्रव्य के एक ज्ञान-गुणरूप हो जाने से) आत्मा की शेष पर्यायों का (सुख, वीर्यादि गुणों का) अभाव हो जायेगा और उनके साथ ही अविनाभावी सम्बन्ध वाले आत्मा का भी अभाव हो जायेगा । (क्योंकि सुख, वीर्य इत्यादि गुण न हों तो आत्मा भी नहीं हो सकता)
अब, ज्ञान और ज्ञेय के परस्पर गमन का निषेध करते हैं (अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करते ऐसा कहते हैं ।) :-
आत्मा और पदार्थ स्वलक्षण-भूत पृथक्त्व के कारण एक दूसरे में नहीं वर्तते परन्तु उनके मात्र नेत्र और रूपी पदार्थ की भाँति ज्ञान-ज्ञेय स्वभाव-सम्बन्ध से होने वाली एक दूसरे में प्रवृत्ति पाई जाती है । (प्रत्येक द्रव्य का लक्षण अन्य द्रव्यों से भिन्नत्व होने से आत्मा और पदार्थ एक दूसरे में नहीं वर्तते, किन्तु आत्मा का ज्ञान स्वभाव है और पदार्थों का ज्ञेय स्वभाव है, ऐसे ज्ञान-ज्ञेयभावरूप सम्बन्ध के कारण ही मात्र उनका एक दूसरे में होना नेत्र और रूपी पदार्थों की भाँति उपचार से कहा जा सकता है) । जैसे नेत्र और उनके विषय-भूत रूपी पदार्थ परस्पर प्रवेश किये बिना ही ज्ञेयाकारों को ग्रहण और समर्पण करने के स्वभाव-वाले हैं, उसी प्रकार आत्मा और पदार्थ एक दूसरे में प्रविष्ट हुए बिना ही समस्त ज्ञेयाकारों के ग्रहण और समर्पण करने के स्वभाव-वाले हैं । (जिस प्रकार आँख रूपी पदार्थों में प्रवेश नहीं करती और रूपी पदार्थ आँख में प्रवेश नहीं करते तो भी आँख रूपी पदार्थों के ज्ञेयाकारो के ग्रहण करने-जानने के स्वभाव-वाली है और रूपी पदार्थ स्वयं के ज्ञेयाकारों को समर्पित होने-जनाने के स्वभाववाले हैं, उसीप्रकार आत्मा पदार्थों में प्रवेश नहीं करता और पदार्थ आत्मा में प्रवेश नहीं करते तथापि आत्मा पदार्थों के समस्त ज्ञेयाकारों को ग्रहण कर लेने, जान लेने के स्वभाव-वाला है और पदार्थ स्वयं के समस्त ज्ञेयाकारों को समर्पित हो जाने-ज्ञात हो जाने के स्वभाव-वाले हैं ।)
अब, आत्मा पदार्थों में प्रवृत्त नहीं होता तथापि जिससे (जिस शक्ति-वैचित्र्य से) उसका पदार्थों में प्रवृत्त होना सिद्ध होता है उस शक्तिवैचित्र्य को उद्योत करते हैं :-
जिस प्रकार चक्षु रूपी द्रव्यों को स्वप्रदेशों के द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर (जानता-देखता है) तथा ज्ञेय आकारों को आत्मसात् (निजरूप) करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता-देखता है; इसीप्रकार आत्मा भी इन्द्रियातीतता के कारण *प्राप्यकारिता की विचारगोचरता से दूर होता हुआ ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओं को स्वप्रदेशों से अस्पर्श करता है, इसलिये अप्रविष्ट रहकर (जानता-देखता है) तथा शक्ति वैचित्र के कारण वस्तु में वर्तते समस्त ज्ञेयाकारों को मानों मूल में से उखाड़कर ग्रास कर लेने से अप्रविष्ट न रहकर जानता- देखता है । इसप्रकार इस विचित्र शक्तिवाले आत्माके पदार्थोंमें अप्रवेश की भाँति प्रवेश भी सिद्ध होता है ।
*प्राप्यकारिता = ज्ञेय विषयों को स्पर्श करके ही कार्य कर सकना-जान सकना । (इन्द्रियातीत हुए आत्मामें प्राप्यकारिता के विचार का भी अवकाश नहीं है)
अब, यहाँ इसप्रकार (दृष्टान्तपूर्वक) यह स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान पदार्थों में प्रवृत्त होता है :-
जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपने प्रभा-समूह से दूध में व्याप्त होकर वर्तता हुआ दिखाई देता है, उसी प्रकार १संवेदन (ज्ञान) भी आत्मा से अभिन्न होने से कर्ता-अंश से आत्मता को प्राप्त होता हुआ ज्ञान-रूप कारण-अंश के द्वारा २कारण-भूत पदार्थों के कार्य भूत समस्त ज्ञेयाकारो में व्याप्त होता हुआ वर्तता है, इसलिये कार्य में कारण का (ज्ञेयाकारों में पदार्थों का) उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता कि 'ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है ।'
१प्रमाणदृष्टिसे संवेदन अर्थात् ज्ञान कहने पर अनन्त गुणपर्यायोंका पिंड समझमें आता है । उसमें यदि कर्ता, करण आदि अंश किये जायें तो कर्ता-अंश वह अखंड आत्मद्रव्य है और करण- अंश वह ज्ञानगुण है ।
२पदार्थ कारण हैं और उनके ज्ञेयाकार [द्रव्य-गुण-पर्याय] कार्य हैं ।
अब, ऐसा व्यक्त करते हैं कि इस प्रकार पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं :-
यदि समस्त स्व-ज्ञेयाकारों के समर्पण द्वारा (ज्ञान में) अवतरित होते हुए समस्त पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित न हों तो वह ज्ञान सर्वगत नहीं माना जाता । और यदि वह (ज्ञान) सर्वगत माना जाये, तो फिर (पदार्थ) साक्षात् ज्ञानदर्पण-भूमिका में अवतरित १बिम्ब की भाँति अपने-अपने ज्ञेयाकारों के कारण (होने से) और २परम्परा से प्रतिबिम्ब के समान ज्ञेयाकारों के कारण होने से पदार्थ कैसे ज्ञान-स्थित निश्चित् नहीं होते? (अवश्य ही ज्ञान-स्थित निश्चित होते हैं) ॥३१॥
१बिम्ब = जिसका दर्पण में प्रतिबिंब पड़ा हो वह । (ज्ञान को दर्पण की उपमा दी जाये तो, पदार्थों के ज्ञेयाकार बिम्ब समान हैं और ज्ञान में होनेवाले ज्ञान की अवस्थारूप ज्ञेयाकार प्रतिबिम्ब समान हैं)
२पदार्थ साक्षात् स्वज्ञेयाकारों के कारण हैं, अर्थात् पदार्थ अपने-अपने द्रव्य-गुण-पर्यायों के साक्षात् कारण हैं और परम्परा से ज्ञान की अवस्था-रूप ज्ञेयाकारों के (ज्ञानाकारों के) कारण हैं ।
अब, इसप्रकार (व्यवहार से) आत्मा की पदार्थों के साथ एक दूसरे में प्रवृत्ति होने पर भी, (निश्चय से) वह पर का ग्रहण -त्याग किये बिना तथा पररूप परिणमित हुए बिना सबको देखता-जानता है इसलिये उसे (पदार्थों के साथ) अत्यन्त भिन्नता है ऐसा बतलाते हैं :-
यह आत्मा, स्वभाव से ही परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का तथा पर-द्रव्यरूप से परिणमित होने का (उसके) अभाव होने से, स्व-तत्त्वभूत केवल-ज्ञानरूप से परिणमित होकर निष्कंप निकलने वाली ज्योति-वाला उत्तम मणि जैसा होकर रहता हुआ,
- जिसके सर्व ओर से (सर्व आत्म-प्रदेशों से) दर्शन-ज्ञान शक्ति स्फुरित है ऐसा होता हुआ, १निःशेष-रूप से परिपूर्ण आत्मा को, आत्मा से, आत्मा में संचेतता-जानता-अनुभव करता है, अथवा
- एक-साथ ही सर्व पदार्थों के समूह का २साक्षात्कार करने के कारण ज्ञप्ति-परिवर्तन का अभाव होने से जिसके ३ग्रहण-त्यागरूप क्रिया विराम को प्राप्त हुई है ऐसा होता हुआ, पहले से ही समस्त ज्ञेयाकार-रूप परिणमित होने से फिर पररूप से -- ४आकारान्तर-रूप से नहीं परिणमित होता हुआ सर्व प्रकार से अशेष विश्व को, (मात्र) देखता-जानता है ।
१निःशेषरूप से = कुछ भी किंचित् मात्र शेष न रहे इस प्रकार से
२साक्षात्कार करना = प्रत्यक्ष जानना
३ज्ञप्ति-क्रिया का बदलते रहना = अर्थात् ज्ञान में एक ज्ञेय को ग्रहण करना और दूसरे को छोड़ना सो ग्रहण-त्याग है; इस प्रकार का ग्रहण-त्याग वह क्रिया है, ऐसी क्रिया का केवली-भगवान के अभाव हुआ है
४आकारान्तर = अन्य आकार
अब केवलज्ञानी को और श्रुतज्ञानी को अविशेषरूप से दिखाकर विशेष आकांक्षा के क्षोभ का क्षय करते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी में और श्रुतज्ञानी में अन्तर नहीं है ऐसा बतलाकर विशेष जानने की इच्छा के क्षोभ को नष्ट करते हैं ) :-
जैसे भगवान, युगपत् परिणमन करते हुए समस्त
- चैतन्य विशेषयुक्त केवल-ज्ञान के द्वारा,
- १अनादिनिधन- २निष्कारण- ३असाधारण- ४स्वसंवेद्यमान चैतन्य-सामान्य जिसकी महिमा है
१अनादिनिधन = अनादि- अनन्त (चैतन्यसामान्य आदि तथा अन्त रहित है)
२निष्कारण = जिसका कोई कारण नहीं हैं ऐसा; स्वयंसिद्ध; सहज
३असाधारण = जो अन्य किसी द्रव्यमें न हो, ऐसा
४स्वसंवेद्यमान = स्वत: ही अनुभवमें आनेवाला
५चेतक = चेतनेवाला; दर्शकज्ञायक
६आत्मा निश्चय से परद्रव्य के तथा राग-द्वेषादि के संयोगों तथा गुण-पर्याय के भेदों से रहित, मात्र चेतक-स्वभावरूप ही है, इसलिये वह परमार्थ से केवल (अकेला, शुद्ध, अखंड) है
अब, ज्ञान के श्रुत-उपाधिकृत भेद को दूर करते हैं (अर्थात् ऐसा बतलाते हैं कि श्रुतज्ञान भी ज्ञान ही है, श्रुतरूप उपाधि के कारण ज्ञान में कोई भेद नहीं होता) :-
प्रथम तो श्रुत ही सूत्र है; और वह सूत्र भगवान अर्हन्त-सर्वज्ञ के द्वारा स्वयं जानकर उपदिष्ट १स्यात्कार चिन्हयुक्त, पौदगलिक शब्दब्रह्म है । उसकी २ज्ञप्ति (शब्दब्रह्म को जाननेवाली ज्ञातृ-क्रिया) सो ज्ञान है; श्रुत (सूत्र) तो उसका (ज्ञान का) कारण होने से ज्ञान के रूप में उपचार से ही कहा जाता है (जैसे कि अन्न को प्राण कहा जाता है) । ऐसा होने से यह फलित हुआ कि 'सूत्र की ज्ञप्ति' सो श्रुतज्ञान है । अब यदि सूत्र तो उपाधि होने से उसका आदर न किया जाये तो 'ज्ञप्ति' ही शेष रह जाती है; ('सूत्र की ज्ञप्ति' कहने पर निश्चय से ज्ञप्ति कहीं पौद्गलिक सूत्र की नहीं, किन्तु आत्मा की है; सूत्र ज्ञप्ति का स्वरूप-भूत नहीं, किन्तु विशेष वस्तु अर्थात् उपाधि है; क्योंकि सूत्र न हो तो वहाँ भी ज्ञप्ति तो होती ही है । इसलिये यदि सूत्र को न गिना जाय तो 'ज्ञप्ति' ही शेष रहती है ।) और वह (ज्ञप्ति) केवली और श्रुतकेवली के आत्मानुभवन में समान ही है । इसलिये ज्ञान में श्रुत-उपाधिकृत भेद नहीं है ॥३४॥
१स्यात्कार = 'स्यात्' शब्द । (स्यात् = कथंचित्; किसी अपेक्षा से)
२ज्ञप्ति = जानना; जानने की क्रिया; जानन-क्रिया
अब, आत्मा और ज्ञान का कर्त्तृत्व-करणत्वकृत भेद दूर करते हैं (अर्थात् परमार्थतः अभेद आत्मा में, 'आत्मा ज्ञातृक्रिया का कर्ता है और ज्ञान करण है' ऐसा व्यवहार से भेद किया जाता है, तथापि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं इसलिये अभेदनय से 'आत्मा ही ज्ञान है' ऐसा समझाते हैं) :-
आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और करणत्व की शक्ति-रूप १पारमैश्वर्यवान होने से जो स्वयमेव जानता है (अर्थात् जो ज्ञायक है) वही ज्ञान है; जैसे - जिसमें २साधकतम उष्णत्व-शक्ति अन्तर्लीन है, ऐसी ३स्वतंत्र अग्नि के ४दहन-क्रिया की प्रसिद्धि होने से उष्णता कही जाती है । परन्तु ऐसा नहीं है कि जैसे पृथग्वर्ती हँसिये से देवदत्त काटने वाला कहलाता है उसीप्रकार (पृथग्वर्ती) ज्ञान से आत्मा जानने-वाला (ज्ञायक) है । यदि ऐसा हो तो दोनों के अचेतनता आ जायेगी और अचेतनों का संयोग होने पर भी ज्ञप्ति उत्पन्न नहीं होगी । आत्मा और ज्ञान के पृथग्वर्ती होने पर भी यदि आत्मा के ज्ञप्ति का होना माना जाये तो पर-ज्ञान के द्वारा पर को ज्ञप्ति हो जायेगी और इसप्रकार राख इत्यादि के भी ज्ञप्ति का उद्भव निरंकुश हो जायेगा । ('आत्मा और ज्ञान पृथक् हैं किन्तु ज्ञान आत्मा के साथ युक्त हो जाता है इसलिये आत्मा जानने का कार्य करता है' यदि ऐसा माना जाये तो जैसे ज्ञान आत्मा के साथ युक्त होता है, उसीप्रकार राख, घड़ा, स्तंभ इत्यादि समस्त पदार्थों के साथ युक्त हो जाये और उससे वे सब पदार्थ भी जाननेका कार्य करने लगें; किन्तु ऐसा तो नहीं होता, इसलिये आत्मा और ज्ञान पृथक् नहीं हैं) और, अपने से अभिन्न ऐसे समस्त ज्ञेयाकाररूप परिणमित जो ज्ञान है उसरूप स्वयं परिणमित होनेवाले को, कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों के कारणभूत समस्त पदार्थ ज्ञानवर्ति ही कथंचित् हैं । (इसलिये) ज्ञाता और ज्ञान के विभाग की क्लिष्ट कल्पना से क्या प्रयोजन है? ॥३५॥
१पारमैश्वर्य = परम सामर्थ्य; परमेश्वरता
२साधकतम = उत्कृष्ट साधन वह करण
३जो स्वतंत्र रूपसे करे वह कर्ता
४अग्नि जलानेकी क्रिया करती है, इसलिये उसे उष्णता कहा जाता है
अब, यह व्यक्त करते हैं कि ज्ञान क्या है और ज्ञेय क्या है :-
(पूर्वोक्त प्रकार) ज्ञानरूप से स्वयं परिणमित होकर स्वतंत्रतया ही जानता है इसलिये जीव ही ज्ञान है, क्योंकि अन्य द्रव्य इसप्रकार (ज्ञानरूप) परिणमित होने तथा जानने में असमर्थ हैं । और ज्ञेय, वर्त चुकी, वर्त रही और वर्तनेवाली ऐसी विचित्र पर्यायों की परम्परा के प्रकार से त्रिविध काल-कोटि को स्पर्श करता होने से अनादि-अनन्त ऐसा द्रव्य है । (आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञेय समस्त द्रव्य हैं) वह ज्ञेयभूत द्रव्य आत्मा और पर (स्व और पर) ऐसे दो भेद से दो प्रकारका है । ज्ञान स्व-पर ज्ञायक है, इसलिये ज्ञेय की ऐसी द्विविधता मानी जाती है ।
प्रश्न - अपने में क्रिया के हो सकने का विरोध है, इसलिये आत्मा के स्व-ज्ञायकता कैसे घटित होती है?
उत्तर - कौन सी क्रिया है और किस प्रकार का विरोध है? जो यहाँ (प्रश्न में) विरोधी क्रिया कही गई है वह या तो उत्पत्ति-रूप होगी या ज्ञप्ति-रूप होगी । प्रथम, उत्पत्ति-रूप क्रिया तो 'कहीं स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकती' इस आगम-कथन से, विरुद्ध ही है; परन्तु ज्ञप्ति-रूप क्रिया में विरोध नहीं आता, क्योंकि वह, प्रकाशन क्रिया की भाँति, उत्पत्ति-क्रिया से विरुद्ध प्रकार से (भिन्न प्रकार से) होती है । जैसे जो प्रकाश्य-भूत पर को प्रकाशित करता है ऐसे प्रकाशक दीपक को स्व प्रकाश्य को प्रकाशित करने के सम्बन्ध में अन्य प्रकाशक की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उसके स्वयमेव प्रकाशन क्रिया की प्राप्ति है; उसी प्रकार जो ज्ञेय-भूत पर को जानता है ऐसे ज्ञायक आत्मा को स्व-ज्ञेय के जानने के सम्बन्ध में अन्य ज्ञायक की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि स्वयमेव ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति१ है । (इससे सिद्ध हुआ कि ज्ञान स्व को भी जान सकता है ।)
प्रश्न - आत्मा को द्रव्यों की ज्ञानरूपता और द्रव्यों को आत्मा की ज्ञेयरूपता कैसे (किस प्रकार घटित) है?
उत्तर - वे परिणाम-वाले होने से । आत्मा और द्रव्य परिणाम-युक्त हैं, इसलिये आत्मा के, द्रव्य जिसका २आलम्बन हैं ऐसे ज्ञानरूप से (परिणति), और द्रव्यों के, ज्ञान का ३अवलम्बन लेकर ज्ञेयाकार-रूप से परिणति अबाधित रूप से तपती है-प्रतापवंत वर्तती है ।
(आत्मा और द्रव्य समय- समय पर परिणमन किया करते हैं, वे कूटस्थ नहीं हैं; इसलिये आत्मा ज्ञान स्वभाव से और द्रव्य ज्ञेय स्वभाव से परिणमन करता है, इसप्रकार ज्ञान स्वभाव में परिणमित आत्मा ज्ञान के आलम्बनभूत द्रव्यों को जानता है और ज्ञेय-स्वभाव से परिणमित द्रव्य ज्ञेय के आलम्बनभूत ज्ञान में, आत्मा में, ज्ञात होते हैं ।) ॥३६॥
१कोई पर्याय स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु वह द्रव्यके आधार से -- द्रव्य में से उत्पन्न होती है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो द्रव्यरूप आधार के बिना पर्यायें उत्पन्न होने लगें और जल के बिना तरंगें होने लगें; किन्तु यह सब प्रत्यक्ष विरुद्ध है; इसलिये पर्याय के उत्पन्न होने के लिये द्रव्यरूप आधार आवश्यक है । इसीप्रकार ज्ञान-पर्याय भी स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकती; वह आत्म-द्रव्य में से उत्पन्न हो सकती है - जो कि ठीक ही है । परन्तु ज्ञान पर्याय स्वयं अपने से ही ज्ञात नहीं हो सकती यह बात यथार्थ नहीं है । आत्म द्रव्य में से उत्पन्न होनेवाली ज्ञान-पर्याय स्वयं अपने से ही ज्ञात होती है । जैसे दीपक-रूपी आधार में से उत्पन्न होने वाली प्रकाश-पर्याय स्व-पर को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार आत्मारूपी आधार में से उत्पन्न होनेवाली ज्ञान-पर्याय स्व-पर को जानती है । और यह अनुभव सिद्ध भी है कि ज्ञान स्वयं अपने को जानता है ।
२ज्ञान के ज्ञेयभूत द्रव्य आलम्बन अर्थात् निमित्त हैं । यदि ज्ञान ज्ञेय को न जाने तो ज्ञान का ज्ञानत्व क्या?
३ज्ञेय का ज्ञान आलम्बन अर्थात् निमित्त है । यदि ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात न हो तो ज्ञेय का ज्ञेयत्व क्या?
अब, ऐसा उद्योत करते हैं कि द्रव्यों की अतीत और अनागत पर्यायें भी तात्कालिकपर्यायों की भाँति पृथक्रूप से ज्ञान में वर्तती हैं :-
(जीवादिक) समस्त द्रव्य-जातियों की पर्यायों की उत्पत्ति की मर्यादा तीनों काल की मर्यादा जितनी होने से (वे तीनो-काल में उत्पन्न हुआ करती हैं इसलिये), उनकी (उन समस्त द्रव्य-जातियों की), क्रम-पूर्वक तपती हुई स्वरूप-सम्पदा वाली (एक के बाद दूसरी प्रगट होने वाली), विद्यमानता और अविद्यमानता को प्राप्त जो जितनी पर्यायें हैं, वे सब तात्कालिक (वर्तमान-कालीन) पर्यायों की भाँति, अत्यन्त १मिश्रित होने पर भी सब पर्यायों के विशिष्ट लक्षण स्पष्ट ज्ञात हों इस प्रकार, एक क्षण में ही, ज्ञान-मंदिर में स्थिति को प्राप्त होती हैं । यह (तीनों काल की पर्यायों का वर्तमान पर्यायों की भाँति ज्ञान में ज्ञात होना) अयुक्त नहीं है; क्योंकि
- उसका दृष्टान्त के साथ (जगत में जो दिखाई देता है-अनुभव में आता है उसके साथ) अविरोध है । (जगत में) दिखाई देता है कि छद्मस्थ के भी, जैसे वर्तमान वस्तु का चिंतवन करते हुए ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है उसी प्रकार भूत और भविष्यत वस्तु का चितवन करते हुए (भी) ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है ।
- और ज्ञान चित्रपट के समान है । जैसे चित्रपट में अतीत, अनागत और वर्तमान वस्तुओं के २आलेख्याकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं; उसीप्रकार ज्ञान-रूपी भित्ति में (ज्ञान-भूमिका में, ज्ञान-पट में) भी अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायों के ज्ञेयाकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं ।
- और सर्व ज्ञेयाकारों की तात्कालिकता (वर्तमानता, साम्प्रतिकता) अविरुद्ध है । जैसे नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओं के आलेख्याकार वर्तमान ही हैं, उसीप्रकार अतीत और अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार वर्तमान ही हैं ॥३७॥
१ज्ञान में समस्त द्रव्यों की तीनों-काल की पर्यायें एक ही साथ ज्ञात होने पर भी प्रत्येक पर्याय का विशिष्ट स्वरूप-प्रदेश, काल, आकार इत्यादि विशेषतायें-स्पष्ट ज्ञात होता है; संकर-व्यतिकर नहीं होते
२आलेख्य = आलेखन योग्य; चित्रित करने योग्य
अब, अविद्यमान पर्यायों की (भी) कथंचित् (किसी प्रकार से; किसी अपेक्षा से) विद्यमानता बतलाते हैं :-
जो (पर्यायें) अभी तक उत्पन्न भी नहीं हुई और जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं, वे (पर्यायें) वास्तव में अविद्यमान होने पर भी, ज्ञान के प्रति नियत होने से (ज्ञान में निश्चित-स्थिर-लगी हुई होने से, ज्ञान में सीधी ज्ञात होने से) *ज्ञानप्रत्यक्ष वर्तती हुई, पाषाण स्तम्भ में उत्कीर्ण, भूत और भावी देवों (तीर्थकर-देवो) की भाँति अपने स्वरूप को अकम्पतया (ज्ञान को) अर्पित करती हुई (वे पर्यायें) विद्यमान ही हैं ॥३८॥
*प्रत्यक्ष = अक्ष के प्रति-अक्ष के सन्यूख-अक्ष के निकट में- अक्ष के सम्बन्ध में हो ऐसा, अक्ष = ज्ञान; आत्मा
अब, इन्हीं अविद्यमान पर्यायों की ज्ञानप्रत्यक्षता को दृढ़ करते हैं :-
जिसने अस्तित्व का अनुभव नहीं किया और जिसने अस्तित्व का अनुभव कर लिया है ऐसी (अनुत्पन्न और नष्ट) पर्याय-मात्र को यदि ज्ञान अपनी निर्विघ्न विकसित, अखंडित प्रताप-युक्त प्रभु-शक्ति के (महा सामर्थ्य) द्वारा बलात् अत्यन्त आक्रमित करे (प्राप्त करे), तथा वे पर्यायें अपने स्वरूप-सर्वस्व को अक्रम से अर्पित करें (एक ही साथ ज्ञानमें ज्ञात हों) इसप्रकार उन्हें अपने प्रति नियत न करे (अपने में निश्चित न करे, प्रत्यक्ष न जाने), तो उस ज्ञानकी दिव्यता क्या है? इससे (यह कहा गया है कि) पराकाष्ठा को प्राप्त ज्ञान के लिये यह सब योग्य है ॥३९॥
अब, इन्द्रियज्ञान के लिये नष्ट और अनुत्पन्न का जानना अशक्य है (अर्थात् इन्द्रियज्ञान नष्ट और अनुत्पन्न पदार्थों को-पर्यायों को नहीं जान सकता) ऐसा न्याय से निश्चित करते हैं -
विषय और विषयी का १सन्निपात जिसका लक्षण (स्वरूप) है, ऐसे इन्द्रिय और पदार्थ के २सन्निकर्ष को प्राप्त करके, जो अनुक्रम से उत्पन्न ईहादिक के क्रम से जानते हैं वे उसे नहीं जान सकते जिसका स्व-अस्तित्व काल बीत गया है तथा जिसका स्व-अस्तित्वकाल उपस्थित नहीं हुआ है क्योंकि (अतीत-अनागत पदार्थ और इन्द्रिय के) यथोक्त लक्षण (यथोक्तस्वरूप, ऊपर कहा गया जैसा) ३ग्राह्यग्राहक सम्बन्ध का असंभव है ।
१सन्निपात = मिलाप; संबंध होना वह
२सन्निकर्ष = सम्बन्ध; समीपता
३इन्द्रियगोचर पदार्थ ग्राह्य है और इन्द्रियाँ ग्राहक हैं
अब, ऐसा स्पष्ट करते हैं कि अतीन्द्रिय-ज्ञान के लिये जो जो कहा जाता है वह (सब) संभव है :-
इन्द्रिय-ज्ञान उपदेश, अन्तःकरण और इन्द्रिय इत्यादि को १विरूप-कारणता से (ग्रहण करके) और २उपलब्धि (क्षयोपशम), ३संस्कार इत्यादिको अंतरंग स्वरूप-कारणता से ग्रहण करके प्रवृत्त होता है; और वह प्रवृत्त होता हुआ सप्रदेश को ही जानता है क्योंकि वह स्थूल को जाननेवाला है, अप्रदेश को नहीं जानता, (क्योंकि वह सूक्ष्म को जाननेवाला नहीं है); वह मूर्त को ही जानता है क्योंकि वैसे (मूर्तिक) विषय के साथ उसका सम्बन्ध है, वह अमूर्त को नहीं जानता (क्योंकि अमूर्तिक विषय के साथ इन्द्रियज्ञान का सम्बन्ध नहीं है); वह वर्तमान को ही जानता है, क्योंकि विषय-विषयी के सन्निपात सद्भाव है, वह प्रवर्तित हो चुकनेवाले को और भविष्य में प्रवृत्त होनेवाले को नहीं जानता (क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष का अभाव है) ।
परन्तु जो अनावरण अतीन्द्रिय ज्ञान है उसे अपने अप्रदेश, सप्रदेश, मूर्त और अमूर्त (पदार्थ मात्र) तथा अनुत्पन्न एवं व्यतीत पर्यायमात्र, ज्ञेयता का अतिक्रमण न करने से ज्ञेय ही है-जैसे प्रज्वलित अग्नि को अनेक प्रकार का ईंधन, दाह्यता का अतिक्रमण न करने से दाह्य ही है । (जैसे प्रदीप्त अग्नि दाह्यमात्र को-ईंधनमात्र को - जला देती है, उसीप्रकार निरावरण ज्ञान ज्ञेयमात्र को - द्रव्य-पर्याय मात्र को - जानता है)
१विरूप = ज्ञान के स्वरूप से भिन्न स्वरूपवाले । (उपदेश, मन और इन्द्रियाँ पौद्गलिक होने से उनका रूप ज्ञान के स्वरूप से भिन्न है । वे इन्द्रियज्ञान में बहिरंग कारण हैं)
२उपलब्धि = ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से पदार्थों को जानने की शक्ति (यह 'लब्ध' शक्ति जब 'उपयुक्त' होती हैं तभी पदार्थ जानने में आते है)
३संस्कार = भूतकाल में जाने हुये पदार्थों की धारणा ।
अब, ऐसी श्रद्धा व्यक्त करते हैं कि ज्ञेय पदार्थरूप परिणमन जिसका लक्षण है ऐसी (ज्ञेयार्थ-परिणमन-स्वरूप) क्रिया ज्ञान में से उत्पन्न नहीं होती :-
यदि ज्ञाता ज्ञेय पदार्थरूप परिणमित होता हो, तो उसे सकल कर्म-वन के क्षय से प्रवर्तमान स्वाभाविक जानपने का कारण (क्षायिक ज्ञान) नहीं है; अथवा उसे ज्ञान ही नहीं है; क्योंकि प्रत्येक पदार्थरूप से परिणति के द्वारा मृगतृष्णा में जलसमूह की कल्पना करने की भावना वाला वह (आत्मा) अत्यन्त दुःसह कर्म-भार को ही भोगता है ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है ॥४२॥
(यदि ऐसा है) तो फिर ज्ञेय पदार्थरूप परिणमन जिसका लक्षण है ऐसी(ज्ञेयार्थ-परिणमनस्वरूप) क्रिया और उसका फल कहाँ से (किस कारण से) उत्पन्न होता है, ऐसा अब विवेचन करते हैं :-
प्रथम तो, संसारी के नियम से उदयगत पुद्गल कर्मांश होते ही हैं । अब वह संसारी, उन उदयगत कर्मांशों के अस्तित्व में, चेतते-जानते- अनुभव करते हुए, मोह-राग- द्वेष में परिणत होने से ज्ञेय पदार्थों में परिणमन जिसका लक्षण है ऐसी (ज्ञेयार्थ परिणमन-स्वरूप) क्रिया के साथ युक्त होता है; और इसीलिये क्रिया के फलभूत बन्ध का अनुभव करता है । इससे (ऐसा कहा है कि) मोह के उदय से ही (मोह के उदय में युक्त होने के कारण से ही) क्रिया और क्रिया फल होता है, ज्ञान से नहीं ॥४३॥
अब, ऐसा उपदेश देते हैं कि केवली-भगवान के क्रिया भी क्रिया-फल (बन्ध) उत्पन्न नहीं करती :-
जैसे स्त्रियों के, प्रयत्न के बिना भी, उस प्रकार योग्यता का सद्धाव होने से स्वभावभूत ही माया के ढक्कन से ढँका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केवली भगवान के, प्रयत्न के बिना ही (प्रयत्न न होने पर भी) उस प्रकार की योग्यता का सद्धाव होने से खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं और यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादि का होना), बादल के दृष्टान्त से अविरुद्ध है । जैसे बादल के आकाररूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष-प्रयत्न के बिना भी देखी जाती है, उसीप्रकार केवली-भगवान के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धिपूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है । इसलिये यह स्थानादिक (खड़े रहने-बैठने इत्यादि का व्यापार), मोहोदय-पूर्वक न होने से, क्रिया-विशेष (क्रिया के प्रकार) होने पर भी केवली भगवान के क्रिया-फलभूत बन्ध के साधन नहीं होते ॥४४॥
इसप्रकार होने से तीर्थंकरों के पुण्य का विपाक अकिंचित्कर ही है (कुछ करता नहीं है, स्वभाव का किंचित् घात नहीं करता) ऐसा अब निश्चित करते हैं :-
अरहन्त भगवान जिनके वास्तव में पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के समस्त फल भली-भाँति परिपक्व हुए हैं ऐसे ही हैं, और उनकी जो भी क्रिया है वह सब उसके (पुण्य के) उदय के प्रभाव से उत्पन्न होने के कारण औदयिकी ही है । किन्तु ऐसी (पुण्य के उदय से होनेवाली) होने पर भी वह सदा औदयिकी क्रिया महा-मोहराजा की समस्त सेना के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होती है इसलिये मोह-राग-द्वेष रूपी *उपरंजकों का अभाव होने से चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती इसलिये कार्यभूत बन्ध की अकारणभूतता से और कार्यभूत मोक्ष की कारणभूतता से क्षायिकी ही क्यों न माननी चाहिये? (अवश्य माननी चाहिये) और जब क्षायिकी ही माने तब कर्मविपाक (कर्मोदय) भी उनके (अरहन्तों के) स्वभाव-विघात का कारण नहीं होता (ऐसे निश्चित होता है) ॥४५॥
*उपरंजकों = उपराग-मलिनता करनेवाले (विकारीभाव)
अब, केवली-भगवान की भाँति समस्त जीवों के स्वभाव-विघात का अभाव होने का निषेध करते हैं :-
यदि एकान्त से ऐसा माना जाये कि शुभाशुभ-भावरूप स्वभाव में (अपने भाव में) आत्मा स्वयं परिणमित नहीं होता, तो यह सिद्ध हुआ कि (वह) सदा ही सर्वथा निर्विघात शुद्धस्वभाव से ही अवस्थित है; और इसप्रकार समस्त जीवसमूह, समस्त बन्धकारणों से रहित सिद्ध होने से संसार अभावरूप स्वभाव के कारण नित्य-मुक्तता को प्राप्त हो जायेंगे अर्थात् नित्य-मुक्त सिद्ध होवेगे ! किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि आत्मा परिणाम-धर्मवाला होने से, जैसे स्फटिकमणि जपाकुसुम और तमालपुष्प के रंग-रूप स्वभाव-युक्तता से प्रकाशित होता है उसीप्रकार, उसे (आत्मा के) शुभाशुभ-स्वभावयुक्तता प्रकाशित होती है । (जैसे स्फटिकमणि लाल और काले फूल के निमित्त से लाल और काले स्वभाव में परिणमित दिखाई देता है उसीप्रकार आत्मा कर्मोपाधि के निमित्त से शुभाशुभ स्वभावरूप परिणमित होता हुआ दिखाई देता है) ।
अब, पुनः प्रकृत का (चालु विषय का) अनुसरण करके अतीन्द्रिय-ज्ञान को सर्वज्ञरूप से अभिनन्दन करते हैं (अर्थात् अतीन्द्रिय ज्ञान सबका ज्ञाता है ऐसी उसकी प्रशंसा करते हैं) -
क्षायिक ज्ञान वास्तव में एक समय में ही सर्वत: (सर्व आत्मप्रदेशों से), वतर्मान में वर्तते तथा भूत-भविष्यत काल में वर्तते उन समस्त पदार्थों को जानता है जिनमें *पृथकरूप से वर्तते स्व-लक्षणरूप लक्ष्मी से आलोकित अनेक प्रकारों के कारण वैचित्र प्रगट हुआ है और जिनमें परस्पर विरोध से उत्पन्न होनेवाली असमानजातीयता के कारण वैषम्य प्रगट हुआ है ।
(इसी बात को युक्ति-पूर्वक समझाते हैं)
- क्रम-प्रवृत्ति के हेतुभूत, क्षयोपशम-अवस्था में रहने वाले ज्ञानावरणीय कर्म-पुद्गलों का उसके (क्षायिक ज्ञान के) अत्यन्त अभाव होने से वह तात्कालिक या अतात्कालिक पदार्थ-मात्र को समकाल में ही प्रकाशित करता है;
- (क्षायिक ज्ञान) सर्वत: विशुद्ध होने के कारण प्रतिनियत प्रदेशों की विशुद्धि (सर्वत: विशुद्धि) के भीतर डूब जाने से वह सर्वत: (सर्व आत्मप्रदेशों से) भी प्रकाशित करता है;
- सर्व आवरणों का क्षय होने से, देश-आवरण का क्षयोपशम न रहने से वह सब को भी प्रकाशित करता है;
- सर्वप्रकार ज्ञानावरण के क्षय के कारण (सर्व पकार के पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान के आवरण में निमित्तभूत कर्म के क्षय होने से) असर्वप्रकार के ज्ञानावरण का क्षयोपशम (-अमुक ही पकार के पदार्थों को जाननेवाले ज्ञानके आवरण में निमित्तभूत कर्मों का क्षयोपशम) विलय को प्राप्त होने से वह विचित्र को भी (अनेक पकार के पदार्थो को भी) प्रकाशित करता है;
- असमानजातीय-ज्ञानावरण के क्षय के कारण (असमानजाति के पदार्थोंको जानने वाले ज्ञान के आवरण में निमित्तभूत कर्मों के क्षय के कारण) समानजातीय ज्ञानावरण का क्षयोपशम (समान जाति के ही पदार्थों को जानने वाले ज्ञान के आवरण में निमित्तभूत कर्मों का क्षयोपशम) नष्ट हो जाने से वह विषम को भी (असमानजाति के पदार्थों को भी) प्रकाशित करता है ।
*द्रव्यों के भिन्न-भिन्न वर्तनेवाले निज-निज लक्षण उन द्रव्यों की लक्ष्मी-सम्पत्ति-शोभा हैं
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता :-
इस विश्व में एक आकाश-द्रव्य, एक धर्म-द्रव्य, एक अधर्म-द्रव्य, असंख्य काल-द्रव्य और अनन्त जीव-द्रव्य तथा उनसे भी अनन्तगुने पुद्गल द्रव्य हैं, और उन्हीं के प्रत्येक के अतीत, अनागत और वर्तमान ऐसे (तीन) प्रकारों से भेद वाली १निरवधि २वृत्ति-प्रवाह के भीतर पड़ने वाली (समा जाने वाली) अनन्त पर्यायें हैं । इस प्रकार यह समस्त (द्रव्यों और पर्यायों का) समुदाय ज्ञेय है । उसी में एक कोई भी जीव-द्रव्य ज्ञाता है । अब यहाँ, जैसे समस्त दाह्य को दहकती हुई अग्नि समस्त-दाह्यहेतुक (समस्त दाह्य जिसका निमित्त है ऐसा) समस्त दाह्याकार-पर्यायरूप परिणमित सकल एक ३दहन जिसका आकार (स्वरूप) है ऐसे अपने रूप में (अग्नि रूप में) परिणमित होती है, वैसे ही समस्त ज्ञेयों को जानता हुआ ज्ञाता (आत्मा) समस्त ज्ञेयहेतुक समस्त ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित ४सकल एक ज्ञान जिसका आकार (स्वरूप) है ऐसे निजरूपसे-जो चेतनता के कारण स्वानुभव-प्रत्यक्ष है उस-रूप-परिणमित होता है । इस प्रकार वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है । किन्तु जो समस्त ज्ञेय को नहीं जानता वह (आत्मा), जैसे समस्त दाह्य को न दहती हुई अग्नि समस्त-दाह्यहेतुक समस्त-दाह्याकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन जिसका आकार है ऐसे अपने रूप में परिणमित नहीं होता उसीप्रकार समस्त-ज्ञेयहेतुक समस्त-ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे अपने रूपमें-स्वयं चेतना के कारण स्वानुभव-प्रत्यक्ष होने पर भी परिणमित नहीं होता, (अपने को परिपूर्ण-तया अनुभव नहीं करता-नहीं जानता) इस प्रकार यह फलित होता है कि जो सबको नहीं जानता वह अपने को (आत्मा को) नहीं जानता ॥४८॥
१निरवधि = अवधि-हद-मर्यादा अन्तरहित
२वृत्ति = वर्तन करना; उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य; अस्तित्व, परिणति
३दहन = जलाना, दहना
४सकल = सारा; परिपूर्ण
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता :-
प्रथम तो आत्मा वास्तव में स्वयं ज्ञानमय होने से ज्ञातृत्व के कारण ज्ञान ही है; और ज्ञान प्रत्येक आत्मा में वर्तता (रहता) हुआ प्रतिभासमय महा-सामान्य है । वह प्रतिभासमय महा-सामान्य प्रतिभास-मय अनन्त विशेषों में व्याप्त होनेवाला है; और उन विशेषों के (भेदों के) निमित्त सर्व द्रव्य-पर्याय हैं । अब जो पुरुष सर्व द्रव्य-पर्याय जिनके निमित्त हैं ऐसे अनन्त विशेषों में व्याप्त होनेवाले प्रतिभास-मय महा-सामान्यरूप आत्मा का स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता, वह (पुरुष) प्रतिभासमय महासामान्यके द्वारा १व्याप्य (व्याप्य होने योग्य) जो प्रतिभास-मय अनन्त विशेष है उनकी निमित्तभूत सर्व द्रव्य पर्यायों को कैसे प्रत्यक्ष कर सकेगा ? (नहीं कर सकेगा) इससे ऐसा फलित हुआ कि जो आत्मा को नहीं जानता वह सबको नहीं जानता ।
अब, इससे ऐसा निश्चित होता है कि सर्व के ज्ञान से आत्मा का ज्ञान और आत्मा के ज्ञान से सर्व का ज्ञान (होता है); और ऐसा होने से, आत्मा ज्ञानमयता के कारण स्व-संचेतक होने से, ज्ञाता और ज्ञेय का वस्तुरूप से अन्यत्व होने पर भी, प्रतिभास और प्रतिभास्यमानकर, अपनी अवस्था में अन्योन्य मिलन होने के कारण (ज्ञान और ज्ञेय, आत्मा की-ज्ञान की अवस्था में परस्पर मिश्रित-एकमेकरूप होने से) उन्हें भिन्न करना अत्यन्त अशक्य होने से मानो सब कुछ आत्मा में २निखात (प्रविष्ट) हो गया हो इसप्रकार प्रतिभासित (ज्ञात) होता है । (आत्मा ज्ञानमय होने से वह अपने को अनुभव करता है-जानता है, और अपने को जानने पर समस्त ज्ञेय ऐसे ज्ञात होते हैं-मानों वे ज्ञान में स्थित ही हों, क्योंकि ज्ञान की अवस्था में से ज्ञेयाकारों को भिन्न करना अशक्य है ।) यदि ऐसा न हो तो (यदि आत्मा सबको न जानता हो तो) ज्ञान के परिपूर्ण आत्म-संचेतन का अभाव होने से परिपूर्ण एक आत्मा का भी ज्ञान सिद्ध न हो ।
१ज्ञान सामान्य व्यापक है, और ज्ञान विशेष-भेद व्याप्य हैं । उन ज्ञान-विशेषों के निमित्त ज्ञेयभूत सर्व द्रव्य और पर्यायें हैं
२निखात = खोदकर भीतर गहरा उतर गया हुवा; भीतर प्रविष्ट हुआ
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि क्रमशः प्रवर्तमान ज्ञान की सर्वगतता सिद्ध नहीं होती :-
जो ज्ञान क्रमश: एक एक पदार्थ का अवलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है वह (ज्ञान) एक पदार्थ के अवलम्बन से उत्पन्न होकर दूसरे पदार्थ के अवलम्बन से नष्ट हो जाने से नित्य नहीं होता तथा कर्मोदय के कारण एक *व्यक्ति को प्राप्त करके फिर अन्य व्यक्ति को प्राप्त करता है इसलिये क्षायिक भी न होता हुआ, वह अनन्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को प्राप्त होने में (जानने में) असमर्थ होने के कारण सर्वगत नहीं है ॥५०॥
*व्यक्ति = प्रगटता विशेष, भेद
अब ऐसा निश्चित होता है कि युगपत् प्रवृत्ति के द्वारा ही ज्ञान का सर्वगतत्व सिद्ध होता है (अर्थात् अक्रम से प्रवर्तमान ज्ञान ही सर्वगत हो सकता है ) :-
वास्तव में क्षायिक ज्ञान का, सर्वोत्कृष्टता का स्थानभूत परम माहात्म्य है; और जो ज्ञान एक साथ ही समस्त पदार्थों का अवलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है वह ज्ञान- अपने में समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकार *टकोत्कीर्ण-न्याय से स्थित होने से जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है और समस्त व्यक्ति को प्राप्त कर लेने से जिसने स्वभाव-प्रकाशक क्षायिक-भाव प्रगट किया है ऐसा-त्रिकाल में सदा विषम रहनेवाले (असमान जातिरूप से परिणमित होनेवाले) और अनन्त प्रकारों के कारण विचित्रता को प्राप्त सम्पूर्ण सर्व पदार्थों के समूह को जानता हुआ, अक्रम से अनन्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को प्राप्त होने से जिसने अद्भुत माहात्म्य प्रगट किया है ऐसा सर्वगत ही है ॥५१॥
*टकोत्कीर्ण न्याय = पत्थर में टांकी से उत्कीर्ण आकृति की भाँति
अब, ज्ञानी के (केवलज्ञानी आत्मा के) ज्ञप्ति-क्रिया का सद्भाव होने पर भी उसके क्रिया के फलरूप बन्ध का निषेध करते हुए उपसंहार करते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी आत्मा के जानने की क्रिया होने पर भी बन्ध नहीं होता, ऐसा कहकर ज्ञान-अधिकार पूर्ण करते हैं)-
यहाँ (ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापनकी ४३वी गाथा) इस गाथा सूत्र में, 'उदयगत पुद्गल-कर्मांशों के अस्तित्व में चेतित होने पर-जानने पर-अनुभव करने पर मोह-राग-द्वेष में परिणत होने से ज्ञेयार्थपरिणमन-स्वरूप क्रिया के साथ युक्त होता हुआ आत्मा क्रिया-फलभूत बन्ध का अनुभव करता है, किन्तु ज्ञान से नहीं' इसप्रकार प्रथम ही अर्थ-परिणमन-क्रिया के फलरूप से बन्ध का समर्थन किया गया है (अर्थात् बन्ध तो पदार्थरूप में परिणमनरूप क्रिया का फल है ऐसा निश्चित किया गया है) तथा इस गाथा सूत्र (ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापनकी ३२ वीं गाथा) में शुद्धात्मा के अर्थ परिणमनादि क्रियाओं का अभाव निरूपित किया गया है इसलिये जो (आत्मा) पदार्थरूप में परिणमित नहीं होता, उसे ग्रहण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता उस आत्मा के ज्ञप्तिक्रिया का सद्धाव होने पर भी वास्तव में क्रिया-फलभूत बन्ध सिद्ध नहीं होता ।
(( (कलश)
जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब ।
अनंत सुख वीर्य दर्श ज्ञान धारी आतमा ॥
भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब ।
द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ॥
मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं ।
सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आत्मा ॥
पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये ।
सदा मुक्त रहें अरिहंत परमातमा ॥४॥))
जिसने कर्मों को छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, भविष्यत और वर्तमान समस्त विश्व को (तीनों काल की पर्यायों से युक्त समस्त पदार्थों को) एक ही साथ जानता हुआ भी मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिये अब, जिसके समस्त ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित ज्ञप्ति के विस्तार से स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोक के पदार्थों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है ।
इस प्रकार ज्ञान-अधिकार समाप्त हुआ ।
अब, ज्ञान से अभिन्न सुख का स्वरूप विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए ज्ञान और सुख की हेयोपादेयता का (अर्थात् कौनसा ज्ञान तथा सुख हेय है और कौनसा उपादेय है वह) विचार करते हैं :-
यहाँ, (ज्ञान तथा सुख दो प्रकार का है-) एक ज्ञान तथा सुख मूर्त और १इन्द्रियज है; और दूसरा (ज्ञान तथा सुख) अमूर्त और अतीन्द्रिय है । उसमें जो अमूर्त और अतीन्द्रिय है वह प्रधान होने से उपादेय-रूप जानना । वहाँ, पहला ज्ञान तथा सुख मूर्तरूप ऐसी क्षायोपशमिक उपयोग-शक्तियों से उस-उस प्रकार की इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होता हुआ पराधीन होने से
- २कादाचित्क,
- क्रमश: ३प्रवृत्त होने वाला,
- ४सप्रतिपक्ष और
- ५सहानिवृद्धि है
- नित्य,
- युगपत् प्रवर्तमान,
- नि:प्रतिपक्ष और
- हानिवृद्धि से रहित है,
१इन्द्रियज = इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न होनेवाला; ऐन्द्रिय
२कादाचित्क = कदाचित्-कभी कभी होनेवाला; अनित्य
३मूर्तिक इन्द्रियज ज्ञान क्रम से प्रवृत्त होता है; युगपत् नहीं होता; तथा मूर्तिक इन्द्रियज सुख भी क्रमश: होता है, एक ही साथ सर्व इन्द्रियों के द्वारा या सर्व प्रकार से नहीं होता
४सप्रतिपक्ष = प्रतिपक्ष-विरोधी सहित (मूर्त-इन्द्रियज ज्ञान अपने प्रतिपक्ष अज्ञानसहित ही होता है, और मूर्त इन्द्रियज सुख उसके प्रतिपक्षभूत दु:ख सहित ही होता है)
५सहानिवृद्धि = हानिवृद्धि सहित
६चैतन्यानुविधायी = चैतन्य के अनुसार वर्तनेवाली; चैतन्य के अनुकूलरूप से, विरुद्धरूप से नहीं, वर्तने वाली
अब, अतीन्द्रिय-सुख का साधनभूत (कारणरूप) अतीन्द्रिय-ज्ञान उपादेय है - इसप्रकार उसकी प्रशंसा करते हैं :-
जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय है, और जो १प्रच्छन्न है, उस सबको-जो कि स्व और पर इन दो भेदों में समा जाता है उसे - अतीन्द्रिय ज्ञान अवश्य देखता है । अमूर्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इत्यादि, मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय परमाणु इत्यादि, तथा
- द्रव्य में प्रच्छन्न काल इत्यादि (द्रव्य अपेक्षा से गुप्त ऐसे जो काल धर्मास्तिकाय वगैरह),
- क्षेत्र में प्रच्छन्न अलोकाकाश के प्रदेश इत्यादि,
- काल में प्रच्छन्न २असाम्प्रतिक (अतीत-अनागत) पर्यायें तथा
- भाव-प्रच्छन्न स्थूल पर्यायों में ३अन्तर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं,
- चैतन्य-सामान्य के साथ अनादिसिद्ध सम्बन्ध-वाले एक ही ४'अक्ष' नामक आत्मा के प्रति जो नियत है (अर्थात् जो ज्ञान आत्मा के साथ ही लगा हुआ है- आत्मा के द्वारा सीधा प्रवृत्ति करता है),
- जो (इन्द्रियादिक) अन्य सामग्री को नहीं ढूँढता और
- जो अनन्त-शक्ति के सद्धाव के कारण अनन्तता को (बेहदता को) प्राप्त है,
१प्रच्छन्न = गुप्त; अन्तरित; ढका हुआ
२असांप्रतिक = अतात्कालिक; वर्तमानकालीन नहि ऐसा; अतीत-अनागत
३अन्तर्लीन = अन्दर लीन हुए; अन्तर्मग्न
४अक्ष = आत्मा का नाम 'अक्ष' भी है । (इन्द्रियज्ञान अक्ष = अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा जानता है; अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान अक्ष अर्थात् आत्मा के द्वारा ही जानता है)
५ज्ञेयाकार ज्ञान को पार नहीं कर सकते-ज्ञान की हद से बाहर जा नहीं सकते, ज्ञान में जान ही लेते है
अब, इन्द्रिय-सुख का साधनभूत (कारणरूप) इन्द्रियज्ञान हेय है - इसप्रकार उसकी निन्दा करते हैं-
इन्द्रियज्ञान को १उपलम्भक भी मूर्त है और २उपलभ्य भी मूर्त है । वह इन्द्रियज्ञान वाला जीव स्वयं अमूर्त होने पर भी मूर्त-पचेन्द्रियात्मक शरीर को प्राप्त होता हुआ, ज्ञप्ति उत्पन्न करने में बल-धारण का निमित्त होने से जो उपलम्भक है ऐसे उस मूर्त (शरीर) के द्वारा मूर्त ऐसी ३स्पर्शादि-प्रधान वस्तु को-जो कि योग्य हो अर्थात् जो (इन्द्रियों के द्वारा) उपलभ्य हो उसे- अवग्रह करके, कदाचित उससे आगे-आगे की शुद्धि के सद्धाव के कारण उसे जानता है और कदाचित अवग्रह से आगे आगे की शुद्धि के असद्भाव के कारण नहीं जानता, क्योंकि वह (इन्द्रिय ज्ञान) परोक्ष है । परोक्षज्ञान, चैतन्य-सामान्य के साथ (आत्मा का) अनादि-सिद्ध सम्बन्ध होने पर भी जो अति दृढ़तर अज्ञानरूप तमोग्रन्थि (अन्धकार-समूह) द्वारा आवृत हो गया है, ऐसा आत्मा पदार्थ को स्वयं जानने के लिये असमर्थ होने से ४उपात्त और ५अनुपात्त पर-पदार्थरूप सामग्री को ढूँढने की व्यग्रता से अत्यन्त चंचल-तरल-अस्थिर वर्तता हुआ, अनन्त-शक्ति से च्युत होने से अत्यन्त ६विक्लव वर्तता हुआ, महामोह-मल्ल के जीवित होने से परपरिणति का (पर को परिणमित करने का) अभिप्राय करने पर भी पद-पद पर ठगाता हुआ, परमार्थत: अज्ञान में गिने जाने योग्य है । इसलिये वह हेय है ॥५५॥
१उपलम्भक = बतानेवाला, जानने में निमित्त-भूत । (इन्द्रियज्ञान को पदार्थों के जानने में निमित्त-भूत मूर्त पचेन्द्रियात्मक शरीर है)
२उपलभ्य = जनाने योग्य
३स्पर्शादिप्रधान = जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण मुख्य हैं, ऐसी
४उपात्त = पास (इन्द्रिय, मन इत्यादि उपात्त पर पदार्थ हैं)
५अनुपात्त = अप्राप्त (प्रकाश इत्यादि अनुपात्त पर पदार्थ हैं)
६विक्लव = खिन्न; दुःखी, घबराया हुआ
अब, इन्द्रियाँ मात्र अपने विषयों में भी युगपत् प्रवृत्त नहीं होतीं, इसलिये इन्द्रियज्ञान हेय ही है, ऐसा निश्चय करते हैं :-
१मुख्य ऐसे स्पर्श-रस-गंध-वर्ण तथा शब्द-जो कि पुद्गल हैं वे- इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होने योग्य (ज्ञात होने योग्य), हैं । (किन्तु) इन्द्रियों के द्वारा वे भी युगपद् (एक साथ) ग्रहण नहीं होते (जानने में नहीं आते) क्योंकि क्षयोपशम की उसप्रकार की शक्ति नहीं है । इन्द्रियों के जो क्षयोपशम नाम की अन्तरंग ज्ञातृशक्ति है वह कौवे की आँख की पुतली की भाँति क्रमिक प्रवृत्ति-वाली होने से अनेकत: प्रकाश के लिये (एक ही साथ अनेक विषयों को जानने के लिये) असमर्थ है, इसलिये द्रव्येन्द्रिय द्वारों के विद्यमान होने पर भी समस्त इन्द्रियों के विषयों का (विषयभूत पदार्थों का) ज्ञान एक ही साथ नहीं होता, क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष है ॥५६॥
१स्पर्श, रस, गंध और वर्ण-यह पुद्गलके मुख्य गुण हैं
अब, यह निश्चय करते हैं कि इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है :-
जो केवल आत्मा के प्रति ही नियत हो वह (ज्ञान) वास्तव में प्रत्यक्ष है । यह (इन्द्रियज्ञान) तो, जो भिन्न अस्तित्ववाली होने से परद्रव्यत्व को प्राप्त हुई है, और आत्म-स्वभावत्व को किंचित्मात्र स्पर्श नहीं करतीं (आत्मस्वभावरूप किंचित्मात्र भी नहीं हैं) ऐसी इन्द्रियों के द्वारा उपलब्धि करके (ऐसी इन्द्रियों के निमित्त से पदार्थों को जानकर) उत्पन्न होता है, इसलिये वह (इन्द्रियज्ञान) आत्मा के लिये प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ॥५७॥
अब, परोक्ष और प्रत्यक्ष के लक्षण बतलाते हैं :-
- निमित्तता को प्राप्त (निमित्त-रूप बने हुए) ऐसे जो परद्रव्यभूत अंतःकरण (मन), इन्द्रिय, १परोपदेश, २उपलब्धि, ३संस्कार या ४प्रकाशादिक हैं उनके द्वारा होने वाला जो स्व-विषयभूत पदार्थ का ज्ञान, वह पर के द्वारा ५प्रादुर्भाव को प्राप्त होने से 'परोक्ष' -के रूप में जाना जाता है, और
- अंतःकरण, इन्द्रिय, परोपदेश, उपलब्धि संस्कार या प्रकाशादिक-सब पर-द्रव्य की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्म-स्वभाव को ही कारण-रूप से ग्रहण करके सर्व द्रव्य-पर्यायों के समूह में एक समय ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान वह केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न होने से 'प्रत्यक्ष' के रूप में जाना जाता है ।
१परोपदेश = अन्य का उपदेश
२उपलब्धि = ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न पदार्थों को जानने की शक्ति (यह 'लब्ध' शक्ति जब 'उपर्युक्त' होती है, तभी पदार्थ ज्ञात होता है)
३संस्कार = पूर्व ज्ञात पदार्थ की धारणा
४चक्षुइन्द्रिय द्वारा रूपी पदार्थ को देखने में प्रकाश भी निमित्तरूप होता है
५प्रादुर्भाव को प्राप्त = प्रगट उत्पन्न
अब, इसी प्रत्यक्षज्ञान को पारमार्थिक सुखरूप बतलाते हैं :-
- स्वयं उत्पन्न होने से,
- १समंत होने से,
- अनन्त-पदार्थों में विस्तृत होने से,
- विमल होने से और
- अवग्रहादि रहित होने से,
- पर के द्वारा उत्पन्न होता हुआ पराधीनता के कारण
- ३असमंत होने से ४इतर द्वारों के आवरण के कारण
- मात्र कुछ पदार्थों में प्रवर्तमान होता हुआ अन्य पदार्थों को जानने की इच्छा के कारण,
- समल होने से असम्यक् अवबोध के कारण (--कर्ममल-युक्त होने से संशय-विमोह-विभ्रम सहित जानने के कारण), और
- अवग्रहादि सहित होने से क्रमश: होने वाले ५पदार्थ-ग्रहण के खेद के कारण
और यह प्रत्यक्ष ज्ञान तो अनाकुल है, क्योंकि-
- अनादि ज्ञान-सामान्यरूप स्वभाव पर महा विकास से व्याप्त होकर स्वत: ही रहने से स्वयं उत्पन्न होता है, इसलिये आत्माधीन है, (और आत्माधीन होने से आकुलता नहीं होती);
- समस्त आत्म-प्रदेशों में परम ६समक्ष ज्ञानोपयोग रूप होकर, व्याप्त होनेसे समंत है, इसलिये अशेष द्वार खुले हुए हैं (और इसप्रकार कोई द्वार बन्द न होने से आकुलता नहीं होती);
- समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकारों को सर्वथा पी जाने से ७परम विविधता में व्याप्त होकर रहने से अनन्त पदार्थों में विस्तृत है, इसलिये सर्व पदार्थों को जानने की इच्छा का अभाव है (और इस प्रकार किसी पदार्थ को जानने की इच्छा न होने से आकुलता नहीं होती);
- सकल शक्ति को रोकनेवाला कर्मसामान्य (ज्ञान में से) निकल जाने से (ज्ञान) अत्यन्त स्पष्ट प्रकाश के द्वारा प्रकाशमान (तेजस्वी) स्वभाव में व्याप्त होकर रहने से विमल है इसलिये सम्यक रूप से (बराबर) जानता है (और इसप्रकार संशयादि रहितता से जानने के कारण आकुलता नहीं होती); तथा
- जिनने त्रिकाल का अपना स्वरूप युगपत् समर्पित किया है (-एक ही समय बताया है) ऐसे लोकालोक मे व्याप्त होकर रहने से अवग्रहादि रहित है इसलिये क्रमश: होने वाले पदार्थ ग्रहण के खेद का अभाव है ।
१समन्त = चारों ओर-सर्व भागों में वर्तमान; सर्व आत्म-प्रदेशों से जानता हुआ; समस्त; सम्पूर्ण, अखण्ड
२ऐकान्तिक = परिपूर्ण; अन्तिम, अकेला; सर्वथा
३परोक्ष ज्ञान खंडित है अर्थात् (वह अमुक प्रदेशों के द्वारा ही जानता है); जैसे-वर्ण आँख जितने प्रदेशों के द्वारा ही (इन्द्रियज्ञान से) ज्ञात होता है; अन्य द्वार बन्द हैं
४इतर = दूसरे; अन्य; उसके सिवाय के
५पदार्थग्रहण अर्थात् पदार्थ का बोध एक ही साथ न होने पर अवग्रह, ईहा इत्यादि क्रमपूर्वक होने से खेद होता है
६समक्ष = प्रत्यक्ष
७परमविविधता = समस्त पदार्थ समूह जो कि अनन्त विविधतामय है
अब, ऐसे अभिप्राय का खंडन करते हैं कि 'केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा खेद का सम्भव होने से केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख नहीं है' :-
यहाँ (केवलज्ञान के सम्बन्ध में), (१) खेद क्या, (२) परिणाम क्या तथा (३) केवलज्ञान और सुखका व्यतिरेक (भेद) क्या, कि जिससे केवलज्ञान को ऐकान्तिक सुखत्व न हो ?
- खेद के आयतन (स्थान) घाति-कर्म हैं, केवल परिणाम मात्र नहीं । घाति-कर्म महा मोह के उत्पादक होने से धतूरे की भाँति १अतत् में तत् बुद्धि धारण करवाकर आत्मा को ज्ञेयपदार्थ के प्रति परिणमन कराते हैं; इसलिये वे घातिकर्म, प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमित हो-होकर थकने वाले आत्मा के लिये खेद के कारण होते हैं । उनका (घाति-कर्मों का) अभाव होने से केवलज्ञान में खेद कहाँ से प्रगट होगा ?
- और तीन-कालरूप तीन भेद जिसमें किये जाते हैं ऐसे समस्त पदार्थों की ज्ञेयाकाररूप (विविधता को प्रकाशित करने का स्थानभूत केवलज्ञान, चित्रित-दीवार की भाँति, स्वयं) ही अनन्त-स्वरूप स्वयमेव परिणमित होने से केवलज्ञान ही परिणाम है । इसलिये अन्य परिणाम कहाँ हैं कि जिनसे खेद की उत्पत्ति हो?
- और, केवलज्ञान समस्त २स्वभाव-प्रतिघात के अभाव के कारण निरंकुश अनन्त शक्ति के उल्लसित होने से समस्त त्रैकालिक लोकालोक के- आकार में व्याप्त होकर ३कूटस्थतया अत्यन्त निष्कंप है, इसलिये आत्मा से अभिन्न ऐसा सुख-लक्षणभूत अनाकुलता को धारण करता हुआ केवलज्ञान ही सुख है, इसलिये केवलज्ञान और सुख का व्यतिरेक कहाँ है?
१अतत् में तत्बुद्धि = वस्तु जिस स्वरूप नहीं है उस स्वरूप होने की मान्यता; जैसे कि- जड में चेतन बुद्धि (जड में चेतन की मान्यता), दुःख में सुख-बुद्धि वगैरह ।
२प्रतिघात = विघ्न; रुकावट; हनन; घात
३कूटस्थ = सदा एकरूप रहनेवाला; अचल (केवलज्ञान सर्वथा अपरिणामी नहीं है, किन्तु वह एक ज्ञेय से दूसरे ज्ञेय के प्रति नहीं बदलता-सर्वथा तीनों काल के समस्त ज्ञेयाकारों को जानता है, इसलिये उसे कूटस्थ कहा है)
अब, पुनः 'केवल (अर्थात् केवलज्ञान) सुखस्वरूप है' ऐसा निरूपण करते हुए उपसंहार करते हैं :-
सुख का कारण स्वभाव-प्रतिघात का अभाव है । आत्मा का स्वभाव दर्शन-ज्ञान है; (केवल दशा में) उनके (दर्शन-ज्ञान के) प्रतिघात का अभाव है, क्योंकि दर्शन लोकालोक मे विस्तृत होने से और ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त होने से वे (दर्शन-ज्ञान) स्वच्छन्दता-पूर्वक (स्वतंत्रतापूर्वक, बिना अंकुश, किसी से बिना दबे) विकसित हैं (इस प्रकार दर्शन-ज्ञान रूप स्वभाव के प्रतिघात का अभाव है) इसलिये स्वभाव के प्रतिघात का अभाव जिसका कारण है ऐसा सुख अभेद-विवक्षा से केवलज्ञान का स्वरूप है ।
(प्रकारान्तर से केवलज्ञान की सुखस्वरूपता बतलाते हैं) और, केवल अर्थात् केवलज्ञान सुख ही है, क्योंकि सर्व अनिष्टों का नाश हो चुका है और सम्पूर्ण इष्ट की प्राप्ति हो चुकी है । केवल-अवस्था में, सुखोपलब्धि के विपक्षभूत दुःखों के साधनभूत अज्ञान का सम्पूर्णतया नाश हो जाता है और सुख का साधनभूत परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिये केवल ही सुख है । अधिक विस्तार से बस हो ॥६१॥
अब, ऐसी श्रद्धा कराते हैं कि केवलज्ञानियों को ही पारमार्थिक-सुख होता है :-
इस लोक में मोहनीय आदि कर्मजाल वालों के स्वभाव प्रतिघात के कारण और आकुलता के कारण सुखाभास होने पर भी उस सुखाभास को 'सुख' कहने की अपारमार्थिक रूढ़ि है; और जिनके घाति-कर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे केवली-भगवान के, स्वभाव-प्रतिघात के अभाव के कारण और अनाकुलता के कारण सुख के यथोक्त १कारण का और २लक्षण का सद्धाव होने से पारमार्थिक सुख है - ऐसी श्रद्धा करने योग्य है । जिन्हें ऐसी श्रद्धा नहीं है वे - मोक्षसुख के सुधापान से दूर रहने वाले अभव्य-मृगतृष्णा के जलसमूह को ही देखते (अनुभव करते) हैं; और जो उस वचन को इसी समय स्वीकार (श्रद्धा) करते हैं वे- शिवश्री के (मोक्ष-लक्ष्मी के) भाजन- आसन्न-भव्य हैं, और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूर-भव्य हैं ॥६२॥
१सुख का कारण स्वभाव प्रतिघात का अभाव है
२सुख का लक्षण अनाकुलता है
अब, परोक्षज्ञानवालों के अपारमार्थिक इन्द्रिय-सुख का विचार करते हैं :-
प्रत्यक्ष ज्ञान के अभाव के कारण परोक्ष ज्ञान का आश्रय लेने वाले इन प्राणियों को उसकी (परोक्ष ज्ञान की) सामग्री रूप इन्द्रियों के प्रति निजरस से ही (स्वभाव से ही) मैत्री प्रवर्तती है । अब इन्द्रियों के प्रति मैत्री को प्राप्त उन प्राणियों को, उदय-प्राप्त महा-मोहरूपी कालाग्नि ने ग्रास बना लिया है, इसलिये तप्त लोहे के गोले की भाँति (जैसे गरम किया हुआ लोहे का गोला पानी को शीघ्र ही सोख लेता है) अत्यन्त तृष्णा उत्पन्न हुई है; उस दुःख के वेग को सहन न कर सकने से उन्हें व्याधि के प्रतिकार के समान (रोग में थोड़ा सा आराम जैसा अनुभव कराने वाले उपचार के समान) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है । इसलिये इन्द्रियाँ व्याधि समान होने से और विषय व्याधि के प्रतिकार समान होने से छद्मस्थों के पारमार्थिक सुख नहीं है ॥६३॥
अब, जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं वहाँ तक स्वभाव से ही दुःख है, ऐसा न्याय से निश्चित करते हैं :-
जिनकी हत (निकृष्ट, निंद्य) इन्द्रियाँ जीवित (विद्यमान) हैं, उन्हें उपाधि के कारण (बाह्य संयोगों के कारण, औपाधिक) दुख नहीं है किन्तु स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जाती है । जैसे-
- हाथी हथिनी रूपी कुट्टनी के शरीर स्पर्श की ओर,
- मछली बंसी में फँसे हुए मांस के स्वाद की ओर,
- भ्रमर बन्द हो जाने वाले कमल के गंध की ओर,
- पतंगा दीपक की ज्योति के रूप की ओर और
- हिरन शिकारी के संगीत के स्वर की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं
- जिसका शीत-ज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना आने के लिये उपचार करता तथा जिसका दाह-ज्वर उतर गया है वह काँजी से शरीर के ताप को उतारता तथा
- जिसकी आखों का दुख दूर हो गया है वह वटाचूर्ण (शंख इत्यादि का चूर्ण) आँजता तथा
- जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया हो वह कान में फिर बकरे का मूत्र डालता दिखाई नहीं देता और
- जिसका घाव भर जाता है वह फिर लेप करता दिखाई नहीं देता
अब, मुक्त आत्माके सुखकी प्रसिद्धिके लिये, शरीर सुखका साधन होनेकी बातकाखंडन करते हैं । (सिद्ध-भगवान के शरीर के बिना भी सुख होता है यह बात स्पष्ट समझाने के लिये, संसारावस्था में भी शरीर - सुख का -- इन्द्रियसुख का - साधन नहीं है, ऐसा निश्चित करते हैं) :-
वास्तव में इस आत्मा के लिये सशरीर अवस्था में भी शरीर सुख का साधन हो ऐसा हमें दिखाई नहीं देता; क्योंकि तब भी, मानों उन्माद-जनक मदिरा का पान किया हो ऐसी, प्रबल मोह के वश वर्तने-वाली, 'यह (विषय) हमें इष्ट है' इस प्रकार विषयों की ओर दौड़ती हुई इन्द्रियों के द्वारा असमीचीन (अयोग्य) परिणति का अनुभव करने से जिसकी 'शक्ति की उत्कृष्टता (परम शुद्धता) रुक गई है ऐसे भी (अपने) ज्ञान-दर्शन-वीर्यात्मक स्वभाव में- जो कि (सुख के) निश्चय-कारणरूप है-परिणमन करता हुआ यह आत्मा स्वयमेव सुखत्व को प्राप्त करता है, (सुख-रूप होता है;) और शरीर तो अचेतन ही होने से सुखत्व-परिणति का निश्चय-कारण न होता हुआ किंचित् मात्र भी सुखत्व को प्राप्त नहीं करता ॥६५॥
अब, इसी बात को दृढ़ करते हैं :-
यहाँ यह सिद्धांत है कि - भले ही दिव्य वैक्रियिकता प्राप्त हो तथापि 'शरीर सुख नहीं दे सकता'; इसलिये, आत्मा स्वयं ही इष्ट अथवा अनिष्ट विषयों के वश से सुख अथवा दुःखरूप स्वयं ही होता है ॥६६॥
अब, आत्मा स्वयं ही सुखपरिणाम की शक्तिवाला होने से विषयों की अकिंचित्करता बतलाते हैं :-
जैसे किन्हीं निशाचरों के (उल्लू, सर्प, भूत इत्यादि) नेत्र स्वयमेव अन्धकार को नष्ट करने की शक्ति वाले होते हैं इसलिये उन्हें अंधकार नाशक स्वभाव-वाले दीपक-प्रकाशादि से कोई प्रयोजन नहीं होता, (उन्हें दीपक-प्रकाश कुछ नहीं करता,) इसी प्रकार- यद्यपि अज्ञानी 'विषय सुख के साधन हैं' ऐसी बुद्धि के द्वारा व्यर्थ ही विषयों का अध्यास (आश्रय) करते हैं तथापि-संसार में या मुक्ति में स्वयमेव सुखरूप परिणमित इस आत्मा को विषय क्या कर सकते हैं? ॥६७॥
अब, आत्मा का सुख-स्वभावत्व दृष्टान्त देकर दृढ़ करते हैं -
जैसे आकाश में अन्य कारण की अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य
- स्वयमेव अत्यधिक प्रभा-समूह से चमकते हुए स्वरूप के द्वारा विकसित प्रकाश-युक्त होने से तेज है,
- कभी १उष्णतारूप परिणमित लोहे के गोले की भाँति सदा उष्णता-परिणाम को प्राप्त होने से उष्ण है, और
- देवगति-नामकर्म के धारावाहिक उदय के वशवर्ती स्वभाव से देव है;
- स्व-पर को प्रकाशित करने में समर्थ निर्वितथ (सच्ची) अनन्त शक्ति-युक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्य होनेसे ज्ञान है,
- आत्म-तृप्ति से उत्पन्न होने वाली जो २परिनिवृत्ति है; उसमें प्रवर्तमान अनाकुलता में सुस्थितता के कारण सौख्य है, और
- जिन्हें आत्म-तत्त्व की उपलब्धि निकट है ऐसे बुध जनों के मनरूपी ३शिलास्तंभ में जिसकी अतिशय ४द्युति स्तुति उत्कीर्ण है ऐसा दिव्य आत्म-स्वरूपवान होने से देव है ।
१जैसे लोहे का गोला कभी उष्णता-परिणाम से परिणमता है वैसे सूर्य सदा ही उष्पता-परिणाम से परिणमा हुआ है
२परिनिर्वृत्ति = मोक्ष; परिपूर्णता; अन्तिम सम्पूर्ण सुख (परिनिर्वृत्ति आत्म-तृप्ति से होती है अर्थात् आत्म-तृप्ति की पराकाष्ठा ही परिनिर्वृत्ति है)
३शिलास्तंभ = पत्थर का खंभा
४द्युति = दिव्यता; भव्यता, महिमा (गणधरदेवादि बुध जनों के मन में शुद्धात्म-स्वरूप की दिव्यता का स्तुतिगान उत्कीर्ण हो गया है)
जब यह आत्मा दुःख की साधनभूत ऐसी द्वेष-रूप तथा इन्द्रिय विषय की अनुराग-रूप अशुभोपयोग भूमिका का उल्लंघन करके, देव-गुरु-यति की पूजा, दान, शील और उपवासादिक के प्रीति-स्वरूप धर्मानुराग को अंगीकार करता है तब वह इन्द्रिय-सुख की साधन-भूत शुभोपयोग-भूमिका में आरूढ़ कहलाता है ॥६९॥
यह आत्मा इन्द्रिय-सुख के साधनभूत शुभोपयोग की सामर्थ्य से उसके अधिष्ठान-भूत (इन्द्रियसुख के स्थानभूत-आधारभूत ऐसी) तिर्यंच, मनुष्य और देवत्व की भूमिकाओं में से किसी एक भूमिका को प्राप्त करके जितने समय तक (उसमें) रहता है, उतने समय तक अनेक प्रकार का इन्द्रिय-सुख प्राप्त करता है ॥७०॥
इन्द्रिय-सुख के भाजनों में प्रधान देव हैं; उनके भी वास्तव में स्वाभाविक सुख नहीं है, उल्टा उनके स्वाभाविक दुःख ही देखा जाता है; क्योंकि वे पचेन्द्रियात्मक शरीर-रूपी पिशाच की पीड़ा से परवश होने से १भृगुप्रपात के समान मनोज्ञ विषयों की ओर दौड़ते हैं ॥७१॥
१भृगुप्रपात = अत्यंत दुःख से घबराकर आत्मघात करने के लिये पर्वत के निराधार उच्च शिखर से गिरना । (भृगु = पर्वत का निराधार उच्च-स्थान-शिखर प्रपात= गिरना)
यदि शुभोपयोग-जन्य उदयगत पुण्य की सम्पत्ति वाले देवादिक (अर्थात् शुभोपयोग-जन्य पुण्य के उदय से प्राप्त होने वाली ऋद्धि वाले देव इत्यादि) और अशुभोपयोग-जन्य उदयगत पाप की आपदा वाले नारकादिक-यह दोनों स्वाभाविक सुख के अभाव के कारण अविशेषरूपसे (बिना अन्तर के) पचेन्द्रियात्मक शरीर सम्बन्धी दुःख का ही अनुभव करते हैं, तब फिर परमार्थ से शुभ और अशुभ उपयोग की पृथक्त्व व्यवस्था नहीं रहती ॥७२॥
शक्रेन्द्र और चक्रवर्ती अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगों के द्वारा शरीरादि को पुष्ट करते हुए-जैसे गोंच (जोंक) दूषित रक्त में अत्यन्त आसक्त वर्तती हुई सुखी जैसी भासित होती है, उसी प्रकार-उन भोगों में अत्यन्त आसक्त वर्तते हुए सुखी जैसे भासित होते हैं; इसलिये शुभोपयोग-जन्य फलवाले पुण्य दिखाई देते हैं । (अर्थात् शुभोपयोगजन्य फलवाले पुण्यों का अस्तित्व दिखाई देता है) ॥७३॥
यदि इस प्रकार शुभोपयोग परिणाम से उत्पन्न होने वाले अनेक पकार के पुण्य विद्यमान हैं ऐसा स्वीकार किया है, तो वे (पुण्य) देवों तक के समस्त संसारियों को विषय-तृष्णा अवश्यमेव उत्पन्न करते हैं (ऐसा भी स्वीकार करना पड़ता है) वास्तव में तृष्णा के बिना; जैसे जोंक (गोंच) को दूषित रक्त में, उसी प्रकार समस्त संसारियों को विषयों में प्रवृत्ति दिखाई न दे; किन्तु वह तो दिखाई देती है । इसलिये पुण्यों की तृष्णायतनता अबाधित ही है (अर्थात् पुण्य तृष्णा के घर हैं ऐसा अविरोध रूप से सिद्ध होता है) ॥७४॥
जिनके तृष्णा उदित है ऐसे देवपर्यन्त समस्त संसारी, तृष्णा दुःख का बीज होने से, पुण्य-जनित तृष्णाओं के द्वारा भी अत्यन्त दुखी होते हुए १मृगतृष्णा में से जल की भाँति विषयों में से सुख चाहते हैं और उस २दुख-संताप के वेग को सहन न कर सकने से विषयों को तब-तक भोगते हैं, जब तक कि विनाश (मरण) को प्राप्त नहीं होते । जैसे जोंक (गोंच), तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजय को प्राप्त दु:खांकुर से क्रमश: आक्रान्त होने से दूषित रक्त को चाहती है और उसी को भोगती हुई मरण-पर्यन्त क्लेश को पाती है, उसी प्रकार यह पुण्यशाली जीव भी, पापशाली जीवों की भाँति, तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजय-प्राप्त दु:खांकुरों के द्वारा क्रमश: आक्रांत होने से, विषयों को चाहते हुए और उन्ही को भोगते हुए विनाश-पर्यन्त (मरणपर्यन्त) क्लेश पाते हैं ।
इससे पुण्य सुखाभास ऐसे दुःखका ही साधन है ॥७५॥
१जैसे मृगजल में से जल नहीं मिलता वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में से सुख प्राप्त नहीं होता
२दुःखसंताप = दुःखदाह; दुःख की जलन-पीड़ा
पर-सम्बन्ध-युक्त होने से, बाधा सहित होने से, विच्छन्न होने से, बन्ध का कारण होने से, और विषम होने से - इन्द्रियसुख, पुण्यजन्य होने पर भी, दुःख ही है ।
इन्द्रियसुख
- 'पर के सम्बन्धवाला' होता हुआ पराश्रयता के कारण पराधीन है,
- बाधासहित होता हुआ खाने, पीने और मैथुन की इच्छा इत्यादि तृष्णा की व्यक्तियों से (तृष्णा की प्रगटताओं से) युक्त होने से अत्यन्त आकुल है,
- 'विच्छिन्न' होता हुआ असाता-वेदनीय का उदय जिसे १च्युत कर देता है ऐसे साता-वेदनीय के उदय से प्रवर्तमान होता हुआ अनुभव में आता है, इसलिये विपक्ष की उत्पत्तिवाला है,
- 'बन्ध का कारण' होता हुआ विषयोपभोग के मार्ग में लगी हुई रागादि दोषों की सेना के अनुसार कर्म-रज के २घन-पटल का सम्बन्ध होने के कारण परिणाम से दु:सह है, और
- 'विषम' होता हुआ हानि- वृद्धि में परिणमित होने से अत्यन्त अस्थिर है;
१च्युत करना = हटा देना; पदभ्रष्ट करना; (साता-वेदनीय का उदय उसकी स्थिति अनुसार रहकर हट जाता है और असाता-वेदनीय का उदय आता है)
२घन पटल = सघन (गाढ) पर्त, बड़ा झुण्ड
यों पूर्वोक्त प्रकार से, शुभाशुभ उपयोग के द्वैत की भाँति और सुख-दुःख के द्वैत की भाँति, परमार्थ से पुण्य-पाप का द्वैत नहीं टिकता-नहीं रहता, क्योंकि दोनों में अनात्म-धर्मत्व अविशेष अर्थात् समान है । (परमार्थ से जैसे शुभोपयोग और अशुभोपयोग रूप द्वैत विद्यमान नहीं है, जैसे १सुख और दुःखरूप द्वैत विद्यमान नहीं है, उसीप्रकार पुण्य और पाप-रूप द्वैत का भी अस्तित्व नहीं है; क्योंकि पुण्य और पाप दोनों आत्मा के धर्म न होने से निश्चय से समान ही हैं ।) ऐसा होने पर भी, जो जीव उन दोनों मे-सुवर्ण और लोहे की बेड़ी की भाँति- २अहंकारिक अन्तर मानता हुआ, अहमिन्द्र-पदादि सम्पदाओं के कारणभूत धर्मानुराग पर अत्यन्त निर्भरमयरूप से (गाढरूप से) अवलम्बित है, वह जीव वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने से (चित्त की भूमि कर्मोपाधि के निमित्त से रंगी हुई-मलिन विकृत होने से) जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ संसार-पर्यन्त (-जब तक इस संसार का अस्तित्व है तब तक अर्थात् सदा के लिये) शारीरिक दुःख का ही अनुभव करता है ॥७७॥
१सुख = इन्द्रियसुख
२पुण्य और पाप में अन्तर होने का मत अहंकार-जन्य (अविद्या-जन्य, अज्ञान-जन्य) है
जो जीव शुभ और अशुभ भावों के अविशेष दर्शन से (समानता की श्रद्धा से) वस्तु-स्वरूप को सम्यक-प्रकार से जानता है, स्व और पर दो विभागों में रहने वाली, समस्त पर्यायों सहित समस्त द्रव्यों के प्रति राग और द्वेष को निरवशेष रूप से छोड़ता है, वह जीव, एकान्त से उपयोग-विशुद्ध (सर्वथा शुद्धोपयोगी) होने से जिसने पर-द्रव्य का आलम्बन छोड़ दिया है ऐसा वर्तता हुआ-लोहे के गोले में से लोहे के १सार का अनुसरण न करने वाली अग्नि की भाँति-प्रचंड घन के आघात समान शारीरिक दुःख का क्षय करता है । (जैसे अग्नि लोहे के तप्त गोले में से लोहे के सत्व को धारण नहीं करती इसलिये अग्नि पर प्रचंड घन के प्रहार नहीं होते, उसी प्रकार पर-द्रव्य का आलम्बन न करने वाले आत्मा को शारीरिक दुःख का वेदन नहीं होता ।) इसलिये यही एक शुद्धोपयोग मेरी शरण है ॥७८॥
१सार = सत्व, घनता, कठिनता
जो जीव समस्त सावद्य-योग के प्रत्याख्यान-स्वरूप परम-सामायिक नामक चारित्र की प्रतिज्ञा करके भी धूर्त १अभिसारिका (नायिका) की भांति शुभोपयोग-परिणति से २अभिसार (मिलन) को प्राप्त होता हुआ (अर्थात् शुभोपयोग-परिणति के प्रेम में फँसता हुआ) मोह की सेना के वश-वर्तनपने को दूर नहीं कर डालता-जिसके महा दुःख संकट निकट हैं ऐसा वह, शुद्ध (विकार रहित, निर्मल) आत्मा को कैसे प्राप्त कर सकता है? (नहीं प्राप्त कर सकता) इसलिये मैने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने को कमर कसी है ॥७९॥
१अभिसारिका = संकेत अनुसार प्रेमी से मिलने जाने वाली स्त्री
२अभिसार = प्रेमी से मिलने जाना
जो वास्तव में अरहंत को द्रव्य-रूप से, गुण-रूप से और पर्याय-रूप से जानता है वह वास्तव में आत्मा को जानता है, क्योंकि दोनों में निश्चय से अन्तर नहीं है; और अरहन्त का स्वरूप, अन्तिम ताव को प्राप्त सोने के स्वरूप की भाँति, परिस्पष्ट (सर्वप्रकार से स्पष्ट) है, इसलिये उसका ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान होता है । वहाँ अन्वय वह द्रव्य है, अन्वय का विशेषण वह गुण है और अन्वय के व्यतिरेक (भेद) वे पर्यायें हैं । सर्वत: विशुद्ध भगवान अरहंत में (अरहंत के स्वरूप का ख्याल करने पर) जीव तीनों प्रकार-युक्त समय को (द्रव्य-गुण-पर्यायमय निज आत्मा को) अपने मन से जान लेता है-समझ लेता है । यथा 'यह १चेतन है' इस प्रकार का अन्वय वह द्रव्य है, अन्वय के आश्रित रहनेवाला 'चैतन्य' विशेषण वह गुण है, और एक समय मात्र की मर्यादा वाला काल-परिमाण होने से परस्पर अप्रवृत्त २अन्वय-व्यतिरेक वे पर्यायें हैं-जो कि चिद्विवर्तन (आत्मा के परिणमन) की ग्रंथियां (गाठें) हैं ।
अब, इस प्रकार त्रैकालिक को भी (त्रैकालिक आत्मा को भी) एक काल में समझ लेने वाला वह जीव, जैसे मोतियों को झूलते हुए हार में अन्तर्गत माना जाता है, उसी प्रकार चिद्विवर्तों का चेतन में ही संक्षेपण (अंतर्गत) करके, तथा ३विशेषण-विशेष्यता की वासना का ४अन्तर्धान होने से-जैसे सफेदी को हार में ५अन्तर्हित किया जाता है, उसी प्रकार-चैतन्य को चेतन में ही अन्तर्हित करके, जैसे मात्र ६हार को जाना जाता है, उसीप्रकार केवल आत्मा को जानने पर, उसके उत्तरोत्तर क्षण में कर्ता-कर्म-क्रिया का विभाग क्षय को प्राप्त होता जाता है इसलिये निष्किय चिन्मात्र भाव को प्राप्त होता है; और इस प्रकार मणि की भाँति जिसका निर्मल प्रकाश अकम्प-रूप से प्रवर्तमान है ऐसे उस (चिन्मात्र भाव को प्राप्त) जीव के मोहान्धकार निराश्रयता के कारण अवश्यमेव प्रलय को प्राप्त होता है ।
यदि ऐसा है तो मैने मोह की सेना को जीतने का उपाय प्राप्त कर लिया है ॥८०॥
१चेतन = आत्मा
२अन्वयव्यतिरेक = एक दूसरे में नहीं प्रवर्तते ऐसे जो अन्वय के व्यतिरेक
३विशेषण गुण है और विशेष्य वो द्रव्य है
४अंतर्धान = अदृश्य हो जाना
५अंतर्हित = गुप्त; अदृश्य
६हार को खरीदने वाला मनुष्य हार को खरीदते समय हार, उसकी सफेदी और उनके मोतियों इत्यादि की परीक्षा करता है, किन्तु बाद में सफेदी और मोतियों को हार में ही समाविष्ट करके उनका लक्ष छोड्कर वह मात्र हार को ही जानता है । यदि ऐसा न करे तो हार के पहिनने पर भी उसकी सफेदी आदि के विकल्प बने रहने से हार को पहनने के सुख का वेदन नहीं कर सकेगा
इस प्रकार जिस उपाय का स्वरूप वर्णन किया है, उस उपाय के द्वारा मोह को दूर करके भी सम्यक् आत्म-तत्त्व को (यथार्थ स्वरूप को) प्राप्त करके भी यदि जीव राग-द्वेष को निर्मूल करता है, तो शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है । (किन्तु) यदि पुन:-पुन: उनका अनुसरण करता है, -रागद्वेषरूप परिणमन करता है, तो प्रमाद के अधीन होने से शुद्धात्म-तत्त्व के अनुभव रूप चिंतामणि-रत्न के चुराये जाने से अन्तरंग में खेद को प्राप्त होता है । इसलिये मुझे रागद्वेष को दूर करने के लिये अत्यन्त जाग्रत रहना चाहिये ॥८१॥
अतीत काल में क्रमश हुए समस्त तीर्थंकर भगवान, १प्रकारान्तर का असंभव होने से जिसमें द्वैत संभव नहीं है; ऐसे इसी एक प्रकार से कर्मांशों (ज्ञानावरणादि कर्म भेदों) का क्षय स्वयं अनुभव करके (तथा) २परमाप्तता के कारण भविष्यकाल में अथवा इस (वर्तमान) काल में अन्य मुमुक्षुओं को भी इसीप्रकार से उसका (कर्म क्षय का) उपदेश देकर नि:श्रेयस (मोक्ष) को प्राप्त हुए हैं; इसलिये निर्वाण का अन्य (कोई) मार्ग नहीं है ऐसा निश्चित होता है । अथवा अधिक प्रलाप से बस होओ! मेरी मति व्यवस्थित हो गई है । भगवन्तों को नमस्कार हो ॥८२॥
१प्रकारान्तर = अन्य प्रकार (कर्म-क्षय एक ही पकार से होता है, अन्य-प्रकार से नहीं होता, इसलिये उस कर्म-क्षय के प्रकार में द्वैत अर्थात् दो-रूपपना नहीं है)
२परमाप्त = परम आप्त; परम विश्वासपात्र (तीर्थंकर भगवान सर्वज्ञ और वीतराग होने से परम आप्त हैं, अर्थात् उपदेष्टा हैं)
धतूरा खाये हुए मनुष्यकी भांति, जीवके जो पूर्व वर्णित द्रव्य-गुण-पर्याय हैं उनमें होनेवाला १तत्त्व -अप्रतिपत्तिलक्षण मूढ़ भाव वह वास्तव में मोह है । उस मोह से निजरूप आच्छादित होने से यह आत्मा पर-द्रव्य को स्व-द्रव्य रूप से, पर-गुण को स्व-गुण रूप से, और पर-पर्यायों को स्व-पर्याय रूप समझकर-अंगीकार करके, अति रूढ-दृढ़तर संस्कार के कारण पर-द्रव्य को ही सदा ग्रहण करता हुआ, 'दग्ध इन्द्रियों की रुचि के वश से' अद्वैत में भी द्वैत प्रवृत्ति करता हुआ, रुचिकर-अरुचिकर विषयों में राग-द्वेष करके अति प्रचुर जल-समूह के वेग से प्रहार को प्राप्त सेतु-बन्ध (पुल) की भाँति दो भागों में खंडित होता हुआ अत्यन्त क्षोभ को प्राप्त होता है । इससे मोह, राग और द्वेष -- इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकार का है ॥८३॥
१तत्त्व अप्रतिपत्ति लक्षण = तत्त्व की अप्रतिपत्ति (अप्राप्ति, अज्ञान, अनिर्णय) जिसका लक्षण है ऐसा ।
२दग्ध = जली हुई; हलकी; शापित । (’दग्ध’ तिरस्कार-वाचक शब्द है)
३इन्द्रियविषयोंमे-पदार्थों में 'यह अच्छे हैं और यह बुरे' इस प्रकार का द्वैत नहीं है; तथापि वहाँ भी मोहाच्छादित जीव अच्छे-बुरे का द्वैत उत्पन्न कर लेते हैं
इस प्रकार तत्त्व-अप्रतिपत्ति (वस्तु-स्वरूप के अज्ञान) से बंद हुए, मोह-रूप, राग-रूप या द्वेष-रूप परिणमित होते हुए इस जीव को-
- घास के ढेर से ढँके हुए खड्डे का संग करने वाले हाथी की भाँति,
- हथिनी-रूपी कुट्टनी के शरीर में आसक्त हाथी की भाँति और
- विरोधी हाथी को देखकर, उत्तेजित होकर (उसकी ओर) दौड़ते हुए हाथी की भाँति
१पदार्थों की अयथा-तथ्य रूप प्रतिपत्ति के द्वारा और तिर्यंच-मनुष्य २प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणा-बुद्धि से मोह को (जानकर), इष्ट विषयों की आसक्ति से राग को और अनिष्ट विषयों की अप्रीति से द्वेष को (जानकर) -इस प्रकार तीन लिंगों के द्वारा (तीन पकार के मोह को) पहिचानकर तत्काल ही उत्पन्न होते ही तीनो प्रकार का मोह नष्ट कर देने योग्य है ॥८५॥
१पदार्थों की अयथातथ्य रूप प्रतिपत्ति = पदार्थ जैसे नहीं है उन्हें वैसा समझना अर्थात् उन्हें अन्यथा स्वरूप से अंगीकार करना
२प्रेक्षायोग्य = मात्र प्रेक्षक भाव से- दृष्टा-ज्ञाता रूप से- मध्यस्थ भाव से देखने योग्य
द्रव्य-गुण-पर्याय स्वभाव से अर्हन्त के ज्ञान द्वारा आत्मा का उस प्रकार का ज्ञान मोह-क्षय के उपाय के रूप में पहले (८० वीं गाथा में) प्रतिपादित किया गया था, वह वास्तव में इस (निम्न-लिखित) उपायान्तर की अपेक्षा रखता है । (वह उपायान्तर क्या है सो कहा जाता है) : -
जिसने प्रथम भूमिका में गमन किया है ऐसे जीव को, जो १सर्वज्ञोपज्ञ होने से सर्व प्रकार से अबाधित है ऐसे, शब्द प्रमाण को (द्रव्य श्रुत-प्रमाण को) प्राप्त करके क्रीड़ा करने पर, उसके संस्कार से विशिष्ट संवेदन (ज्ञान) शक्ति रूप सम्पदा प्रगट करने पर, २सहृदय-जनों के हृदय को आनन्द का ३उद्भेद देने वाले प्रत्यक्ष प्रमाण से अथवा उससे (प्रत्यक्ष प्रमाण से) अविरुद्ध अन्य प्रमाण समूह से १तत्त्वतः समस्त वस्तु-मात्र को जानने पर १अतत्त्व-अभिनिवेश के संस्कार करने वाला मोहोपचय (मोहसमूह) अवश्य ही क्षय को प्राप्त होता है । इसलिये मोह का क्षय करने में, परम शब्द-ब्रह्म की उपासना का भाव-ज्ञान के अवलम्बन द्वारा दृढ़ किये गये परिणाम से सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायान्तर है । (जो परिणाम भाव-ज्ञान के अवलम्बन से दृढ़ीकृत हो ऐसे परिणाम से द्रव्य-श्रुत का अभ्यास करना सो मोह-क्षय करने के लिये उपायान्तर है) ॥८६॥
१सर्वज्ञोपज्ञ = सर्वज्ञ द्वारा स्वयं जाना हुआ (और कहा हुआ)
२सहृदय = भावुक; शास्त्र में जिस समय जिस भाव का प्रसंग होय उस भाव को हृदय में ग्रहण करने वाला; बुध; पंडित
३उद्भेद = स्फुरण; प्रगटता; फुवारा
द्रव्य, गुण और पर्यायों में अभिधेय-भेद होने पर भी अभिधान का अभेद होने से वे 'अर्थ' हैं (अर्थात् द्रव्यों, गुणों और पर्यायों में वाच्य का भेद होने पर भी वाचक में भेद न दखें तो 'अर्थ' ऐसे एक ही वाचक-शब्द से ये तीनों पहिचाने जाते हैं) । उसमें (इन द्रव्यों, गुणों और पर्यायों में से),
- जो गुणों को और पर्यायों को प्राप्त करते हैं - पहुँचते हैं अथवा जो गुणों और पर्यायों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं - पहुँचे जाते हैं ऐसे १'अर्थ' वे द्रव्य हैं,
- जो द्रव्यों को आश्रय के रूप में प्राप्त करते हैं- पहुँचते हैं- अथवा जो आश्रय-भूत द्रव्यों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं- पहुँचे जाते हैं ऐसे 'अर्थ' वे गुण हैं,
- जो द्रव्यों को क्रम-परिणाम से प्राप्त करते हैं - पहुँचते हैं अथवा जो द्रव्यों के द्वारा क्रम-परिणाम से (क्रमश: होने वाले परिणाम के कारण) प्राप्त किये जाते हैं - पहुँचे जाते हैं ऐसे 'अर्थ' वे पर्याय हैं ।
- द्रव्य-स्थानीय (द्रव्य के समान, द्रव्य के दृष्टान्त-रूप) सुवर्ण, पीलापन इत्यादि गुणों को और कुण्डल इत्यादि पर्यायों को प्राप्त करता है - पहुँचता है अथवा (सुवर्ण) उनके द्वारा (पीलापनादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों द्वारा) प्राप्त किया जाता है - पहुँचा जाता है इसलिये द्रव्य-स्थानीय सुवर्ण 'अर्थ' है,
- जैसे पीलापन इत्यादि गुण सुवर्ण को आश्रय के रूप में प्राप्त करते हैं - पहुँचते हैं अथवा (वे) आश्रय-भूत सुवर्ण के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं - पहुँचे जाते हैं इसलिये पीलापन इत्यादि गुण 'अर्थ' हैं; और
- जैसे कुण्डल इत्यादि पर्यायें सुवर्ण को क्रम-परिणाम से प्राप्त करती हैं - पहुँचती हैं अथवा (वे) सुवर्ण के द्वारा क्रम-परिणाम से प्राप्त की जाती हैं - पहुँची जाती हैं इसलिये कुण्डल इत्यादि पर्यायें 'अर्थ' हैं;
और जैसे इन सुवर्ण, पीलापन इत्यादि गुण और कुण्डल इत्यादि पर्यायों में (इन तीनों में, पीलापन इत्यादि गुणों का और कुण्डल पर्यायों का) सुवर्ण से अपृथक्त्व होने से उनका (पीलापन इत्यादि गुणों का और कुण्डल इत्यादि पर्यायों का) सुवर्ण ही आत्मा है, उसी प्रकार उन द्रव्य-गुण-पर्यायों में गुण-पर्यायों का द्रव्य से अपृथक्त्व होने से उनका द्रव्य ही आत्मा है (अर्थात् द्रव्य ही गुण और पर्यायों का आत्मा-स्वरूप-सर्वस्व-सत्य है) ।
१'ऋ' धातु में से 'अर्थ' शब्द बना है । 'ऋ' अर्थात् पाना, प्राप्त करना, पहुँचना, जाना । 'अर्थ' अर्थात् (१) जो पाये-प्राप्त करे-पहुँचे, अथवा (२) जिसे पाया जाये-प्राप्त किया जाये-पहुँचा जाये ।
२जैसे सुवर्ण, पीलापन आदिको और कुण्डल आदि को प्राप्त करता है अथवा पीलापन आदि और कुण्डल आदि के द्वारा प्राप्त किया जाता है (अर्थात् पीलापन आदि और कुण्डल आदिक सुवर्ण को प्राप्त करते हैं) इसलिये सुवर्ण 'अर्थ' है, वैसे द्रव्य 'अर्थ'; जैसे पीलापन आदि आश्रय-भूत सुवर्ण को प्राप्त करता है अथवा आश्रय-भूत सुवर्ण द्वारा प्राप्त किये जाते है (अर्थात् आश्रय-भूत सुवर्ण पीलापन आदि को प्राप्त करता है) इसलिये पीलापन आदि 'अर्थ' हैं, वैसे गुण 'अर्थ' हैं; जैसे कुण्डल आदि सुवर्ण को क्रम-परिणाम से प्राप्त करते हैं अथवा सुवर्ण द्वारा क्रम-परिणाम से प्राप्त किया जाता है (अर्थात् सुवर्ण कुण्डल आदि को क्रम-परिणाम से प्राप्त करता है) इसलिये कुण्डल आदि 'अर्थ' हैं, वैसे पर्यायें 'अर्थ' हैं
इस अति दीर्घ, सदा उत्पात-मय संसार-मार्ग मे किसी भी प्रकार से जिनेन्द्र-देव के इस तीक्ष्ण असिधारा समान उपदेश को प्राप्त करके भी जो मोह-राग-द्वेष पर अति दृढता पूर्वक प्रहार करता है, वही हाथ में तलवार लिये हुए मनुष्य की भांति शीघ्र ही समस्त दुःखों से परिमुक्त होता है; अन्य (कोई) व्यापार (प्रयत्न; क्रिया) समस्त दुःखों से परिमुक्त नहीं करता । (जैसे मनुष्य के हाथ में तीक्ष्ण तलवार होने पर भी वह शत्रुओं पर अत्यन्त वेग से उसका प्रहार करे तभी वह शत्रु सम्बन्धी दुःख से मुक्त होता है अन्यथा नहीं, उसी प्रकार इस अनादि संसार में महाभाग्य से जिनेश्वर-देव के उपदेश-रूपी तीक्ष्ण तलवार को प्राप्त करके भी जो जीव मोह-राग-द्वेष रूपी शत्रुओं पर अतिदृढ़ता पूर्वक उसका प्रहार करता है वही सर्व दुःखों से मुक्त होता है अन्यथा नहीं) इसीलिये सम्पूर्ण आरम्भ से (प्रयत्नपूर्वक) मोह का क्षय करने के लिये मैं पुरुषार्थ का आश्रय ग्रहण करता हूँ ॥८८॥
जो निश्चय से अपने को स्वकीय (अपने) चैतन्यात्मक द्रव्यत्व से संबद्ध (संयुक्त) और पर को परकीय (दूसरे के) १यथोचित द्रव्यत्व से संबद्ध जानता है, वही (जीव), जिसने कि सम्यक्त्व-रूप से स्व-पर के विवेक को प्राप्त किया है, सम्पूर्ण मोह का क्षय करता है । इसलिये मैं स्व-पर के विवेक के लिये प्रयत्नशील हूँ ॥८९॥
१यथोचित = यथायोग्य-चेतन या अचेतन (पुद्गलादि द्रव्य परकीय अचेतन द्रव्यत्व से और अन्य आत्मा परकीय चेतन द्रव्यत्व से संयुक्त हैं) ।
मोह का क्षय करने के प्रति १प्रवण बुद्धि वाले बुध-जन इस जगत में आगम में कथित अनन्त गुणों में से किन्हीं गुणों के द्वारा, जो गुण २अन्य के साथ योग रहित होने से असाधारणता धारण करके विशेषत्व को प्राप्त हुए हैं उनके द्वारा, अनन्त द्रव्य-परम्परा में स्व-पर के विवेक को प्राप्त करो । (अर्थात् मोह का क्षय करने के इच्छक पंडित-जन आगम कथित अनन्त गुणों में से असाधारण और भिन्न लक्षण-भूत गुणों के द्वारा अनन्त द्रव्य परम्परा में 'यह स्व-द्रव्य हैं और यह परद्रव्य हैं' ऐसा विवेक करो), जो कि इसप्रकार हैं :-
३सत् और ४अकारण होने से स्वत:सिद्ध, अन्तर्मुख और बहिर्मुख प्रकाश वाला होने से स्व-पर का ज्ञायक-ऐसा जो यह, मेरे साथ सम्बन्ध-वाला, मेरा चैतन्य है उसके द्वारा-जो (चैतन्य) समान-जातीय अथवा असमान-जातीय अन्य द्रव्य को छोडकर मेरे आत्मा में ही वर्तता है, उसके द्वारा - मैं अपने आत्मा को ५सकल-त्रिकाल में ध्रुवत्व का धारक द्रव्य जानता हूँ । इस प्रकार पृथक् रूप से वर्तमान स्व-लक्षणों के द्वारा-जो अन्य द्रव्य को छोड़कर उसी द्रव्य में वर्तते हैं उनके द्वारा-आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और अन्य आत्मा को सकल त्रिकाल में ध्रुवत्व धारक द्रव्य के रूप में निश्चित करता हूँ (जैसे चैतन्य लक्षण के द्वारा आत्मा को ध्रुव द्रव्य के रूप में जाना, उसीप्रकार अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व इत्यादि लक्षणों से-जो कि स्व-लक्ष्यभूत द्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाते उनके द्वारा-आकाश, धर्मास्तिकाय, इत्यादि को भिन्न-भिन्न ध्रुव द्रव्यों के रूपमें जानता हूँ) इसलिये मैं आकाश नहीं हूँ, मैं धर्म नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और आत्मान्तर नहीं हूँ; क्योंकि -- मकान के ६एक कमरे में जलाये गये अनेक दीपकों के प्रकाशों की भाँति यह द्रव्य इकट्ठे होकर रहते हुए भी मेरा चैतन्य निज-स्वरूप से अच्युत ही रहता हुआ मुझे पृथक् बतलाता है ।
इसप्रकार जिसने स्व-पर का विवेक निश्चित किया है ऐसे इस आत्मा को विकारकारी मोहांकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता ॥९०॥
१प्रवण = ढलती हुई; अभिमुख; रत
२कितने ही गुण अन्य द्रव्यों के साथ सम्बन्ध रहित होने से अर्थात् अन्य द्रव्यों में न होने से असाधारण हैं और इसलिये विशेषणभूत-भिन्न लक्षणभूत है; उसके द्वारा द्रव्यों की भिन्नता निश्चित की जा सकती है
३सत् = अस्तित्ववाला; सत्रूप; सत्तावाला
४अकारण = जिसका कोई कारण न हो ऐसा अहेतुक, (चैतन्य सत् और अहेतुक होनेसे स्वयंसे सिद्ध है ।)
५सकल = पूर्ण, समस्त, निरवशेष (आत्मा कोई काल को बाकी रखे बिना संपूर्ण तीनों काल ध्रुव रहता ऐसा द्रव्य है ।)
६जैसे किसी एक कमरे में अनेक दीपक जलाये जायें तो स्थूल-दृष्टि से देखने पर उनका प्रकाश एक दूसरे में मिला हुआ मालूम होता है, किन्तु सूक्ष्म-दृष्टि से विचार पूर्वक देखने पर वे सब प्रकाश भिन्न-भिन्न ही हैं; (क्योंकि उनमें से एक दीपक बुझ जाने पर उसी दीपक का प्रकाश नष्ट होता है; अन्य दीपकों के प्रकाश नष्ट नहीं होते) उसी प्रकार जीवादिक अनेक द्रव्य एक ही क्षेत्र में रहते हैं फिर भी सूक्ष्म-दृष्टि से देखने पर वे सब भिन्न-भिन्न ही हैं, एकमेक नहीं होते ।
जो (जीव) इन द्रव्यों को-कि जो (द्रव्य) १सादृश्य-अस्तित्व के द्वारा समानता को धारण करते हुए स्वरूप-अस्तित्व के द्वारा विशेष-युक्त हैं उन्हें स्व-पर के भेदपूर्वक न जानता हुआ और श्रद्धा न करता हुआ यों ही (ज्ञान-श्रद्धा के बिना) मात्र श्रमणता से (द्रव्य-मुनित्व से) आत्मा का दमन करता है वह वास्तव में श्रमण नहीं है; इसलिये, जैसे जिसे रेती और स्वर्ण-कणों का अन्तर ज्ञात नहीं है, उसे धूलधोये को-उसमें से स्वर्ण-लाभ नहीं होता, इसी प्रकार उसमें से (श्रमणाभास में से) २निरुपराग आत्म-तत्त्व की उपलब्धि (प्राप्ति) लक्षण वाले धर्म-लाभ का उद्भव नहीं होता ॥९१॥
'उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती' इस प्रकार (पाँचवीं गाथा में) प्रतिज्ञा करके, 'चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो’ इस प्रकार (७वीं गाथा में) साम्य का धर्मत्व (साम्य ही धर्म है) निश्चित करके ‘परिणमदि जेण दव्यं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो’ इस प्रकार (८वीं गाथा में) जो आत्मा का धर्मत्व कहना प्रारम्भ किया और जिसकी सिद्धि के लिये ‘धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो, पावदि णिव्वाणसुहं’ इस प्रकार (११वीं गाथा में) निर्वाणसुख के साधनभूत शुद्धोपयोग का अधिकार प्रारम्भ किया, विरोधी शुभाशुभ उपयोग को नष्ट किया (हेय बताया), शुद्धोपयोग का स्वरूप वर्णन किया, शुद्धोपयोग के प्रसाद से उत्पन्न होने वाले ऐसे आत्मा के सहज ज्ञान और आनन्द को समझाते हुए ज्ञान के स्वरूप का और सुख के स्वरूप का विस्तार किया, उसे (आत्मा के धर्मत्व को) अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग के प्रसाद से सिद्ध करके, परम निस्पृह, आत्मतृप्त (ऐसी) पारमेश्वरी प्रवृत्ति को प्राप्त होते हुये, कृतकृत्यता को प्राप्त करके अत्यन्त अनाकुल होकर, जिनके भेदवासना की प्रगटता का प्रलय हुआ है, ऐसे होते हुए, (आचार्य भगवान) ‘मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ’ इस प्रकार रहते हैं, (-ऐसे भाव में निश्चल-स्थित होते हैं)
१अस्तित्व दो प्रकार का है : -सादृश्य-अस्तित्व और स्वरूप-अस्तित्व । सादृश्य-अस्तित्व की अपेक्षा से सर्व द्रव्यों में समानता है, और स्वरूप-अस्तित्व की अपेक्षा से समस्त द्रव्यों में विशेषता है
२निरुपराग = उपराग (मलिनता, विकार) रहित
यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तव में मनोरथ है । उसमें विघ्न डालने वाली एक १बहिर्मोह-दृष्टि ही है । और वह (बहिर्मोह-दृष्टि) तो २आगम-कौशल्य तथा आत्म-ज्ञान से नष्ट हो जाने के कारण अब मुझ में पुन: उत्पन्न नहीं होगी । इसलिये वीतराग-चारित्र रूप से प्रगटता को प्राप्त (वीतराग-चारित्र रूप पर्याय में परिणत) मेरा यह आत्मा स्वयं धर्म होकर, समस्त विघ्नों का नाश हो जाने से सदा निष्कंप ही रहता है । अधिक विस्तार से बस हो ! जयवंत वर्तो ३स्याद्वाद-मुद्रित जैनेन्द्र शब्दब्रह्म; जयवंत वर्तो ४शब्दब्रह्म-मूलक आत्म-तत्त्वोपलब्धि-कि जिसके प्रसाद से, अनादि संसार से बंधी हुई मोह-ग्रंथि तत्काल ही छूट गई है; और जयवंत वर्तो परम वीतराग-चारित्र-स्वरूप शुद्धोपयोग कि जिसके प्रसाद से यह आत्मा स्वयमेव धर्म हुआ है ॥९२॥
(( (कलश)
विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुँ ओर के, चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये ।
अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम, विलसत सहजानन्द मय जानिये ॥
नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन, शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये ।
नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आत्मा, स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ॥५॥))
इसप्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हुआ अर्थात् स्वयं धर्मरूप परिणमित होता हुआ नित्य आनन्द के प्रसार से सरस (अर्थात् जो शाश्वत आनन्द के प्रसार से रस-युक्त) ऐसे ज्ञान-तत्त्व में लीन होकर, अत्यन्त अविचलता के कारण, दैदीप्यमान ज्योतिमय और सहजरूप से विलसित (स्वभाव से ही प्रकाशित) रत्न-दीपक की निष्कंप-प्रकाशमय शोभा को पाता है । (अर्थात् रत्न-दीपक की भाँति स्वभाव से ही निष्कंपतया अत्यन्त प्रकाशित होता-जानता-रहता है) ।
(( (कलश)
आत्मा में विद्यमान ज्ञान तत्त्व पहिचान, पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के शुद्धभाव से ।
ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन के उपरान्त स अब, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन करते हैं चाव से ॥
सामान्य और असामान्य ज्ञेय तत्त्व सब, जानने के लिए द्रव्य गुण पर्याय से
मोह अंकुर उत्पन्न न हो इसलिए, ज्ञेय का स्वरूप बतलाते विस्तार से ॥६॥))
आत्मा-रूपी अधिकरण में रहने वाले अर्थात् आत्मा के आश्रित रहने वाले ज्ञान-तत्त्व का इस प्रकार यथार्थतया निश्चय करके, उसकी सिद्धि के लिये (केवल-ज्ञान प्रगट करने के लिये) प्रशम के लक्ष से (उपशम प्राप्त करने के हेतु से) ज्ञेय-तत्त्व को जानने का इच्छुक (जीव) सर्व पदार्थों को द्रव्य-गुण-पर्याय सहित जानता है, जिससे कभी मोहांकुर की किंचित् मात्र भी उत्पत्ति न हो ।
इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कृन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद् अमृतचंद्राचार्य-देव विरचित तत्त्व-दीपिका नामक टीका में ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन नामक प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।
१बहिर्मोहदृष्टि = बहिर्मुख ऐसी मोहदृष्टि (आत्मा को धर्मरूप होने में विम्न डालने वाली एक बहिर्मोह-दृष्टि ही है)
२आगम-कौशल्य = आगम में कुशलता-प्रवीणता
३स्याद्वाद-मुद्रित जैनेन्द्र शब्दब्रह्म = स्याद्वादकी छापवाला जिनेन्द्र का द्रव्यश्रुत
४शब्दब्रह्म-मूलक = शब्दब्रह्म जिसका मूल कारण है
इस विश्व में जो कोई जानने में आने वाला पदार्थ है वह समस्त ही १विस्तार-सामान्य समुदायात्मक और २आयत-सामान्य समुदायात्मक द्रव्य से रचित होने से द्रव्यमय (द्रव्यस्वरूप) है । और ३द्रव्य एक जिनका आश्रय है ऐसे विस्तार-विशेष स्वरूप गुणों से रचित (गुणों से बने हुए) होने से गुणात्मक है ।
और पर्यायें — जो कि आयत-विशेषस्वरूप हैं वे—जिनके लक्षण (ऊपर) कहे गये हैं ऐसे द्रव्यों से तथा गुणों से रचित होने से द्रव्यात्मक भी हैं गुणात्मक भी हैं । उसमें, अनेक-द्रव्यात्मक एकता की ४प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्यपर्याय है । वह दो प्रकार है । (१) समानजातीय और (२) असमानजातीय । उसमें
- समानजातीय वह है—जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक ५द्विअणुक, त्रिअणुक इत्यादि;
- असमानजातीय वह है,—जैसे कि जीवपुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि ।
- उसमें समस्त द्रव्यों के अपने-अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप अनेकत्व की अनुभूत वह स्वभावपर्याय है;
- रूपादि के या ज्ञानादि के ६स्व-पर के कारण प्रवर्तमान ७पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्य के कारण देखने में आने वाले स्वभाव-विशेष-रूप अनेकत्व की ८आपत्ति विभावपर्याय है ।
अब यह (पूर्वोक्त कथन) दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं :—
- जैसे सम्पूर्ण ९पट, अवस्थायी (स्थिर) विस्तार-सामान्य-समुदाय से और दौड़ते (बहते, प्रवाहरूप) हुये ऐसे आयत-सामान्य-समुदाय से रचित होता हुआ तन्मय ही है, उसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ 'द्रव्य' नामक अवस्थायी विस्तार-सामान्य-समुदाय से और दौड़ते हुये आयत-सामान्य-समुदाय से रचित होता हुआ द्रव्यमय ही है । और
- जैसे पट में, अवस्थायी विस्तार-सामान्य-समुदाय या दौड़ते हुये आयत-सामान्य-समुदाय गुणों से रचित होता हुआ गुणों से पृथक् अप्राप्त होने से गुणात्मक ही है, उसी प्रकार पदार्थों में, अवस्थायी विस्तार-सामान्य-समुदाय या दौड़ता हुआ आयत-सामान्य-समुदाय -- जिसका नाम 'द्रव्य' है वह, गुणों से रचित होता हुआ गुणों से पृथक् अप्राप्त होने से गुणात्मक ही है । और
- जैसे अनेक पटात्मक (एक से अधिक वस्त्रों से निर्मित) द्विपटिक, त्रिपटिक ऐसे समानजातीय द्रव्य-पर्याय है, उसी प्रकार अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक, त्रिअणुक ऐसी समानजातीय द्रव्यपर्याय है; और
- जैसे अनेक रेशमी और सूती पटों के बने हुए १०द्विपटिक, त्रिपटिक ऐसी असमानजातीय द्रव्य-पर्याय है, उसी प्रकार अनेक जीव-पुद्गलात्मक देव, मनुष्य ऐसी असमानजातीय द्रव्य-पर्याय है । और
- जैसे कभी पट में अपने स्थूल अगुरुलघु-गुण द्वारा कालक्रम से प्रवर्तमान अनेक प्रकाररूप से परिणमित होने के कारण अनेकत्व की प्रतिपत्ति गुणात्मक स्वभाव-पर्याय है, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों में अपने-अपने सूक्ष्म अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्थान-पतित हानि-वृद्धिरूप अनेकत्व की अनुभूति वह गुणात्मक स्वभाव-पर्याय है; और
- जैसे पट में, रूपादिक के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्य के कारण देखने में आने वाले स्वभाव-विशेषरूप अनेकत्व की आपत्ति वह गुणात्मक विभावपर्याय है, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों में, रूपादिक के या ज्ञानादि के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्य के कारण देखने में आने वाले स्वभावविशेषरूप अनेकत्व की आपत्ति वह गुणात्मक विभावपर्याय है ।
१विस्तार-सामान्य-समुदाय = विस्तारसामान्य-रूप समुदाय । विस्तार का अर्थ है कि चौड़ाई । द्रव्य की चौड़ाई की अपेक्षा के (एक-साथ रहने वाले सहभावी) भेदों को (विस्तार-विशेषों को) गुण कहा जाता है; जैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि जीव-द्रव्य के विस्तार-विशेष अर्थात् गुण हैं । उन विस्तार-विशेषों में रहने वाले विशेषत्व को गौण करें तो इन सबमें एक आत्म-स्वरूप सामान्यत्व भासित होता है । यह विस्तारसामान्य (अथवा विस्तार-सामान्य-समुदाय) वह द्रव्य है ।
२आयतसामान्यसमुदाय = आयतसामान्यरूप समुदाय । आयत का अर्थ है लम्बाई अर्थात् कालापेक्षित-प्रवाह । द्रव्य के लम्बाई की अपेक्षा के (एक के बाद एक प्रवर्तमान, क्रमभावी, कालापेक्षित) भेदों को (आयत विशेषों को) पर्याय कहा जाता है । उन क्रमभावी पर्यायों में प्रवर्तमान विशेषत्व को गौण करें तो एक द्रव्यत्वरूप सामान्यत्व ही भासित होता है । यह आयतसामान्य (अथवा आयतसामान्य समुदाय) वह द्रव्य है ।
३अनन्त गुणों का आश्रय एक द्रव्य है ।
४प्रतिपत्ति = प्राप्ति; ज्ञान; स्वीकार ।
५द्विअणुक = दो अणुओं से बना हुआ स्कंध ।
६स्व उपादान और पर निमित्त है ।
७पूर्वोत्तर = पहले की और बाद की ।
८आपत्ति = आपतित, आपड़ना ।
९पट = वस्त्र
१०द्विपटिक = दो थानों को जोड़कर (सीकर) बनाया गया एक वस्त्र (यदि दोनों थान एक ही जाति के हों तो समान-जातीय द्रव्य-पर्याय कहलाता है, और यदि दो थान भिन्न जाति के हों (जैसे एक रेशमी दूसरा सूती) तो असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय कहलाता है ।
११परमेश्वर की कही हुई
जो जीव पुद्गलात्मक असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय का जो कि सकल अविद्याओं का एक जड़ है उसका आश्रय करते हुए
- १यथोक्त आत्म-स्वभाव की २संभावना करने में नपुंसक होने से उसी में बल धारण करते हैं (अर्थात् उन असमान-जातीय द्रव्य-पर्यायों के प्रति ही बलवान हैं),
- वे जिनकी ३निरर्गल एकान्त-दृष्टि उछलती है ऐसे - 'यह मैं मनुष्य ही हूँ, मेरा ही यह मनुष्य शरीर है' इस प्रकार अहंकार-ममकार से ठगाये जाते हुये,
- अविचलित-चेतना-विलासमात्र ४आत्म-व्यवहार से च्युत होकर, जिसमें समस्त क्रिया-कलाप को छाती से लगाया जाता है ऐसे ५मनुष्य-व्यवहार का आश्रय करके रागी-द्वेषी होते हुए
- पर-द्रव्य-रूप कर्म के साथ संगतता के कारण (पर-द्रव्य-रूप कर्म के साथ युक्त हो जाने से)
और जो ७असंकीर्ण द्रव्य-गुण-पर्यायों से सुस्थित भगवान आत्मा के स्वभाव का जो कि सकल विद्याओं का एक मूल है उसका आश्रय करके
- यथोक्त आत्म-स्वभाव की संभावना में समर्थ होने से पर्याय-मात्र प्रति के बल को दूर करके आत्मा के स्वभाव में ही स्थिति करते है (लीन होते हैं),
- वे जिन्होंने सहज-विकसित अनेकान्त-दृष्टि से समस्त एकान्त-दृष्टि के ८परिग्रह के आग्रह प्रक्षीण कर दिये हैं, ऐसे-मनुष्यादि गतियों में और उन गतियों के शरीरों में अहंकार-ममकार न करके अनेक कक्षों (कमरों) में ९संचारित रत्न-दीपक की भाँति एकरूप ही आत्मा को उपलब्ध (अनुभव) करते हुये,
- अविचलित-चेतना-विलास-मात्र आत्म-व्यवहार को अंगीकार करके, जिसमें समस्त क्रिया-कलाप से भेंट की जाती है ऐसे मनुष्य-व्यवहार का आश्रय नहीं करते हुये, रागद्वेष का उन्मेष (प्राकट्य) रुक जाने से परम उदासीनता का आलम्बन लेते हुये,
- समस्त परद्रव्यों की संगति दूर कर देने से मात्र स्वद्रव्य के साथ ही संगतता होने से
इसलिये स्वसमय ही आत्मा का तत्त्व है ॥१०४॥
१यथोक्त = पूर्व गाथा में कहा जैसा ।
२संभावना = संचेतन; अनुभव; मान्यता; आदर ।
३निरर्गल = अंकुश बिना की; बेहद (जो मनुष्यादि पर्याय में लीन हैं, वे बेहद एकांत-दृष्टि-रूप हैं) ।
४आत्मव्यवहार = आत्मारूप वर्तन, आत्मारूप कार्य, आत्मारूप व्यापार ।
५मनुष्यव्यवहार = मनुष्यरूप वर्तन (मैं मनुष्य ही हूँ - ऐसी मान्यता-पूर्वक वर्तन) ।
६जो जीव पर के साथ एकत्व की मान्यता-पूर्वक युक्त होता है, उसे परसमय कहते हैं ।
७असंकीर्ण = एकमेक नहीं ऐसे; स्पष्टतया भिन्न (भगवान आत्म-स्वभाव स्पष्ट भिन्न -- पर के साथ एकमेक नहीं -- ऐसे द्रव्य-गुण-पर्यायों से सुस्थित है) ।
८परिग्रह = स्वीकार; अंगीकार ।
९संचारित = ले जाये गये । (जैसे भिन्न-भिन्न कमरों में ले जाया गया रत्न-दीपक एकरूप ही है, वह किंचितमात्र भी कमरे के रूप में नहीं होता, और न कमरे की क्रिया करता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न शरीरों में प्रविष्ट होने वाला आत्मा एकरूप ही है, वह किंचितमात्र भी शरीर रूप नहीं होता और न शरीर की क्रिया करता है - इसप्रकार ज्ञानी जानता है ।)
१०जो जीव स्व के साथ एकत्व की मान्यता-पूर्वक (स्वके साथ) युक्त होता है उसे स्व-समय कहा जाता है ।
यहाँ ( इस विश्व में) जो, स्वभावभेद किये बिना, १उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-त्रय से और २गुण-पर्याय-द्वय से ३लक्षित होता है, वह द्रव्य है । इनमें से (स्वभाव, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, गुण और पर्याय में से) द्रव्य का स्वभाव वह ४अस्तित्व-सामान्य-रूप अन्वय है; अस्तित्व दो प्रकार का कहेंगे:—१ -स्वरूप-अस्तित्व । २-सादृश्य-अस्तित्व ।
- उत्पाद वह प्रादुर्भाव (प्रगट होना—उत्पन्न होना) है;
- व्यय वह प्रच्युति (भ्रष्ट,-नष्ट होना) है;
- ध्रौव्य वह अवस्थिति (ठिकाना) है;
- अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुरुलघुत्व, इत्यादि सामान्यगुण हैं;
- अवगाहहेतुत्व, गतिनिमित्तता, स्थितिकारणत्व, वर्तनायतनत्व, रूपादिमत्त्व, चेतनत्व इत्यादि विशेष गुण हैं ।
द्रव्य का उन उत्पादादि के साथ अथवा गुणपर्यायों के साथ लक्ष्य-लक्षण भेद होने पर भी स्वरूपभेद नहीं है । स्वरूप से ही द्रव्य वैसा (उत्पादादि अथवा गुणपर्याय वाला) है वस्त्र के समान । जैसे
- मलिन अवस्था को प्राप्त वस्त्र, धोने पर निर्मल अवस्था से (निर्मल अवस्थारूप, निर्मल अवस्था की अपेक्षा से) उत्पन्न होता हुआ उस उत्पाद से लक्षित होता है; किन्तु उसका उस उत्पाद के साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है (अर्थात् स्वयं उत्पादरूप से ही परिणत है);
- उसी प्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य (निकटता; हाजरी) के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुतसी अवस्थायें करता है वह— ५अन्तरंग साधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से अनुगृहीत होने पर, उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ वह उत्पाद से लक्षित होता है; किन्तु उसका उस उत्पाद के साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है । और
- जैसे वही वस्त्र निर्मल अवस्था से उत्पन्न होता हुआ और मलिन अवस्था से व्यय को प्राप्त होता हुआ उस व्यय से लक्षित होता है, परन्तु उसका उस व्यय के साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है;
- उसी प्रकार वही द्रव्य भी उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ और पूर्व अवस्था से व्यय को प्राप्त होता हुआ उस व्यय से लक्षित होता है; परन्तु उसका उस व्यय के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है । और
- जैसे वही वस्त्र एक ही समय में निर्मल अवस्था से उत्पन्न होता हुआ, मलिन अवस्था से व्यय को प्राप्त होता हुआ और टिकने वाली ऐसी वस्त्रत्व-अवस्था से ध्रुव रहता हुआ ध्रौव्य से लक्षित होता है; परन्तु उसका उस ध्रौव्य के साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है;
- इसी प्रकार वही द्रव्य भी एक ही समय उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ, पूर्व अवस्था से व्यय होता हुआ, और टिकने वाली ऐसी द्रव्यत्व अवस्था से ध्रुव रहता हुआ ध्रौव्य से लक्षित होता है । किन्तु उसका उस ध्रौव्य के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है । और
- जैसे वही वस्त्र विस्तार-विशेष-स्वरूप (शुक्लत्वादि) गुणों से लक्षित होता है; किन्तु उसका उन गुणों के साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूप से ही वह वैसा है;
- इसी प्रकार वही द्रव्य भी विस्तार-विशेष-स्वरूप गुणों से लक्षित होता है; किन्तु उसका उन गुणों के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है । और
- जैसे वही वस्त्र आयत-विशेष-स्वरूप पर्यायवर्ती (पर्याय स्थानीय) तंतुओं से लक्षित होता है; किन्तु उसका उन तंतुओं के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है ।
- उसी प्रकार वही द्रव्य भी आयत-विशेष-स्वरूप पर्यायों से लक्षित होता है, परन्तु उसका उन पर्यायों के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है ॥
१उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यत्रय = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - यह त्रिपुटी (तीनों का समूह) ।
२गुणपर्यायद्वय = गुण और पर्याय - यह युगल (दोनों का समूह)
३लक्षित होता है = लक्ष्यरूप होता है, पहिचाना जाता है । (१) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तथा (२) गुणपर्याय वे लक्षण हैं और द्रव्य वह लक्ष्य है ।
४अस्तित्व-सामान्य-रूप अन्वय = 'है, है, है' ऐसा एकरूप भाव द्रव्य का स्वभाव है । (अन्वय = एकरूपता सदृशभाव) ।
५द्रव्य में निज में ही स्वरूप-कर्ता और स्वरूप-करण होने की सामर्थ्य है । यह सामर्थ्य-स्वरूप स्वभाव ही अपने परिणमन में (अवस्थांतर करने में) अन्तरंग साधन है ।
अस्तित्व वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है; और वह (अस्तित्व) अन्य साधन से १निरपेक्ष होने के कारण अनादि-अनन्त होने से तथा २अहेतुक, एकरूप ३वृत्ति से सदा ही प्रवर्तता होने के कारण विभावधर्म से विलक्षण होने से, भाव और ४भाववानता के कारण अनेकत्व होने पर भी प्रदेशभेद न होने से द्रव्य के साथ एकत्व को धारण करता हुआ, द्रव्य का स्वभाव ही क्यों न हो? (अवश्य हो ।) वह अस्तित्व-जैसे भिन्न-भिन्न द्रव्यों में प्रत्येक में समाप्त हो जाता है उसी प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय में प्रत्येक में समाप्त नहीं हो जाता, क्योंकि उनकी सिद्धि परस्पर होती है, इसलिये (अर्थात् द्रव्य-गुण और पर्याय एक दूसरे से परस्पर सिद्ध होते हैं इसलिये,—यदि एक न हो तो दूसरे दो भी सिद्ध नहीं होते इसलिये) उनका अस्तित्व एक ही है; सुवर्ण की भाँति ।
जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव से सुवर्ण से जो पृथक् दिखाई नहीं देते; कर्ता-करण-अधिकरणरूप से ५पीतत्वादि गुणों के और कुण्डलादि पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान सुवर्ण के अस्तित्व से जिनकी उत्पत्ति होती है,—ऐसे पीतत्वादिगुणों और कुण्डलादि पर्यायों से जो सुवर्ण का अस्तित्व है, वह सुवर्ण का स्वभाव है; उसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से जो द्रव्य से पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ता-करण-६अधिकरणरूप से गुणों के और पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान द्रव्य के अस्तित्व से जिनकी उत्पत्ति होती है,—ऐसे गुणों और पर्यायों से जो द्रव्य का अस्तित्व है, वह स्वभाव है ।
(द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से सुवर्ण से भिन्न न दिखाई देने वाले पीतत्वादिक और कुण्डलादिक का अस्तित्व वह सुवर्ण का ही अस्तित्व है, क्योंकि पीतत्वादिक के और कुण्डलादिक के स्वरूप को सुवर्ण ही धारण करता है, इसलिये सुवर्ण के अस्तित्व से ही पीतत्वादिक की और कुण्डलादिक की निष्पत्ति-सिद्ध होती है; सुवर्ण न हो तो पीतत्वादिक और कुण्डलादिक भी न हों, इसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से द्रव्य से भिन्न नहीं दिखाई देने वाले गुणों और पर्यायों का अस्तित्व वह द्रव्य का ही अस्तित्व है, क्योंकि गुणों और पर्यायों के स्वरूप को द्रव्य ही धारण करता है, इसलिये द्रव्य के अस्तित्व से ही गुणों की और पर्यायों की निष्पत्ति होती है, द्रव्य न हो तो गुण और पर्यायें भी न हों । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्य का स्वभाव है ।)
अथवा, जैसे द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से ७जो पीतत्वादि गुणों से और कुण्डलादि पर्यायों से पृथक् नहीं दिखाई देता; कर्ता-करण-अधिकरणरूप से सुवर्ण के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों से जिसकी निष्पत्ति होती है,—ऐसे सुवर्ण का, मूल-साधनपने से ८उनसे निष्पन्न होता हुआ, जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है; उसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से गुणों से और पर्यायों से जो पृथक् नहीं दिखाई देता, कर्ता-करण-९अधिकरणरूप से द्रव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान गुणों और पर्यायों से जिसकी निष्पत्ति होती है,—ऐसे द्रव्य का, मूलसाधनपने से उनसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है ।
(पीतत्वादिक से और कुण्डलादिक से भिन्न न दिखाई देने वाले सुवर्ण का अस्तित्व वह पीतत्वादिक और कुण्डलादिक का ही अस्तित्व है, क्योंकि सुवर्ण के स्वरूप को पीतत्वादिक और कुण्डलादिक ही धारण करते हैं, इसलिये पीतत्वादिक और कुण्डलादिक के अस्तित्व से ही सुवर्ण की निष्पत्ति होती है, पीतत्वादिक और कुण्डलादिक न हों तो सुवर्ण भी न हो; इसी प्रकार गुणों से और पर्यायों से भिन्न न दिखाई देने वाले द्रव्य का अस्तित्व वह गुणों और पर्यायों का ही अस्तित्व है, क्योंकि द्रव्य के स्वरूप को गुण और पर्यायें ही धारण करती हैं इसलिये गुणों और पर्यायों के अस्तित्व से ही द्रव्य की निष्पत्ति होती है । यदि गुण और पर्यायें न हो तो द्रव्य भी न हो । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्य का स्वभाव है ।)
(जिस प्रकार द्रव्य का और गुण-पर्याय का एक ही अस्तित्व है ऐसा सुवर्ण के दृष्टान्त पूर्वक समझाया, उसी प्रकार अब सुवर्ण के दृष्टान्त पूर्वक ऐसा बताया जा रहा है कि द्रव्य का और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का भी एक ही अस्तित्व है ।)
जैसे द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से, सुवर्ण से १०जो पृथक् नहीं दिखाई देते, कर्ता-करण-११अधिकरणरूप से कुण्डलादि उत्पादों के, बाजूबंधादि व्ययों के और पीतत्वादि ध्रौव्यों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान सुवर्ण के अस्तित्व से जिनकी निष्पत्ति होती है,—ऐसे कुण्डलादि उत्पाद, बाजूबंधादि व्यय और पीतत्वादि ध्रौव्यों से जो सुवर्ण का अस्तित्व है, वह (सुवर्ण का) स्वभाव है; उसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से, जो द्रव्य से पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ता-करण-अधिकरणरूप से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान द्रव्य के अस्तित्व से जिनकी निष्पत्ति होती है, —ऐसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों से जो द्रव्य का अस्तित्व है वह स्वभाव है ।
(द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से द्रव्य से भिन्न दिखाई न देने वाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यों का अस्तित्व है वह द्रव्य का ही अस्तित्व है; क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यों के स्वरूप को द्रव्य ही धारण करता है, इसलिए द्रव्य के अस्तित्व से ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यों की निष्पत्ति होती है । यदि द्रव्य न हो तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी न हों । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्य का स्वभाव है।)
अथवा जैसे द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से कुण्डलादि-उत्पादों से बाजूबंधादि व्ययों से और पीतत्वादि ध्रौव्यों से जो पृथक् नहीं दिखाई देता; कर्ता-करण-अधिकरणरूप से सुवर्ण के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान कुण्डलादि-उत्पादों, बाजूबंधादि व्ययों और पीतत्वादि ध्रौव्यों से जिसकी निष्पत्ति होती है,—ऐसे सुवर्ण का, मूलसाधनपने से उनसे निष्पन्न होता हुआ, जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है । उसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों से जो पृथक् दिखाई नहीं देता, कर्ता-करण-अधिकरण रूप से द्रव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों से जिसकी निष्पत्ति होती है,—ऐसे द्रव्य का मूल साधनपने से उनसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है।
(उत्पादों से, व्ययों से और ध्रौव्यों से भिन्न न दिखाई देने वाले द्रव्य का अस्तित्व वह उत्पादों; व्ययों और ध्रौव्यों का ही अस्तित्व है; क्योंकि द्रव्य के स्वरूप को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ही धारण करते हैं, इसलिये उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यों के अस्तित्व से ही द्रव्य की निष्पत्ति होती है। यदि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य न हों तो द्रव्य भी न हो। ऐसा अस्तित्व वह द्रव्य का स्वभाव है।)
इस प्रकार स्वरूपास्तित्व का निरूपण हुआ ॥९६॥
१अस्तित्व अन्य साधन की अपेक्षा से रहित -- स्वयंसिद्ध है इसलिये अनादि-अनन्त है ।
२अहेतुक = अकारण, जिसका कोई कारण नहीं है ऐसी ।
३वृत्ति = वर्तन; वर्तना वह; परिणति । (अकारणिक एकरूप परिणति से सदाकाल परिणमता होने से अस्तित्व विभाव-धर्म से भिन्न लक्षण वाला है ।)
४अस्तित्व तो (द्रव्य का) भाव है और द्रव्य भाववान् है ।
५पीतत्वादि गुण और कुण्डलादि पर्यायें ।
६द्रव्य ही गुण-पर्यायों का कर्ता (करनेवाला), उनका करण (साधन) और उनका अधिकरण (आधार) है; इसलिये द्रव्य ही गुण-पर्याय का स्वरूप धारण करता है ।
७जो = जो सुवर्ण ।
८उनसे = पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों से । (सुवर्णका अस्तित्व निष्पन्न होने में, उपजने में, या सिद्ध होने में मूल-साधन पीतत्वादि गुण और कुण्डलादि पर्यायें हैं) ।
९गुण-पर्यायें ही द्रव्य की कर्ता, करण और अधिकरण हैं; इसलिये गुण-पर्यायें ही द्रव्य का स्वरूप धारण करती हैं ।
१०जो = जो कुण्डलादि उत्पाद, बाजूबंधादि व्यय आर पीतादि ध्रौव्य ।
११सुवर्ण ही कुण्डलादि-उत्पाद, बाजूबंधादि-व्यय और पीतत्वादि ध्रौव्य का कर्ता, करण तथा अधिकरण है; इसलिये सुवर्ण ही उनका स्वरूप धारण करता है । (सुवर्ण ही कुण्डलादि-रूप से उत्पन्न होता है, बाजूबंधादि-रूप से नष्ट होता है और पीतत्वादि-रूप से अवस्थित रहता है ।)
इस विश्व में,
- विचित्रता को विस्तारित करते हुए (विविधता-अनेकता को दिखाते हुए),
- अन्य द्रव्यों से १व्यावृत्त रहकर प्रवर्तमान, और
- प्रत्येक द्रव्य की सीमा को बाँधते हुए
- विचित्रता के विस्तार को अस्त करता हुआ,
- सर्व द्रव्यों में प्रवृत्त होकर रहने वाला, और
- प्रत्येक द्रव्य की बँधी हुई सीमा की अवगणना करता हुआ
जैसे
- बहुत से, अनेक प्रकार के वृक्षों को अपने अपने विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले अनेकत्व को, सामान्य लक्षणभूत ४सादृश्य-दर्शक वृक्षत्व से उत्पन्न होने वाला एकत्व ५तिरोहित (अदृश्य) कर देता है, इसी प्रकार बहुत से, अनेक प्रकार के द्रव्यों को अपने-अपने विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले अनेकत्व को, सामान्य-लक्षणभूत सादृश्य-दर्शक सत्पने से ('सत्' ऐसे भाव से, अस्तित्व से, 'है' पने से) उत्पन्न होने वाला एकत्व तिरोहित कर देता है । और
- जैसे उन वृक्षों के विषय में सामान्य-लक्षणभूत सादृश्य-दर्शक वृक्षत्व से उत्पन्न होने वाले एकत्व से तिरोहित होने पर भी (अपने-अपने) विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है, (बना रहता है, नष्ट नहीं होता); उसी प्रकार सर्व द्रव्यों के विषय में भी सामान्य-लक्षणभूत सादृश्य-दर्शक सत्-पने से उत्पन्न होने वाले एकत्व से तिरोहित होने पर भी (अपने-अपने) विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है ।
(इस प्रकार सादृश्य अस्तित्व का निरूपण हुआ) ॥९७॥
१व्यावृत = पृथक्; अलग; भिन्न ।
२सर्वगत = सर्व में व्यापनेवाला ।
३परामर्श = स्पर्श; विचार; लक्ष; स्मरण ।
४सादृश्य = समानत्व ।
५तिरोहित = तिरोभूत; आच्छादित; अदृश्य ।
वास्तव में द्रव्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं । (उनकी) स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनता से है; क्योंकि १अनादिनिधन साधनान्तर की अपेक्षा नहीं रखता । वह गुण-पर्यायात्मक ऐसे अपने स्वभाव को ही -- जो कि मूल साधन है उसे धारण करके स्वयमेव सिद्ध हुआ वर्तता है ।
जो द्रव्यों से उत्पन्न होता है वह तो द्रव्यान्तर नहीं है, २कादाचित्कपने के कारण पर्याय है; जैसे -- द्विअणुक इत्यादि तथा मनुष्य इत्यादि । द्रव्य तो अनवधि (मर्यादा रहित) त्रिसमय—अवस्थायी (त्रिकालस्थायी) होने से उत्पन्न नहीं होता ।
अब इस प्रकार—जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है उसी प्रकार (वह) 'सत् है' ऐसा भी उसके स्वभाव से ही सिद्ध है, ऐसा निर्णय हो; क्योंकि सत्तात्मक ऐसे अपने स्वभाव से निष्पन्न हुए भाव वाला है (द्रव्य का ‘सत् है’ ऐसा भाव द्रव्य के सत्तास्वरूप स्वभाव का ही बना हुआ है) ।
द्रव्य से अर्थान्तरभूत सत्ता उत्पन्न नहीं है (नहीं बन सकती, योग्य नहीं है) कि जिसके समवाय से वह (द्रव्य) ‘सत्’ हो । (इसी को स्पष्ट समझाते हैं):—
प्रथम तो ३सत् से ४सत्ता की ५युतसिद्धता से अर्थान्तरत्व नहीं है, क्योंकि दण्ड और दण्डी की भांति उनके सम्बन्ध में युतसिद्धता दिखाई नहीं देती । (दूसरे) अयुतसिद्धता से भी वह (अर्थान्तरत्व) नहीं बनता । 'इसमें यह है (अर्थात् द्रव्य में सत्ता है)' ऐसी प्रतीति होती है इसलिये वह बन सकता है,—ऐसा कहा जाये तो (पूछते हैं कि) 'इसमें यह है' ऐसी प्रतीति किसके आश्रय (कारण) से होती है यदि ऐसा कहा जाये कि भेद के आश्रय से (अर्थात् द्रव्य और सत्ता में भेद होने से) होती है तो, वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक या अताद्भाविक ? ६प्रादेशिक तो है नहीं, क्योंकि युतसिद्धत्व पहले ही रद्द (नष्ट, निरर्थक) कर दिया गया है, और यदि ७अताद्भाविक कहा जाये तो वह उपपन्न ही (ठीक ही) है, क्योंकि ऐसा (शास्त्र का) वचन है कि 'जो द्रव्य है वह गुण नहीं है ।' परन्तु (यहाँ भी यह ध्यान में रखना कि) यह अताद्भाविक भेद 'एकान्त से इसमें यह है' ऐसी प्रतीति का आश्रय (कारण) नहीं है, क्योंकि वह (अताद्भाविक भेद) स्वयमेव ८उन्मग्न और ९निमग्न होता है । वह इस प्रकार है :-
- जब द्रव्य को पर्याय प्राप्त कराई जाये (अर्थात् जब द्रव्य को पर्याय प्राप्त करती है -- पहुँचती है इस प्रकार पर्यायार्थिकनय से देखा जाये) तब ही - 'शुक्ल यह वस्त्र है, यह इसका शुक्लत्व गुण है' इत्यादि की भाँति - 'गुण वाला यह द्रव्य है, यह इसका गुण है' इस प्रकार अताद्भाविक भेद उन्मग्न होता है; परन्तु
- जब द्रव्य को द्रव्य प्राप्त कराया जाये (अर्थात् द्रव्य को द्रव्य प्राप्त करता है;—पहुँचता है इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय से देखा जाये), तब जिसके समस्त १०गुणवासना के उन्मेष अस्त हो गये हैं ऐसे उस जीव को - 'शुक्ल वस्त्र ही है' इत्यादि की भाँति - 'ऐसा द्रव्य ही है' इस प्रकार देखने पर समूल ही अताद्भाविक भेद निमग्न होता है । इस प्रकार भेद के निमग्न होने पर
- उसके आश्रय से (कारण से) होती हुई प्रतीति निमग्न होती है ।
- उसके निमग्न होने पर अयुतसिद्धत्व-जनित अर्थान्तरपना निमग्न होता है
- जब भेद उन्मग्न होता है, वह उन्मग्न होने पर
- उसके आश्रय (कारण) से होती हुई प्रतीति उन्मग्न होती है,
- उसके उन्मग्न होने पर अयुतसिद्धत्व-जनित अर्थान्तरपना उन्मग्न होता है,
१अनादिनिधन = आदि और अन्त से रहित । (जो अनादि-अनन्त हो उसकी सिद्धि के लिये अन्य साधन की आवश्यकता नहीं है) ।
२कादाचित्क = कदाचित्-किसीसमय हो ऐसा; अनित्य ।
३सत् = अस्तित्ववान - अर्थात् द्रव्य ।
४सत्ता = अस्तित्व (गुण) ।
५युतसिद्ध = जुड़कर सिद्ध हुआ; समवाय से-संयोग से सिद्ध हुआ । (जैसे लाठी और मनुष्य के भिन्न होने पर भी लाठी के योग से मनुष्य 'लाठीवाला' होता है, इसीप्रकार सत्ता और द्रव्य के अलग होने पर भी सत्ता के योग से द्रव्य 'सत्तावाला' (सत्) हुआ है ऐसा नहीं है । लाठी और मनुष्य की भाँति सत्ता और द्रव्य अलग दिखाई ही नहीं देते । इसप्रकार 'लाठी' और 'लाठीवाले' की भाँति 'सत्ता' और 'सत्' के सम्बन्ध में युतसिद्धता नहीं है ।
६द्रव्य और सत्ता में प्रदेश-भेद नहीं है; क्योंकि प्रदेश-भेद हो तो युतसिद्धत्व आये, जिसको पहले ही रद्द करके बताया है ।
७द्रव्य वह गुण नहीं है और गुण वह द्रव्य नहीं है, - ऐसे द्रव्य-गुण के भेद को (गुण-गुणी- भेद को) अताद्भाविक (तद्रूप न होनेरूप) भेद कहते हैं । यदि द्रव्य और सत्ता में ऐसा भेद कहा जाय तो वह योग्य ही है ।
८उन्मग्न होना = ऊपर आना; तैर आना; प्रकट होना (मुख्य होना) ।
९निमग्न होना = डूब जाना (गौण होना) ।
१०गुण-वासना के उन्मेष = द्रव्य में अनेक गुण होने के अभिप्राय की प्रगटता; गुण-भेद होने-रूप मनो-वृत्ति के (अभिप्राय के) अंकुर ।
यहाँ (विश्व में) स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से द्रव्य 'सत्' है । स्वभाव द्रव्य का ध्रौव्य-उत्पाद-विनाश की एकतास्वरूप परिणाम है ।
- जैसे १द्रव्य का वास्तु समग्रपने द्वारा (अखण्डता से) एक होने पर भी, विस्तार-क्रम में प्रवर्तमान उसके जो सूक्ष्म-अंश हैं वे प्रदेश हैं,
- इसी प्रकार द्रव्य की २वृत्ति समग्रपने द्वारा एक होने पर भी, प्रवाह-क्रम में प्रवर्तमान उसके जो सूक्ष्म-अंश हैं वे परिणाम है ।
- जैसे वे प्रदेश अपने स्थान में स्व-रूप से उत्पन्न और पूर्व-रूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर ४अनुस्यूति से रचित एक-वास्तुपने द्वारा अनुत्पन्न-अविनष्ट होने से उत्पत्ति-संहार-ध्रौव्यात्मक हैं,
- उसी प्रकार वे परिणाम अपने अवसर में स्वरूप से उत्पन्न और पूर्वरूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एक प्रवाहपने द्वारा अनुत्पन्न-अविनष्ट होने से उत्पत्ति-संहार-ध्रौव्यात्मक हैं ।
- जैसे वास्तु का जो छोटे से छोटा अंश पूर्वप्रदेश के विनाश स्वरूप है वही (अंश) उसके बाद के प्रदेश का उत्पाद स्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एक वास्तुपने द्वारा अनुभय स्वरूप है (अर्थात् दो में से एक भी स्वरूप नहीं है),
- इसी प्रकार प्रवाह का जो छोटे से छोटा अंश पूर्व परिणाम के विनाश स्वरूप है वही उसके बाद के परिणाम के उत्पाद स्वरूप है, तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एकप्रवाहपने द्वारा अनुभयस्वरूप है ।
जैसे — जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐसे लटकते हुये मोतियों के हार में, अपने-अपने स्थानों में प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियों में, पीछे-पीछे के स्थानों में पीछे-पीछे के मोती प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले-पहले के मोती प्रगट नहीं होते इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति का रचयिता सूत्र अवस्थित होने से त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि को प्राप्त होता है । इसी प्रकार जिसने ९नित्यवृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिणमित) द्रव्य में अपने अपने अवसरों में प्रकाशित (प्रगट) होते हुये समस्त परिणामों में पीछे-पीछे के अवसरों पर पीछे पीछे के परिणाम प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले-पहले के परिणाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचने वाला प्रवाह अवस्थित होने से त्रिलक्षणपना प्रसिद्धि को प्राप्त होता है ॥९९॥
१द्रव्य का वास्तु = द्रव्य का स्व-विस्तार, द्रव्य का स्व-क्षेत्र, द्रव्य का स्व-आकार, द्रव्य का स्व-दल । (वास्तु = घर, निवास-स्थान, आश्रय, भूमि) ।
२वृत्ति = वर्तना वह; होना वह; अस्तित्व ।
३व्यतिरेक = भेद; (एक का दूसरे में) अभाव, (एक परिणाम दूसरे परिणाम-रूप नहीं है, इसलिये द्रव्य के प्रवाह में क्रम है) ।
४अनुस्यूति = अन्वय-पूर्वक जुडान । (सर्व परिणाम परस्पर अन्वय-पूर्वक (सादृश्य सहित) गुंथित (जुड़े) होने से, वे सब परिणाम एक प्रवाह-रूप से हैं, इसलिये वे उत्पन्न या विनष्ट नहीं हैं ।
५अतिक्रम = उल्लंघन; त्याग ।
६सत्त्व = सत्पना; (अभेद-नय से) द्रव्य ।
७त्रिलक्षण = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों लक्षणवाला; त्रिस्वरूप; त्रयात्मक ।
८अनुमोदना = आनंद में सम्मत करना ।
९नित्यवृत्ति = नित्यस्थायित्व; नित्य अस्तित्व; सदा वर्तना ।
वास्तव में
- १सर्ग २संहार के बिना नहीं होता और संहार सर्ग के बिना नहीं होता;
- ३सृष्टि और संहार ४स्थिति (ध्रौव्य) के बिना नहीं होते, स्थिति सर्ग और संहार के बिना नहीं होती ।
- जो सर्ग है वही संहार है, जो संहार है वही सर्ग है;
- जो सर्ग और संहार है वही स्थिति है; जो स्थिति है वही सर्ग और संहार है ।
- जो कुम्भ का सर्ग है वही ५मृत्तिका-पिण्ड का संहार है; क्योंकि भाव का भावान्तर के अभाव स्वभाव से अवभासन है । (अर्थात् भाव अन्यभाव के अभावरूप स्वभाव से प्रकाशित है—दिखाई देता है ।) और
- जो मृत्तिकापिण्ड का संहार है वही कुम्भ का सर्ग है, क्योंकि अभाव का भावान्तर के भावस्वभाव से अवभासन है; (अर्थात् नाश अन्यभाव के उत्पादरूप स्वभाव से प्रकाशित है ।) और
- जो कुम्भ का सर्ग और पिण्ड का व्यय है वही मृत्तिका की स्थिति है, क्योंकि ६व्यतिरेक अन्वय का अतिक्रमण नहीं करते, और
- जो मृत्तिका की स्थिति है वही कुम्भ का सर्ग और पिण्ड का व्यय है, क्योंकि व्यतिरेकों के द्वारा ७अन्वय प्रकाशित होता है ।
- केवल सर्ग-शोधक कुम्भ की (व्यय और ध्रौव्य से भिन्न मात्र उत्पाद करने को जाने वाले कुम्भ की) ८उत्पादन कारण का अभाव होने से उत्पत्ति ही नहीं होगी; अथवा तो असत् का ही उत्पाद होगा । और वहाँ,
- यदि कुम्भ की उत्पत्ति न होगी तो समस्त ही भावों की उत्पत्ति ही नहीं होगी । (अर्थात् जैसे कुम्भ की उत्पत्ति नहीं होगी उसी प्रकार विश्व के किसी भी द्रव्य में किसी भी भाव का उत्पाद ही नहीं होगा,—यह दोष आयेगा); अथवा
- यदि असत् का उत्पाद हो तो ९व्योम-पुष्प इत्यादि का भी उत्पाद होगा, (अर्थात् शून्य में से भी पदार्थ उत्पन्न होने लगेंगे,—यह दोष आयेगा ।)
- और, केवल व्ययारम्भक (उत्पाद और ध्रौव्य से रहित केवल व्यय करने को उद्यत मृत्तपिण्ड) का व्यय के कारण का अभाव होने से व्यय ही नहीं होगा; अथवा तो सत् का ही उच्छेद होगा । वहाँ,
- यदि मृत्तिकापिण्ड का व्यय न होगा तो समस्त ही भावों का व्यय ही न होगा, (अर्थात् जैसे मृत्तिकापिण्ड का व्यय नहीं होगा उसी प्रकार विश्व के किसी भी द्रव्य में किसी भाव का व्यय ही नहीं होगा,—यह दोष आयेगा); अथवा
- यदि सत् का उच्छेद होगा तो चैतन्य इत्यादि का भी उच्छेद हो जायेगा, (अर्थात् समस्त द्रव्यों का सम्पूर्ण विनाश हो जायेगा;—यह दोष आयेगा ।)
- और केवल ध्रौव्य प्राप्त करने को जाने वाली मृत्तिका की, व्यतिरेक सहित स्थिति का अन्वय का (मृत्तिका को) उससे अभाव होने से, स्थिति ही नहीं होगी; अथवा तो क्षणिक को ही नित्यत्व आ जायेगा । वहाँ
- यदि मृत्तिका की ध्रौव्यत्व न हो तो समस्त ही भावों का ध्रौव्य नहीं होगा, (अर्थात् यदि मिट्टी ध्रुव न रहे तो मिट्टी की ही भाँति विश्व का कोई भी द्रव्य ध्रुव नहीं रहेगा, यह दोष आयेगा।) अथवा
- यदि क्षणिक का नित्यत्व हो तो चित्त के क्षणिक-भावों का भी नित्यत्व होगा; (अर्थात् मन का प्रत्येक विकल्प भी त्रैकालिक ध्रुव हो जाये,—यह दोष आवे।)
१सर्ग = उत्पाद, उत्पत्ति ।
२संहार = व्यय, नाश ।
३सृष्टि = उत्पत्ति ।
४स्थिति = स्थित रहना; ध्रुव रहना, ध्रौव्य ।
५मृत्तिकापिण्ड = मिट्टीका पिण्ड ।
६व्यतिरेक = भेद; एक-दूसरे रूप न होना वह; 'यह वह नहीं है' ऐसे ज्ञान का निमित्तभूत भिन्न-रूपत्व ।
७अन्वय = एकरूपता; सादृश्यता; 'यह वही है' ऐसे ज्ञान का कारणभूत एक-रूपत्व ।
८उत्पादनकारण = उत्पत्ति का कारण ।
९व्योम-पुष्प = आकाश के फूल ।
१०केवल स्थिति = (उत्पाद और व्यय रहित) अकेला ध्रुवपना, केवल स्थितिपना; अकेला अवस्थान । अन्वय व्यतिरेकों सहित ही होता है, इसलिये ध्रौव्य उत्पाद-व्यय सहित ही होगा, अकेला नहीं हो सकता । जैसे उत्पाद (या व्यय) द्रव्य का अंश है - समग्र द्रव्य नहीं, इसप्रकार ध्रौव्य भी द्रव्य का अंश है; - समग्र द्रव्य नहीं ।
११उत्तर-उत्तर = बाद-बाद के ।
१२लांछन = चिह्न ।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य वास्तव में पर्यायों का आलम्बन करते हैं, और वे पर्यायें द्रव्य का आलम्बन करती हैं, (अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्यायों के आश्रय से हैं और पर्यायें द्रव्य के आश्रय से हैं); इसलिये यह सब एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं ।
प्रथम तो द्रव्य पर्यायों के द्वारा आलम्बित है (अर्थात् पर्यायें द्रव्याश्रित हैं), क्योंकि १समुदायी समुदायस्वरूप होता है; वृक्ष की भाँति । जैसे समुदायी वृक्ष स्कंध, मूल और शाखाओं का समुदायस्वरूप होने से स्कंध, मूल और शाखाओं से आलम्बित ही (भासित) दिखाई देता है, इसी प्रकार समुदायी द्रव्य पर्यायों का समुदायस्वरूप होने से पर्यायों के द्वारा आलम्बित ही भासित होता है । (अर्थात् जैसे स्कंध, मूल शाखायें वृक्षाश्रित ही हैं—वृक्ष से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं, उसी प्रकार पर्यायें द्रव्याश्रित ही हैं, --द्रव्य से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं ।)
और पर्यायें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के द्वारा आलम्बित हैं (अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्यायाश्रित हैं) क्योंकि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अंशों के धर्म हैं (२अंशी के नहीं); बीज, अंकुर और वृक्षत्व की भाँति । जैसे अंशीवृक्ष के बीज अंकुर-वृक्षत्वस्वरूप तीन अंश, व्यय-उत्पाद-ध्रौव्यस्वरूप निज धर्मों से आलम्बित एक साथ ही भासित होते हैं, उसी प्रकार अंशीद्रव्य के, नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव, और अवस्थित रहने वाला भाव;—यह तीनों अंश व्यय-उत्पाद-ध्रौव्यस्वरूप निजधर्मों के द्वारा आलम्बित एक साथ ही भासित होते हैं । किन्तु यदि (१) व्यय, (२) उत्पाद और (३) ध्रौव्य को (अंशों का न मानकर) द्रव्य का ही माना जाये तो सारा ३विप्लव को प्राप्त होगा । यथा --
- पहले, यदि द्रव्य का ही भंग माना जाये तो ४क्षणभंग से लक्षित समस्त द्रव्यों का एक क्षण में ही संहार हो जाने से द्रव्य शून्यता आ जायेगी, अथवा सत् का उच्छेद हो जायेगा ।
- यदि द्रव्य का उत्पाद माना जाये तो समय-समय पर होने वाले उत्पाद के द्वारा चिह्नित ऐसे द्रव्यों को प्रत्येक को अनन्तता आ जायेगी । (अर्थात् समय-समय पर होने वाला उत्पाद जिसका चिह्न हो ऐसा प्रत्येक द्रव्य अनंत द्रव्यत्व को प्राप्त हो जायेगा) अथवा असत् का उत्पाद हो जायेगा;
- यदि द्रव्य का ही ध्रौव्य माना जाये तो क्रमश: होने वाले भावों के अभाव के कारण द्रव्य का अभाव आयेगा, अथवा क्षणिकपना होगा ।
इसलिये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के द्वारा पर्यायें आलम्बित हों, और पर्यायों के द्वारा द्रव्य आलम्बित हो, कि जिससे यह सब एक ही द्रव्य है ।
१समुदायी = समुदायवान समुदाय (समूह) का बना हुआ । (द्रव्य समुदायी है क्योंकि पर्यायों के समुदाय-स्वरूप है)।
२अंशी = अंशोंवाला; अंशोंका बना हुआ । (द्रव्य अंशी है)
३विप्लव = अंधाधुंधी; उथलपुथल; घोटाला; विरोध ।
४क्षण = विनाश जिनका लक्षण हो ऐसे ।
(प्रथम शंका उपस्थित की जाती है :—) यहाँ, (विश्व में) वस्तु का जो जन्मक्षण है वह जन्म से ही व्याप्त होने से स्थितिक्षण और नाशक्षण नहीं है, (वह पृथक् ही होता है); जो स्थितिक्षण हो वह दोनों के अन्तराल में (उत्पादक्षण और नाशक्षण के बीच) दृढ़तया रहता है, इसलिये (वह) जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है; और जो नाशक्षण है वह,—वस्तु उत्पन्न होकर और स्थिर रहकर फिर नाश को प्राप्त होती है इसलिये,—जन्मक्षण और स्थितिक्षण नहीं है;—इस प्रकार तर्क पूर्वक विचार करने पर उत्पादादि का क्षणभेद हृदयभूमि में उतरता है (अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का समय भिन्न-भिन्न होता है, एक नहीं होता,—इस प्रकार की बात हृदय में जमती है ।)
(यहाँ उपरोक्त शंका का समाधान किया जाता है:—)इस प्रकार उत्पादादि का क्षणभेद हृदय भूमि में तभी उतर सकता है जब यह माना जाये कि 'द्रव्य स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही ध्रुव रहता है और स्वयं ही नाश को प्राप्त होता है!' किन्तु ऐसा तो माना नहीं गया है; (क्योंकि यह स्वीकार और सिद्ध किया गया है कि) पर्यायों के ही उत्पादादि हैं; (तब फिर) वहाँ क्षणभेद कहाँ से हो सकता है? यह समझाते हैं:—
जैसे कुम्हार, दण्ड, चक्र और डोरी चीवर से आरोपित किये जाने वाले संस्कार की उपस्थिति में जो (रामपात्र) का जन्मक्षण होता है वही मृत्तिकापिण्ड का नाश क्षण होता है, और वही दोनों कोटियों (प्रकारों) में रहनेवाला मृत्तिकात्व का स्थितिक्षण होता है; इसी प्रकार अन्तरंग और बहिरंग साधनों द्वारा किये जाने वाले संस्कारों की उपस्थिति में, जो उत्तर पर्याय का जन्मक्षण होता है वही पूर्व पर्याय का नाश क्षण होता है, और वही दोनों कोटियों में रहने वाले द्रव्यत्व का स्थितिक्षण होता है ।
और जैसे रामपात्र में, मृत्तिकापिण्ड में और मृत्तिकात्व में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रत्येक रूप में (प्रत्येक पृथक् पृथक्) वर्तते हुये भी त्रिस्वभावस्पर्शी मृत्तिका में वे सम्पूर्णतया (सभी एक साथ) एक समय में ही देखे जाते हैं; इसी प्रकार उत्तर पर्याय में, पूर्व पर्याय में और द्रव्यत्व में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रत्येकतया (एक-एक) प्रवर्तमान होने पर भी १त्रिस्वभावस्पर्शी द्रव्य में वे संपूर्णतया (तीनों एकत्रित) एक समय में ही देखे जाते हैं ।
और जैसे रामपात्र, मृत्तिकापिण्ड तथा मृत्तिकात्व में प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य मिट्टी ही हैं, अन्य वस्तु नहीं; उसी प्रकार उत्तर पर्याय, पूर्व पर्याय, और द्रव्यत्व में प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य द्रव्य ही हैं, अन्य पदार्थ नहीं ॥१०२॥
१त्रिस्वभावस्पर्शी = तीनों स्वभावों को स्पर्श करनेवाला । (द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य -- इन तीनों स्वभावों को धारण करता है) ।
यहाँ (विश्व में) जैसे एक त्रि-अणुक समान-जातीय अनेक द्रव्य-पर्याय विनष्ट होती है और दूसरी १चतुरणुक (समान-जातीय अनेक द्रव्य-पर्याय) उत्पन्न होती है; परन्तु वे तीन या चार पुद्गल (परमाणु) तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं (ध्रुव हैं); इसी प्रकार सभी समान-जातीय द्रव्य-पर्यायें विनष्ट होती हैं और उत्पन्न होती हैं, किन्तु समान-जातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं (ध्रुव हैं) ।
और, जैसे एक मनुष्यत्व-स्वरूप असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय विनष्ट होती है और दूसरी देवत्व-स्वरूप (असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय) उत्पन्न होती है, परन्तु वह जीव और पुद्गल तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं, इसी प्रकार सभी असमान-जातीय द्रव्य-पर्यायें विनष्ट हो जाती हैं और उत्पन्न होती हैं, परन्तु असमान-जातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं ।
इस प्रकार अपने से (१द्रव्य-रूप से) ध्रुव और द्रव्य-पर्यायों द्वारा उत्पाद-व्ययरूप ऐसे द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य हैं ॥१०३॥
१चतुरणुक = चार अणुओं का (परमाणुओं का) बना हुआ स्कंध ।
२ 'द्रव्य' शब्द मुख्यतया दो अर्थों में प्रयुक्त होता है : (१) एक तो सामान्य-विशेष के पिण्ड को अर्थात् वस्तु को द्रव्य कहा जाता है; जैसे- 'द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप है'; (२) दूसरे - वस्तु के सामान्य अंश को भी द्रव्य कहा जाता है; जैसे- 'द्रव्यार्थिक नय' अर्थात् सामान्यांशग्राही नय । जहाँ जो अर्थ घटित होता हो वहाँ वह अर्थ समझना चाहिये ।
गुणपर्यायें एक द्रव्यपर्यायें हैं, क्योंकि गुणपर्यायों को एक द्रव्यपना है, (अर्थात् गुणपर्यायें एकद्रव्य की पर्यायें हैं, क्योंकि वे एक ही द्रव्य हैं—भिन्न-भिन्न द्रव्य नहीं ।) उनका एक-द्रव्यत्व आम्रफल की भांति है । जैसे -- आम्रफल स्वयं ही हरितभाव में से पीतभावरूप परिणमित होता हुआ, प्रथम और पश्चात् प्रवर्तमान हरितभाव और पीतभाव के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है, इसलिये हरितभाव और पीतभाव के साथ अविशिष्ट सत्ता वाला होने से एक ही वस्तु है, अन्य वस्तु नहीं; इसी प्रकार द्रव्य स्वयं ही १पूर्व अवस्था में अवस्थित गुण में से उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणरूप परिणमित होता हुआ, पूर्व और उत्तर अवस्था में अवस्थित उन गुणों के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है, इसलिये पूर्व और उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणों के साथ २अवशिष्ट सत्ता वाला होने से एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं ।
(आम के उदाहरण की भाँति, द्रव्य स्वयं ही गुण की पूर्व पर्याय में से उत्तरपर्यायरूप परिणमित होता हुआ, पूर्व और उत्तर गुणपर्यायों के द्वारा अपने अस्तित्व का अनुभव करता है, इसलिये पूर्व और उत्तर गुणपर्यायों के साथ अभिन्न अस्तित्व होने से एक ही द्रव्य है द्रव्यान्तर नहीं; अर्थात् वे वे गुणपर्यायें और द्रव्य एक ही द्रव्यरूप हैं, भिन्न-भिन्न द्रव्य नहीं हैं ।)
और, जैसे पीतभाव से उत्पन्न होता हरितभाव से नष्ट होता और आम्रफलरूप से स्थिर रहता होने से आम्रफल एक वस्तु की पर्यायों द्वारा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है, उसी प्रकार उत्तर अवस्था में अवस्थित गुण से उत्पन्न, पूर्व अवस्था में अवस्थित गुण से नष्ट और द्रव्यत्व गुण से स्थिर होने से, द्रव्य एकद्रव्यपर्याय के द्वारा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है ॥१०४॥
१पूर्व अवस्था में अवस्थित गुण = पहले की अवस्था में रहा हुआ गुण; गुण की पूर्व पर्याय ; पूर्व गुण-पर्याय ।
२अविशिष्ट सत्तावाला = अभिन्न सत्तावाला; एक सत्तावाला (आम की सत्ता हरे और पीले भाव की सत्ता से अभिन्न है, इसलिये आम और हरित-भाव तथा पीत-भाव एक ही वस्तु हैं, भिन्न नहीं) ।
यदि द्रव्य स्वरूप से ही १सत् न हो तो दूसरी गति यह हो कि वह (१) २असत् होगा, अथवा (२) सत्ता से पृथक् होगा । वहाँ, (१) यदि वह असत् होगा तो, ध्रौव्य के असंभव के कारण स्वयं स्थिर न होता हुआ द्रव्य का ही ३अस्त हो जायेगा; और (२) यदि सत्ता से पृथक् हो तो सत्ता के बिना भी स्वयं रहता हुआ, इतना ही मात्र प्रयोजन वाली ४सत्ता को ही अस्त कर देगा ।
किन्तु यदि द्रव्य स्वरूप से ही सत् हो तो - (१) ध्रौव्य के सद्भाव के कारण स्वयं स्थिर रहता हुआ, द्रव्य उदित होता है, (अर्थात् सिद्ध होता है); और (२) सत्ता से अपृथक् रहकर स्वयं स्थिर (विद्यमान) रहता हुआ, इतना ही मात्र जिसका प्रयोजन है ऐसी सत्ता को उदित (सिद्ध) करता है ।
इसलिये द्रव्य स्वयं ही सत्त्व (सत्ता) है ऐसा स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि भाव और ५भाववान् का अपृथक्त्व द्वारा अनन्यत्व है ॥१०५॥
१सत् = मौजूद ।
२असत् = नहीं मौजूद ऐसा ।
३अस्त = नष्ट । (जो असत् हो उसका टिकना-मौजूद रहना कैसा? इसलिये द्रव्य को असत् मानने से, द्रव्य के अभाव का प्रसंग आता है अर्थात् द्रव्य ही सिद्ध नहीं होता) ।
४सत्ता का कार्य इतना ही है कि वह द्रव्य को विद्यमान रखे । यदि द्रव्य सत्ता से भिन्न रहकर भी स्थिर रहे तो फिर सत्ता का प्रयोजन ही नहीं रहता, अर्थात् सत्ता के अभाव का प्रसंग आ जायगा ।
५भाववान् = भाववाला । (द्रव्य भाववाला है और सत्ता उसका भाव है । वे अपृथक् हैं, इस अपेक्षा से अनन्य हैं । अपृथक्त्व और अन्यत्व का भेद जिस अपेक्षा से है उस अपेक्षा को लेकर विशेषार्थ आगामी गाथा में कहेंगे, उन्हें यहाँ नहीं लगाना चाहिये, किन्तु यहाँ अनन्यत्व को अपृथक्त्व के अर्थ में ही समझना चाहिये )।
विभक्त प्रदेशत्व (भिन्न प्रदेशत्व) पृथक्त्व का लक्षण है । वह तो सत्ता और द्रव्य में सम्भव नहीं है, क्योंकि गुण और गुणी में विभक्तप्रदेशत्व का अभाव होता है,—शुक्लत्व और वस्त्र की भाँति । वह इस प्रकार है कि जैसे—जो शुक्लत्व के गुण के प्रदेश हैं वे ही वस्त्र के गुणी के है, इसलिये उनमें प्रदेशभेद नहीं है; इसी प्रकार जो सत्ता के गुण के प्रदेश हैं वे ही द्रव्य के गुणी के हैं, इसलिये उनमें प्रदेशभेद नहीं है ।
ऐसा होने पर भी उनमें (सत्ता और द्रव्य में) अन्यत्व है, क्योंकि (उनमें) अन्यत्व के लक्षण का सद्भाव है । १अतद्भाव अन्यत्व का लक्षण है । वह तो सत्ता और द्रव्य के है ही, क्योंकि गुण और गुणी के २तद्भाव का अभाव होता है;—शुक्लत्व और वस्त्र की भाँति । वह इस प्रकार है कि:—जैसे एक चक्षु-इन्द्रिय के विषय में आने वाला और अन्य सब इन्द्रियों के समूह को गोचर न होने वाला शुक्लत्व गुण है वह समस्त इन्द्रिय समूह को गोचर होने वाला ऐसा वस्त्र नहीं है; और जो समस्त इन्द्रियसमूह को गोचर होने वाला वस्त्र है वह एक चक्षुइन्द्रिय के विषय में आने वाला तथा अन्य समस्त इन्द्रियों के समूह को गोचर न होने वाला ऐसा शुक्लत्व गुण नहीं है, इसलिये उनके तद्भाव का अभाव है; इसी प्रकार, ३किसी के आश्रय रहने वाली, ४निर्गुण, एक गुण की बनी हुई, ५विशेषण ६विधायक और ७वृत्ति-स्वरूप जो सत्ता है वह किसी के आश्रय के बिना रहने वाला, गुण वाला, अनेक गुणों से निर्मित, विशेष्य, विधीयमान और वृत्तिमानस्वरूप ऐसा द्रव्य नहीं है, तथा जो किसी के आश्रय के बिना रहने वाला, गुण वाला, अनेक गुणों से निर्मित, ८विशेष्य, ९विधीयमान और १०वृत्तिमान-स्वरूप ऐसा द्रव्य है वह किसी के आश्रित रहने वाली, निर्गुण, एक गुण से निर्मित, विशेषण, विधायक और वृत्तिस्वरूप ऐसी सत्ता नहीं है, इसलिये उनके तद्भाव का अभाव है । ऐसा होने से ही, यद्यपि, सत्ता और द्रव्य के कथंचित् अनर्थान्तरत्व (अभिन्नपदार्थत्व, अनन्यपदार्थत्व) है तथापि उनके सर्वथा एकत्व होगा ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि तद्भाव एकत्व का लक्षण है । जो उसरूप ज्ञात नहीं होता वह (सर्वथा) एक कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता; परन्तु गुण-गुणी-रूप से अनेक ही है, यह अर्थ है ॥१०६॥
१अतद्भाव = (कथंचित) उसका न होना; (कथंचित) उसरूप न होना (कथंचित) अतद्रूपता । द्रव्य कथंचित सत्तास्वरूपसे नहीं है और सत्ता कथंचित द्रव्यरूपसे नहीं है, इसलिये उनके अतद्भाव है ।
२तद्भाव = उसका होना, उसरूप होना, तद्रूपता ।
३सत्ता द्रव्य के आश्रय से रहती है, द्रव्य को किसी का आश्रय नहीं है । (जैसे घड़े में घी रहता है, उसीप्रकार द्रव्य में सत्ता नहीं रहती, क्योंकि घड़े में और घी में तो प्रदेशभेद है, किन्तु जैसे आम में वर्ण गंधादि हैं उसीप्रकार द्रव्य में सत्ता है) ।
४निर्गुण = गुणरहित (सत्ता निर्गुण है, द्रव्य गुणवाला है । जैसे आम वर्ण, गंध स्पर्शादि गुण-युक्त है, किन्तु वर्ण-गुण कहीं गंध, स्पर्श या अन्य किसी गुणवाला नहीं है, क्योंकि न तो वर्ण सूंघा जाता है और न स्पर्श किया जाता है । और जैसे आत्मा ज्ञान-गुण वाला, वीर्य-गुण वाला इत्यादि है, परन्तु ज्ञान-गुण कहीं वीर्य-गुणवाला या अन्य किसी गुणवाला नहीं है; इसीप्रकार द्रव्य अनन्त गुणोंवाला है, परन्तु सत्ता गुणवाली नहीं है । यहाँ, जैसे दण्डी दण्डवाला है उसीप्रकार द्रव्य को गुणवाला नहीं समझना चाहिये; क्योंकि दण्डी और दण्ड में प्रदेश-भेद है, किन्तु द्रव्य और गुण अभिन्न-प्रदेशी हैं) ।
५विशेषण = विशेषता; लक्षण; भेदक धर्म ।
६विधायक = विधान करनेवाला; रचयिता ।
७वृत्ति = होना, अस्तित्व, उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य ।
८विशेष्य = विशेषता को धारण करनेवाला पदार्थ; लक्ष्य; भेद्य पदार्थ- धर्मी । (जैसे मिठास, सफेदी, सचिक्कणता आदि मिश्री के विशेष गुण हैं, और मिश्री इन विशेष गुणों से विशेषित होती हुई अर्थात् उन विशेषताओं से ज्ञात होती हुई, उन भेदों से भेदित होती हुई एक पदार्थ है; और जैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य इत्यादि आत्मा के विशेषण है और आत्मा उन विशेषणों से विशेषित होता हुआ -- लक्षित, भेदित, पहचाना जाता हुआ -- पदार्थ है, उसीप्रकार सत्ता विशेषण है और द्रव्य विशेष्य है । यहाँ यह नहीं भूलना चाहिये कि विशेष्य और विशेषणों के प्रदेश-भेद नहीं हैं ।)
९विधीयमान = रचित होनेवाला । ( सत्ता इत्यादि गुण द्रव्य के रचयिता है और द्रव्य उनके द्वारा रचा जानेवाला पदार्थ है ।)
१०वृत्तिमान = वृत्तिवाला, अस्तित्ववाला, स्थिर रहनेवाला । ( सत्ता वृत्तिस्वरूप अर्थात् अस्ति-स्वरूप है और द्रव्य अस्तित्व रहने-स्वरूप है ।)
जैसे एक मोतियों की माला हार के रूप में, सूत्र (धागा) के रूप में और मोती के रूप में—(त्रिधा) तीन प्रकार से विस्तारित की जाती है, उसी प्रकार एक द्रव्य, द्रव्य के रूप में, गुण के रूप में और पर्याय के रूप में—तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है ।
और जैसे एक मोतियों की माला का शुक्लत्व गुण, शुक्ल हार, शुक्ल धागा, और शुक्ल मोती,—यों तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है, उसी प्रकार एक द्रव्य का सत्तागुण सत् द्रव्य, सत् गुण, और सत्पर्याय,—यों तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है ।
और जैसे एक मोतियों की माला में जो शुक्लत्वगुण है वह हार नहीं है, धागा नहीं है या मोती नहीं है, और जो हार, धागा या मोती है वह शुक्लत्वगुण नहीं है;—इस प्रकार एक-दूसरे में जो ‘उसका अभाव’ अर्थात् ‘तद्रूप होने का अभाव है’ वह ‘तद्-अभाव’ लक्षण ‘अतद्भाव’ है, जो कि अन्यत्व का कारण है । इसी प्रकार एक द्रव्य में जो सत्तागुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है, या पर्याय नहीं है; और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है वह सत्तागुण नहीं है,—इस प्रकार एक-दूसरे में जो ‘उसका अभाव’ अर्थात् ‘तद्रूप होने का अभाव’ है वह ‘तद्-अभाव’ लक्षण ‘अतद्भाव’ है जो कि अन्यत्व का कारण है ॥१०७॥
एक द्रव्य में, जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है;—इस प्रकार जो द्रव्य का गुणरूप से (न होना) अथवा गुण का द्रव्यरूप से न होना, अतद्भाव है; क्योंकि इतने से ही अन्यत्व व्यवहार (अन्यत्वरूप व्यवहार) सिद्ध होता है । परन्तु द्रव्य का अभाव गुण है, गुण का अभाव द्रव्य है;—ऐसे लक्षण वाला अभाव वह अतद्भाव नहीं है । यदि ऐसा हो तो
- एक द्रव्य को अनेकत्व आ जायेगा,
- उभयशून्यता (दोनों का अभाव) हो जायेगा, अथवा
- अपोहरूपता आ जायेगी ।
- जैसे चेतनद्रव्य का अभाव वह अचेतन द्रव्य है, (और) अचेतनद्रव्य का अभाव वह चेतनद्रव्य है,—इस प्रकार उनके अनेकत्व (द्वित्व) है, उसी प्रकार द्रव्य का अभाव वह गुण, (और) गुण का अभाव द्रव्य- है;—इस प्रकार एक द्रव्य के भी अनेकत्व आ जायेगा । (अर्थात् द्रव्य के एक होने पर भी उसके अनेकत्व का प्रसंग आ जायेगा ।)
- जैसे सुवर्ण के अभाव होने पर सुवर्णत्व का अभाव हो जाता है और सुवर्णत्व का अभाव होने पर सुवर्ण का अभाव हो जाता है,—इस प्रकार उभयशून्यत्व- दोनों का अभाव हो जाता है; उसी प्रकार द्रव्य का अभाव होने पर गुण का अभाव और गुण का अभाव होने पर द्रव्य का अभाव हो जायेगा;—इस प्रकार उभयशून्यता हो जायेगी । (अर्थात् द्रव्य तथा गुण दोनों के अभाव का प्रसंग आ जायेगा ।)
- जैसे पटाभावमात्र ही घट है, घटाभावमात्र ही पट है, (अर्थात् वस्त्र के केवल अभाव जितना ही घट है, और घट के केवल अभाव जितना ही वस्त्र है)—इस प्रकार दोनों के अपोहरूपता है, उसी प्रकार द्रव्याभावमात्र ही गुण और गुणाभावमात्र ही द्रव्य होगा;—इस प्रकार इसमें भी (द्रव्य-गुण में भी) अपोहरूपता आ जायेगी, (अर्थात् केवल नकाररूपता का प्रसङ्ग आ जायेगा ।)
१अपोहरूपता = सर्वथा नकारात्मकता; सर्वथा भिन्नता । (द्रव्य और गुण में एक-दूसरे का केवल नकार ही हो तो 'द्रव्य गुणवाला है' 'यह गुण इस द्रव्य का है' -इत्यादि कथन से सूचित किसी प्रकार का सम्बन्ध ही द्रव्य और गुण के नहीं बनेगा) ।
२अनपोहत्व = अपोहरूपता का न होना; केवल नकारात्मकता का न होना ।
द्रव्य स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से सत् है,—ऐसा पहले (९९वीं गाथा में) प्रतिपादित किया गया है; और (वहाँ) द्रव्य का स्वभाव परिणाम कहा गया है । यहाँ यह सिद्ध किया जा रहा है कि जो द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है वही ‘सत्’ से अविशिष्ट (अस्तित्व से अभिन्न) ऐसा गुण है ।
जो द्रव्य के स्वरूप का वृत्तिभूत ऐसा जो अस्तित्व द्रव्यप्रधान कथन के द्वारा ‘सत्’ शब्द से कहा जाता है उससे अविशिष्ट (उस अस्तित्व से अनन्य) गुणभूत ही द्रव्यस्वभावभूत परिणाम है; क्योंकि द्रव्य की वृत्ति (अस्तित्व) तीन प्रकार के समय को (भूत, भविष्यत, वर्तमान काल को) स्पर्शित करती है, इसलिये (वह वृत्ति—अस्तित्व) प्रतिक्षण उस-उस स्वभावरूप परिणमित होती है ।
(इसलिये) प्रथम तो द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है; और वह (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणाम) अस्तित्वभूत ऐसी द्रव्य की वृत्तिस्वरूप होने से, ‘सत्’ से अविशिष्ट, द्रव्यविधायक (द्रव्य का रचयिता) गुण ही है । इस प्रकार सत्ता और द्रव्य का गुणगुणीपना सिद्ध होता है ॥१०९॥
वास्तव में द्रव्य से पृथग्भूत (भिन्न) ऐसा कोई गुण या ऐसी कोई पर्याय कुछ नहीं होता; जैसे—सुवर्ण से पृथग्भूत उसका पीलापन आदि या उसका कुण्डलत्वादि नही होता तदनुसार । अब, उस द्रव्य के स्वरूप की वृत्तिभूत जो अस्तित्व नाम से कहा जाने वाला द्रव्यत्व वह उसका ‘भाव’ नाम से कहा जाने वाला गुण ही होने से, क्या वह द्रव्य से पृथक्रूप वर्तता है? नहीं ही वर्तता । तब फिर द्रव्य स्वयमेव सत्ता हो ॥११०॥
इस प्रकार यथोदित (पूर्वकथित) सर्व प्रकार से १अकलंक लक्षण वाला, अनादिनिधन वह द्रव्य सत्स्वभाव में (अस्तित्वस्वभाव में) उत्पाद को प्राप्त होता है । द्रव्य का वह उत्पाद, द्रव्य की २अभिधेयता के समय सद्भाव-संबद्ध ही है और पर्यायों की अभिधेयता के समय असद्भाव-संबद्ध ही है । इसे स्पष्ट समझाते हैं :—
जब द्रव्य ही कहा जाता है,—पर्यायें नहीं, तब
- उत्पत्ति-विनाश रहित,
- युगपत् प्रवर्तमान,
- द्रव्य को उत्पन्न करने वाली अन्वय-शक्तियों के द्वारा,
- उत्पत्ति-विनाश-लक्षण वाली,
- क्रमश: प्रवर्तमान,
- पर्यायों की उत्पादक उन-उन व्यतिरेक-व्यक्तियों को प्राप्त
- सुवर्ण जितनी स्थायी,
- युगपत् प्रवर्तमान,
- सुवर्ण की उत्पादक ३अन्वय-शक्तियों के द्वारा बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितने स्थायी,
- क्रमश: प्रवर्तमान,
- बाजूबंध इत्यादि पर्यायों की उत्पादक उन-उन ४व्यतिरेक-व्यक्तियों को प्राप्त होने वाले
और जब पर्यायें ही कही जाती हैं, द्रव्य नहीं, तब
- उत्पत्ति-विनाश जिनका लक्षण है ऐसी,
- क्रमश: प्रवर्तमान,
- पर्यायों को उत्पन्न करने वाली उन-उन व्यतिरेक-व्यक्तियों के द्वारा,
- उत्पत्ति-विनाश रहित,
- युगपत् प्रवर्तमान,
- द्रव्य की उत्पादक अन्वय-शक्तियो को प्राप्त होने वाले द्रव्य को
- बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितनी टिकने वाली,
- क्रमश: प्रवर्तमान,
- बाजूबंध इत्यादि पर्यायों की उत्पादक उन-उन व्यतिरेक-व्यक्तियों के द्वारा,
- सुवर्ण जितनी टिकने वाली,
- युगपत्-प्रवर्तमान,
- सुवर्ण की उत्पादक अन्वय-शक्तियों को प्राप्त
अब, पर्यायों की अभिधेयता (कथनी) के समय भी, असत्-उत्पाद में पर्यायों को उत्पन्न करने वाली वे-वे व्यतिरेक-व्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त अन्वय-शक्तिपने को प्राप्त होती हुई पर्यायों को द्रव्य करता है (पर्यायों की विवक्षा के समय भी व्यतिरेक-व्यक्तियाँ अन्वय-शक्तिरूप बनती हुई पर्यायों को द्रव्यरूप करती हैं); जैसे बाजूबंध आदि पर्यायों को उत्पन्न करने वाली वे-वे व्यतिरेक-व्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वय-शक्तिपने को प्राप्त करती हुई बाजुबंध इत्यादि पर्यायों को सुवर्ण करता है । द्रव्य की अभिधेयता के समय भी, सत्-उत्पाद में द्रव्य की उत्पादक अन्वय-शक्तियाँ क्रम-प्रवृत्ति को प्राप्त उस-उस व्यतिरेक-व्यक्तित्व को प्राप्त होती हुई, द्रव्य को पर्यायें (पर्यायरूप) करती हैं; जैसे सुवर्ण की उत्पादक अन्वय-शक्तियाँ क्रम-प्रवृत्ति प्राप्त करके उस-उस व्यतिरेक-व्यक्तित्व को प्राप्त होती हुई, सुवर्ण को बाजूबंधादि पर्यायमात्र (पर्यायमात्र-रूप) करती हैं ।
इसलिये द्रव्यार्थिक कथन से सत्-उत्पाद है, पर्यायार्थिक कथन से असत्-उत्पाद है -- यह बात अनवद्य (निर्दोष, अबाध्य) है ॥१११॥
१अकलंक = निर्दोष (यह द्रव्य पूर्वकथित सर्वप्रकार निर्दोष लक्षणवाला है) ।
२अभिधेयता = कहने योग्यपना; विवक्षा; कथनी ।
३अन्वयशक्ति = अन्वयरूपशक्ति । ( अन्वयशक्तियाँ उत्पत्ति और नाश से रहित हैं, एक ही साथ प्रवृत्त होती हैं और द्रव्य को उत्पन्न करती हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि आत्म-द्रव्य की अन्वय-शक्तियाँ हैं) ।
४व्यतिरेक-व्यक्ति = भेदरूप प्रगटता । (व्यतिरेक-व्यक्तियाँ उत्पत्ति विनाश को प्राप्त होती हैं, क्रमश: प्रवृत्त होती हैं और पर्यायों को उत्पन्न करती हैं । श्रुतज्ञान, केवलज्ञान इत्यादि तथा स्वरूपाचरण-चारित्र, यथाख्यात-चारित्र इत्यादि आत्म-द्रव्य की व्यतिरेक-व्यक्तियाँ हैं । व्यतिरेक और अन्वय के अर्थों के लिये ११ ९वें पृष्ठ का फुटनोट/टिप्पणी देखें) ।
५सद्भावसंबद्ध = सद्भाव-अस्तित्व के साथ संबंध रखनेवाला, -संकलित । द्रव्य की विवक्षा के समय अन्वय शक्तियों को मुख्य और व्यतिरेक-व्यक्तियों को गौण कर दिया जाता है, इसलिये द्रव्य के सद्भाव-संबद्ध उत्पाद (सत्-उत्पाद, विद्यमान का उत्पाद) है ।
६असद्भावसंबद्ध - अनस्तित्व के साथ सबंधवाला - संकलित । (पर्यायों की विवक्षा के समय व्यतिरेक-व्यक्तियों को मुख्य और अन्वय-शक्तियों को गौण किया जाता है, इसलिये द्रव्य के असद्भाव-संबद्ध उत्पाद (असत्-उत्पाद, अविद्यमान का उत्पाद) है ।
प्रथम तो द्रव्य द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को कभी भी न छोड़ता हुआ सत् (विद्यमान) ही है । और द्रव्य के जो पर्यायभूत व्यतिरेकव्यक्ति का उत्पाद होता है उसमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति का अच्युतपना होने से द्रव्य अनन्य ही है, (अर्थात् उस उत्पाद में भी अन्वयशक्ति तो अपतित- अविनष्ट-निश्चल होने से द्रव्य वह का वही है, अन्य नहीं ।) इसलिये अनन्यपने के द्वारा द्रव्य का सत्-उत्पाद निश्चित होता है, (अर्थात् उपरोक्त कथनानुसार द्रव्य का द्रव्यापेक्षा से अनन्यपना होने से, उसके सत्-उत्पाद है,—ऐसा अनन्यपने द्वारा सिद्ध होता है ।)
इसी बात को (उदाहरण से) स्पष्ट किया जाता है :—
जीव द्रव्य होने से और द्रव्य पर्यायों में वर्तने से जीव नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व में से किसी एक पर्याय में अवश्यमेव (परिणमित) होगा । परन्तु वह जीव उस पर्यायरूप होकर क्या द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को छोड़ता है ? नहीं छोड़ता । यदि नहीं छोड़ता तो वह अन्य कैसे हो सकता है कि जिससे त्रिकोटि सत्ता (तीन प्रकार की सत्ता, त्रैकालिक अस्तित्व) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव), वही न हो? ॥११२॥
पर्यायें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्ति के काल में ही सत् (विद्यमान) होने से, उससे अन्य कालों में असत् (अविद्यमान) ही हैं । और पर्यायों का द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति के साथ गुंथा हुआ (एकरूपता से युक्त) जो क्रमानुपाती (क्रमानुसार) स्वकाल में उत्पाद होता है उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्ति का पहले असत्पना होने से, पर्यायें अन्य ही हैं । इसीलिये पर्यायों की अन्यता के द्वारा द्रव्य का—जो कि पर्यायों के स्वरूप का कर्ता, करण और अधिकरण होने से पर्यायों से अपृथक् है—असत्-उत्पाद निश्चित होता है ।
इस बात को (उदाहरण देकर) स्पष्ट करते हैं :—
मनुष्य वह देव या सिद्ध नहीं है, और देव, वह मनुष्य या सिद्ध नहीं है; इस प्रकार न होता हुआ अनन्य (वह का वही) कैसे हो सकता है, कि जिससे अन्य ही न हो और जिससे मनुष्यादि पर्यायें उत्पन्न होती हैं ऐसा जीव द्रव्य भी,—जिसकी कंकणादि पर्यायें उत्पन्न होती हैं ऐसे सुवर्ण की भाँति-पद-पद पर (प्रति पर्याय पर) अन्य न हो? (जैसे कंकण, कुण्डल इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, --भिन्न-भिन्न हैं, वे की वे ही नहीं हैं, इसलिये उन पर्यायों का कर्ता सुवर्ण भी अन्य है, इसी प्रकार मनुष्य, देव इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, इसलिये उन पर्यायों का कर्ता जीव-द्रव्य भी पर्यायापेक्षा से अन्य है) ॥११३॥
वास्तव में सभी वस्तु सामान्यविशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: (१) सामान्य और (२) विशेष को जानने वाली दो आंखें हैं—(१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक ।
इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीवसामान्य को देखने वाले और विशेषों को न देखने वाले जीवों को ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है । और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीव द्रव्य) अन्य-अन्य भासित होता है, क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है,—कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति । (जैसे घास, लकड़ी इत्यादि की अग्नि उस-उस समय घासमय, लकड़ीमय इत्यादि होने से घास, लकड़ी इत्यादि से अनन्य है उसी प्रकार द्रव्य उन-उन पर्यायरूप विशेषों के समय तन्मय होने से उनसे अनन्य है,—पृथक् नहीं है।) और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा और इनके द्वारा (द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक चक्षुओं के) द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तिर्यचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायों में रहने वाला जीवसामान्य तथा जीवसामान्य में रहने वाला नारकत्व, तिर्यचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेष तुल्यकाल में ही (एक ही साथ) दिखाई देते हैं ।
वहाँ, एक आँख से देखा जाना वह एकदेश अवलोकन है और दोनों आँखों से देखना वह सर्वावलोकन (सम्पूर्ण अवलोकन) है । इसलिये सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते ॥११४॥
द्रव्य
- स्वरूपापेक्षा से १ स्यात् अस्ति;
- पररूप की अपेक्षा से स्यात् नास्ति;
- स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् २अवक्तव्य;
- स्वरूप-पररूप के क्रम की अपेक्षा से स्यात् अस्ति-नास्ति;
- स्वरूप की और स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् अस्ति-अवक्तव्य;
- पररूप की और स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् नास्ति अवक्तव्य; और
- स्वरूप की, पररूप की तथा स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य है ।
द्रव्य का कथन करने में,
- जो स्वरूप से 'सत्' है;
- जो पररूप से 'असत्' है;
- जिसका स्वरूप और पररूप से युगपत् कथन अशक्य है;
- जो स्वरूप से और पररूप से क्रमश: 'सत् और असत्' है;
- जो स्वरूप से, और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'सत् और अवक्तव्य' है;
- जो पररूप से, और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'असत् और अवक्तव्य' है; तथा
- जो स्वरूप से पररूप और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'सत्, असत् और अवक्तव्य' है
१स्यात् = कथंचित्; किसीप्रकार; किसी अपेक्षा से । (प्रत्येक द्रव्य स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से- स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा से-' अस्ति ' है । शुद्ध जीव का स्व-चतुष्टय इस प्रकार है :- शुद्ध गुण-पर्यायों का आधारभूत शुद्धात्म-द्रव्य वह द्रव्य है; लोकाकाश-प्रमाण शुद्ध असंख्य-प्रदेश वह क्षेत्र है, शुद्ध पर्याय-रूप से परिणत वर्तमान समय वह काल है, और शुद्ध चैतन्य वह भाव है) ।
२अवक्तव्य = जो कहा न जा सके । (एक ही साथ स्वरूप तथा पररूप की अपेक्षा से द्रव्य कथनमें नहीं आ सकता, इसलिये अवक्तव्य है) ।
यहाँ (इस विश्व में), अनादिकर्मपुद्गल की उपाधि के सद्भाव के आश्रय (कारण) से जिसके प्रतिक्षण विवर्त्तन होता रहता है ऐसे संसारी जीव को क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है; इसलिये उसके मनुष्यादिपर्यायों में से कोई भी पर्याय यही है ऐसी टंकोत्कीर्ण नहीं है; क्योंकि वे पर्यायें पूर्व-पूर्व पर्यायों के नाश में प्रवर्तमान क्रिया फलरूप होने से उत्तर-उत्तर पर्यायों के द्वारा नष्ट होती हैं । और क्रिया का फल तो, मोह के साथ मिलन का नाश न हुआ होने से मानना चाहिये; क्योंकि—प्रथम तो, क्रिया चेतन की पूर्वोत्तर दशा से विशिष्ट चैतन्य परिणाम स्वरूप है; और वह (क्रिया) जैसे—दूसरे अणु के साथ संबंध जिसका नष्ट हो गया है ऐसे अणु की परिणति द्विअणुक कार्य की निष्पादक नहीं है उसी प्रकार, मोह के साथ मिलन का नाश होने पर वही क्रिया—द्रव्य की परमस्वभावभूत होने से परमधर्म नाम से कही जाने वाली—मनुष्यादिकार्य की निष्पादक न होने से अफल ही है ॥११६॥
क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है, (अर्थात् आत्मा क्रिया को प्राप्त करता है—पहुँचता है—इसलिये वास्तव में क्रिया ही आत्मा का कर्म है ।) उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त होता हुआ (द्रव्य-कर्मरूप से परिणमन करता हुआ) पुद्गल भी कर्म है । उस (पुद्गलकर्म) की कार्यभूत मनुष्यादि-पर्यायें मूलकारणभूत ऐसी जीव की क्रिया से प्रवर्तमान होने से क्रियाफल ही हैं; क्योंकि क्रिया के अभाव में पुद्गलों को कर्मपने का अभाव होने से उस (पुद्गलकर्म) की कार्यभूत मनुष्यादि-पर्यायों का अभाव होता है ।
वहाँ, वे मनुष्यादि-पर्यायें कर्म के कार्य कैसे हैं? (सो कहते हैं कि) वे कर्म-स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाती हैं, इसलिये; दीपक की भाँति । यथा :- ज्योति (लौ) के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके किया जानेवाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसीप्रकार कर्म-स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाने वाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं ॥११७॥
अब यह निर्णय करते हैं कि मनुष्यादि पर्यायों में जीव के स्वभाव का पराभव किस कारण से होता है? --
प्रथम तो, यह मनुष्यादिपर्यायें नामकर्म से निष्पन्न हैं, किन्तु इतने से भी वहाँ जीव के स्वभाव का पराभव नहीं है; जैसे कनकबद्ध (सुवर्ण में जड़े हुये) माणिक वाले कंकणों में माणिक के स्वभाव का पराभव नहीं होता । जो वहाँ जीव स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता—अनुभव नहीं करता सो स्वकर्मरूप परिणमित होने से है, पानी के पूर (बाढ़) की भाँति । जैसे पानी का पूर प्रदेश से और स्वाद से निम्ब-चन्दनादिवनराजिरूप (नीम, चन्दन इत्यादि वृक्षों की लम्बी पंक्तिरूप) परिणमित होता हुआ (अपने) द्रवत्व और स्वादुत्वरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा भी प्रदेश से और भाव से स्वकर्मरूप परिणमित होने से (अपने) अमूर्तत्व और निरुपराग विशुद्धिमत्वरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता ॥११८॥
प्रथम तो यहाँ न कोई जन्म लेता है और न मरता है (अर्थात् इस लोक में कोई न तो उत्पन्न होता है और न नाश को प्राप्त होता है) । और (ऐसा होने पर भी) मनुष्य-देव-तिर्यंच-नारकात्मक जीवलोक प्रतिक्षण परिणामी होने से क्षण-क्षण में होने वाले विनाश और उत्पाद के साथ (भी) जुड़ा हुआ है । और यह विरोध को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि उद्भव और विलय का एकत्व है तब पूर्वपक्ष है, और जब अनेकत्व है तब उत्तरपक्ष है। (अर्थात्—जब उत्पाद और विनाश के एकत्व की अपेक्षा ली जाये तब यह पक्ष फलित होता है कि—‘न तो कोई उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है’; और जब उत्पाद तथा विनाश के अनेकपने की अपेक्षा ली जाये तब प्रतिक्षण होने वाले विनाश और उत्पाद का पक्ष फलित होता है ।) वह इस प्रकार है :—
जैसे :—‘जो घड़ा है वही कूँडा है’ ऐसा कहा जाने पर, घड़े और कूँडे के स्वरूप का एकपना असम्भव होने से, उन दोनों की आधारभूत मिट्टी प्रगट होती है, उसी प्रकार ‘जो उत्पाद है वही विनाश है’ ऐसा कहा जाने पर उत्पाद और विनाश के स्वरूप का एकत्व असम्भव होने से उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य प्रगट होता है; इसलिये देवादिपर्याय के उत्पन्न होने और मनुष्यादिपर्याय के नष्ट होने पर, ‘जो उत्पाद है वही विलय है’ ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से) उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्यवान् जीवद्रव्य प्रगट होता है (लक्ष में आता है) इसलिये सर्वदा द्रव्यपने से जीव टंकोत्कीर्ण रहता है ।
और फिर, जैसे—‘अन्य घड़ा है और अन्य कूँडा है’ ऐसा कहा जाने पर उन दोनों की आधारभूत मिट्टी का अन्यत्व (भिन्न-भिन्नपना) असंभवित होने से घड़े का और कूँडे का (दोनों का भिन्न-भिन्न) स्वरूप प्रगट होता है, उसी प्रकार ‘अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है’ ऐसा कहा जाने पर, उन दोनों के आधारभूत ध्रौव्य का अन्यपना असंभवित होने से उत्पाद और व्यय का स्वरूप प्रगट होता है; इसलिये देवादिपर्याय के उत्पन्न होने पर और मनुष्यादिपर्याय के नष्ट होने पर, ‘अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है’ ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से) उत्पाद और व्यय वाली देवादिपर्याय और मनुष्यादिपर्याय प्रगट होती है (लक्ष में आती है); इसलिये जीव प्रतिक्षण पर्यायों से अनवस्थित है ॥११९॥
वास्तव में जीव द्रव्यपने से अवस्थित होने पर भी पर्यायों से अनवस्थित है; इससे यह प्रतीत होता है कि संसार में कोई भी स्वभाव से अवस्थित नहीं है (अर्थात् किसी का स्वभाव केवल अविचल-एकरूप रहनेवाला नहीं है); और यहाँ जो अनवस्थितता है उसमें संसार ही हेतु है; क्योंकि वह (संसार) मनुष्यादिपर्यायात्मक है, कारण कि वह स्वरूप से ही वैसा है, (अर्थात् संसार का स्वरूप ही ऐसा है) उसमें परिणमन करते हुये द्रव्य का पूर्वोत्तरदशा का त्यागग्रहणात्मक ऐसा जो क्रिया नाम का परिणाम है वह संसार का स्वरूप है ॥१२०॥
संसार नामक जो यह आत्मा का तथाविध (उस प्रकार का) परिणाम है वही द्रव्यकर्म के चिपकने का हेतु है । अब, उस प्रकार के परिणाम का हेतु कौन है? इसके उत्तर में कहते हैं कि - द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि द्रव्यकर्म की संयुक्तता से ही वह देखा जाता है ।
शंका - ऐसा होने से इतरेतराश्रयदोष आयेगा !
समाधान - नहीं आयेगा; क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकर्म के साथ संबद्ध ऐसे आत्मा का जो पूर्व का द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतुरूप से ग्रहण (स्वीकार) किया गया है ।
इस प्रकार नवीन द्रव्यकर्म जिसका कार्यभूत है और पुराना द्रव्यकर्म जिसका कारणभूत है, ऐसा आत्मा का तथाविध परिणाम होने से, वह उपचार से द्रव्यकर्म ही है, और आत्मा भी अपने परिणाम का कर्त्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्त्ता भी उपचार से है ॥१२१॥
प्रथम तो आत्मा का परिणाम वास्तव में स्वयं आत्मा ही है, क्योंकि परिणामी परिणाम के स्वरूप का कर्त्ता होने से परिणाम से अनन्य है; और जो उसका (आत्मा का) तथाविध परिणाम है वह जीवमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणाम-लक्षण-क्रिया आत्ममयता (निजमयता) से स्वीकार की गई है; और फिर, जो (जीवमयी) क्रिया है वह आत्मा के द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होने से कर्म है । इसलिये परमार्थत: आत्मा अपने परिणाम-स्वरूप भावकर्म का ही कर्त्ता है; किन्तु पुद्गल-परिणाम-स्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं ।
अब यहाँ ऐसा प्रश्न होता है कि ‘(जीव भावकर्म का ही कर्त्ता है तब फिर) द्रव्यकर्म का कर्त्ता कौन है?’
(इसका उत्तर इस प्रकार है :—) प्रथम तो पुद्गल का परिणाम वास्तव में स्वयं पुद्गल ही है, क्योंकि परिणामी परिणाम के स्वरूप का कर्त्ता होने से परिणाम से अनन्य है; और जो उसका (पुद्गल का) तथाविधि परिणाम है वह पुद्गलमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणाम-स्वरूप क्रिया निजमय होती है, ऐसा स्वीकार किया गया है; और फिर, जो (पुद्गलमयी) क्रिया है वह पुद्गल के द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होने से कर्म है । इसलिये परमार्थत: पुद्गल अपने परिणाम-स्वरूप उस द्रव्यकर्म का ही कर्त्ता है, किन्तु आत्मा के परिणाम-स्वरूप भावकर्म का नहीं ।
इससे (ऐसा समझना चाहिये कि) आत्मा आत्म-स्वरूप परिणमित होता है, पुद्गल-स्वरूप परिणमित नहीं होता ॥१२२॥
जिससे चैतन्य वह आत्मा का स्वधर्म-व्यापकपना है, उससे चेतना ही आत्मा का स्वरूप है; उस रूप (चेतनारूप) वास्तव में आत्मा परिणमित होता है । आत्मा का जो कुछ भी परिणाम हो वह सब ही चेतना का उल्लंघन नहीं करता, ( अर्थात् आत्मा का कोई भी परिणाम चेतना को किंचित्मात्र भी नहीं छोड़ता—बिना चेतना के बिलकुल नहीं होता)—यह तात्पर्य है । और चेतना ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप से तीन प्रकार की है । उसमें ज्ञान-परिणति (ज्ञानरूप से परिणति) वह ज्ञान-चेतना, कर्म-परिणति वह कर्मचेतना और कर्म-फल-परिणति वह कर्मफल-चेतना है ॥१२३॥
प्रथम तो, अर्थविकल्प वह ज्ञान है । वहाँ, अर्थ क्या है ? स्व-पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व वह अर्थ है । उसके आकारों का अवभासन वह विकल्प है । और दर्पण के निज विस्तार की भाँति (अर्थात् जैसे दर्पण के निज विस्तार में स्व और पर आकार एक ही साथ प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार) जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थविकल्प वह ज्ञान है ।
जो आत्मा के द्वारा किया जाता है वह कर्म है । प्रतिक्षण उस-उस भाव से होता हुआ आत्मा के द्वारा वास्तव में किया जानेवाला जो उसका भाव है वही, आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है । और वह (कर्म) एक प्रकार का होने पर भी, द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के सद्भाव और असद्भाव के कारण अनेक प्रकार का है ।
उस कर्म से उत्पन्न किया जानेवाला सुख-दुःख वह कर्मफल है । वहाँ, द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के असद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्वलक्षण प्रकृतिभूत सुख है; और द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के सद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल विकृति- (विकार) भूत दुःख है, क्योंकि वहाँ सुख के लक्षण का अभाव है ।
इस प्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफल का स्वरूप निश्चित हुआ ॥१२४॥
प्रथम तो आत्मा वास्तव में परिणाम-स्वरूप ही है, क्योंकि परिणाम स्वयं आत्मा है ऐसा (११२वीं गाथा में भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने) स्वयं कहा है; तथा परिणाम चेतना-स्वरूप होने से ज्ञान, कर्म और कर्मफलरूप होने के स्वभाव वाला है, क्योंकि चेतना तन्मय (ज्ञानमय, कर्ममय अथवा कर्मफलमय) होती है । इसलिये ज्ञान, कर्म, कर्मफल आत्मा ही है ।
इस प्रकार वास्तव में शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का (सम्बन्ध; संग) असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर प्रलीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है ॥१२५॥
जो पुरुष इस प्रकार कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है यह निश्चय करके वास्तव में पर-द्रव्यरूप परिणमित नहीं होता, वही पुरुष, जिसका परद्रव्य के साथ संपर्क रुक गया है और जिसकी पर्यायें द्रव्य के भीतर प्रलीन हो गई हैं ऐसे शुद्धात्मा को उपलब्ध करता है; परन्तु अन्य कोई (पुरुष) ऐसे शुद्ध आत्मा को उपलब्ध नहीं करता ।
इसी को स्पष्टतया समझाते हैं :—
जब अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्म की बन्धनरूप उपाधि की निकटता से उत्पन्न हुए उपराग के द्वारा जिसकी स्वपरिणति रंजित (विकृत, मलिन) थी ऐसा मैं-जपाकुसुम की निकटता से उत्पन्न हुये उपराग से (लालिमा से) जिसकी स्वपरिणति रंजित (रँगी हुई) हो ऐसे स्फटिक-मणि की भाँति पर के द्वारा आरोपित विकार वाला होने से संसारी था, तब भी (अज्ञानदशा में भी) वास्तव में मेरा कोई भी (संबंधी) नहीं था । तब भी
- मैं अकेला ही कर्ता था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभाव से स्वतंत्र था (स्वाधीनतया कर्ता था);
- मैं अकेला ही करण था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभाव के द्वारा साधकतम (उत्कृष्टसाधन) था;
- मैं अकेला ही कर्म था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण आत्मा से प्राप्य (प्राप्त होने योग्य) था; और
- मैं अकेला ही सुख से विपरीत लक्षण वाला, 'दुःख' नामक कर्मफल था, जो कि उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होने के स्वभाव से उत्पन्न किया जाता था ।
- मैं अकेला ही कर्ता हूँ? क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यस्वरूप स्वभाव से स्वतन्त्र हूँ (स्वाधीनतया कर्ता हूँ);
- मैं अकेला ही करण हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यरूप स्वभाव से साधकतम हूँ ।
- मैं अकेला ही कर्म हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यरूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण आत्मा से प्राप्य हूँ और
- मैं अकेला ही अनाकुलता लक्षण वाला, सुख नामक कर्मफल हूं;—जो कि सुविशुद्ध चैतन्यरूप परिणमित होने के स्वभाव से उत्पन्न किया जाता है ।
(( (मनहरण कवित्त)
जिसने बनाई भिन्न भिन्न द्रव्यनि से ।
और आतमा एक ओर को हटा दिया ॥
जिसने विशेष किये लीन सामान्य में ।
और मोहलक्ष्मी को लूट कर भगा दिया ।
ऐसे शुद्धनय ने उत्कट विवेक से ही ।
निज आतमा का स्वभाव समझा दिया ॥
और सम्पूर्ण इस जग से विरक्त कर ।
इस आतमा को आतमा में ही लगा दिया ॥७॥))
जिसने अन्य द्रव्य से भिन्नता के द्वारा आत्मा को एक ओर हटा लिया है (अर्थात् पर-द्रव्यों से अलग दिखाया है) तथा जिसने समस्त विशेषों के समूह को सामान्य में लीन किया है (अर्थात् समस्त पर्यायों को द्रव्य के भीतर डूबा हुआ दिखाया है), ऐसा जो यह, उद्धतमोह की लक्ष्मी को (ऋद्धि को, शोभा को) लूट लेनेवाला शुद्धनय है, उसने उत्कट विवेक के द्वारा तत्त्व को (आत्मस्वरूपको) विविक्त (शुद्ध / अकेला) किया है ।
(( (मनहरण कवित्त)
इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर ।
करता-करम आदि भेदों को मिटा दिया ॥
इस भाँति आत्मा का तत्त्व उपलब्ध कर ।
कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा दिया ।
ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल ।
सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया ।
आपनी ही महिमामय परकाशमान ।
रहेगा अनंतकाल जैसा सुख पा लिया ॥८॥))
इसप्रकार पर-परिणति के उच्छेद से (पर-द्रव्यरूप परिणमन-के नाश से) तथा कर्ता, कर्म इत्यादि भेदों की भ्रांति के भी नाश से अन्त में जिसने शुद्ध आत्मतत्त्व को उपलब्ध किया है, ऐसा यह आत्मा चैतन्यमात्ररूप विशद (निर्मल) तेज में लीन होता हुआ, अपनी सहज (स्वाभाविक) महिमा के प्रकाशमानरूप से सर्वदा मुक्त ही रहेगा ।
(( (दोहा)
अरे द्रव्य सामान्य का अबतक किया बखान ।
अब तो द्रव्यविशेष का करते हैं व्याख्यान ॥९॥))
इसप्रकार द्रव्य-सामान्य के ज्ञान से मन को गंभीर करके, अब द्रव्य-विशेष के परिज्ञान का प्रारंभ किया जाता है ।
इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद्अमृतचंद्राचार्यदेव विरचित तत्त्वदीपिका नाम की टीका में ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन में द्रव्य-सामान्य प्रज्ञापन समाप्त हुआ ।
यहाँ (इस विश्व में) द्रव्य, एकत्व के कारणभूत द्रव्यत्वसामान्य को छोड़े बिना ही, उसमें रहे हुए विशेषलक्षणों के सद्भाव के कारण एक-दूसरे से पृथक् किये जाने पर जीवत्वरूप और अजीवत्वरूप विशेष को प्राप्त होता है । उसमें, जीव का आत्मद्रव्य ही एक भेद है; और अजीव के पुद्गल द्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य तथा आकाशद्रव्य—यह पाँच भेद हैं । जीव का विशेषलक्षण चेतनोपयोगमयत्व (चेतनामयपना और उपयोगमयपना) है; और अजीव का, अचेतनत्व है । उसमें जहाँ स्वधर्मों में व्याप्त होने से (जीव के) स्वरूपत्व से प्रकाशित होती हुई, अविनाशिनी, भगवती, संवेदनरूप चेतना के द्वारा तथा चेतनापरिणामलक्षण, द्रव्यपरिणतिरूप उपयोग के द्वारा जिसमें निष्पन्नपना (रचनारूपपना) अवतरित प्रतिभासित होता है, वह जीव है और जिसमें उपयोग के साथ रहने वाली, यथोक्त लक्षण वाली चेतना का अभाव होने से बाहर तथा भीतर अचेतनपना अवतरित प्रतिभासित होता है, वह अजीव है ॥१२७॥
वास्तव में द्रव्य लोकत्व और अलोकत्व के भेद से विशेषवान है, क्योंकि अपने-अपने लक्षणों का सद्भाव है । लोक का स्वलक्षण षड्द्रव्य समवायात्मकत्व (छह द्रव्यों का समुदायस्वरूपता) है और अलोक का केवल आकाशात्मकत्व (मात्र आकाशस्वरूपत्व) है । वहाँ, सर्व द्रव्यों में व्याप्त होने वाले परम महान आकाश में, जहाँ जितने में गतिस्थिति धर्म वाले जीव तथा पुद्गल गति-स्थिति को प्राप्त होते हैं, (जहाँ जितने में) उन्हें, गति-स्थिति में निमित्तभूत धर्म तथा अधर्म व्याप्त होकर रहते हैं और (जहाँ जितने में) सर्व द्रव्यों को वर्तना में निमित्तभूत काल सदा वर्तता है, वह उतना आकाश तथा शेष समस्त द्रव्य उनका समुदाय जिसका स्परूपता से स्वलक्षण है वह लोक है; और जहाँ जितने आकाश में जीव तथा पुद्गल की गति-स्थिति नहीं होती, धर्म तथा अधर्म नहीं रहते और काल नहीं वर्तता, उतना केवल आकाश जिसका स्वरूपता से स्वलक्षण है, वह अलोक है ॥१२८॥
कोई द्रव्य भाव तथा क्रिया वाले होने से और कोई द्रव्य केवल भाव वाले होने से,—इस अपेक्षा से द्रव्य के भेद होते है । उसमें पुद्गल तथा जीव (१) भाववाले तथा (२) क्रियावाले हैं, क्योंकि (१) परिणाम द्वारा तथा (२) संघात और भेद के द्वारा वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । शेष द्रव्य तो भाववाले ही हैं, क्योंकि वे परिणाम के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं, टिकते है और नष्ट होते हैं;—ऐसा निश्चय है ।
उसमें, 'भाव' का लक्षण परिणाममात्र है; और 'क्रिया' का लक्षण परिस्पंद (कम्पन) है । वहाँ समस्त ही द्रव्य भाव वाले हैं, क्योंकि परिणामस्वभाव वाले होने से परिणाम के द्वारा अन्वय और व्यतिरेकों को प्राप्त होते हुए वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । पुद्गल तो (भाववाले होने के अतिरिक्त) क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंद स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा पृथक् पुद्गल एकत्रित हो जाते हैं, इसलिये और एकत्रित मिले हुए पुद्गल पुन: पृथक् हो जाते हैं, इसलिये (इस अपेक्षा से) वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । तथा जीव भी भाववाले होने के अतिरिक्त क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पन्दन स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा नवीन कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलों से भिन्न जीव उनके साथ एकत्रित होने से और कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलों के साथ एकत्रित हुए जीव बाद में पृथक् होने से (इस अपेक्षा से) वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं ॥१२९॥
द्रव्य का आश्रय लेकर और पर के आश्रय के बिना प्रवर्तमान होने से जिनके द्वारा द्रव्य ‘लिंगित’ (प्राप्त) होता है—पहिचाना जा सकता है, ऐसे लिंग गुण हैं । वे (गुण), ‘जो द्रव्य हैं वे गुण नहीं हैं, जो गुण हैं वे द्रव्य नहीं हैं’ इस अपेक्षा से द्रव्य से अतद्भाव के द्वारा विशिष्ट (भिन्न) रहते हुए, लिंग और लिंगी के रूप में प्रसिद्धि (परिचय) के समय द्रव्य के लिंगत्व को प्राप्त होते हैं । अब, वे द्रव्य में ‘यह जीव है, यह अजीव है’ ऐसा भेद उत्पन्न करते हैं, क्योंकि स्वयं भी तद्भाव के द्वारा विशिष्ट होने से विशेष को प्राप्त हैं । जिस-जिस द्रव्य का जो-जो स्वभाव हो उस-उसका उस-उसके द्वारा विशिष्टत्व होने से उनमें विशेष (भेद) हैं; और इसीलिये मूर्त तथा अमूर्त द्रव्यों का मूर्तत्व- अमूर्तत्वरूप तद्भाव के द्वारा विशिष्टत्व होने से उनमें इस प्रकार के भेद निश्चित करना चाहिये कि यह मूर्त गुण हैं और यह अमूर्तगुण हैं ॥१३०॥
मूर्त गुणों का लक्षण इन्द्रियग्राह्यत्व है; और अमूर्तगुणों का उससे विपरीत है; (अर्थात् अमूर्त गुण इन्द्रियों से ज्ञात नहीं होते ।) और मूर्त गुण पुद्गलद्रव्य के हैं, क्योंकि वही (पुद्गल ही) एक मूर्त है; और अमूर्त गुण शेष द्रव्यों के हैं, क्योंकि पुद्गल के अतिरिक्त शेष सभी द्रव्य अमूर्त हैं ॥१३१॥
स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इन्द्रियग्राह्य हैं, क्योंकि वे इन्द्रियों के विषय हैं । वे इन्द्रियग्राह्यता की व्यक्ति और शक्ति के वश से भले ही इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाते हों या न किये जाते हों तथापि वे एकद्रव्यात्मक सूक्ष्मपर्यायरूप परमाणु से लेकर अनेकद्रव्यात्मक स्थूलपर्यायरूप पृथ्वीस्कंध तक के समस्त पुद्गल के, अविशेषतया विशेष गुणों के रूप में होते हैं; और उनके मूर्त होने के कारण ही, (पुद्गल के अतिरिक्त) शेष द्रव्यों के न होने से वे पुद्गल को बतलाते हैं ।
ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि शब्द भी इन्द्रियग्राह्य होने से गुण होगा; क्योंकि वह (शब्द) विचित्रता के द्वारा विश्वरूपपना (अनेकानेकप्रकारत्व) दिखलाता है, फिर भी उसे अनेकद्रव्यात्मक पुद्गलपर्याय के रूप में स्वीकार किया जाता है ।
यदि शब्द को (पर्याय न मानकर) गुण माना जाये तो वह क्यों योग्य नहीं है उसका समाधान:—
प्रथम तो, शब्द अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है क्योंकि गुण-गुणी में अभिन्न प्रदेशपना होने से वे (गुण-गुणी) 1एक वेदन से वेद्य होने से अमूर्त द्रव्य को भी श्रवणेन्द्रिय का विषयभूतपना आ जायेगा ।
(दूसरे, शब्द में) पर्याय के लक्षण द्वारा गुण का लक्षण उत्थापित होने से शब्द मूर्त द्रव्य का गुण भी नहीं है । पर्याय का लक्षण कादाचित्कपना (अनित्यपना) है, और गुण का लक्षण नित्यपना है; इसलिये (शब्द में) अनित्यपने से नित्यपने के उत्थापित होने से (अर्थात् शब्द कभी-कभी ही होता है, और नित्य नहीं है, इसलिये) शब्द वह गुण नहीं है । जो वहाँ नित्यपना है वह उसे (शब्द को) उत्पन्न करने वाले पुद्गलों का और उनके स्पर्शादिक गुणों का ही है, शब्दपर्याय का नहीं,—इस प्रकार अति दृढ़तापूर्वक ग्रहण करना चाहिये ।
और, 'यदि शब्द पुद्गल की पर्याय हो तो वह पृथ्वी स्कंध की भांति स्पर्शनादिक इन्द्रियों का विषय होना चाहिये, अर्थात् जैसे पृथ्वीस्कंधरूप पुद्गलपर्याय सर्व इन्द्रियों से ज्ञात होती है उसी प्रकार शब्दरूप पुद्गलपर्याय भी सभी इन्द्रियों से ज्ञात होनी चाहिये' (ऐसा तर्क किया जाये तो) ऐसा भी नहीं है; क्योंकि
- पानी (पुद्गल की पर्याय है, फिर भी) घ्राणेन्द्रिय का विषय नहीं है;
- अग्नि घ्राणेन्द्रिय तथा रसनेन्द्रिय का विषय नहीं है और
- वायु घ्राण, रसना तथा चक्षुइन्द्रिय का विषय नहीं है ।
- पानी गंध रहित है (इसलिये नाक से अग्राह्य है),
- अग्नि गंध तथा रस रहित है (इसलिये नाक, जीभ से अग्राह्य है) और
- वायु गंध, रस तथा वर्ण रहित है (इसलिये नाक, जीभ तथा आँखों से अग्राह्य है);
- चन्द्रकांत-मणि को,
- अरणि को और
- जौ को
- जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानी की,
- जिसकी गंध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्नि की और
- जिसकी गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदरवायु की
और कहीं (किसी पर्याय में) किसी गुण की कादाचित्क परिणाम की विचित्रता के कारण होने वाली व्यक्तता या अव्यक्तता नित्य द्रव्यस्वभाव का प्रतिघात नहीं करता । (अर्थात् अनित्यपरिणाम के कारण होने वाली गुण की प्रगटता और अप्रगटता नित्य द्रव्यस्वभाव के साथ कहीं विरोध को प्राप्त नहीं होती ।)
इसलिये शब्द पुद्गल की पर्याय ही है ॥१३२॥
1एक वेदन से वेद्य = एक ज्ञान से ज्ञात होने योग्य (नैयायिक शब्द को आकाश का गुण मानते हैं किन्तु यह मान्यता अप्रमाण है । गुण-गुणी के प्रदेश अभिन्न होते हैं, इसलिये जिस इन्द्रिय से गुण ज्ञात होता है उसी से गुणी भी ज्ञात होना चाहिए । शब्द कर्णेन्द्रिय से जाना जाता है, इसलिये आकाश भी कर्णेन्द्रिय से ज्ञात होना चाहिये । किन्तु वह तो किसी भी इन्द्रिय से ज्ञात होता नहीं है । इसलिये शब्द आकाशादि अमूर्तिक द्रव्यों का गुण नहीं है ।)
2चतुष्क = चतुष्टय, चार का समूह । (समस्त पुद्गलों में - पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन सब ही में स्पर्शादि चारों गुण होते हैं । मात्र अन्तर इतना ही हैं कि पृथ्वी में चारों गुण व्यक्त हैं, पानी में गंध अव्यक्त है, अग्नि में गंध तथा रस अव्यक्त है, और वायु में गंध, रस, तथा वर्ण अव्यक्त हैं । इस बात की सिद्धि के लिये युक्ति इसप्रकार है :- चन्द्रकान्तमणिरूप पृथ्वी में से पानी झरता है; अरणि की -लकड़ी में से अग्नि प्रगट होती है और जौ खाने से पेट में वायु उत्पन्न होती है; इसलिये (१) चन्द्रकांतमणिमें, (२) अरणि -लकड़ी में और (३) जौ में रहनेवाले चारों गुण (१) पानी में, (२) अग्नि में और (३) वायु में होने चाहिये । मात्र अन्तर इतना ही है कि उन गुणों में से कुछ अप्रगटरूप से परिणमित हुये हैं । और फिर, पानी में से मोतीरूप पृथ्वीकाय अथवा अग्नि में से काजलरूप पृथ्वीकाय के उत्पन्न होने पर चारों गुण प्रगट होते हुये देखे जाते हैं ।)
- युगपत् सर्वद्रव्यों के साधारण अवगाह का हेतुपना आकाश का विशेष गुण है ।
- एक ही साथ सर्व गमन-परिणामी (गतिरूप परिणमित) जीव-पुद्गलों के गमन का हेतुपना धर्म का विशेष गुण है ।
- एक ही साथ सर्व स्थान-परिणामी (स्थितिरूप परिणमित) जीव-पुद्गलों के स्थिर होने का हेतुत्व स्थिति का (स्थिर होने का निमित्तपना) अधर्म का विशेषगुण है ।
- (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों की प्रति-पर्याय में समयवृत्ति का हेतुपना ( समय-समय की परिणति का निमित्तत्व) काल का विशेष गुण है ।
- चैतन्य-परिणाम जीव का विशेष गुण है ।
वहाँ एक ही काल में समस्त द्रव्यों को साधारण अवगाह का संपादन (अवगाह हेतुपनेरूप लिंग) आकाश को बतलाता है; क्योंकि शेष द्रव्यों के सर्वगत (सर्वव्यापक) न होने से उनके वह संभव नहीं है ।
इसी प्रकार एक ही काल में गतिपरिणत (गतिरूप से परिणमित हुए) समस्त जीव-पुद्गलों को लोक तक गमन का हेतुपना धर्म को बतलाता है; क्योंकि
- काल और पुद्गल अप्रदेशी हैं इसलिये उनके वह संभव नहीं है;
- जीव समुद्घात को छोड़कर अन्यत्र लोक के असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके वह संभव नहीं है,
- लोक-अलोक की सीमा अचलित होने से आकाश को वह संभव नहीं है और
- विरुद्ध कार्य का हेतु होने से अधर्म को वह संभव नहीं है ।
(काल और पुद्गल एकप्रदेशी हैं, इसलिये वे लोक तक गमन में निमित्त नहीं हो सकते; जीव समुद्घात को छोड़कर अन्य काल में लोक के असंख्यातवें भाग में ही रहता है, इसलिये वह भी लोक तक गमन में निमित्त नहीं हो सकता; यदि आकाश गति में निमित्त हो तो जीव और पुद्गलों की गति अलोक में भी होने लगे, जिससे लोकाकाश की मर्यादा ही न रहेगी; इसलिये गतिहेतुत्व आकाश का भी गुण नहीं है; अधर्म द्रव्य तो गति से विरुद्ध स्थितिकार्य में निमित्तभूत है, इसलिये वह भी गति में निमित्त नहीं हो सकता । इस प्रकार गतिहेतुत्वगुण धर्मनामक द्रव्य का अस्तित्व बतलाता है ।)
इसी प्रकार एक ही काल में स्थितिपरिणत समस्त जीव-पुद्गलों को लोक तक स्थिति का हेतुपना अधर्म को बतलाता है; क्योंकि
- काल और पुद्गल अप्रदेशी होने से उनके वह संभव नहीं है;
- जीव समुद्घात को छोड़कर अन्यत्र लोक के असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके वह संभव नहीं है;
- लोक और अलोक की सीमा अचलित होने से आकाश के वह संभव नहीं है, और
- विरुद्ध कार्य का हेतु होने से धर्म को वह संभव नहीं है ।
इसी प्रकार (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों के प्रत्येक पर्याय में समयवृत्ति का हेतुपना काल को बतलाता है, क्योंकि उनके, समय-विशिष्ट वृत्ति कारणान्तर से सधती होने से (उनके समय से विशिष्ट ऐसी परिणति अन्य कारण से होती है, इसलिये) स्वत: उनके वह (समयवृत्ति हेतुपना) संभवित नहीं है ।
इसी प्रकार चैतन्य-परिणाम जीव को बतलाता है, क्योंकि वह चेतन होने से शेष द्रव्यों के संभव नहीं है ।
इस प्रकार गुण-विशेष से द्रव्य-विशेष जानना चाहिये ॥१३३-१३४॥
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश अनेक प्रदेश वाले होने से प्रदेशवान् हैं । कालाणु प्रदेशमात्र (एकप्रदेशी) होने से अप्रदेशी है ।
(उपरोक्त बात को स्पष्ट करते हैं :—)
- संकोच-विस्तार के होने पर भी जीव लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता, इसलिये वह प्रदेशवान् है;
- पुद्गल यद्यपि द्रव्य अपेक्षा से प्रदेशमात्र (एकप्रदेशी) होने से अप्रदेशी है तथापि, दो प्रदेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात, और अनन्तप्रदेशों वाली पर्यायों की अपेक्षा से अनिश्चित प्रदेश वाला होने से प्रदेशवान् है;
- सकल लोकव्यापी असंख्य प्रदेशों के प्रस्ताररूप होने से धर्म प्रदेशवान है;
- सकललोकव्यापी असंख्यप्रदेशों के प्रस्ताररूप होने से अधर्म प्रदेशवान् है; और
- सर्वव्यापी अनन्तप्रदेशों के प्रस्ताररूप होने से आकाश प्रदेशवान् है ।
इसलिये कालद्रव्य अप्रदेशी है और शेष द्रव्य प्रदेशवान् हैं ॥१३५॥
प्रथम तो, आकाश लोक तथा अलोक में है, क्योंकि छह द्रव्यों के समवाय और असमवाय में बिना विभाग के रहता है । धर्म और अधर्म द्रव्य सर्वत्र लोक में है, क्योंकि उनके निमित्त से जिनकी गति और स्थिति होती है ऐसे जीव और पुद्गलों की गति या स्थिति लोक से बाहर नहीं होती, और न लोक के एक देश में होती है, (अर्थात् लोक में सर्वत्र होती है) । काल भी लोक में है, क्योंकि जीव और पुद्गलों के परिणामों के द्वारा (काल की) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं; और वह काल लोक के एक प्रदेश में ही है क्योंकि वह अप्रदेशी है । जीव और पुद्गल तो युक्ति से ही लोक में हैं, क्योंकि लोक छह द्रव्यों का समवायस्वरूप है ।
और इसके अतिरिक्त (इतना विशेष जानना चाहिये कि), प्रदेशों का संकोचविस्तार होना वह जीव का धर्म है, और बंध के हेतुभूत स्निग्ध-रुक्ष (चिकने-रूखे) गुण पुद्गल का धर्म होने से जीव और पुद्गल का समस्त लोक में या उसके एकदेश में रहने का नियम नहीं है । और काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्य की अपेक्षा से लोक के एकदेश में रहते हैं और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबिया के न्यायानुसार समस्त लोक में ही हैं ॥१३६॥
(भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य) स्वयं ही (१४० वें) सूत्र द्वारा कहेंगे कि आकाश के प्रदेश का लक्षण एकाणुव्याप्यत्व है (अर्थात् एक परमाणु से व्याप्त होना वह प्रदेश का लक्षण है); और यहाँ (इस सूत्र या गाथा में) ‘जिस प्रकार आकाश के प्रदेश हैं उसी प्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश हैं’ इस प्रकार प्रदेश के लक्षण की एकप्रकारता कही जाती है । इसलिये, जैसे एकाणुव्याप्य (एक परमाणु से व्याप्त हो ऐसे) अंश के द्वारा गिने जाने पर आकाश के अनन्त अंश होने से आकाश अनन्तप्रदेशी है, उसी प्रकार एकाणुव्याप्य (एक परमाणु से व्याप्त होने योग्य) अंश के द्वारा गिने जाने पर धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात अंश होने से वें—प्रत्येक असंख्यातप्रदेशी है । और जैसे अवस्थित प्रमाणवाले धर्म तथा अधर्म असंख्यातप्रदेशी हैं, उसी प्रकार संकोचविस्तार के कारण अनवस्थित प्रमाण वाले जीव के सूखे-गीले चमड़े की भाँति-निज अंशों का अल्पबहुत्व नहीं होता इसलिये असंख्यातप्रदेशीपना ही है ।
(यहाँ यह प्रश्न होता है कि अमूर्त ऐसे जीव का संकोचविस्तार कैसे संभव है? उसका समाधान किया जाता है:—)
अमूर्त के संकोचविस्तार की सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि (सबको स्वानुभव से स्पष्ट है कि) जीव स्थूल तथा कृश शरीर में, तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है।
पुद्गल तो द्रव्यत: एकप्रदेशमात्र होने से यथोक्त (पूर्वकथित) प्रकार से अप्रदेशी है तथापि दो प्रदेशादि के उद्भव के हेतुभूत तथाविध (उस प्रकार के) स्निग्ध-रूक्षगुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाव के कारण उसके प्रदेशों का उद्भव है; इसलिये पर्याय से अनेकप्रदेशीपने का भी संभव होने से पुद्गल को द्विप्रदेशीपने से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेशीपना भी न्याययुक्त है ॥१३७॥
काल, द्रव्य से प्रदेशमात्र होने से, अप्रदेशी ही है । और उसे पुद्गल की भाँति पर्याय से भी अनेक-प्रदेशीपना नहीं है; क्योंकि परस्पर अन्तर के बिना १प्रस्ताररूप विस्तृत प्रदेशमात्र असंख्यात काल द्रव्य होने पर भी परस्पर संपर्क न होने से एक-एक आकाश प्रदेश को व्याप्त करके रहने वाले काल-द्रव्य की वृत्ति तभी होती है (अर्थात् कालाणु की परिणति तभी निमित्तभूत होती है) कि जब १प्रदेशमात्र परमाणु उस (कालाणु) से व्याप्त एक आकाश-प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन करता हो ॥१३८॥
१प्रस्तार = विस्तार । (असंख्यात काल-द्रव्य समस्त लोकाकाश में फैले हुए हैं । उनके परस्पर अन्तर नहीं है, क्योंकि प्रत्येक आकाश-प्रदेश में एक-एक काल-द्रव्य रह रहा है ।)
२प्रदेशमात्र = एकप्रदेशी । (जब एकप्रदेशी ऐसा परमाणु किसी एक आकाश-प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन कर रहा हो तभी उस आकाश-प्रदेश में रहने वाले काल-द्रव्य की परिणति उसमें निमित्त भूतरूप से वर्तती है ।)
किसी प्रदेश-मात्र काल-पदार्थ के द्वारा आकाश का जो प्रदेश व्याप्य हो उस प्रदेश को जब परमाणु मन्द गति से अतिक्रम (उल्लंघन) करता है तब उस प्रदेशमात्र १अतिक्रमण के २परिमाण के बराबर जो काल-पदार्थ की सूक्ष्म-वृत्ति रूप 'समय' है वह, उस काल पदार्थ की पर्याय है; और ऐसी उस पर्याय से पूर्व की तथा बाद की ३वृत्तिरूप से प्रवर्तमान होने से जिसका नित्यत्व प्रगट होता है ऐसा पदार्थ वह द्रव्य है । इस प्रकार द्रव्य-समय (काल-द्रव्य) अनुत्पन्न-अविनष्ट है और पर्याय-समय उत्पन्नध्वंसी है (अर्थात् 'समय' पर्याय उत्पत्ति-विनाशवाली है ।) यह 'समय' निरंश है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो आकाश के प्रदेश का निरंशत्व न बने ।
और एक समय में परमाणु लोक के अन्त तक जाता है फिर भी 'समय' के अंश नहीं होते; क्योंकि जैसे (परमाणु के) विशिष्ट (खास प्रकार का) अवगाह परिणाम होता है उसी प्रकार (परमाणु के) विशिष्ट गति परिणाम होता है । इसे समझाते हैं :- जैसे विशिष्ट अवगाह परिणाम के कारण एक परमाणु के परिमाण के बराबर अनन्त परमाणुओं का स्कंध बनता है तथापि वह स्कंध परमाणु के अनन्त अंशों को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि परमाणु निरंश है; उसीप्रकार जैसे एक कालाणु से व्याप्त एक आकाश-प्रदेश के अतिक्रमण के माप के बराबर एक 'समय' में परमाणु विशिष्ट गति-परिणाम के कारण लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक जाता है तब (उस परमाणु के द्वारा उल्लंघित होने वाले) असंख्य कालाणु 'समय' के असंख्य अंशों को सिद्ध नहीं करते, क्योंकि 'समय' निरंश है ।
१अतिक्रमण = उल्लंघन करना
२परिमाण = माप
३वृत्ति = वर्तना सो परिणति है (काल पदार्थ वर्तमान समय से पूर्व की परिणति-रूप तथा उसके बाद की परिणति-रूप से परिणमित होता है, इसलिये उसका नित्यत्व प्रगट है
आकाश का एक परमाणु से व्याप्य अंश वह आकाश-प्रदेश है; और वह एक (आकाश-प्रदेश) भी शेष पाँच द्रव्यों के प्रदेशों को तथा परम सूक्ष्मता-रूप से परिणमित अनन्त परमाणुओं के स्कंधों को अवकाश देने में समर्थ है । आकाश अविभाग (अखंड) एक द्रव्य है, फिर भी उसमें (प्रदेशरूप) अंशकल्पना हो सकती है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो सर्व परमाणुओं को अवकाश देना नहीं बन सकेगा । ऐसा होने पर भी यदि 'आकाश के अंश नहीं होते' (अर्थात् अंशकल्पना नहीं की जाती), ऐसी (किसी की) मान्यता हो, तो आकाश में दो अंगुलियाँ फैलाकर बताइये कि 'दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है या अनेक ?' यदि एक है तो (प्रश्न होता है कि :-),
- आकाश अभिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है, इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है या
- भिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है,
- यदि 'आकाश अभिन्न अंशवाला अविभाग एक द्रव्य है इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है' ऐसा कहा जाय तो, जो अंश एक अंगुलिका क्षेत्र है वही अंश दूसरी अंगुलिका भी क्षेत्र है, इसलिये दो में से एक अंश का अभाव हो गया । इस प्रकार दो इत्यादि (एक से अधिक) अंशों का अभाव होने से आकाश परमाणु की भाँति प्रदेश-मात्र सिद्ध हुआ! (इसलिये यह तो घटित नहीं होता);
- यदि यह कहा जाय कि 'आकाश भिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है' (इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है) तो (यह योग्य ही है, क्योंकि) अविभाग एक द्रव्य में अंश-कल्पना फलित हुई ।
यदि ऐसा कहा जाय कि (दो अंगुलियों के) 'अनेक क्षेत्र हैं' (अर्थात् एक से अधिक क्षेत्र हैं, एक नहीं) तो (प्रश्न होता है कि-),
- 'आकाश सविभाग (खंड-खंडरूप) अनेक द्रव्य है इसलिये दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं या
- 'आकाश अविभाग एक द्रव्य' होने पर भी दो अंगुलियों के अनेक (एक से अधिक) क्षेत्र हैं?
- 'आकाश सविभाग अनेक द्रव्य होने से दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं' ऐसा माना जाय तो, आकाश जो कि एक द्रव्य है उसे अनन्त-द्रव्यत्व आ जायगा'; (इसलिये यह तो घटित नहीं होता)
- 'आकाश अविभाग एक द्रव्य होने से दो अंगुलियों का अनेक क्षेत्र है' ऐसा माना जाय तो (यह योग्य ही है क्योंकि) अविभाग एक द्रव्य में अंश-कल्पना फलित हुई ॥१४०॥
प्रदेशों का प्रचय (समूह) तिर्यक्-प्रचय और समय-विशिष्ट वृत्तियों का समूह ऊर्ध्वप्रचय है ।
वहाँ आकाश अवस्थित (निश्चल, स्थिर) अनन्त प्रदेशी होने से धर्म तथा अधर्म अवस्थित असंख्य प्रदेशी होने से जीव अनवस्थित (अस्थिर) असंख्यप्रदेशी है और पुद्गल द्रव्यत: अनेक प्रदेशीपने की शक्ति से युक्त एकप्रदेशवाला है तथा पर्याय से दो अथवा बहुत (संख्यात, असंख्यात और अनन्त) प्रदेशवाला है, इसलिये उनके तिर्यक्-प्रचय है; परन्तु काल के (तिर्यक्प्रचय) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्ति (की अपेक्षा) से एक प्रदेशवाला है ।
ऊर्ध्व-प्रचय तो सर्व द्रव्यों के अनिवार्य ही है, क्योंकि द्रव्य की वृत्ति तीन कोटियों को (भूत, वर्तमान, और भविष्य ऐसे तीनों कालों को) स्पर्श करती है, इसलिये अंशों से युक्त है । परन्तु इतना अन्तर है कि समय-विशिष्ट वृत्तियों का प्रचय वह (काल को छोड़कर) शेष द्रव्यों का ऊर्ध्व-प्रचय है, और समयों का प्रचय वही कालद्रव्य का ऊर्ध्व-प्रचय है; क्योंकि शेष द्रव्यों की वृत्ति समय से अर्थान्तरभूत (अन्य) होने से वह (वृत्ति) समय विशिष्ट है, और कालद्रव्य की वृत्ति तो स्वत: समयभूत है, इसलिये वह समय-विशिष्ट नहीं है ॥१४१॥
समय कालपदार्थ का वृत्यंश है; उस वृत्यंश में किसी के भी अवश्य उत्पाद तथा विनाश संभवित हैं; क्योंकि परमाणु के अतिक्रमण के द्वारा (समयरूपी वृत्यंश) उत्पन्न होता है, इसलिये वह कारणपूर्वक है । (परमाणु के द्वारा एक आकाशप्रदेश का मंदगति से उल्लंघन करना वह कारण है और समयरूपी वृत्यंश उस कारण का कार्य है, इसलिये उसमें किसी पदार्थ के उत्पाद तथा विनाश होते होना चाहिये ।)
(‘किसी पदार्थ के उत्पाद-विनाश होने की क्या आवश्यकता है? उसके स्थान पर उस वृत्यंश को ही उत्पाद-विनाश होते मान लें तो क्या हानि है?’ इस तर्क का समाधान करते हैं—)
यदि उत्पाद और विनाश वृत्यंश के ही माने जायें तो, (प्रश्न होता है कि—) (१) वे (उत्पाद तथा विनाश) युगपद् हैं या (२) क्रमश: ?
- यदि ‘युगपत्’ कहा जाये तो युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते । (एक ही समय एक वृत्यंश के प्रकाश और अन्धकार की भाँति उत्पाद और विनाश—दो विरुद्ध धर्म नहीं होते ।)
- यदि ‘क्रमश: है’ ऐसा कहा जाये तो, क्रम नहीं बनता, (अर्थात् क्रम भी घटता नहीं) क्योंकि वृत्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है ।
यदि इस प्रकार उत्पाद और विनाश एक वृत्यंश में भी संभवित है, तो कालपदार्थ निरन्वय कैसे हो सकता है, कि जिससे पूर्व और पश्चात् वृत्यंश की अपेक्षा से युगपत् विनाश और उत्पाद को प्राप्त होता हुआ भी स्वभाव से अविनष्ट और अनुत्पन्न होने से वह (काल पदार्थ) अवस्थित न हो? (काल पदार्थ के एक वृत्यंश में भी उत्पाद और विनाश युगपत् होते हैं इसलिये वह निरन्वय अर्थात् खंडित नहीं है, इसलिये स्वभावत: अवश्य ध्रुव है ।)
इस प्रकार एक वृत्यंश में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है, यह सिद्ध हुआ ॥१४२॥
कालपदार्थ के सभी वृत्यंशो में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होते हैं, क्योंकि (१४२वीं गाथा में जैसा सिद्ध हुआ है तदनुसार) एक वृत्यंश में वे (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) देखे जाते हैं । और यह योग्य ही है, क्योंकि विशेष अस्तित्व सामान्य अस्तित्व के बिना नहीं हो सकता । यही कालपदार्थ के सद्भाव की (अस्तित्व की) सिद्धि है; (क्योंकि) यदि विशेष अस्तित्व और सामान्य अस्तित्व सिद्ध होते हैं तो वे अस्तित्व के बिना किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होते ॥१४३॥
प्रथम तो अस्तित्व वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की ऐक्यस्वरूपवृत्ति है । वह प्रदेश के बिना ही काल के होती है यह कथन संभवित नहीं है, क्योंकि प्रदेश के अभाव में वृत्तिमान् का अभाव होता है । (और) वह तो शून्य ही है, क्योंकि अस्तित्व नामक वृत्ति से अर्थान्तरभूत है (अन्य) है ।
और (यदि यहाँ यह तर्क किया जाये कि ‘मात्र समयपर्यायरूपवृत्ति ही माननी चाहिये; वृत्तिमान् कालाणु पदार्थ की क्या आवश्यकता है?’ तो उसका समाधान इस प्रकार है :—) मात्र वृत्ति (समयरूप परिणति) ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्ति वृत्तिमान् के बिना नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाये कि वृत्तिमान् के बिना भी वृत्ति हो सकती है तो, (प्रश्न होता हैं कि—वृत्ति तो उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य की एकतास्वरूप होनी चाहिये;) अकेली वृत्ति उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की एकतारूप कैसे हो सकती है? यदि यह कहा जाये कि—‘अनादि-अनन्त, अनन्तर (परस्पर अन्तर हुए बिना एक के बाद एक प्रवर्तमान) अनेक अंशों के कारण एकात्मकता होती है इसलिये, पूर्व-पूर्व के अंशों का नाश होता है और उत्तर-उत्तर के अंशों का उत्पाद होता है तथा एकात्मकतारूप ध्रौव्य रहता है,—इस प्रकार मात्र (अकेली) वृत्ति भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की एकतास्वरूप हो सकती है तो ऐसा नहीं है । (क्योंकि उस अकेली वृत्ति में तो) जिस अंश में नाश है और जिस अंश में उत्पाद है वे दो अंश एक साथ प्रवृत्त नहीं होते, इसलिये (उत्पाद और व्यय का) ऐक्य कहाँ से हो सकता है? तथा नष्ट अंश के सर्वथा अस्त होने से और उत्पन्न होने वाला अंश अपने स्वरूप को प्राप्त न होने से (अर्थात् उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिये) नाश और उत्पाद की एकता में प्रवर्तमान ध्रौव्य कहाँ से हो सकता है? ऐसा होने पर त्रिलक्षणता (उत्पादव्ययध्रौव्यता) नष्ट हो जाती है, क्षणभंग (बौद्धसम्मत क्षणविनाश) उल्लसित हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है और क्षणविध्वंसी भाव उत्पन्न होते हैं । इसलिये तत्त्व-विप्लव के भय से अवश्य ही वृत्ति का आश्रयभूत कोई वृत्तिमान् ढूँढ़ना-स्वीकार करना योग्य है । वह तो प्रदेश ही है (अर्थात् वह वृत्तिमान् सप्रदेश ही होता है), क्योंकि अप्रदेश के अन्वय तथा व्यतिरेक का अनुविधायित्व असिद्ध है । (जो अप्रदेश होता है वह अन्वय तथा व्यतिरेकों का अनुसरण नहीं कर सकता, अर्थात् उसमें ध्रौव्य तथा उत्पाद-व्यय नहीं हो सकते ।)
प्रश्न - जब कि इस प्रकार काल सप्रदेश है तो उसके एकद्रव्य के कारणभूत लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेश क्यों न मानने चाहिये?
उत्तर - ऐसा हो तो पर्यायसमय प्रसिद्ध नहीं होता, इसलिये असंख्य प्रदेश मानना योग्य नहीं है । परमाणु के द्वारा प्रदेशमात्र द्रव्यसमय का उल्लंघन करने पर (अर्थात्—परमाणु के द्वारा एकप्रदेशमात्र कालाणु से निकट के दूसरे प्रदेशमात्र कालाणु तक मंदगति से गमन करने पर) पर्यायसमय प्रसिद्ध होता है । यदि द्रव्यसमय लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी हो तो पर्यायसमय की सिद्धि कहाँ से होगी?
‘यदि द्रव्यसमय अर्थात् कालपदार्थ लोकाकाश जितने असंख्य प्रदेशवाला एक द्रव्य हो तो भी परमाणु के द्वारा उसका एक प्रदेश उल्लंघित होने पर पर्यायसमय की सिद्धि हो जायेगी,’ ऐसा कहा जाये तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि (उसमें दो दोष आते हैं)—
- [द्रव्य के एक देश की परिणति को सम्पूर्ण द्रव्य की परिणति मानने का प्रसंग आता है ।] एक देश की वृत्ति को सम्पूर्ण द्रव्य की वृत्ति मानने में विरोध है । सम्पूर्ण काल पदार्थ का जो सूक्ष्म वृत्यंश है वह समय है, परन्तु उसके एक देश का वृत्यंश वह समय नहीं ।
- तिर्यक्प्रचय को ऊर्ध्वप्रचयपने का प्रसंग आता है । वह इस प्रकार है कि :—प्रथम, कालद्रव्य एक प्रदेश से वर्ते, फिर दूसरे प्रदेश से वर्ते और फिर अन्यप्रदेश से वर्ते (ऐसा प्रसंग आता है) इस प्रकार तिर्यक्प्रचय ऊर्ध्वप्रचय बनकर द्रव्य को प्रदेशमात्र स्थापित करता है । (अर्थात् तिर्यक्प्रचय ही ऊर्ध्वप्रचय है, ऐसा मानने का प्रसंग आता है, इसलिये द्रव्यप्रदेशमात्र ही सिद्ध होता है ।)
(इस प्रकार ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन में द्रव्यविशेषप्रज्ञापन समाप्त हुआ ।) ॥१४४॥
इस प्रकार जिन्हें प्रदेश का सद्भाव फलित हुआ है ऐसे आकाश-पदार्थ से लेकर काल-पदार्थ तक के सभी पदार्थों से समाप्ति को प्राप्त जो समस्त लोक है उसे वास्तव में, उसमें अंतःपाती होने पर भी, अचिन्त्य ऐसी स्वपर को जानने की शक्तिरूप सम्पदा के द्वारा जीव ही जानता है, दूसरा कोई नहीं । इस प्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं और जीवद्रव्य तो ज्ञेय तथा ज्ञान है; - इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय का विभाग है ।
अब, इस जीव को, सहजरूप से (स्वभाव से ही) प्रगट अनन्त-ज्ञान-शक्ति जिसका हेतु है और तीनों काल में अवस्थायिपना (टिकना) जिसका लक्षण है ऐसा, वस्तु का स्वरूपभूत होने से सर्वदा अविनाशी निश्चयजीवत्व होनेपर भी, संसारावस्था में अनादिप्रवाहरूप से प्रवर्तमान पुद्गल संश्लेष के द्वारा स्वयं दूषित होने से उसके चार प्राणों से संयुक्तपना है-जो कि (संयुक्तपना) व्यवहार-जीवत्व का हेतु है, और विभक्त करने योग्य है ॥१४५॥
- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र -- यह पाँच इन्द्रियप्राण हैं;
- काय, वचन और मन -- यह तीन बलप्राण हैं,
- भव धारण का निमित्त (अर्थात् मनुष्यादि पर्याय की स्थिति का निमित्त) आयुप्राण है;
- नीचे और ऊपर जाना जिसका स्वरूप है ऐसी वायु (श्वास) श्वासोच्छ्वास प्राण है ॥१४६॥
(व्युत्पत्ति के अनुसार) प्राणसामान्य से जीता है, जियेगा, और पहले जीता था, वह जीव है । इस प्रकार (प्राणसामान्य) अनादि संतानरूप (प्रवाहरूप) से प्रवर्तमान होने से (संसारदशा में) त्रिकाल स्थायी होने से प्राणसामान्य जीव के जीवत्व का हेतु है ही । तथापि वह (प्राण सामान्य) जीव का स्वभाव नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य से निष्पन्न-रचित है ।
- मोहादिक पौद्गलिक कर्मों से बँधा हुआ होने से जीव प्राणों से संयुक्त होता है और
- प्राणों से संयुक्त होने के कारण पौद्गलिक कर्मफल को (मोही-रागी-द्वेषी जीव मोह-राग-द्वेषपूर्वक) भोगता हुआ पुन: भी अन्य पौद्गलिक कर्मों से बंधता है,
- पौद्गलिक कर्म के कार्य होने से और
- पौद्गलिक कर्म के कारण होने से
प्रथम तो प्राणों से जीव कर्मफल को भोगता है; उसे भोगता हुआ मोह तथा प्रद्वेष को प्राप्त होता है; मोह तथा द्वेष से स्वजीव तथा परजीव के प्राणों को बाधा पहुँचाता है । वहाँ कदाचित् दूसरे के द्रव्य प्राणों को बाधा पहुँचाकर और कदाचित् बाधा न पहुँचाकर, अपने भावप्राणों को तो उपरक्तता से (अवश्य ही) बाधा पहुँचाता हुआ जीव ज्ञानावरणादि कर्मों को बाँधता है । इस प्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारणपने को प्राप्त होते हैं ॥१४९॥
जो इस आत्मा को पौद्गलिक प्राणों की संतानरूप प्रवृत्ति है, उसका अन्तरंग हेतु शरीरादि का ममत्वरूप उपरक्तपना है, जिसका मूल (निमित्त) अनादि पौद्गलिक कर्म है ।
वास्तव में पौद्गलिक प्राणों के संतति की निवृत्ति का अन्तरङ्ग हेतु पौद्गलिक कर्म जिसका कारण (निमित्त) है ऐसे उपरक्तता का अभाव है । और वह अभाव जो जीव समस्त इन्द्रियादिक परद्रव्यों के अनुसार परिणति का विजयी होकर, (अनेक वर्णों वाले) आश्रयानुसार सारी परिणति से व्यावृत्त (पृथक्, अलग) हुए स्फटिक मणि की भाँति, अत्यन्त विशुद्ध उपयोगमात्र अकेले आत्मा में सुनिश्चलतया वसता है, उस (जीव) के होता है ।
यहाँ यह तात्पर्य है कि—आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये व्यवहारजीवत्व के हेतुभूत पौद्गलिक प्राण इस प्रकार उच्छेद करने योग्य हैं ।
स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व से निश्चित एक अर्थ का (द्रव्य) का, स्वलक्षणभूत स्वरूपअस्तित्व से ही निश्चित ऐसे अन्य अर्थ में विशिष्ट (भिन्न-भिन्न) रूप से उत्पन्न होता हुआ अर्थ (भाव) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है; जो कि वास्तव में, जैसे पुद्गल की अन्य पुद्गल में अन्य पुद्गलात्मकपर्याय उत्पन्न होती हुई देखी जाती है उसी प्रकार, जीव की पुद्गल में संस्थानादि से विशिष्टतया (संस्थान इत्यादि के भेद सहित) उत्पन्न होती हुई अनुभव में अवश्य आती है । और ऐसी पर्याय योग्य घटित है; क्योंकि जो केवल जीव की व्यतिरेकमात्र है ऐसी अस्खलित एक द्रव्य पर्याय ही अनेक द्रव्यों के संयोगात्मकतया भीतर ज्ञात होती है ।
नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव—जीवों की पर्यायें हैं । वे नामकर्मरूप पुद्गल के विपाक के कारण अनेक द्रव्यों की संयोगात्मक हैं; इसलिये जैसे तृष की अग्नि और अंगार इत्यादि अग्नि की पर्यायें चूरा और डली इत्यादि आकारों से अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं, उसी प्रकार जीव की वे नारकादि पर्यायें संस्थानादि के द्वारा अन्य-अन्य प्रकार की ही होती हैं ॥१५३॥
जो, द्रव्य को निश्चित करने वाला, स्वलक्षणभूत स्वरूपअस्तित्व कहा गया है वह वास्तव में द्रव्य का स्वभाव ही है; क्योंकि द्रव्य का स्वभाव अस्तित्वनिष्पन्न (अस्तित्व का बना हुआ) है । द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से तथा ध्रौव्य-उत्पाद-व्ययरूप से त्रयात्मक भेदभूमिका में आरुढ़ ऐसा यह द्रव्य-स्वभाव ज्ञात होता हुआ, पर-द्रव्य के प्रति मोह को दूर करके स्व-पर के विभाग का हेतु होता है, इसलिये स्वरूप-अस्तित्व ही स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये पद-पद पर अवधारित करना (लक्ष्य में लेना) चाहिये । वह इस प्रकार है --
- चेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य,
- चेतनाविशेषत्व (चेतन का विशेषपना) जिसका लक्षण है ऐसा जो गुण, और
- चेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी जो पर्याय
- पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले चेतनत्वरूप से जो ध्रौव्य और
- चेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूप से जो उत्पाद और व्यय,
- अचेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य,
- अचेतना विशेषत्व जिसका लक्षण है ऐसा जो गुण और
- अचेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी जो पर्याय
- पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले अचेतनत्वरूप से जो ध्रौव्य और
- अचेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूप से जो उत्पाद और व्यय
वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोगविशेष है । प्रथम तो उपयोग वास्तव में आत्मा का स्वभाव है क्योंकि वह चैतन्यानुविधायी (उपयोग चैतन्य का अनुसरण होने वाला) परिणाम है । और वह उपयोग ज्ञान तथा दर्शन है, क्योंकि चैतन्य साकार और निराकार ऐसा उभयरूप है । अब इस उपयोग के शुद्ध और अशुद्ध ऐसे दो भेद किये गये हैं । उसमें, शुद्ध उपयोग निरुपराग (निर्विकार) है; और अशुद्ध उपयोग सोपराग (सविकार) है । और वह अशुद्ध उपयोग शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धिरूप और संक्लेशरूप ऐसा दो प्रकार का है (अर्थात् विकार मन्दकषायरूप और तीव्रकषायरूप ऐसा दो प्रकार का है) ।
जीव का परद्रव्य के संयोग का कारण अशुद्ध उपयोग है । और वह विशुद्धि तथा संक्लेशरूप उपराग के कारण शुभ और अशुभरूप से द्विविधता को प्राप्त होता हुआ, जो पुण्य और पापरूप से द्विविधता को प्राप्त होता है ऐसा जो परद्रव्य उसके संयोग के कारणरूप से काम करता है । (उपराग मन्दकषायरूप और तीव्रकषायरूप से दो प्रकार का है, इसलिये अशुद्ध उपयोग भी शुभ-अशुभ के भेद से दो प्रकार का है; उसमें से शुभोपयोग पुण्यरूप परद्रव्य के संयोग का कारण होता है और अशुभोपयोग पापरूप परद्रव्य के संयोग का कारण होता है । ) किन्तु जब दोनों प्रकार के अशुद्धोपयोग का अभाव किया जाता है तब वास्तव में उपयोग शुद्ध ही रहता है; और वह तो परद्रव्य के संयोग का अकारण ही है । (अर्थात् शुद्धोपयोग परद्रव्य के संयोग का कारण नहीं है) ॥१५६॥
विशिष्ट (विशेष प्रकार की) क्षयोपशमदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से शुभ उपराग का ग्रहण करने से, जो (उपयोग) परम भट्टारक महा देवाधिदेव, परमेश्वर—अर्हंत, सिद्ध और साधु की श्रद्धा करने में तथा समस्त जीवसमूह की अनुकम्पा का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग है ॥१५७॥
विशिष्ट उदयदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से अशुभ उपराग को ग्रहण करने से, जो (उपयोग) परम भट्टारक, महा देवाधिदेव, परमेश्वर—अर्हंत, सिद्ध और साधु को छोड़कर अन्य- उन्मार्ग की श्रद्धा करने में तथा विषय, कषाय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंग और उग्रता का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह अशुभोपयोग है ॥१५८॥
जो यह, (१५६ वीं गाथा में) परद्रव्य के संयोग के कारणरूप में कहा गया अशुद्धोपयोग है, वह वास्तव में मन्द-तीव्र उदयदशा में रहनेवाले परद्रव्यानुसार परिणति के अधीन होने से ही प्रवर्तित होता है, किन्तु अन्य कारण से नहीं । इसलिये यह मैं समस्त परद्रव्य में मध्यस्थ होऊँ । और इस प्रकार मध्यस्थ होता हुआ मैं परद्रव्यानुसार परिणति के अधीन न होने से शुभ अथवा अशुभ ऐसा जो अशुद्धोपयोग उससे मुक्त होकर, मात्र स्वद्रव्यानुसार परिणति को ग्रहण करने से जिसको शुद्धोपयोग सिद्ध हुआ है ऐसा होता हुआ, उपयोगात्मा द्वारा (उपयोगरूप निज स्वरूप से) आत्मा में ही सदा निश्चलरूप से उपयुक्त रहता हूँ । यह मेरा परद्रव्य के संयोग के कारण के विनाश का अभ्यास है ॥१५९॥
मैं शरीर, वाणी और मन को परद्रव्य के रूप में समझता हूँ, इसलिये मुझे उनके प्रति कुछ भी पक्षपात नहीं है । मैं उन सबके प्रति अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । यथा:—
- वास्तव में शरीर, वाणी और मन के स्वरूप का आधारभूत ऐसा अचेतन द्रव्य नहीं हूँ मैं स्वरूपाधार (हुए) बिना भी वे वास्तव में अपने स्वरूप को धारण करते हैं । इसलिये मैं शरीर, वाणी और मन का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
- मैं शरीर, वाणी तथा मन का कारण ऐसा अचेतन द्रव्य नहीं हूँ । मैं कारण (हुए) बिना भी वे वास्तव में कारणवान् हैं । इसलिये उनके कारणपने का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
- मैं स्वतंत्ररूप से शरीर, वाणी तथा मन का कर्ता ऐसा अचेतन द्रव्य नहीं हूँ मैं कर्ता (हुए) बिना भी वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये उनके कर्तृत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
- मैं, स्वतन्त्ररूप से शरीर, वाणी तथा मन का कारक (कर्ता) ऐसा जो अचेतन द्रव्य है उसका प्रयोजक नहीं हूँ मैं कारक प्रयोजक बिना भी (अर्थात् मैं उनके कर्ता का प्रयोजक उनके कराने वाला हुए बिना भी) वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये यह मैं उनके कर्ता के प्रयोजकत्व का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
- मैं स्वतन्त्र ऐसे शरीर, वाणी तथा मन का कारक जो अचेतन द्रव्य है, उसका अनुमोदक नहीं हूँ मैं कारक-अनुमोदक बिना भी (उनके कर्ता का अनुमोदक हुए बिना भी) वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये उनके कर्ता के अनुमोदकपने का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ ॥१६०॥
शरीर, वाणी और मन तीनों ही परद्रव्य हैं, क्योंकि वे पुद्गल द्रव्यात्मक हैं । उनके पुद्गलद्रव्यत्व है, क्योंकि वे पुद्गल द्रव्य के स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व में निश्चित (रहे हुए) हैं । उस प्रकार का पुद्गलद्रव्य अनेक परमाणुद्रव्यों का एक पिण्ड पर्यायरूप से परिणाम है, क्योंकि अनेक परमाणुद्रव्यों के स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व अनेक होने पर भी कथंचित् (स्निग्धत्व-रूक्षत्वकृत बंधपरिणाम की अपेक्षा से) एकत्वरूप अवभासित होते हैं ॥१६१॥
प्रथम तो, जो यह प्रकरण से निर्धारित पुद्गलात्मक शरीर नामक परद्रव्य है,—जिसके भीतर वाणी और मन का समावेश हो जाता है;—वह मैं नहीं हूँ क्योंकि अपुद्गलमय ऐसा मैं पुद्गलात्मक शरीररूप होने में विरोध है । और इसी प्रकार उस (शरीर) के कारण द्वारा, कर्ता द्वारा, कर्ता के प्रयोजक द्वारा या कर्ता के अनुमोदक द्वारा शरीर का कर्ता मैं नहीं हूँ क्योंकि मैं अनेक परमाणुद्रव्यों के एकपिण्ड पर्यायरूप परिणाम का अकर्ता ऐसा मैं अनेक परमाणुद्रव्यों के एकपिण्डपर्यायरूप परिणामात्मक शरीर का कर्तारूप होने में सर्वथा विरोध है ॥१६२॥
वास्तव में परमाणु द्विआदि ( दो, तीन आदि) प्रदेशों के अभाव के कारण अप्रदेश है, एक प्रदेश के सद्भाव के कारण प्रदेशमात्र है और स्वयं अनेक परमाणुद्रव्यात्मक शब्द पर्याय की व्यक्ति का ( प्रगटता का) असंभव होने से अशब्द है । (वह परमाणु) अविरोधपूर्वक चार स्पर्श, पाँच रस, दो गंध और पाँच वर्णों के सद्भाव के कारण स्निग्ध अथवा रूक्ष होता है, इसीलिये उसे पिण्ड-पर्याय-परिणतिरूप द्विप्रदेशादिपने की अनुभूत होती है । इस प्रकार स्निग्ध-रूक्षत्व पिण्डपने का कारण है ॥१६३॥
प्रथम तो परमाणु के परिणाम होता है क्योंकि वह (परिणाम) वस्तु का स्वभाव होने से उल्लंघन नहीं किया जा सकता । और उस परिणाम के कारण जो कादाचित्क विचित्रता धारण करता है ऐसा, एक से लेकर एक-एक बढ़ते हुए अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदों तक व्याप्त होने वाला स्निग्धत्व अथवा रूक्षत्व परमाणु के होता है, क्योंकि परमाणु अनेक प्रकार के गुणों वाला है।
समान से दो गुण (अंश) अधिक स्निग्धत्व या रूक्षत्व हो तो बंध होता है यह उत्सर्ग (सामान्य नियम) है क्योंकि स्निग्धत्व या रूक्षत्व की द्विगुणाधिकता का होना वह परिणामक (परिणमन कराने वाला) होने से बंध का कारण है ।
यदि एक गुण स्निग्धत्व या रूक्षत्व हो तो बंध नहीं होता यह अपवाद है; क्योंकि एक गुण स्निग्धत्व या रूक्षत्व के परिणम्य-परिणामकता का अभाव होने से बंध के कारणपने का अभाव है ॥१६५॥
यथोक्त हेतु से ही परमाणुओं के पिण्डपना होता है ऐसा निश्चित करना चाहिये; क्योंकि दो और चार गुणवाले तथा तीन और पाँच गुणवाले दो स्निग्ध परमाणुओं के अथवा दो रूक्ष परमाणुओं के अथवा दो स्निग्ध-रूक्ष परमाणुओं के (एक स्निग्ध और एक रूक्ष परमाणु के) बंध की प्रसिद्धि है । कहा भी है कि :—
((णिद्धा णिद्धेण बज्झंति लुक्खा लुक्खा य पोग्गला ।
णिद्धलुक्खा य बज्झंति रूवारूवी य पोग्गला ॥
णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण ।
णिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा ॥))
(अर्थ :—पुद्गल 'रूपी' और 'अरूपी' होते हैं । उनमें से स्निग्ध पुद्गल स्निग्ध के साथ बंधते हैं, रूक्ष पुद्गल रूक्ष के साथ बंधते हैं, स्निग्ध और रूक्ष भी बंधते हैं ।)
जघन्य के अतिरिक्त सम अंशवाला हो, या विषम अंशवाला हो, स्निग्ध का दो अधिक अंशवाले स्निग्ध परमाणु के साथ, रूक्ष का दो अधिक अंशवाले रूक्ष परमाणु के साथ और स्निग्ध का (दो अधिक अंशवाले) रूक्ष परमाणु के साथ बंध होता है ।
इस (पूर्वोक्त) प्रकार से यह उत्पन्न होनेवाले द्विप्रदेशादिक स्कंध—जिनने विशिष्ट अवगाहन की शक्ति के वश सूक्ष्मता और स्थूलतारूप भेद ग्रहण किये हैं और जिनने विशिष्ट आकार धारण करने की शक्ति के वश होकर विचित्र संस्थान ग्रहण किये हैं वे—अपनी योग्यतानुसार स्पर्शादिचतुष्क के आविर्भाव और तिरोभाव की स्वशक्ति के वश होकर पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायुरूप अपने परिणामों से ही होते हैं । इससे निश्चित होता है कि द्विअणुकादि अनन्तान्त पुद्गलों का पिण्डकर्ता आत्मा नहीं है ॥१६७॥
सूक्ष्मतया परिणत तथा बादररूप परिणत, अति सूक्ष्म अथवा अति स्थूल न होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्तिवाले तथा अति सूक्ष्म अथवा अति स्थूल होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्ति से रहित—पुद्गलकार्यों के द्वारा, अवगाह की विशिष्टता के कारण परस्पर बाधक हुये बिना, स्वयमेव सर्वत: लोक गाढ़ भरा हुआ है । इससे निश्चित होता है कि पुद्गलपिण्डों का लाने वाला आत्मा नहीं है ।
कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कंध तुल्य (समान) क्षेत्रावगाह जीव के परिणाममात्र का, जो कि बहिरंग साधन (बाह्यकारण) है, उसका आश्रय करके, जीव उनको परिणमाने वाला न होने पर भी, स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं । इससे निश्चित होता है कि पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप करने वाला आत्मा नहीं है ।
जिस जीव के परिणाम को निमित्तमात्र करके जो-जो यह पुद्गल पिण्ड स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं, वे जीव के अनादि संततिरूप (प्रवाहरूप) प्रवर्तमान देहान्तर (भवांतर) रूप परिवर्तन का आश्रय लेकर (वे-वे पुद्गलपिण्ड) स्वयमेव शरीर (शरीररूप, शरीर के होने में निमित्तरूप) बनते हैं । इससे निश्चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है ।
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण—सभी शरीर सब पुद्गलद्रव्यात्मक हैं । इससे निश्चित होता है कि आत्मा शरीर नहीं है ॥१७१॥
आत्मा
- रसगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से,
- रूपगुण के अभावरूप स्वभाववाला होने से,
- गंधगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से,
- स्पर्शगुण रूप व्यक्तता के अभावरूप स्वभाववाला होने से,
- शब्द पर्याय के अभावरूप स्वभाववाला होने से, तथा
- इन सबके कारण (अर्थात् रस-रूप-गंध इत्यादि के अभावरूप स्वभाव के कारण) लिंग के द्वारा अग्राह्य होने से और
- सर्व संस्थानों के अभावरूप स्वभाववाला होने से,
- अरसत्व,
- अरूपत्व,
- अगंधत्व,
- अव्यक्तता,
- अशब्दत्व,
- अलिंगग्राह्यत्व और
- असंस्थानत्व
जहाँ 'अलिंगग्राह्य' करना है वहाँ जो 'अलिंगग्रहण' कहा है, वह बहुत से अर्थों की प्रतिपत्ति (प्राप्ति, प्रतिपादन) करने के लिये है । वह इस प्रकार है :—
- ग्राहक (ज्ञायक) जिसके लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा अतीन्द्रियज्ञानमय है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- ग्राह्य (ज्ञेय) जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जैसे धुएँ से अग्नि का ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंग द्वारा, अर्थात् इन्द्रियगम्य (इन्द्रियों से जानने योग्य चिह्न) द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है । इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- दूसरों के द्वारा—मात्र लिंग द्वारा ही जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा अनुमेय मात्र नहीं है' (आत्मा केवल अनुमान से ही ज्ञात होने योग्य नहीं है) ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसके लिंग से ही पर का ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा अनुमाता मात्र नहीं है' (आत्मा केवल अनुमान करने वाला नहीं है) ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसके लिंग के द्वारा नहीं किन्तु स्वभाव के द्वारा ग्रहण होता है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसके लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण नहीं है अर्थात् ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा के बाह्य पदार्थों का आलम्बनवाला ज्ञान नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जो लिंग को अर्थात् उपयोग नामक लक्षण को ग्रहण नहीं करता अर्थात् स्वयं (कहीं बाहर से) नहीं लाता सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा जो कहीं से नहीं लाया जाता ऐसे ज्ञानवाला है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग का अर्थात् उपयोगनामक लक्षण का ग्रहण अर्थात् पर से हरण नहीं हो सकता सो अलिंग ग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा के ज्ञान का हरण नहीं किया जा सकता' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसे लिंग में अर्थात् उपयोगनामक लक्षण में ग्रहण अर्थात् सूर्य की भाँति उपराग (मलिनता, विकार) नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा शुद्धोपयोगस्वभावी है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण अर्थात् पौद्गलिक कर्म का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त (असंबद्ध) है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसे 'लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण अर्थात् विषयों का उपभोग नहीं है’ सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग द्वारा अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षण के द्वारा ग्रहण अर्थात् जीवत्व को धारण कर रखना जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा शुक्र और आर्तव (रक्त) को अनुविधायी (अनुसार होने-वाला) नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग का अर्थात् मेहनाकार (पुरुषादि की इन्द्रिय का आकार) का ग्रहण जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा लौकिक साधन-मात्र नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग के द्वारा अर्थात् अमेहनाकार के द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोक में व्यापकत्व नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधनरूप आकार वाला—लोकव्याप्तिवाला नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसके लिंगों का अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों का ग्रहण नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा द्रव्य से तथा भाव से स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है
- लिंगों का अर्थात् धर्मचिह्नों का ग्रहण जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग अर्थात् गुण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध (पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा गुणविशेष से आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग अर्थात् पर्याय ऐसा जो ग्रहण, अर्थात् अर्थावबोध-विशेष जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा पर्यायविशेष से आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा द्रव्य से नहीं आलिंगित ऐसी शुद्ध पर्याय है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ॥१७२॥
मूर्त ऐसे दो पुद्गल तो रूपादिगुणयुक्त होने से यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष (बंधयोग्य स्पर्श) के कारण उनका पारस्परिक बंध अवश्य समझा जा सकता है; किन्तु आत्मा और कर्मपुद्गल का बंध होना कैसे समझा जा सकता है? क्योंकि मूर्त ऐसा कर्मपुद्गल रूपादिगुणयुक्त है, इसलिये उसके यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष का संभव होने पर भी अमूर्त ऐसे आत्मा को रूपादिगुणयुक्तता नहीं है इसलिये उसके यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष का असंभव होने से एक अंग विकल है । (अर्थात् बंधयोग्य दो अंगो में से एक अंग अयोग्य है—स्पर्शगुणरहित होने से बंध की योग्यतावाला नहीं है ।) ॥१७३॥
जैसे रूपादिरहित (जीव) रूपी द्रव्यों को तथा उनके गुणों को देखता है तथा जानता है उसी प्रकार रूपादिरहित (जीव) रूपी कर्मपुद्गलों के साथ बँधता है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यहाँ भी (देखने-जानने के संबंध में भी) वह प्रश्न अनिवार्य है कि अमूर्त मूर्त को कैसे देखता-जानता है?
और ऐसा भी नहीं है कि यह (अरूपी का रूपो के साथ बंध होने की) बात अत्यन्त दुर्घट है इसलिये उसे दार्ष्टान्तरूप बनाया है, परन्तु दृष्टांत द्वारा आबालगोपाल सभी को प्रगट (ज्ञात) हो जाये इसलिये दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । यथा :—बालगोपाल का पृथक् रहनेवाले मिट्टी के बैल को अथवा (सच्चे) बैल को देखने और जानने पर बैल के साथ संबंध नहीं है तथापि विषयरूप से रहने वाला बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगारूढ वृषभाकार दर्शन-ज्ञान के साथ का संबंध बैल के साथ के संबंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है; इसी प्रकार आत्मा अरूपीपने के कारण स्पर्शशून्य है, इसलिये उसका कर्मपुद्गलों के साथ संबंध नहीं है, तथापि एकावगाहरूप से रहने वाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं ऐसे उपयोगारूढ रागद्वेषादिकभावों के साथ का संबंध कर्मपुद्गलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।
प्रथम तो यह आत्मा सर्व ही उपयोगमय है, क्योंकि वह सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभासस्वरूप है (अर्थात् ज्ञान-दर्शनस्वरूप है ।) उसमें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होने वाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है, वह आत्मा-काला, पीला, और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कालेपन, पीलेपन और लालपन के द्वारा उपरक्त स्वभाव वाले स्फटिकमणि की भाँति—पर जिनका निमित्त है ऐसे मोह, राग और द्वेष के द्वारा उपरक्त (विकारी, मलिन, कलुषित,) आत्मस्वभाव वाला होने से, स्वयं अकेला ही बंध (बंधरूप) है, क्योंकि मोहरागद्वेषादिभाव उसका द्वितीय है ॥१७५॥
यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिभास-स्वरूप (ज्ञान और दर्शनस्वरूप) होने से प्रतिभास्य (प्रतिभासित होने योग्य) पदार्थ-समूह को जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव से देखता है और जानता है, उसी से उपरक्त होता है । जो यह उपराग (विकार) है वह वास्तव में स्निग्ध-रूक्षत्व-स्थानीय भावबंध है । और उसी से अवश्य पौद्गलिक कर्म बँधता है । इस प्रकार यह द्रव्यबंध का निमित्त भावबंध है ॥१७६॥
प्रथम तो यहाँ,
- कर्मों का जो स्निग्धता-रूक्षतारूप स्पर्श-विशेषों के साथ एकत्व-परिणाम है सो केवल पुद्गल-बंध है;
- और जीव का औपाधिक मोह-राग-द्वेषरूप पर्यायों के साथ जो एकत्व परिणाम है सो केवल जीव-बंध है;
- और जीव तथा कर्मपुद्गल के परस्पर परिणाम के निमित्तमात्र से जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभय-बंध है । (अर्थात् जीव और कर्मपुद्गल एक दूसरे के परिणाम में निमित्तमात्र होवें, ऐसा, विशिष्टप्रकार का—खासप्रकार का, जो उनका एकक्षेत्रावगाह संबंध है सो वह पुद्गल-जीवात्मक बंध है) ॥१७७॥
यह आत्मा लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी होने से सप्रदेश है । उसके इन प्रदेशों में कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा का आलम्बन वाला परिस्पन्द (कम्पन) जिस प्रकार से होता है, उस प्रकार से कर्मपुद्गल के समूह स्वयमेव परिस्पन्द वाले होते हुए प्रवेश भी करते हैं, रहते भी हैं, और जाते भी हैं; और यदि जीव के मोह-राग-द्वेषरूप भाव हों तो बंधते भी हैं । इसलिये निश्चित होता है कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है ॥१७८॥
रागपरिणत जीव ही नवीन द्रव्यकर्म से बँधता है, वैराग्यपरिणत नहीं बँधता रागपरिणत जीव नवीन द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता, वैराग्यपरिणत ही मुक्त होता है; रागपरिणत जीव संस्पर्श करने (सम्बन्ध में आने) वाले नवीन द्रव्यकर्म से, और चिरसंचित (दीर्घकाल से संचित ऐसे) पुराने द्रव्यकर्म से बँधता ही है, मुक्त नहीं होता; वैराग्यपरिणत जीव संस्पर्श करने (सम्बन्ध में आने) वाले नवीन द्रव्यकर्म से और चिरसंचित ऐसे पुराने द्रव्यकर्म से मुक्त ही होता है, बँधता नहीं है; इससे निश्चित होता है कि—द्रव्यबंध का साधकतम (उत्कृष्ट हेतु) होने से रागपरिणाम ही निश्चय से बन्ध है ॥१७९॥
प्रथम तो द्रव्यबन्ध विशिष्ट परिणाम से होता है । परिणाम की विशिष्टता राग-द्वेष-मोहमयपने के कारण है । वह शुभ और अशुभपने के कारण द्वैत का अनुसरण करता है । (अर्थात् दो प्रकार का है); उसमें से मोह-द्वेषमयपने से अशुभपना होता है, और रागमयपने से शुभपना तथा अशुभपना होता है क्योंकि राग-विशुद्धि तथा संक्लेशयुक्त होने से दो प्रकार का होता है ॥१८०॥
प्रथम तो परिणाम दो प्रकार का है—परद्रव्यप्रवृत्त (परद्रव्य के प्रति प्रवर्तमान) और स्वद्रव्यप्रवृत्त । इनमें से परद्रव्यप्रवृत्तपरिणाम पर के द्वारा उपरक्त (पर के निमित्त से विकारी) होने से विशिष्ट परिणाम है और स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणाम पर के द्वारा उपरक्त न होने से अविशिष्ट परिणाम है । उसमें विशिष्ट परिणाम के पूर्वोक्त दो भेद हैं—शुभपरिणाम और अशुभ परिणाम । उनमें पुण्यरूप पुद्गल के बंध का कारण होने से शुभपरिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गल के बंध का कारण होने से अशुभ परिणाम पाप है । अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होने से एक है इसलिये उसके भेद नहीं हैं । वह (अविशिष्ट परिणाम) यथाकाल संसारदुःख के हेतुभूत कर्मपुद्गल के क्षय का कारण होने से संसारदुःख का हेतुभूत कर्मपुद्गल का क्षयस्वरूप मोक्ष ही है ।
जो यह पृथ्वी इत्यादि षट् जीवनिकाय त्रसस्थावर के भेदपूर्वक माने जाते हैं, वे वास्तव में अचेतनत्त्व के कारण जीव से अन्य हैं, और जीव भी चेतनत्व के कारण उनसे अन्य है । यहाँ (यह कहा है कि) षट् जीवनिकाय आत्मा को परद्रव्य है, आत्मा एक ही स्वद्रव्य है ॥१८२॥
जो आत्मा इस प्रकार जीव और पुद्गल के (अपने-अपने) निश्चित चेतनत्व और अचेतनत्वरूप स्वभाव के द्वारा स्व-पर के विभाग को नहीं देखता, वही आत्मा 'यह मैं हूँ; यह मेरा है' इस प्रकार मोह से परद्रव्य में अपनेपन का अध्यवसान करता है, दूसरा नहीं । इससे (यह निश्चित हुआ कि) जीव को परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्वपर के ज्ञान का अभावमात्र ही है और (कहे बिना भी) सामर्थ्य से (यह निश्चित हुआ कि) स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त उसका अभाव है ।
प्रथम तो आत्मा वास्तव में स्व (अपने) भाव को करता है, क्योंकि वह (भाव) उसका स्व धर्म है, इसलिये आत्मा को उसरूप होने की (परिणमित होने की) शक्ति का संभव है, अत: वह (भाव) अवश्यमेव आत्मा का कार्य है । (इस प्रकार) वह (आत्मा) उसे (स्व भाव को) स्वतंत्रतया करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है और स्व भाव आत्मा के द्वारा किया जाता हुआ आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से अवश्य ही आत्मा का कर्म है । इस प्रकार स्व परिणाम आत्मा का कर्म है । परन्तु, आत्मा पुद्गल के भावों को नहीं करता, क्योंकि वे पर के धर्म हैं, इसलिये आत्मा के उस-रूप होने की शक्ति का असंभव होने से वे आत्मा का कार्य नहीं हैं । (इस प्रकार) वह (आत्मा) उन्हें न करता हुआ उनका कर्ता नहीं होता और वे आत्मा के द्वारा न किये जाते हुए उसका कर्म नहीं हैं । इस प्रकार पुद्गलपरिणाम आत्मा का कर्म नहीं है ॥१८४॥
अब, 'पुद्गल-परिणाम आत्मा का कर्म क्यों नहीं है' -- ऐसे सन्देह को दूर करते हैं :-
वास्तव में पुद्गलपरिणाम आत्मा का कर्म नहीं है, क्योंकि वह परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित है; जो जिसका परिणमाने वाला देखा जाता है वह उसके ग्रहणत्याग से रहित नहीं देखा जाता; जैसे—अग्नि लोहे के गोले में ग्रहण-त्याग रहित होती है । आत्मा तो तुल्य क्षेत्र में वर्तता हुआ भी (परद्रव्य के साथ एकक्षेत्रावगाही होने पर भी) परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित ही है । इसलिये वह पुद्गलों को कर्मभाव से परिणमाने वाला नहीं है ॥१८५॥
तब (यदि आत्मा पुद्गलों को कर्मरूप परिणमित नहीं करता तो फिर) आत्मा किसप्रकार पुद्गल कर्मों के द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है ? इसका अब निरूपण करते हैं :-
सो यह आत्मा परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित होता हुआ भी अभी संसारावस्था में, परद्रव्य-परिणाम को निमित्त-मात्र करते हुए केवल स्व-परिणाम-मात्र का—उस स्व-परिणाम के द्रव्यत्वभूत होने से—कर्तृत्व का अनुभव करता हुआ, उसके इसी स्व-परिणाम को निमित्त-मात्र करके कर्म-परिणाम को प्राप्त होती हुई ऐसी पुद्गलरज के द्वारा विशिष्ट अवगाहरूप से ग्रहण किया जाता है और कदाचित् छोड़ा जाता है ।
अब पुद्गल कर्मों की विचित्रता (ज्ञानावरण, दर्शनावरणादिरूप अनेक प्रकारता) को कौन करता है ? इसका निरूपण करते हैं :-
जैसे नये मेघजल के भूमिसंयोगरूप परिणाम के समय अन्य पुद्गलपरिणाम स्वयमेव वैचित्र को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार आत्मा के शुभाशुभ परिणाम के समय कर्मपुद्गलपरिणाम वास्तव में स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं । वह इस प्रकार है कि—जैसे, जब नया मेघजल भूमिसंयोगरूप परिणमित होता है तब अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली, कुकुरमुत्ता (छत्ता, mushroom), और इन्द्रगोप (carnelian, बीर-बहूटी गहरे लाल रंग की होती है) आदिरूप परिणमित होता है, इसी प्रकार जब यह आत्मा रागद्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभभावरूप परिणमित होता है, तब अन्य, योगद्वारों में प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं ।
इससे (यह निश्चित हुआ कि) कर्मों की विचित्रता (विविधता) का होना स्वभावकृत है, किन्तु आत्मकृत नहीं ॥१८७॥
अब ऐसा समझाते हैं कि अकेला ही आत्मा बंध है --
जैसे जगत में वस्त्र सप्रदेश होने से लोध, फिटकरी आदि से कषायित होता है, जिससे वह मजीठादि के रंग से संबद्ध होता हुआ अकेला ही रंगा हुआ देखा जाता है, इसी प्रकार आत्मा भी सप्रदेश होने से यथाकाल मोह-राग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज के द्वारा संश्लिष्ट होता हुआ अकेला ही बंध है; ऐसा देखना (मानना) चाहिये, क्योंकि निश्चय का विषय शुद्ध द्रव्य है ॥१८८॥
अब निश्चय और व्यवहार का अविरोध बतलाते हैं :-
राग-परिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है, आत्मा
- राग-परिणाम का ही कर्ता है,
- उसी का ग्रहण करने वाला है और
- उसी का त्याग करने वाला है;
- पुद्गल-परिणाम का कर्ता है,
- उसका ग्रहण करने वाला और
- छोड़ने वाला है; --
अब ऐसा कहते हैं कि अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है :-
जो आत्मा शुद्ध-द्रव्य के निरूपण-स्वरूप निश्चय-नय से निरपेक्ष रहकर अशुद्धद्रव्य के निरूपण-स्वरूप व्यवहार-नय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है ऐसा वर्तता हुआ 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' इस प्रकार आत्मीयता से देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता वह आत्मा वास्तव में शुद्धात्म-परिणतिरूप श्रामण्यनामक मार्ग को दूर से छोड़कर अशुद्धात्म-परिणतिरूप उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है । इससे निश्चित होता है कि अशुद्ध-नय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ॥१९०॥
अब ऐसा निश्चित करते हैं कि शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है :-
जो आत्मा, मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान अशुद्ध-द्रव्य-निरूपणात्मक (अशुद्धद्रव्य के निरूपण-स्वरूप) व्यवहार-नय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर, शुद्ध-द्रव्य के निरूपण-स्वरूप निश्चय-नय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है ऐसा होता हुआ, 'मैं पर का नहीं हूँ, पर मेरे नहीं हैं' इस प्रकार स्व-पर के परस्पर स्व-स्वामी-सम्बन्ध को छोड़कर, 'शुद्धज्ञान ही एक मैं हूँ', इस प्रकार अनात्मा को छोड़कर, आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करके, पर-द्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप ही एक अग्र में चिन्ता को रोकता है, वह एकाग्र-चिन्तानिरोधक (एक विषय में विचार को रोकने वाला आत्मा) उस एकाग्र-चिन्तानिरोध के समय वास्तव में शुद्धात्मा होता है । इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है ॥१९१॥
अब ऐसा उपदेश देते हैं कि ध्रुवत्त्व के कारण शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य है :-
शुद्धात्मा सत् और अहेतुक होने से अनादि- अनन्त और स्वतःसिद्ध है, इसलिये आत्मा के शुद्धात्मा ही ध्रुव है, (उसके) दूसरा कुछ भी ध्रुव नहीं है । आत्मा शुद्ध इसलिये है कि उसे परद्रव्य से विभाग (भिन्नत्व) और स्वधर्म से अविभाग है इसलिये एकत्व है । वह एकत्व आत्मा के
- ज्ञानात्मकपने के कारण,
- दर्शनभूतपने के कारण,
- अतीन्द्रिय महा-पदार्थपने के कारण,
- अचलपने के कारण, और
- निरालम्बपने के कारण
- (१-२) जो ज्ञान को ही अपने में धारण कर रखता है और जो स्वयं दर्शनभूत है ऐसे आत्मा का अतन्मय (ज्ञान-दर्शन रहित ऐसा) परद्रव्य से भिन्नत्व है और स्वधर्म से अभिन्नत्व है, इसलिये उसके एकत्व है;
- (३) और जो प्रतिनिश्चित स्पर्श-रस-गंध-वर्णरूप गुण तथा शब्दरूप पर्याय को ग्रहण करने वाली अनेक इन्द्रियों का अतिक्रम (उल्लंघन), समस्त स्पर्श-रस-गंध-वर्णरूप गुणों और शब्दरूप पर्याय को ग्रहण करने वाला एक सत् महा पदार्थ है, ऐसे आत्मा का इन्द्रियात्मक परद्रव्य से विभाग है, और स्पर्शादि के ग्रहणस्वरूप (ज्ञानस्वरूप) स्वधर्म से अविभाग है, इसलिये उसके एकत्व है,
- (४) और क्षणविनाशरूप से प्रवर्तमान ज्ञेयपर्यायों को (प्रतिक्षण नष्ट होनेवाली ज्ञातव्य पर्यायों को) ग्रहण करने और छोड़ने का अभाव होने से जो अचल है ऐसे आत्मा को ज्ञेयपर्यायस्वरूप परद्रव्य से विभाग है और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्म से अविभाग है, इसलिये उसके एकत्व है;
- (५) और नित्यरूप से प्रवर्तमान (शाश्वत ऐसा) ज्ञेयद्रव्यों के आलम्बन का अभाव होने से जो निरालम्ब है ऐसे आत्मा का ज्ञेय परद्रव्यों से विभाग है और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्म से अविभाग है,
इस प्रकार आत्मा शुद्ध है क्योंकि चिन्मात्र शुद्धनय उतना ही मात्र निरूपणस्वरूप है (अर्थात् चैतन्यमात्र शुद्धनय आत्मा को मात्र शुद्ध ही निरूपित करता है) । और यह एक ही (यह शुद्धात्मा एक ही) ध्रुवत्व के कारण उपलब्ध करने योग्य है । किसी पथिक के शरीर के अंगों के साथ संसर्ग में आने वाली मार्ग के वृक्षों की अनेक छाया के समान अन्य जो अध्रुव (अन्य जो अध्रुव पदार्थ) उनसे क्या प्रयोजन है ॥१९२॥
अब, ऐसा उपदेश देते हैं कि अध्रुवपने के कारण आत्मा के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य नहीं है :-
जो पर-द्रव्य से अभिन्न होने के कारण और पर-द्रव्य के द्वारा उपरक्त होने वाले स्व-धर्म से भिन्न होने के कारण आत्मा को अशुद्धपने का कारण है, ऐसा (आत्मा के अतिरिक्त) दूसरा कोई भी ध्रुव नहीं है, क्योंकि वह असत् और हेतुमान् होने से आदि-अन्त वाला और परत: सिद्ध है; ध्रुव तो उपयोगात्मक शुद्ध आत्मा ही है । ऐसा होने से मैं उपलभ्यमान अध्रुव ऐसे शरीरादि को उपलब्ध होने पर भी-उपलब्ध नहीं करता, और ध्रुव ऐसे शुद्धात्मा को उपलब्ध करता हूँ ॥१९३॥
इसप्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या होता है वह अब निरूपण करते हैं :-
इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में प्रवृत्ति के द्वारा शुद्धात्मत्व होता है; इसलिये अनन्तशक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्रसंचेतनलक्षण ध्यान होता है; और इसलिये (उस ध्यान के कारण) साकार (सविकल्प) उपयोगवाले को या अनाकार (निर्विकल्प) उपयोगवाले को—दोनों को अविशेषरूप से एकाग्रसंचेतन की प्रसिद्धि होने से—अनादि संसार से बँधी हुई अतिदृढ़ मोहदुर्ग्रंथि (मोह की दुष्ट गाँठ) छूट जाती है ।
इससे (ऐसा कहा गया है कि) मोहग्रंथि भेद (दर्शनमोहरूपी गाँठ का टूटना) वह शुद्धात्मा की उपलब्धि का फल है ॥११४॥
अब, मोह-ग्रंथि टूटने से क्या होता है सो कहते हैं :-
मोह-ग्रंथि का क्षय करने से, मोह-ग्रंथि जिसका मूल है ऐसे राग-द्वेष का, क्षय होता है; उससे (राग-द्वेष का क्षय होने से), सुख-दुःख समान हैं ऐसे जीव का परम मध्यस्थता जिसका लक्षण है ऐसी श्रमणता में परिणमन होता है; और उससे (श्रामण्य में परिणमन से) अनाकुलता जिसका लक्षण है ऐसे अक्षय सुख की प्राप्ति होती है ।
इससे (यह कहा है कि) मोहरूपी ग्रंथि के छेदन से अक्षय सौख्यरूप फल होता है ॥१९५॥
अब, एकाग्र-संचेतन जिसका लक्षण है, ऐसा ध्यान आत्मा में अशुद्धता नहीं लाता, ऐसा निश्चित करते हैं --
जिसने मोहमल का क्षय किया है ऐसे आत्मा के, मोहमल जिसका मूल है ऐसी परद्रव्यप्रवृत्ति का अभाव होने से विषयविरक्तता होती है; (उससे अर्थात् विषय विरक्त होने से), समुद्र के मध्यगत जहाज के पक्षी की भाँति, अधिकरणभूत द्रव्यान्तरों का अभाव होने से जिसे अन्य कोई शरण नहीं रहा है ऐसे मन का निरोध होता है । (अर्थात् जैसे समुद्र के बीच में पहुँचे हुए किसी एकाकी जहाज पर बैठे हुए पक्षी को उस जहाज के अतिरिक्त अन्य किसी जहाज का, वृक्ष का या भूमि इत्यादि का आधार न होने से दूसरा कोई शरण नहीं है, इसलिये उसका उड़ना बन्द हो जाता है, उसी प्रकार विषयविरक्तता होने से मन को आत्मद्रव्य के अतिरिक्त किन्हीं अन्यद्रव्यों का आधार नहीं रहता इसलिये दूसरा कोई शरण न रहने से मन निरोध को प्राप्त होता है); और इसलिये (अर्थात् मन का निरोध होने से), मन जिसका मूल है ऐसी चंचलता का विलय होने के कारण अनन्तसहज-चैतन्यात्मक स्वभाव में समवस्थान होता है वह स्वभावसमवस्थान तो स्वरूप में प्रवर्तमान, अनाकुल, एकाग्र संचेतन होने से उसे ध्यान कहा जाता है ।
इससे (यह निश्चित हुआ कि) ध्यान, स्वभाव-समवस्थानरूप होने के कारण आत्मा से अनन्य होने से अशुद्धता का कारण नहीं होता ॥१९६॥
अब, सूत्र द्वारा ऐसा प्रश्न करते हैं कि जिनने शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है ऐसे सकलज्ञानी (सर्वज्ञ) क्या ध्याते हैं?
लोक को
- मोह का सद्भाव होने से तथा
- ज्ञानशक्ति के प्रतिबन्धक का सद्भाव होने से
- वह तृष्णा सहित है तथा
- उसे पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं है और वह विषय को १अवच्छेदपूर्वक नहीं जानता,
- मोह का अभाव होने के कारण तथा
- ज्ञानशक्ति के प्रतिबंधक का अभाव होने से,
- तृष्णा नष्ट की गई है
- समस्त पदार्थों का स्वरूप प्रत्यक्ष है तथा ज्ञेयों का पार पा लिया है
१अवच्छेदपूर्वक = पृथक्करण करके; सूक्ष्मतासे; विशेषतासे; स्पष्टतासे ।
२अभिलषित = जिसकी इच्छा / चाह हो वह ।
३जिज्ञासित = जिसकी जिज्ञासा / जानने की इच्छा हो वह ।
४संदिग्ध = जिनमें संदेह / संशय हो ।
अब, सूत्र द्वारा (उपरोक्त गाथा के प्रश्न का) उत्तर देते हैं कि -- जिसने शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है वह सकलज्ञानी (सर्वज्ञ आत्मा) इस (परम सौख्य) का ध्यान करता है --
जब यह आत्मा, जो सहज सुख और ज्ञान की बाधा के आयतन हैं (ऐसी) तथा जो असकल आत्मा में असर्वप्रकार के सुख और ज्ञान के आयतन हैं ऐसी इन्द्रियों के अभाव के कारण स्वयं 'अतीन्द्रिय' रूप से वर्तता है, उसी समय वह दूसरों को 'इन्द्रियातीत' (इन्द्रियअगोचर) वर्तता हुआ, निराबाध सहजसुख और ज्ञानवाला होने से 'सर्वबाधा रहित' तथा सकल आत्मा में सर्वप्रकार के (परिपूर्ण) सुख और ज्ञान से परिपूर्ण होने से 'समस्त आत्मा में संमत सौख्य और ज्ञान से समृद्ध' होता है । इस प्रकार का वह आत्मा सर्व अभिलाषा, जिज्ञासा और संदेह का असंभव होने पर भी अपूर्व और अनाकुलत्वलक्षण परमसौख्य का ध्यान करता है; अर्थात् अनाकुलत्वसंगत एक 'अग्र' के संचेतनमात्ररूप से अवस्थित रहता है, (अर्थात् अनाकुलता के साथ रहने वाले एक आत्मारूपी विषय के अनुभवनरूप ही मात्र स्थित रहता है) और ऐसा अवस्थान सहजज्ञानानन्दस्वभाव सिद्धत्व की सिद्धि ही है (अर्थात् इस प्रकार स्थित रहना, सहजज्ञान और आनन्द जिसका स्वभाव है ऐसे सिद्धत्व की प्राप्ति ही है । )
अब, यह निश्चित करते हैं कि -- 'यही (पूर्वोक्त ही) शुद्ध आत्मा की उपलब्धि जिसका लक्षण है, ऐसा मोक्ष का मार्ग है'
सभी सामान्य चरम-शरीरी, तीर्थंकर और अचरम-शरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धात्म-तत्त्व-प्रवृत्तिलक्षण (शुद्धात्मतत्त्व में प्रवृत्ति जिसका लक्षण है ऐसी) विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त सिद्ध हुए; किन्तु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी विधि से भी सिद्ध हुए हों । इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्ष का मार्ग है, दूसरा नहीं । अधिक विस्तार से पूरा पड़े ! उस शुद्धात्म-तत्त्व में प्रवर्ते हुए सिद्धों को तथा उस शुद्धात्म-तत्त्व-प्रवृत्तिरूप मोक्षमार्ग को, जिसमें से भाव्य और भावक का विभाग अस्त हो गया है ऐसा नोआगम-भाव-नमस्कार हो ! मोक्षमार्ग अवधारित किया है, कृत्य किया जा रहा है, (अर्थात् मोक्षमार्ग निश्चित किया है और उसमें) प्रवर्तन कर रहे हैं ॥१९९॥
अब, 'साम्य को प्राप्त करता हूँ' ऐसी (पाँचवीं गाथा में की गई) पूर्व-प्रतिज्ञा का निर्वहण करते हुए (आचार्यदेव) स्वयं भी मोक्षमार्गभूत शुद्धात्मप्रवृत्ति करते हैं --
मैं यह मोक्षाधिकारी, ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व के परिज्ञानपूर्वक ममत्व की त्यागरूप और निर्ममत्व की ग्रहणरूप विधि के द्वारा सर्व आरम्भ (उद्यम) से शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता हूँ क्योंकि अन्य कृत्य का अभाव है । (अर्थात् दूसरा कुछ भी करने योग्य नहीं है ।) वह इस प्रकार है (अर्थात् मैं इस प्रकार शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता हूँ):—प्रथम तो मैं स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ; केवल ज्ञायक होने से मेरा विश्व (समस्त पदार्थों) के साथ भी सहज ज्ञेय-ज्ञायक-लक्षण सम्बन्ध ही है, किन्तु अन्य स्व-स्वामी-लक्षणादि सम्बन्ध नहीं हैं; इसलिये मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं है, सर्वत्र निर्ममत्व ही है।
अब, एक ज्ञायक-भाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, क्रमश प्रवर्तमान, अनन्त, भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्याय-समूह वाले, अगाध-स्वभाव और गम्भीर ऐसे समस्त द्रव्यमात्र को—मानों वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गए हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हुए हों, इस प्रकार—एक क्षण में ही जो (शुद्धात्मा) प्रत्यक्ष करता है, ज्ञेयज्ञायकलक्षण संबंध की अनिवार्यता के कारण ज्ञेय-ज्ञायक को भिन्न करना अशक्य होने से विश्वरूपता को प्राप्त होने पर भी जो (शुद्धात्मा) सहज अनन्तशक्ति वाले ज्ञायक-स्वभाव के द्वारा एकरूपता को नहीं छोड़ता, जो अनादि संसार से इसी स्थिति में (ज्ञायक भावरूप ही) रहा है और जो मोह के द्वारा दूसरे रूप में जाना—माना जाता है उस शुद्धात्मा को यह मैं मोह को उखाड़ फेंककर, अतिनिष्कम्प रहता हुआ यथास्थित (जैसा का तैसा) ही प्राप्त करता हूँ ।
इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञान में उपयुक्तता के कारण अत्यन्त अव्याबाध (निर्विघ्न) लीनता होने से, साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत ऐसा यह निज आत्मा को तथा तथाभूत (सिद्धभूत) परमात्माओं को, उसी में एकपरायणता जिसका लक्षण है ऐसा भावनमस्कार सदा ही स्वयमेव हो ॥२००॥
(( (दोहा)
ज्ञेय तत्त्व के ज्ञान के प्रतिपादक जो शब्द ।
उनमें डुबकी लगाकर निज में रहें अशब्द ॥१०॥))
इसप्रकार ज्ञेयतत्त्व को समझानेवाले जैन, ज्ञान में विशाल, शब्दब्रह्म में सम्यक्तया अवगाहन करके (डुबकी लगाकर, गहराई में उतरकर, निमग्न होकर) हम मात्र शुद्ध-आत्म-द्रव्यरूप एक वृत्ति (परिणति) से सदा युक्त रहते हैं ॥१०॥
(( (दोहा)
शुद्ध ब्रह्म को प्राप्त कर जग को कर अब ज्ञेय ।
स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही एकमात्र श्रद्धेय ॥११॥))
आत्मा ब्रह्म को (परमात्मत्व को, सिद्धत्व को) शीघ्र प्राप्त करके, असीम(अनन्त) विश्व को शीघ्रता में (एक समय में) ज्ञेयरूप करता हुआ, भेदों को प्राप्त ज्ञेयों को ज्ञानरूप करता हुआ (अनेक प्रकार के ज्ञेयों को ज्ञान में जानता हुआ) और स्व-पर-प्रकाशक ज्ञान को आत्मारूप करता हुआ, प्रगट दैदीप्यमान होता है ॥११॥
(( (दोहा)
चरण द्रव्य अनुसार हो द्रव्य चरण अनुसार ।
शिवपथगामी बनो तुम दोनों के अनुसार ॥१२॥))
चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है - इसप्रकार वे दोनों परस्पर अपेक्षा सहित हैं; इसलिये या तो द्रव्य का आश्रय लेकर अथवा तो चरण का आश्रय लेकर मुमुक्षु (ज्ञानी, मुनि) मोक्षमार्ग में आरोहण करो ।
इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित तत्वदीपिकानामक टीका का यह 'ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन' नामक द्वितीय श्रुतस्कंध (का भाषानुवाद) समाप्त हुआ ।
अब श्रमण होने की इच्छा करते हुए पहले क्षमा भाव करते हैं -
अब दूसरों को चरणानुयोग की सूचक चूलिका है ।
((ज्ञान-ज्ञेय को जानकर धर चारित्र महान ।
शिवमग की परिपूर्णता पावैं श्रद्धावान ॥))
(उसमें, प्रथम श्री अमृतचन्द्राचार्य-देव श्लोक के द्वारा अब इस आगामी गाथा की उत्थानिका करते हैं ।)
((द्रव्यसिद्धि से चरण अर चरण सिद्धि से द्रव्य ।
यह लखकर सब आचरो द्रव्यों से अविरुद्ध ॥१३॥))
द्रव्य की सिद्धि में चरण की सिद्धि है, और चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है,—यह जानकर, कर्मों से (शुभाशुभ भावों से) अविरत दूसरे भी, द्रव्य से अविरुद्ध चरण (चारित्र) का आचरण करो ।
इस प्रकार (श्रीमद् भगवत्कृन्दकुन्दाचार्यदेव इस आगामी गाथा के द्वारा) दूसरों को चरण (चारित्र) के आचरण करने में युक्त करते (जोड़ते) हैं ।
अब गाथा के प्रारंभ करने से पूर्व उसकी संधि के लिये श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने पंच परमेष्ठी को नमस्कार करने के लिये निम्न प्रकार से ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन अधिकार की प्रथम तीन गाथायें लिखी हैं:—
((एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदंधोदघाइकम्ममलं ।
पणमामि वड्ढमाणं तित्थंधम्मस्स कत्तारं ॥
सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे ।
समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ॥
ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं ।
वंदामि य वट्टंते अरहंते माणुसे खेत्ते ॥))
(अब, इस अधिकार की गाथा प्रारंभ करते हैं : )
जैसे दुःखों से मुक्त होने के अर्थी मेरे आत्माने -
((किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं ।
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ॥
तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज ।
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ॥))
इस प्रकार अर्हन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों तथा साधुओं को प्रणाम--वंदनात्मक नमस्कार पूर्वक विशुद्ध दर्शन-ज्ञान-प्रधान साम्य नामक श्रामण्य को--जिसका इस ग्रंथ में कहे हुए (ज्ञानतत्त्व—प्रज्ञापन और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन नामक) दो अधिकारों की रचना द्वारा सुस्थितपन हुआ है उसे--स्वयं अंगीकार किया, उसी प्रकार दूसरों का आत्मा भी, यदि दु:खों से मुक्त होने का अर्थी (इच्छुक) हो तो, उसे अंगीकार करे । उस (श्रामण्य) को अंगीकार करने का जो यथानुभूत मार्ग है उसके प्रणेता हम यह खड़े हुये हैं ॥२०१॥
अब, श्रमण होने का इच्छुक पहले क्या-क्या करता है उसका उपदेश करते हैं :-
जो श्रमण होना चाहता है, वह पहले ही बंधुवर्ग से (सगेसंबंधियों से) विदा माँगता है, गुरुजनों (बड़ों) से, स्त्री और पुत्रों से अपने को छुड़ाता है, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता है । वह इस प्रकार है :—
बंधुवर्ग से इस प्रकार विदा लेता है :- अहो ! इस पुरुष के शरीर के बंधुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओं ! इस पुरुष का आत्मा किंचित्मात्र भी तुम्हारा नहीं है,—इस प्रकार तुम निश्चय से जानो । इसलिये मैं तुमसे विदा लेता हूँ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अपने अनादिबंधु के पास जा रहा है ।
अहो ! इस पुरुष के शरीर के जनक (पिता ) के आत्मा ! अहो ! इस पुरुष के शरीर की जननी (माता) के आत्मा ! इस पुरुष का आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित (उत्पन्न) नहीं है, ऐसा तुम निश्चय से जानो । इसलिये तुम इस आत्मा को छोड़ो । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादिजनक के पास जा रहा है ।
अहो ! इस पुरुष के शरीर की रमणी (स्त्री) के आत्मा ! तू इस पुरुष के आत्मा को रमण नहीं कराता, ऐसा तू निश्चय से जान । इसलिये तू इस आत्मा को छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादि-रमणी के पास जा रहा है ।
अहो ! इस पुरुष के शरीर के पुत्र आत्मा ! तू इस पुरुष के आत्मा का जन्य (उत्पन्न किया गया,—पुत्र) नहीं है, ऐसा तू निश्चय से जान । इसलिये तू इस आत्मा को छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि जन्य के पास जा रहा है । इस प्रकार बड़ों से, स्त्री से और पुत्र से अपने को छुड़ाता है ।
(यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जो जीव मुनि होना चाहता है वह कुटुम्ब से सर्वप्रकार से विरक्त ही होता है । इसलिये कुटुम्ब की सम्मति से ही मुनि होने का नियम नहीं है । इस प्रकार कुटुम्ब के भरोसे रहने पर तो, यदि कुटुम्ब किसी प्रकार से सम्मति ही नहीं दे तो मुनि ही नहीं हुआ जा सकेगा । इस प्रकार कुटुम्ब को सम्मत करके ही मुनित्व के धारण करने का नियम न होने पर भी, कुछ जीवों के मुनि होने से पूर्व वैराग्य के कारण कुटुम्ब को समझाने की भावना से पूर्वोक्त प्रकार के वचन निकलते हैं । ऐसे वैराग्य के वचन सुनकर, कुटुम्ब में यदि कोई अल्प संसारी जीव हो तो वह भी वैराग्य को प्राप्त होता है ।)
(अब निम्न प्रकार से पंचाचार को अंगीकार करता है)
(जिस प्रकार बंधुवर्ग से विदा ली, अपने को बड़ों से, स्त्री और पुत्र से छुड़ाया) उसी प्रकार—
- अहो काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यंजन और तदुभयसंपन्न ज्ञानाचार ! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा का नहीं है; तथापि मैं तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूँ ।
- अहो निःशंकितत्व, निकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपवृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावनास्वरूप दर्शनाचार ! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा का नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूँ ।
- अहो, मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत, पंचमहाव्रतसहित काय-वचन-मनगुप्ति और ईर्या-भाषा-एषणा-आदाननिक्षेपण-प्रतिष्ठापन समितिस्वरूप चारित्राचार ! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा का नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूँ ।
- अहो अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग स्वरूप तपाचार ! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूँ !
- अहो समस्त इतर (वीर्याचार के अतिरिक्त अन्य) आचार में प्रवृत्ति कराने वाली स्वशक्ति के अंगोपनस्वरूप वीर्याचार ! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा का नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूँ
(सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानता है—अनुभव करता है और अपने को अन्य समस्त व्यवहारभावों से भिन्न जानता है । जब से उसे स्व-पर का विवेक स्वरूप भेदविज्ञान प्रगट हुआ था तभी से वह समस्त विभावभावों का त्याग कर चुका है और तभी से उसने टंकोत्कीर्ण निजभाव अंगीकार किया है । इसलिये उसे न तो त्याग करने को रहा है और न कुछ ग्रहण करने को—अंगीकार करने को रहा है । स्वभावदृष्टि की अपेक्षा से ऐसा होने पर भी, वह पर्याय में पूर्वबद्ध कर्मों के उदय के निमित्त से अनेक प्रकार के विभावभावरूप परिणमित होता है । इस विभावपरिणति को पृथक् होती न देखकर वह आकुल-व्याकुल भी नहीं होता और वह सकल विभावपरिणति को दूर करने का पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं करता । सकल विभावपरिणति से रहित स्वभावदृष्टि के बलस्वरूप पुरुषार्थ से गुणस्थानों की परिपाटी के सामान्य क्रमानुसार उसके प्रथम अशुभ परिणति की हानि होती है, और फिर धीरे धीरे शुभ परिणति भी छूटती जाती है । ऐसा होने से वह शुभराग के उदय की भूमिका में गृहवास का और कुटुम्ब का त्यागी होकर व्यवहार रत्नत्रयरूप पंचाचार को अंगीकार करता है । यद्यपि वह ज्ञानभाव से समस्त शुभाशुभ क्रियाओं का त्यागी है तथापि पर्याय में शुभराग नहीं छूटने से वह पूर्वोक्त प्रकार से पंचाचार को ग्रहण करता है ।) ॥२०२॥
अब जिन-दीक्षा का इच्छुक भव्य जैनाचार्य का आश्रय लेता है -
पश्चात् श्रामण्यार्थी प्रणत और अनुगृहीत होता है । वह इस प्रकार है कि --
- आचरण करने में और आचरण कराने में आने वाली समस्त विरति की प्रवृत्ति के समान आत्मरूप-ऐसे श्रामण्यपने के कारण जो श्रमण है;
- ऐसे श्रामण्य का आचरण करने में और आचरण कराने में प्रवीण होने से जो गुणाढ्य है;
- सर्व लौकिकजनो के द्वारा नि:शंकतया सेवा करने योग्य होने से और कुलक्रमागत (कुलक्रम से उतर आने वाले) क्रूरतादि दोषों से रहित होने से जो कुलविशिष्ट है;
- अंतरंग शुद्धरूप का अनुमान कराने वाला बहिरंग शुद्धरूप होने से जो रूपविशिष्ट है;
- बालकत्व और वृद्धत्व से होने वाली बुद्धिविक्लवता का अभाव होने से तथा यौवनोद्रेक की विक्रिया से रहित बुद्धि होने से जो वयविशिष्ट है; और
- यथोक्त श्रामण्य का आचरण करने तथा आचरण कराने सम्बन्धी पौरुषेय दोषों को निशेषतया नष्ट कर देने से मुमुक्षुओं के द्वारा (प्रायश्चित्तादि के लिये) जिनका बहुआश्रय लिया जाता है इसलिये जो श्रमणों को अतिइष्ट है
अब गुरु द्वारा स्वीकृत होता हुआ वह कैसा होता है ऐसा उपदेश देते हैं -
और तत्पश्चात् श्रामण्यार्थी यथाजात-रूपधर होता है । वह इस प्रकार कि :- 'प्रथम तो मैं किंचित्मात्र भी पर का नहीं हूँ पर भी किंचित्मात्र मेरे नहीं हैं, क्योंकि समस्त द्रव्य तत्त्वतः पर के साथ समस्त सम्बन्ध रहित हैं; इसलिये इस षड्द्रव्यात्मक लोक में आत्मा से अन्य कुछ भी मेरा नहीं है;' -- इस प्रकार निश्चित मतिवाला (वर्तता हुआ) और परद्रव्यों के साथ स्व-स्वामि-संबंध जिनका आधार है ऐसी इन्द्रियों और नो-इन्द्रियों के जय से जितेन्द्रिय होता हुआ वह (श्रामण्यार्थी) आत्मद्रव्य का यथानिष्पन्न शुद्धरूप धारण करने से यथाजात-रूपधर होता है ॥२०४॥
अब, अनादि-संसार से अनभ्यस्त होने से जो अत्यन्त अप्रसिद्ध है और अभिनव-अभ्यास में कौशल्य द्वारा जिसकी सिद्धि उपलब्ध होती है ऐसे इस यथाजात-रूपधरपने के बहिरंग और अंतरंग दो लिंगों का उपदेश करते हैं :-
प्रथम तो अपने से, यथोक्तक्रम से यथाजातरूपधर हुए आत्मा के अयथाजात-रूपधरपने के कारणभूत मोह-राग-द्वेषादिभावों का अभाव होता ही है; और उनके अभाव के कारण, जो कि उनके सद्भाव में होते हैं ऐसे
- वस्त्राभूषण का धारण,
- सिर और दाढ़ी-मूछों के बालों का रक्षण,
- सकिंचनत्व,
- सावद्ययोग से युक्तता तथा
- शारीरिक संस्कार का करना,
- जन्मसमय के रूप जैसा रूप,
- सिर और दाढ़ी-मूछ के बालों का लोच,
- शुद्धत्व,
- हिंसादिरहितता तथा
- अप्रतिकर्मत्व (शारीरिक श्रृंगार-संस्कार का अभाव) होता ही है ।
और फिर, आत्मा के यथाजात-रूपधरपने से दूर किया गया जो अयथाजात-रूपधरपना, उसके कारणभूत मोह-राग-द्वेषादिभावों का अभाव होने से ही जो उनके सद्भाव में होते हैं ऐसे जो
- ममत्व के और कर्मप्रक्रम के परिणाम,
- शुभाशुभ उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक तथाविध योग की अशुद्धि से युक्तता तथा
- पर-द्रव्य से सापेक्षता; इस (तीनों) का अभाव होता है;
- मूर्छा और आरम्भ से रहितता,
- उपयोग और योग की शुद्धि से युक्तता तथा
- पर की अपेक्षा से रहितता होती ही है ।
अब इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर पहले भावि नैगमनय से कहे गये पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर उसके आधार से उपस्थित स्वस्थ-स्वरूप लीन होकर वह श्रमण होता है ऐसा प्रसिद्ध करते हैं -
अब (श्रामण्यार्थी) इन दोनों लिंगों को ग्रहण करके और इतना-इतना करके श्रमण होता है -- इसप्रकार भवतिक्रिया (होनेरूप क्रिया) में, बंधुवर्ग से विदा लेनेरूप क्रिया से लेकर शेष सभी क्रियाओं का एक कर्ता दिखलाते हुए, इतने से (अर्थात् इतना करने से) श्रामण्य की प्राप्ति होती है, ऐसा उपदेश करते हैं :-
- परमगुरु -- प्रथम ही अर्हतभट्टारक और उस समय (दीक्षाकाल में) दीक्षाचार्य -- इस यथाजातरूपधरत्व के सूचक बहिरंग तथा अंतरंग लिंग के ग्रहण की विधि के प्रतिपादक होने से, व्यवहार से उस लिंग के देने वाले हैं । इस प्रकार उनके द्वारा दिये गये उन लिंगों को ग्रहण क्रिया के द्वारा संभावित-सम्मानित करके (श्रामण्यार्थी) तन्मय होता है । और फिर
- जिन्होंने सर्वस्व दिया है ऐसे मूल और उत्तर परमगुरु को, भाव्यभावकता के कारण प्रवर्तित इतरेतरमिलन के कारण जिसमें से स्व-पर का विभाग अस्त हो गया है ऐसी नमस्कार क्रिया के द्वारा संभावित (सम्मानित) करके भावस्तुति वन्दनामय होता है ।
- पश्चात् सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रत को सुननेरूप श्रुतज्ञान के द्वारा समय में परिणमित होते हुए आत्मा को जानता हुआ सामायिक में आरूढ़ होता है ।
- पश्चात् प्रतिक्रमण-आलोचना-प्रत्याख्यान-स्वरूप क्रिया को सुननेरूप श्रुतज्ञान के द्वारा त्रैकालिक कर्मों से विविक्त (भिन्न) किये जाने वाले आत्मा को जानता हुआ, अतीत-अनागत-वर्तमान, मन-वचन-कायसबंधी कर्मों से विविक्तता (भिन्नता) में आरूढ़ होता है ।
- पश्चात् समस्त सावद्य कर्मों के आयतनभूत काय का उत्सर्ग (उपेक्षा) करके यथाजातरूप वाले स्वरूप को, एक को एकाग्रतया अवलम्बित करके रहता हुआ, उपस्थित होता है ।
सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रत की व्यक्तियाँ (विशेष, प्रगटताएँ) होने से
- हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह की विरतिस्वरूप पाँच प्रकार के व्रत तथा
- उसकी परिकरभूत पाँच प्रकार की समिति,
- पाँच प्रकार का इन्द्रियरोध,
- लोच,
- छह प्रकार के आवश्यक,
- अचेलपना,
- अस्नान,
- भूमिशयन,
- अदंतधावन (दातुन न करना),
- खड़े-खड़े भोजन, और
- एक बार आहार लेना;
जो आचार्य लिंगग्रहण के समय निर्विकल्प सामायिक-संयम के प्रतिपादक होने से प्रव्रज्या-दायक हैं, वे गुरु हैं; और तत्पश्चात् तत्काल ही जो (आचार्य) सविकल्प छेदोपस्थापना-संयम के प्रतिपादक होने से 'छेद के प्रति उपस्थापक (भेद में स्थापित करने वाले) हैं,' वे निर्यापक हैं; उसी प्रकार जो (आचार्य) छिन्न संयम के प्रतिसंधान की विधि के प्रतिपादक होने से 'छेद होने पर उपस्थापक (--संयम में छेद होने पर उसमें पुन स्थापित करने वाले) हैं,' वे भी निर्यापक ही हैं । इसलिये छेदोपस्थापक, पर भी होते हैं ॥२१०॥
संयम का छेद दो प्रकार का है; बहिरंग और अन्तरंग । उसमें मात्र कायचेष्टा संबंधी वह बहिरंग है और उपयोग संबंधी वह अन्तरंग है । उसमें, यदि भलीभाँति उपर्युक्त श्रमण के प्रयत्नकृत कायचेष्टा का कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो वह सर्वथा अन्तरंग छेद से रहित है इसलिये आलोचनापूर्वक क्रिया से ही उसका प्रतीकार (इलाज) होता है । किन्तु यदि वही श्रमण उपयोगसंबंधी छेद होने से साक्षात् छेद में ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहारविधि में कुशल श्रमण के आश्रय से, आलोचनापूर्वक, उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा (संयम का) प्रतिसंधान होता है ॥२११-२१२॥
वास्तव में सभी पर-द्रव्य-प्रतिबंध उपयोग के उपरंजक होने से निरुपराग उपयोग-रूप श्रामण्य के छेद के आयतन हैं; उनके अभाव से ही अछिन्न श्रामण्य होता है । इसलिये आत्मा में ही आत्मा को सदा अधिकृत करके (आत्मा के भीतर) बसते हुए अथवा गुरु-रूप से गुरुओं को अधिकृत करके (गुरुओं के सहवास में) निवास करते हुए या गुरुओं से विशिष्ट—भिन्न वास में वसते हुए, सदा ही पर-द्रव्य-प्रतिबंधों को निषेधता (परिहरता) हुआ श्रामण्य में छेदविहीन होकर श्रमण वर्तो ॥२१३॥
एक स्वद्रव्य-प्रतिबंध ही, उपयोग का मार्जन (शुद्धत्व) करने वाला होने से, मार्जित (शुद्ध) उपयोगरूप श्रामण्य की परिपूर्णता का आयतन है; उसके सद्भाव से ही परिपूर्ण श्रामण्य होता है । इसलिये सदा ज्ञान में और दर्शनादिक में प्रतिबद्ध रहकर मूलगुणों में प्रयत्नशीलता से विचरना—ज्ञानदर्शनस्वभाव शुद्धात्मद्रव्य में प्रतिबद्ध ऐसा शुद्ध अस्तित्वमात्ररूप से वर्तना, यह तात्पर्य है ॥२१४॥
- श्रामण्य पर्याय के सहकारी कारणभूत शरीर की वृत्ति के हेतुमात्ररूप से ग्रहण किया जाने वाला जो आहार,
- तथाविध शरीर की वृत्ति के साथ विरोध विना, शुद्धात्मद्रव्य में १नीरंग और निस्तरंग विश्रांति की रचनानुसार प्रवर्तमान जो क्षपण (अर्थात् शरीर के टिकने के साथ विरोध न आये इस प्रकार, शुद्धात्मद्रव्य में विकाररहित और तरंगरहित स्थिरता होती जाये, तदनुसार प्रवर्तमान अनशन में),
- नीरंग और निस्तरंग-अन्तरंग द्रव्य की प्रसिद्धि (प्रकृष्ट सिद्धि) के लिये सेवन किया जाने वाला जो गिरीन्द्रकन्दरादिक आवसथ में (उच्च पर्वत की गुफा इत्यादि निवासस्थान में),
- यथोक्त शरीर की वृत्ति की कारणभूत भिक्षा के लिये किये जाने वाले विहारकार्य में,
- श्रामण्यपर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं है ऐसे केवल देहमात्र परिग्रह में,
- मात्र अन्योन्य २बोध्यबोधकरूप से जिनका कथंचित् परिचय वर्तता है ऐसे श्रमण (अन्य मुनि) में, और
- शब्दरूप पुद्गलोल्लास (पुद्गलपर्याय) के साथ संबंध से जिसमें चैतन्यरूपी भित्ति का भाग मलिन होता है, ऐसी शुद्धात्मद्रव्य से विरुद्ध कथा में भी
१नीरंग = नीराग; निर्विकार ।
२बोध्यबोधक = बोध्य वह है जिसे समझाया है अथवा जिसे उपदेश दिया जाता है । और बोधक वह है जो समझाताहै, अर्थात् जो उपदेश देता है । मात्र अन्य श्रमणों से स्वयंबोध ग्रहण करने के लिये अथवा अन्य श्रमणों को बोध देने के लिये मुनि का अन्य श्रमण के साथ परिचय होता है ।
अशुद्धोपयोग वास्तव में छेद है, क्योंकि (उससे) शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का छेदन होता है; और वही (अशुद्धोपयोग ही) हिंसा है, क्योंकि (उससे) शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का हिंसन (हनन) होता है । इसलिये श्रमण के, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती ऐसे शयन-आसन-स्थान-गमन इत्यादि में *अप्रयत चर्या (आचरण) वह वास्तव में उसके लिये सर्वकाल में (सदा) ही संतानवाहिनी हिंसा ही है, -- जो कि छेद से अनन्यभूत है (अर्थात् छेद से कोई भिन्न वस्तु नहीं है) ॥२१६॥
*अप्रयत = = प्रयत्न रहित, असावधान, असंयमी, निरंकुश, स्वच्छन्दी ।
अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है; परप्राणों का व्यपरोप (विच्छेद) वह बहिरंगछेद है । इनमें से अन्तरंग छेद ही विशेष बलवान है, बहिरंग छेद नहीं; क्योंकि—परप्राणों के व्यपरोप का सद्भाव हो या असद्भाव, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता है ऐसे अप्रयत आचार से प्रसिद्ध होने वाला (जानने में आने वाला) अशुद्धोपयोग का सद्भाव जिसके पाया जाता है उसके हिंसा के सद्भाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है । और इस प्रकार जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे प्रयत्त आचार से प्रसिद्ध होने वाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव पाया जाता है, उसके परप्राणों के व्यपरोप के सद्भाव में भी बंध की अप्रसिद्धि होने से, हिंसा के अभाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है। ऐसा होने पर भी (अर्थात् अंतरंग छेद ही विशेष बलवान है बहिरंग छेद नहीं ऐसा होने पर भी) बहिरंग छेद अतल छेद का आयतनमात्र है, इसलिये उसे (बहिरंग छेद को) स्वीकार तो करना ही चाहिये अर्थात् उसे मानना ही चाहिये ॥२१७॥
जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचार के द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात) होने वाला अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसक ही है, क्योंकि छहकाय के प्राणों के व्यपरोप के आश्रय से होने वाले बंध की प्रसिद्धि है; और जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे प्रयत आचार से प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव अहिंसक ही है, क्योंकि पर के आश्रय से होने वाले लेशमात्र भी बंध का अभाव होने से जल में झूलते हुए कमल की भांति निर्लेपता की प्रसिद्धि है । इसलिये उन-उन सर्वप्रकार से अशुद्धोपयोगरूप अन्तरंग छेद निषेध्य त्यागने योग्य है, जिन-जिन प्रकारों से उसका आयतनमात्रभूत परद्रव्यपरोपरूप बहिरंग छेद अत्यन्त निषिद्ध हो ॥२१८॥
जैसे काय-व्यापार-पूर्वक पर-प्राण-व्यपरोप को अशुद्धोपयोग के सद्भाव और असद्भाव के द्वारा अनैकांतिक बंधरूप होने से उसे (काय-व्यापार-पूर्वक पर-प्राण-व्यपरोप को) छेदपना अनैकांतिक माना गया है, वैसा उपधि-परिग्रह का नहीं है । परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता, ऐसा जो परिग्रह का सर्वथा अशुद्धोपयोग के साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिद्ध होने वाले ऐकान्तिक अशुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण परिग्रह तो ऐकान्तिक बंधरूप है, इसलिये उसे (परिग्रह को) छेदपना ऐकान्तिक ही है । इसीलिये भगवन्त अर्हन्तों ने परम श्रमणों ने स्वयं ही पहले ही सर्व परिग्रह को छोड़ा है; और इसीलिये दूसरों को भी, अन्तरंग छेद की भांति प्रथम ही सर्व परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योंकि वह (परिग्रह) अन्तरंग छेद के बिना नहीं होता ॥२१९॥
(( (कलश)
जो कहने के योग्य है कहा गया वह सब्ब ।
इतने से ही चेत लो अति से क्या है अब्ब ॥१४॥))
जो कहने योग्य ही था वह अशेषरूप से कहा गया है, इतने मात्र से ही यदि यहाँ कोई चेत जाये--समझ ले तो, (अन्यथा) वाणी का अतिविस्तार किया जाये तथापि निश्चेतन (जड़वत् / नासमझ) को व्यामोह का जाल वास्तव में अति दुस्तर है ।
अब, इस उपधि (परिग्रह) का निषेध वह अंतरंग छेद का ही निषेध है, ऐसा उपदेश करते हैं --
अब, इस उपधि (परिग्रह) का निषेध वह अंतरंग छेद का ही निषेध है, ऐसा उपदेश करते हैं :-
जैसे छिलके के सद्भाव में चावलों में पाई जाने वाली (रक्ततारूप) अशुद्धता का त्याग (नाश, अभाव) नहीं होता, उसी प्रकार बहिरंग संग के सद्भाव में अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद का त्याग नहीं होता और उसके सद्भाव में शुद्धोपयोगमूलक कैवल्य (मोक्ष) की उपलब्धि नहीं होती । (इससे ऐसा कहा गया है कि) अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद के निषेधरूप प्रयोजन की उपेक्षा रखकर विहित (आदेश) किया जाने वाला उपधि का निषेध वह अन्तरंग छेद का ही निषेध है ॥२२०॥
अब, 'उपधि वह ऐकान्तिक अन्तरंग छेद है' ऐसा विस्तार से उपदेश करते हैं :-
उपधि के सद्भाव में,
- ममत्व-परिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मूर्छा,
- उपधि संबंधी कर्मप्रक्रम के परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा आरम्भ, अथवा
- शुद्धात्मस्वरूप की हिंसारूप परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा असंयम
यहाँ यह तात्पर्य है कि -- उपधि ऐसी है, (परिग्रह वह अन्तरंग छेद ही है), ऐसा निश्चित करके उसे सर्वथा छोड़ना चाहिये ॥२२१॥
अब, 'किसी के कहीं, कभी, किसी-प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है' ऐसे अपवाद का उपदेश करते हैं :-
आत्मद्रव्य के द्वितीय पुद्गलद्रव्य का अभाव होने से समस्त ही उपधि निषिद्ध है - ऐसा उत्सर्ग (सामान्य नियम) है; और विशिष्ट काल, क्षेत्र के वश कोई उपधि अनिषिद्ध है - ऐसा अपवाद है । जब श्रमण सर्व उपधि के निषेध का आश्रय लेकर परमोपेक्षासंयम को प्राप्त करने का इच्छुक होने पर भी विशिष्ट कालक्षेत्र के वश हीन शक्तिवाला होने से उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है, तब उसमें अपकर्षण करके (अनुत्कृष्ट) संयम प्राप्त करता हुआ उसकी बहिरंग साधनमात्र उपधि का आश्रय करता है । इस प्रकार जिसका आश्रय किया जाता है ऐसी वह उपधि उपधिपने के कारण वास्तव में छेदरूप नहीं है, प्रत्युत छेद की निषेधरूप (त्यागरूप) ही है । जो उपधि अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती वह छेद है । किन्तु यह ( संयम की बाह्यसाधनमात्रभूत उपधि) तो श्रामण्यपर्याय की सहकारी कारणभूत शरीर की वृत्ति के हेतुभूत आहार-नीहारादि के ग्रहण-विसर्जन (ग्रहण-त्याग) संबंधी छेद के निषेधार्थ ग्रहण की जाने से सर्वथा शुद्धोपयोग सहित है, इसलिये छेद के निषेधरूप ही है ॥२२२॥
अब, अनिषिद्ध उपधि का स्वरूप कहते हैं :-
जो उपधि
- सर्वथा बंध का असाधक होने से अनिन्दित है,
- संयत के अतिरिक्त अन्यत्र अनुचित होने से असंयत-जनों के द्वारा अप्रार्थनीय (अनिच्छनीय) है और
- रागादि-परिणाम के बिना धारण की जाने से मूर्च्छादि के उत्पादन से रहित है,
अब, 'उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं' ऐसा उपदेश करते हैं :-
यहाँ, श्रामण्य-पर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं किया गया है ऐसे अत्यन्त उपात्त (प्राप्त) शरीर में भी, 'यह (शरीर) परद्रव्य होने से परिग्रह है, वास्तव में यह अनुग्रह योग्य नहीं, किन्तु उपेक्षा योग्य ही है' ऐसा कहकर, भगवन्त अर्हन्तदेवों ने अप्रतिकर्मपने का उपदेश दिया है, तब फिर वहाँ शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धि की संभावना के रसिक पुरुषों के शेष—अन्य अनुपात्त (अप्राप्त) परिग्रह बेचारा कैसे (अनुग्रह योग्य) हो सकता है?—ऐसा उनका (अर्हन्त देवों का) आशय व्यक्त ही है । इससे निश्चित होता है कि—उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं । तात्पर्य यह है कि वस्तुधर्म होने से परम निर्ग्रन्थपना ही अवलम्बन योग्य है ॥२२४॥
अब, अपवाद के कौन से विशेष (भेद) हैं, सो कहते हैं :-
इसमें जो अनिषिद्ध उपधि अपवाद है, वह सभी वास्तव में ऐसा ही है कि जो श्रामण्य पर्याय के सहकारी कारण के रूप में उपकार करने वाला होने से उपकरण भूत है, दूसरा नहीं । उसके विशेष (भेद) इस प्रकार हैं :-
- सर्व आहार्य रहित सहजरूप से अपेक्षित (सर्व आहार्य रहित) यथाजातरूपपने के कारण जो बहिरंग लिंगभूत हैं ऐसे काय-पुद्गल;
- जिनका श्रवण किया जाता है ऐसे तत्कालबोधक, गुरुद्वारा कहे जाने पर आत्मतत्त्व-द्योतक, सिद्ध उपदेशरूप वचन-पुद्गल; तथा
- जिनका अध्ययन किया जाता है ऐसे, नित्यबोधक, अनादिनिधन शुद्ध आत्मतत्त्व को प्रकाशित करने में समर्थ श्रुतज्ञान के साधनभूत शब्दात्मक सूत्र-पुद्गल; और
- शुद्ध आत्मतत्त्व को व्यक्त करने वाली जो दर्शनादिक पर्यायें, उनरूप से परिणमित पुरुष के प्रति विनीतता का अभिप्राय प्रवर्तित करने वाले चित्र-पुद्गल ।
यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि काय की भाँति वचन और मन भी वस्तुधर्म नहीं है ।
अब, अनिषिद्ध ऐसा जो शरीर मात्र उपधि उसके पालन की विधि का उपदेश करते हैं :-
अनादिनिधन एकरूप शुद्ध आत्मतत्त्व में परिणत होने से श्रमण समस्त कर्मपुद्गल के विपाक से अत्यन्त विविक्त (भिन्न) स्वभाव के द्वारा कषायरहित होने से, उस (वर्तमान) काल में मनुष्यत्व के होते हुए भी (स्वयं) समस्त मनुष्यव्यवहार से बहिर्भूत होने के कारण इस लोक के प्रति निरपेक्ष (निस्पृह) है; तथा भविष्य में होने वाले देवादि भावों के अनुभव की तृष्णा से शून्य होने के कारण परलोक के प्रति अप्रतिबद्ध है; इसलिये, जैसे ज्ञेय पदार्थों के ज्ञान की सिद्धि के लिये (घटपटादि पदार्थों को देखने के लिये ही) दीपक में तेल डाला जाता है और दीपक को हटाया जाता है, उसी प्रकार श्रमण शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि की सिद्धि के लिये (शुद्धात्मा को प्राप्त करने के लिये ही) वह शरीर को खिलाता और चलाता है, इसलिये युक्ताहारविहारी होता है ।
यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि :- श्रमण कषायरहित है इसलिये वह शरीर के (वर्तमान मनुष्य-शरीर के) अनुराग से या दिव्य शरीर के (भावी देवशरीर के) अनुराग से आहार-विहार में अयुक्तरूप से प्रवृत्त नहीं होता; किन्तु शुद्धात्मतत्व की उपलब्धि की साधकभूत श्रामण्यपर्याय के पालन के लिये ही केवल युक्ताहारविहारी होता है ॥२२६॥
अब, युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी (-अनाहारी और अविहारी) ही है ऐसाउपदेश करते हैं :-
- स्वयं अनशन स्वभाव वाला होने से (अपने आत्मा को स्वयं अनशन स्वभाव वाला जानने से) और
- एषणादोषशून्य भिक्षा वाला होने से,
- आत्मा को स्वयं अनशन स्वभाव भाते हैं (समझते हैं, अनुभव करते हैं) और
- उसकी सिद्धि के लिये (पूर्ण प्राप्ति के लिये) एषणादोषशून्य ऐसी अन्य (पररूप) भिक्षा आचरते हैं;
इस प्रकार (जैसे युक्ताहारी साक्षात् अनाहारी ही है, ऐसा कहा गया है उसी प्रकार),
- स्वयं अविहारस्वभाव वाला होने से और
- समितिशुद्ध (इर्यासमिति से शुद्ध ऐसे) विहार वाला होने से
अब, (श्रमण के) युक्ताहारीपना कैसे सिद्ध होता है सो उपदेश करते हैं :-
श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारण के रूप में केवल देहमात्र उपधि को श्रमण बलपूर्वक-हठ से निषेध नहीं करता इसलिये वह केवल देहवान् है; ऐसा (देहवान्) होने पर भी, 'किं किंचण' इत्यादि पूर्वसूत्र (गाथा २४४) द्वारा प्रकाशित किये गये परमेश्वर के अभिप्राय को ग्रहण करके, 'यह (शरीर) वास्तव में मेरा नहीं है इसलिये यह अनुग्रह योग्य नहीं है किन्तु उपेक्षा योग्य ही है' इस प्रकार देह में समस्त संस्कार को छोड़ा होने से परिकर्मरहित है । इसलिये उसके देह के ममत्वपूर्वक अनुचित आहार ग्रहण का अभाव होने से युक्ताहारीपना सिद्ध होता है । और (अन्य प्रकार से) उसने (आत्मशक्ति को किंचित्मात्र भी छुपाये बिना) समस्त ही आत्मशक्ति को प्रगट करके, अन्तिम सूत्र (गाथा २२७) द्वारा कहे गये अनशनस्वभावलक्षण तप के साथ उस शरीर को सर्वारम्भ (उद्यम) से युक्त किया है (जोड़ा है); इसलिये आहारग्रहण के परिणामस्वरूप योगध्वंस का अभाव होने से उसका आहार युक्त का (योगी का) आहार है; इसलिये उसके युक्ताहारीपना सिद्ध होता है ।
अब युक्ताहार का स्वरूप विस्तार से उपदेश करते हैं :-
- एक बार आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि उतने से ही श्रामण्य पर्याय का सहकारी कारणभूत शरीर टिका रहता है । ( एक से अधिक बार आहार लेना युक्ताहार नहीं है, ऐसा निम्नानुसार दो प्रकार से सिद्ध होता है :- )
- शरीर के अनुराग से ही अनेक बार आहार का सेवन किया जाता है, इसलिये अत्यन्तरूप से हिंसायतन किया जाता हुआ युक्त (योग्य) नहीं है; (अर्थात् वह युक्ताहार नहीं है); और
- अनेक बार आहार का सेवन करने वाला शरीरानुराग से सेवन करने वाला होने से वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है (अर्थात् वह युक्ताहार नहीं है ।)
- अपूर्णोदर आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही प्रतिहत योग रहित है । (पूर्णोदर आहार युक्ताहार नहीं है, यह निम्नलिखित दो प्रकार से सिद्ध होता है)
- पूर्णोदर आहार तो प्रतिहत योग वाला होने से कथंचित् हिंसायतन होता हुआ युक्त (योग्य) नहीं है; और
- पूर्णोदर आहार करने वाला प्रतिहत योग वाला होने से वह आहार युक्त (योगी) का आहार नहीं है ।
- यथालब्ध आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही (आहार) विशेषप्रियतास्वरूप अनुराग से शून्य है ।
- अयथालब्ध आहार तो विशेषप्रियतास्वरूप अनुराग से सेवन किया जाता है, इसलिये अत्यन्तरूप से हिंसायतन किया जाने के कारण युक्त (योग्य) नहीं है; और
- अयथालब्ध आहार का सेवन करने वाला विशेषप्रियतास्वरूप अनुराग द्वारा सेवन करनेवाला होने से वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है ।
- भिक्षाचरण से आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही आरंभशून्य है।
- अभिक्षाचरण से (भिक्षाचरण रहित) आहार में आरम्भ का सम्भव होने से हिंसायतनत्व प्रसिद्ध है, अत: वह आहार युक्त (योग्य) नहीं है; और
- ऐसे आहार के सेवन में (सेवन करने वाले की) अंतरंग अशुद्धि व्यक्त (प्रगट) होने से वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है।
- दिन का आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही सम्यक् (बराबर) देखा जा सकता है ।
- अदिवस (दिन के अतिरिक्त समय में) आहार तो सम्यक् नहीं देखा जा सकता, इसलिये उसके हिंसायतनपना अनिवार्य होने से वह आहार युक्त (योग्य) नहीं है; और
- ऐसे आहार के सेवन में अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होने से आहार युक्त (योगी) का नहीं है ।
- रस की अपेक्षा से रहित आहार ही युक्ताहार है । क्योंकि वही अन्तरंग शुद्धि से सुन्दर है ।
- रस की अपेक्षा वाला आहार तो अन्तरंग अशुद्धि द्वारा अत्यन्तरूप से हिंसायतन किया जाने के कारण युक्त (योग्य) नहीं है; और
- उसका सेवन करने वाला अन्तरंग अशुद्धि पूर्वक सेवन करता है इसलिये वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है ।
- मधु-मांस रहित आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि उसी के हिंसायतनपने का अभाव है ।
- मधु-मांस सहित आहार तो हिंसायतन होने से युक्त (योग्य) नहीं है; और
- ऐसे आहार से सेवन में अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होने से वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है । यहाँ मधु-मांस हिंसायतन का उपलक्षण है इसलिये (मधु-मांस रहित आहार युक्ताहार है इस कथन से ऐसा समझना चाहिये कि) समस्त हिंसायतनशून्य आहार ही युक्ताहार है ॥२२९॥
अब उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण के सुस्थितपने का उपदेश करते है :-
बाल, वृद्ध श्रमित या ग्लान (श्रमण) को भी संयम का जो कि शुद्धात्मतत्त्व का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार, संयत ऐसे अपने योग्य अति कर्कश (कठोर) आचरण ही आचरना; इस प्रकार उत्सर्ग है ।
बाल, वृद्ध, श्रमित या ग्लान (श्रमण) को भी शरीर का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार, बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान को अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना; इस प्रकार अपवाद है ।
बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान के, संयम का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार का संयत ऐसा अपने योग्य अति कठोर आचरण आचरते हुए, (उसके) शरीर का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका (भी) छेद जैसे न हो उस प्रकार बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण भी आचरना । इस प्रकार अपवादसापेक्ष उत्सर्ग है ।
बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान को शरीर का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार से बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण आचरते हुए, (उसके) संयम का—जो कि शुद्धात्मतत्व का साधन होने से मूलभूत है उसका (भी)—छेद जैसे न हो उस प्रकार से संयत ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण भी आचरना; इस प्रकार उत्सर्गसापेक्ष अपवाद है ।
इससे (यह कहा है कि) सर्वथा उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण का सुस्थितपना करना चाहिये ॥२३०॥
अब, उत्सर्ग और अपवाद के विरोध (अमैत्री) से आचरण का दुःस्थितपना (नष्ट) होता है, ऐसा उपदेश करते हैं :-
क्षमता तथा ग्लानता का हेतु उपवास है और बाल तथा वृद्धत्व का अधिष्ठान उपधिशरीर है, इसलिये यहाँ (टीका में) बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान ही लिये गये हैं । (अर्थात् मूल गाथा में जो क्षमा, उपधि इत्यादि शब्द हैं उनका आशय खीचकर टीका में बाल, वृद्ध, श्रांत, ग्लान शब्द ही प्रयुक्त किये गये हैं) ।
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से (अर्थात् बालत्व, वृद्धत्व, श्रांतत्व अथवा ग्लानत्व का अनुसरण करके) आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्प लेप होता ही है, (लेप का सर्वथा अभाव नहीं होता), इसलिये उत्सर्ग अच्छा है ।
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्प ही लेप होता है । (विशेष लेप नहीं होता), इसलिये अपवाद अच्छा है ।
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से, जो आहार-विहार है, उससे होने वाले अल्पलेप के भय से उसमें प्रवृत्ति न करे तो (अर्थात् अपवाद के आश्रय से होने वाले अल्पबंध के भय से उत्सर्ग का हठ करके अपवाद में प्रवृत्त न हो तो), अति कर्कश आचरणरूप होकर अक्रम से शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त संयमामृत का समूह वमन कर डाला है उसे तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है, इसलिये अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है ।
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से जो आहारविहार है, उससे होने वाले अल्पलेप को न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो (अर्थात् अपवाद से होने वाले अल्पबंध के प्रति असावधान होकर उत्सर्गरूप ध्येय को चूककर अपवाद में स्वच्छन्दपूर्वक प्रवर्ते तो), मृदु आचरणरूप होकर संयम विरोधी को-असंयतजन के समान हुए उसको—उस समय तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है । इसलिये उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है ।
इससे (यह कहा गया है कि) उत्सर्ग और अपवाद के विरोध से होने वाला जो आचरण का दु:स्थितपना वह सर्वथा निषेध्य (त्याज्य) है, और इसीलिये परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से जिसकी वृत्ति (अस्तित्व, कार्य) प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सर्वथा अनुगम्य (अनुसरण करने योग्य) है ।
(अब श्लोक द्वारा आत्मद्रव्य में स्थिर होने की बात कहकर 'आचरणप्रज्ञापन' पूर्ण किया जाता है ।)
(( (कलश-१५)
उत्सर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा ।
भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है ॥
पुराणपुरुषों के द्वारा सादर हैं सेवित जो ।
उन्हें प्राप्तकर संत हुए जो पवित्र है ॥
चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप ।
जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में ॥
क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके ।
सभी ओर से सदा वास करो निज में ॥१५॥))
इस प्रकार विशेष आदरपूर्वक पुराण पुरुषों के द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा अनेक पृथक्-पृथक् भूमिकाओं में व्याप्त जो चारित्र उसको यति प्राप्त करके, क्रमश: अतुल निवृत्ति करके, चैतन्य-सामान्य और चैतन्य-विशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज-द्रव्य में सर्वत: स्थिति करो ।
इस प्रकार 'आचरण प्रज्ञापन' समाप्त हुआ ।
अब, श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसे एकाग्रता लक्षणवाले मोक्षमार्ग का प्रज्ञापन है । उसमें प्रथम, उसके (मोक्षमार्ग के) मूल साधनभूत आगम में व्यापार (प्रवृत्ति) कराते हैं :-
प्रथम तो, श्रमण वास्तव में एकाग्रता को प्राप्त ही होता है; एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान् के ही होती है; और पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा ही होता है; इसलिये आगम में ही व्यापार प्रधानतर (विशेष प्रधान) है; दूसरी गति (अन्य कोई मार्ग) नहीं है । उसका कारण यह है कि -
वास्तव में आगम के बिना पदार्थों का निश्चय नहीं किया जा सकता; क्योंकि आगम ही, जिसके त्रिकाल (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप) तीन लक्षण प्रवर्तते हैं ऐसे सकलपदार्थसार्थ के यथातथ्य ज्ञान द्वारा सुस्थित अंतरंग से गम्भीर है (अर्थात् आगम का ही अंतरंग, सर्व पदार्थों के समूह के यथार्थज्ञान द्वारा सुस्थित है इसलिये आगम ही समस्त पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से गम्भीर है) ।
और, पदार्थों के निश्चय के बिना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि, जिसे पदार्थों का निश्चय नहीं है वह
- कदाचित् निश्चय करने की इच्छा से आकुलता प्राप्त चित्त के कारण सर्वत: दोलायमान (डावाँडोल) होने से अत्यन्त तरलता (चंचलता) प्राप्त करता है,
- कदाचित् करने की इच्छारूप ज्वर से परवश होता हुआ विश्व को (समस्त पदार्थों को) स्वयं सर्जन करने की इच्छा करता हुआ विश्वव्यापाररूप (समस्त पदार्थों की प्रवृत्तिरूप) परिणमित होने से प्रतिक्षण क्षोभ की काटता को प्राप्त होता है, और
- कदाचित् भोगने की इच्छा से भावित होता हुआ विश्व को स्वयं भोग्यरूप ग्रहण करके, रागद्वेषरूप दोष से कलुषित चित्तवृत्ति के कारण (वस्तुओं में) इष्ट-अनिष्ट विभाग द्वारा द्वैत को प्रवर्तित करता हुआ प्रत्येक वस्तुरूप परिणमित होने से
- कृतनिश्चय,
- निष्क्रिय और
- निर्भोग
और एकाग्रता के बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है वह जीव
- यह अनेक ही है ऐसा देखता (श्रद्धान करता) हुआ उस प्रकार की प्रतीति में अभिनिविष्ट होता है;
- यह अनेक ही है ऐसा जानता हुआ उस प्रकार की अनुभूति से भावित होता है, और
- यह अनेक ही है इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ के विकल्प से खण्डित (छिन्नभिन्न) चित्त सहित सतत प्रवृत्त होता हुआ
इससे ( ऐसा कहा गया है कि) मोक्षमार्ग जिसका दूसरा नाम है ऐसे श्रामण्य की सर्वप्रकार से सिद्धि करने के लिये मुमुक्षु को भगवान- अर्हन्त सर्वज्ञ से उपज्ञ (स्वयं जानकर कहे गये) शब्दब्रह्म में, जिसका कि अनेकान्तरूपी केतन (चिह्न-ध्वज-लक्षण) प्रगट है उसमें, निष्णात होना चाहिये ।
अब आगमहीन के मोक्षाख्य (मोक्ष नाम से कहा जानेवाला) कर्मक्षय नहीं होता, ऐसा प्रतिपादन करते हैं :-
वास्तव में आगम के बिना परात्मज्ञान (स्व-पर का भेद-ज्ञान) या परमात्म-ज्ञान नहीं होता; और परात्म-ज्ञान-शून्य के या परमात्म-ज्ञान-शून्य के मोहादि-द्रव्य-भाव-कर्मों का या ज्ञप्ति-परिवर्तन-रूप कर्मों का क्षय नहीं होता । वह इस प्रकार है:—
प्रथम तो, आगमहीन यह जगत—कि जो निरवधि (अनादि) भवसरिता के प्रवाह को बहाने वाले महा-मोह-मल से मलिन है वह—धतूरा पिये हुए मनुष्य की भाँति विवेक के नाश को प्राप्त होने से अविविक्त ज्ञानज्योति से यद्यपि देखता है तथापि, उसे स्वपरनिश्चायक आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभव के अभाव के कारण, आत्मा में और आत्म-प्रदेश-स्थित शरीरादि द्रव्यों में तथा उपयोग-मिश्रित मोह-राग-द्वेषादिभावों में 'यह पर है और यह आत्मा (स्व) है' ऐसा ज्ञान सिद्ध नहीं होता; तथा उसे, परमात्म-निश्चायक आगमोपदेश-पूर्वक स्वानुभव के अभाव के कारण, जिसके त्रिकाल परिपाटी में विचित्र पर्यायों का समूह प्रगट होता है ऐसे अगाध-गम्भीर-स्वभाव विश्व को ज्ञेय-रूप करके प्रतपित (आभास, ज्ञात) ज्ञान-स्वभावी एक परमात्मा का ज्ञान भी सिद्ध नहीं होता ।
और (इस प्रकार) जो
- परात्मज्ञान से तथा
- परमात्म-ज्ञान से शून्य है
- द्रव्य-कर्म से होने वाले शरीरादि के साथ तथा तत्प्रतत्ययी मोह-राग-द्वेषादि भावों के साथ एकता का अनुभव करने से वध्य-घातक के विभाग का अभाव होने से मोहादि द्रव्य-भाव-कर्मों का क्षय सिद्ध नहीं होता, तथा
- ज्ञेय-निष्ठता से प्रत्येक वस्तु के उत्पाद-विनाशरूप परिणमित होने के कारण अनादि संसार से परिवर्तन को पाने वाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्म-निष्ठता के अतिरिक्त अनिवार्य होने से, ज्ञप्ति-परिवर्तन-रूप कर्मों का क्षय
इसलिये कर्म-क्षयार्थियों को सर्वप्रकार से आगम की पर्युपासना करना योग्य है।
अब, मोक्षमार्ग पर चलनेवालों को आगम ही एक चक्षु है ऐसा उपदेश करते हैं :-
प्रथम तो, इस लोक में
- भगवन्त सिद्ध ही शुद्ध-ज्ञान-मय होने से सर्वत: चक्षु हैं, और
- शेष सभी जीव, मूर्त-द्रव्यों में ही उनकी दृष्टि लगने से इन्द्रिय-चक्षु हैं ।
- देव सूक्ष्मत्व-विशिष्ट मूर्त-द्रव्यों को ग्रहण करते हैं इसलिये वे अवधि-चक्षु हैं; अथवा वे भी, मात्र रूपी-द्रव्यों को देखते हैं इसलिये उन्हें इन्द्रिय-चक्षु वालों से अलग न किया जाये तो, इन्द्रिय-चक्षु ही हैं ।
अब, उस (सर्वत:चक्षुपने) की सिद्धि के लिये भगवंत श्रमण आगम-चक्षु होते हैं । यद्यपि ज्ञेय और ज्ञान का पारस्परिक मिलन हो जाने से उन्हें भिन्न करना अशक्य है (अर्थात् ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात न हों ऐसा करना अशक्य है) तथापि वे उस आगम-चक्षु से स्व-पर का विभाग करके, महा-मोह को जिनने भेद डाला है ऐसे वर्तते हुए परमात्मा को पाकर, सतत ज्ञान-निष्ठ ही रहते हैं ।
इससे (यह कहा जाता है कि) मुमुक्षुओं को सब कुछ आगम-रूप चक्षु द्वारा ही देखना चाहिये ॥२३४॥
अब, यह समर्थन करते हैं कि आगमरूप चक्षु से सब कुछ दिखाई देता ही है :-
प्रथम तो, आगम द्वारा सभी द्रव्य प्रमेय (ज्ञेय) होते हैं, क्योंकि सर्वद्रव्य विस्पष्ट तर्कणा से अविरुद्ध हैं, (सर्व द्रव्य आगमानुसार जो विशेष स्पष्ट तर्क उसके साथ मेल वाले हैं, अर्थात् वे आगमानुसार विस्पष्ट विचार से ज्ञात हों ऐसे हैं) । और आगम से वे द्रव्य विचित्र गुणपर्याय वाले प्रतीत होते हैं, क्योंकि आगम को सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मों में व्यापक (अनेक धर्मों को कहने वाला) अनेकान्तमय होने से आगम को प्रमाणता की उपपत्ति है (अर्थात् आगम प्रमाणभूत सिद्ध होता है) । इससे सभी पदार्थ आगमसिद्ध ही हैं । और वे श्रमणों को स्वयमेव ज्ञेयभूत होते हैं, क्योंकि श्रमण विचित्रगुणपर्याय वाले सर्वद्रव्यों में व्यापक (सर्वद्रव्यों को जानने वाले) अनेकान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोगरूप होकर परिणमित होते हैं ।
इससे (यह कहा है कि) आगमचक्षुओं को (आगमरूपचक्षु वालों को) कुछ भी अदृश्य नहीं है ॥२३५॥
अब, आगमज्ञान, तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और तदुभय पूर्वक संयतत्त्व की युगपतता को मोक्षमार्गपना होने का नियम करते हैं । (अर्थात् ऐसा नियम सिद्ध करते हैं कि -- १. आगमज्ञान,२. तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और ३. उन दोनों पूर्वक संयतपना इन तीनों का साथ होना ही मोक्षमार्ग है) :-
इस लोक में वास्तव में, स्यात्कार जिसका चिह्न है ऐसे आगमपूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण वाली दृष्टि से जो शून्य है उन सभी को प्रथम तो संयम ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि
- स्वपर के विभाग के अभाव के कारण काया और कषायों के साथ एकता का अध्यवसाय करने वाले ऐसे वे जीव, विषयों की अभिलाषा का निरोध नहीं होने से छह जीवनिकाय के घाती होकर सर्वत: (सब ओर से) प्रवृत्ति करते हैं, इसलिये उनके सर्वत: निवृत्ति का अभाव है । (अर्थात् किसी भी ओर से किंचित्मात्र भी निवृत्ति नहीं है), तथापि
- उनके परमात्मज्ञान के अभाव के कारण ज्ञेयसमूह को क्रमश: जानने वाली निरर्गल ज्ञप्ति होने से ज्ञानरूप आत्मतत्त्व में एकाग्रता की प्रवृत्ति का अभाव है ।
अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि - आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व के अयुगपत्पने को मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता :-
आगमबल से सकल पदार्थों की विस्पष्ट तर्कणा करता हुआ भी यदि जीव सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होने वाला विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा को उस प्रकार से प्रतीत नहीं करता तो यथोक्त आत्मा के श्रद्धान से शून्य होने के कारण जो यथोक्त आत्मा का अनुभव नहीं करता ऐसा वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ़ जीव कैसे ज्ञानी होगा? (नहीं होगा, वह अज्ञानी ही होगा ।) और अज्ञानी को ज्ञेयद्योतक होने पर भी, आगम क्या करेगा? (आगम ज्ञेयों का प्रकाशक होने पर भी वह अज्ञानी के लिये क्या कर सकता है?) इसलिये श्रद्धानशून्य आगम से सिद्धि नहीं होती ।
और, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हुआ विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा का श्रद्धान करता हुआ भी, अनुभव करता हुआ भी यदि जीव अपने में ही संयमित होकर नहीं रहता, तो अनादि मोहरागद्वेष की वासना से जनित जो परद्रव्य में भ्रमण उसके कारण जो स्वैरिणी (स्वच्छाचारिणी, व्यभिचारिणी) है ऐसी चिद्वृत्ति (चैतन्य की परिणति) अपने में ही रहने से, वासनारहित निष्कंप एक तत्त्व में लीन चिद्वृत्ति का अभाव होने से, वह कैसे संयत होगा? (नहीं होगा, असंयत ही होगा) और असंयत को, यथोक्त आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान या यथोक्त आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान क्या करेगा? इसलिये संयमशून्य श्रद्धान से या ज्ञान से सिद्धि नहीं होती ।
इससे आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व के अयुगपत्पना को मोक्षमार्गपने घटित नहीं होता ॥२३७॥
अब, आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्वका युगपत्पना होने पर भी, आत्मज्ञानमोक्षमार्ग का साधकतम (उत्कृष्ट साधक) है ऐसा समझाते हैं :-
आगमजनित ज्ञान से, यदि वह श्रद्धानशून्य हो तो सिद्धि नहीं होती; तथा उसके (आगमज्ञान के) विना जो नहीं होता ऐसे श्रद्धान से भी यदि वह (श्रद्धान) संयमशून्य
हो तो सिद्धि नहीं होती । वह इसप्रकार :-
जो कर्म (अज्ञानी को) क्रमपरिपाटी से तथा अनेक प्रकार के बालतपादिरूप उद्यम से पकते हुए, रागद्वेष को ग्रहण किया होने से सुखदु:खादि विकारभावरूप परिणमित होने से पुन: संतान को आरोपित करता जाये इस प्रकार, लक्षकोटिभवों द्वारा चाहे जिस प्रकार (महा-कष्ट से) अज्ञानी पार कर जाता है, वही कर्म, (ज्ञानी को) स्यात्कारकेतन आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व के युगपत्पने के अतिशयप्रसाद से प्राप्त की हुई शुद्धज्ञानमय आत्मतत्त्व की अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे ज्ञानीपन के सद्भाव के कारण काय-वचन-मन के कर्मों के उपरम से त्रिगुप्तिता प्रवर्तमान होने से प्रचण्ड उद्यम से पकता हुआ, रागद्वेष के छोड़ने से समस्त सुखदु:खादि विकार अत्यन्त निरस्त हुआ होने से पुन: संतान को आरोपित न करता जाये इस प्रकार उच्छ्वासमात्र में ही लीला से ही ज्ञानी नष्ट कर देता है ।
इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व का युगपत्पना होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम संमत करना ।
अब, ऐसा उपदेश करते हैं कि - आत्मज्ञानशून्य के सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथासंयतत्त्वका युगपत्पना भी अकिंचित्कर है, (अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता) :-
सकल आगम के सार को हस्तामलकवत् करने से (हथेली में रक्खे हुए आंवले के समान स्पष्ट ज्ञान होने से) जो पुरुष भूत-वर्तमान-भावी स्वोचित (अपने-अपने योग्य) पर्यायों के साथ अशेष द्रव्य-समूह को जानने-वाले आत्मा को जानता है, श्रद्धान करता है और संयमित रखता है, उस पुरुष के आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व का युगपत्पना होने पर भी, यदि वह किंचित्मात्र भी मोहमल से लिप्त होने से शरीरादि के प्रति (तत्संबंधी) मूर्च्छा से उपरक्त रहने से, निरुपराग उपयोग में परिणत करके ज्ञानात्मक आत्मा का अनुभव नहीं करता, तो वह पुरुष मात्र उतने (कुछ) मोह-मल-कलंक-रूप कीले के साथ बँधे हुए कर्मों से न छूटता हुआ सिद्ध नहीं होता ।
इसलिये आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व का युगपत्पना भी अकिंचित्कर ही है ॥२३९॥
अब आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्व के युगपत्पने के साथ आत्मज्ञान के युगपत्पने को साधते हैं; (अर्थात् आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व -- इस त्रिक के साथ आत्मज्ञान के युगपत्पने को सिद्ध करते हैं ) :-
जो पुरुष
- अनेकान्तकेतन आगमज्ञान के बल से, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हुआ, विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा का श्रद्धान और अनुभव करता हुआ आत्मा में ही नित्य-निश्चल वृत्ति को इच्छता हुआ,
- संयम के साधन-रूप बनाये हुए शरीर-पात्र को पाँच समितियों से अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा प्रवर्तित करता हुआ, क्रमश: पंचेन्द्रियों के निश्चल निरोध द्वारा जिसके काय-वचन-मन का व्यापार विराम को प्राप्त हुआ है ऐसा होकर,
- चिद्वृत्ति के लिये परद्रव्य में भ्रमण का निमित्त जो कषाय-समूह वह आत्मा के साथ अन्योन्य मिलन के कारण अत्यन्त एक-रूप हो जाने पर भी स्वभाव-भेद के कारण उसे पर-रूप से निश्चित करके आत्मा से ही कुशल मल्ल की भाँति अत्यन्त मर्दन कर-करके अक्रम से उसे मार डालता है,
अब, आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्व के युगपत्पने का तथा आत्मज्ञान का युगपत्पना जिसे सिद्ध हुआ है ऐसे इस संयत का क्या लक्षण है सो कहते हैं :-
संयम, सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है; चारित्र धर्म है; धर्म साम्य है; साम्य मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम है । इसलिये संयत का, साम्य लक्षण है ।
वहाँ,
- शत्रु-बंधुवर्ग में,
- सुख-दुःख में,
- प्रशंसा-निन्दा में,
- मिट्टी के ढेले और सोने में,
- जीवित-मरण में
- यह मेरा पर (शत्रु) है, यह स्व (स्वजन) है;
- यह आह्लाद है, यह परिताप है,
- यह मेरा उत्कर्षण (कीर्ति) है, यह अपकर्षण (अकीर्ति) है,
- यह मुझे अकिंचित्कर है, यह उपकारक (उपयोगी) है,
- यह मेरा स्थायित्व है, यह अत्यन्त विनाश है
अब, यह समर्थन करते हैं कि आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्व के युगपत्पने के साथ आत्मज्ञान के युगपत्पने की सिद्धिरूप जो यह संयतपना है वही मोक्षमार्ग है, जिसका दूसरा नाम एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य है :-
- ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथा प्रकार (जैसी है वैसी ही, यथार्थ) प्रतीति जिसका लक्षण है वह सम्यग्दर्शन-पर्याय है;
- ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथा प्रकार अनुभूति जिसका लक्षण है वह ज्ञान-पर्याय है;
- ज्ञेय और ज्ञाता की क्रियान्तर से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्त्व में परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्र-पर्याय है ।
वह ( संयतत्त्वरूप अथवा श्रामण्यरूप मोक्षमार्ग) भेदात्मक है, इसलिये 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है' इस प्रकार पर्यायप्रधान व्यवहारनय से उसका प्रज्ञापन है; वह (मोक्षमार्ग) अभेदात्मक है इसलिये 'एकाग्रता मोक्षमार्ग है' इसप्रकार द्रव्यप्रधान निश्चयनय से उसका प्रज्ञापन है; समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक है इसलिये 'वे दोनों, (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा एकाग्रता) मोक्षमार्ग है' इस प्रकार प्रमाण से उसका प्रज्ञापन है ॥२४२॥
(अब श्लोक द्वारा मोक्षप्राप्ति के लिये द्रष्टा-ज्ञाता में लीनता करने को कहा जाता है ।)
(( (कलश-१६ -- मनहरण कवित्त)
इसप्रकार जो प्रतिपादन के अनुसार ।
एक होकर भी अनेक रूप होता है ।
निश्चयनय से तो मात्र एकाग्रता ही ।
पर व्यवहार से तीन रूप होता है ॥
ऐसे मोक्षमार्ग के अचलालम्बन से ।
ज्ञाता-दृष्टाभाव को निज में ही बाँध ले ॥
उल्लसित चेतना का अतुल विलास लख ।
आत्मीकसुख प्राप्त करे अल्पकाल में ॥१६॥))
इस प्रकार, प्रतिपादक के आशय के वश, एक होने पर भी अनेक होता हुआ (अभेदप्रधान निश्चयनय से एक-एकाग्रतारूप होता हुआ भी वक्ता के अभिप्रायानुसार भेदप्रधान व्यवहारनय से अनेक भी -- दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप भी होता होने से) एकता (एकलक्षणता) को तथा त्रिलक्षणता को प्राप्त जो अपवर्ग (मोक्ष) का मार्ग उसे लोक द्रष्टा- ज्ञाता में परिणति बांधकर (लीन करके) अचलरूप से अवलम्बन करे, जिससे वह (लोक) उल्लसित चेतना के अतुल विकास को अल्पकाल में प्राप्त हो ।
अब ऐसा दर्शाते हैं कि - अनेकाग्रता के मोक्षमार्गपना घटित नहीं होता (अर्थात् अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है ) :-
जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है, और उसका आश्रय करके, ज्ञानात्मक आत्मा के ज्ञान से भ्रष्ट वह स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है; और ऐसा (मोही रागी अथवा द्वेषी) होता हुआ बंध को ही प्राप्त होता है; परन्तु मुक्त नहीं होता ।
इससे अनेकाग्रता को मोक्षमार्गपना सिद्ध नहीं होता ॥२४३॥
अब एकाग्रता वह मोक्षमार्ग है ऐसा (आचार्य महाराज) निश्चित करते हुए (मोक्षमार्ग-प्रज्ञापन का) उपसंहार करते हैं :-
जो ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को भाता है वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय नहीं करता; और उसका आश्रय नहीं करके ज्ञानात्मक आत्मा के ज्ञान से अभ्रष्ट ऐसा वह स्वयमेव ज्ञानीभूत रहता हुआ, मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता, और ऐसा (अमोही, अरागी, अद्वेषी) वर्तता हुआ (वह) मुक्त ही होता है, परन्तु बँधता नहीं है ।
इससे एकाग्रता को ही मोक्षमार्गत्व सिद्ध होता है ॥२४४॥
अब, शुभोपयोग का प्रज्ञापन करते हैं । उसमें (प्रथम), शुभोपयोगियों को श्रमण रूप में गौणतया बतलाते हैं --
जो वास्तव में श्रामण्य-परिणति की प्रतिज्ञा करके भी, कषाय कण के जीवित (विद्यमान) होने से, समस्त परद्रव्य से निवृत्ति-रूप से प्रवर्तमान ऐसी जो सुविशुद्ध-दर्शन-ज्ञान-स्वभाव आत्म-तत्त्व में परिणति-रूप शुद्धोपयोग-भूमिका उसमें आरोहण करने को असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी) जीव, जो कि शुद्धोपयोग-भूमिका के उपकंठ निवास कर रहे हैं, और कषाय ने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित (आतुर) मन वाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जाता हैं --
((धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥)) इस प्रकार (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ने ११वीं गाथा में) स्वयं ही निरूपण किया है, इसलिये शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थ-समवाय है । इसलिये शुभोपयोगी भी, उनके धर्म का सद्भाव होने से, श्रमण हैं । किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के साथ समान कोटि के नहीं है, क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों को निरस्त किया होने से निरास्रव ही हैं और ये शुभोपयोगी तो कषायकण अविनष्ट होने से सास्रव ही हैं । और ऐसा होने से ही शुद्धोपयोगियों के साथ इन्हें (शुभोपयोगियों को) नहीं लिया (नहीं वर्णन किया) जाता, मात्र पीछे से (गौणरूप में ही) लिया जाता है ॥२४५॥
अब, शुभोपयोगी श्रमण का लक्षण सूत्र द्वारा (गाथा द्वारा) कहते हैं :-
सकल संग के संन्यासस्वरूप श्रामण्य के होने पर भी जो कषायांश (अल्पकषाय) के आवेश के वश केवल शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहने में स्वयं अशक्त है ऐसा श्रमण, पर ऐसे जो
- केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने वाले अर्हन्तादिक तथा
- केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने का प्रतिपादन करने वाले प्रवचनरत जीवों
- भक्ति तथा
- वात्सल्य
इससे (यह कहा गया है कि) शुद्धात्मा का अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है ।
अब, शुभोपयोगी श्रमणों की प्रवृत्ति बतलाते हैं :-
शुभोपयोगियों के शुद्धात्मा के अनुरागयुक्त चारित्र होता है, इसलिये जिनने शुद्धात्मपरिणति प्राप्त की है ऐसे श्रमणों के प्रति जो वन्दन-नमस्कार-अभ्युत्थान-अनुगमनरूप विनीत वर्तन की प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिणति की रक्षा की निमित्तभूत ऐसी जो श्रम दूर करने की (वैयावृत्यरूप) प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियों के लिये दूषित (दोषरूप, निन्दित) नहीं है । (अर्थात् शुभोपयोगी मुनियों के ऐसी प्रवृत्ति का निषेध नहीं हैं) ॥२४७॥
अब, ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि शुभोपयोगियों के ही ऐसी प्रवृत्तियाँ होती हैं :-
अनुग्रह करने की इच्छापूर्वक
- दर्शनज्ञान के उपदेश की प्रवृत्ति,
- शिष्यग्रहण की प्रवृत्ति,
- उनके पोषण की प्रवृत्ति और
- जिनेन्द्रपूजन के उपदेश की प्रवृत्ति
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि सभी प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियों के ही होती हैं :-
संयम की प्रतिज्ञा की होने से छह-काय के विराधन से रहित जो कोई भी, शुद्धात्मपरिणति के रक्षण में निमित्तभूत ऐसी, चार प्रकार के श्रमणसंघ का उपकार करने की प्रवृत्ति है वह सभी रागप्रधानता के कारण शुभोपयोगियों के ही होती है, शुद्धोपयोगियों के कदापि नहीं ॥२४९॥
अब, प्रवृत्ति संयम की विरोधी होने का निषेध करते हैं (अर्थात् शुभोपयोगी श्रमण के संयम के साथ विरोधवाली प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये - ऐसा कहते हैं ) :-
जो (श्रमण) दूसरे के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा हो ऐसे अभिप्राय से वैयावृत्य की प्रवृत्ति करता हुआ अपने संयम की विराधना करता है, वह गृहस्थधर्म में प्रवेश कर रहा होने से श्रामण्य से च्युत होता है । इससे (ऐसा कहा है कि) जो भी प्रवृत्ति हो वह सर्वथा संयम के साथ विरोध न आये इस प्रकार ही करनी चाहिये, क्योंकि प्रवृत्ति में भी संयम ही साध्य है ।
अब प्रवृत्ति के विषय के दो विभाग बतलाते हैं (अर्थात् अब यह बतलाते हैं कि शुभोपयोगियों को किसके प्रति उपकार की प्रवृत्ति करना योग्य है और किसके प्रति नहीं) :-
जो अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्ति उसके करने से यद्यपि अल्प लेप तो होता है, तथापि अनेकान्त के साथ मैत्री से जिनका चित्त पवित्र हुआ है ऐसे शुद्ध जैनों के प्रति—जो कि शुद्धात्मा के ज्ञान-दर्शन में प्रवर्तमान वृत्ति के कारण साकार-अनाकार चर्या वाले हैं उनके प्रति,—शुद्धात्मा की उपलब्धि के अतिरिक्त अन्य सबकी अपेक्षा किये बिना ही, उस प्रवृत्ति के करने का निषेध नहीं है; किन्तु अल्प लेप वाली होने से सबके प्रति सभी प्रकार से वह प्रवृत्ति अनिषिद्ध हो ऐसा नहीं है, क्योंकि वहाँ (अर्थात् यदि सबके प्रति सभी प्रकार से की जाये तो) उस प्रकार की प्रवृत्ति से पर के और निज के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा नहीं हो सकती ।
अब, प्रवृत्ति के काल का विभाग बतलाते हैं (अर्थात् यह बतलाते हैं कि - शुभोपयोगी-श्रमण को किस समय प्रवृत्ति करना योग्य है और किस समय नहीं) :-
जब शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त श्रमण को, उससे च्युत करे ऐसा कारण, कोई भी उपसर्ग - आ जाये, तब वह काल, शुभोपयोगी को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिकार करने की इच्छारूप प्रवृत्ति का काल है; और उसके अतिरिक्त का काल अपनी शुद्धात्मपरिणति की प्राप्ति के लिये केवल निवृत्ति का काल है ।
अब लोगों के साथ बातचीत करने की प्रवृत्ति उसके निमित्त के विभाग सहित बतलाते हैं(अर्थात् शुभोपयोगी श्रमण को लोगों के साथ बातचीत की प्रवृत्ति किस निमित्त से करना योग्य है और किस निमित्त से नहीं, सो कहते हैं ) :-
शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से ही (शुभोपयोगी श्रमण को) शुद्धात्मपरिणतिशून्य लोगों के साथ बातचीत प्रसिद्ध है (शास्त्रों में निषिद्ध नहीं है), किन्तु अन्य निमित्त से भी प्रसिद्ध हो ऐसा नहीं है ॥२५३॥
अब, इस प्रकार से कहे गये शुभोपयोग का गौण - मुख्य विभाग बतलाते हैं; (अर्थात् यह बतलाते हैं कि किसके शुभोपयोग गौण होता है और किसके मुख्य होता है ।) :-
इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्तचर्यारूप जो यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है वह यह शुभोपयोग, शुद्धात्मा की प्रकाशक सर्वविरति को प्राप्त श्रमणों के कषायकण के सद्भाव के कारण प्रवर्तित होता हुआ, गौण होता है, क्योंकि वह शुभोपयोग शुद्धात्मपरिणति से विरुद्ध ऐसे राग के साथ संबंधवान है; और वह शुभोपयोग गृहस्थों के तो, सर्वविरति के अभाव से शुद्धात्मप्रकाशन का अभाव होने से कषाय के सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी, मुख्य है, क्योंकि—जैसे ईंधन को स्फटिक के संपर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है (और इसलिये वह क्रमश: जल उठता है) उसी प्रकार-गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है, और (इसलिये वह शुभोपयोग) क्रमश: परम निर्वाणसौख्य का कारण होता है ।
अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि शुभोपयोग को कारण की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है :-
जैसे बीज ज्यों के त्यों होने पर भी भूमि की विपरीतता से निष्पत्ति की विपरीतता होती है, (अर्थात् अच्छी श्रम में उसी बीज का अच्छा अन्न उत्पन्न होता है और खराब भूमि में वही खराब हो जाता है या उत्पन्न ही नहीं होता), उसी प्रकार प्रशस्तराग स्वरूप शुभोपयोग ज्यों का त्यों होने पर भी पात्र की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है, क्योंकि कारण के भेद से कार्य का भेद अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है ॥२५५॥
अब कारण की विपरीतता और फल की विपरीतता बतलाते हैं :-
सर्वज्ञ-स्थापित वस्तुओं में युक्त शुभोपयोग का फल पुण्य-संचय-पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है । वह फल, कारण की विपरीतता होने से विपरीत ही होता है । वहाँ, छद्मस्थ-स्थापित वस्तुयें वे कारण विपरीतता है; उनमें व्रत-नियम-अध्ययन-ध्यान-दानरतरूप से युक्त शुभोपयोग का फल जो मोक्षशून्य केवल पुण्यापसद (अधम-पुण्य / हत-पुण्य) की प्राप्ति है वह फल की विपरीतता है; वह फल सुदेव-मनुष्यत्व है ॥२५६॥
अब (इस गाथा में भी) कारण विपरीतता और फल विपरीतता ही बतलाते हैं :-
जो छद्मस्थस्थापित वस्तुयें हैं वे कारणविपरीतता हैं; वे (विपरीत कारण) वास्तव में
- शुद्धात्मज्ञान से शून्यता के कारण, 'परमार्थ के अजान' और
- शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त न करने से विषयकषाय में अधिक
अब, ऐसी श्रद्धा करवाते हैं कि कारण की विपरीतता से अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता :-
प्रथम तो विषयकषाय पाप ही हैं; विषयकषायवान् पुरुष भी पाप ही हैं; विषयकषायवान् पुरुषों के प्रति अनुरक्त जीव भी पाप में अनुरक्त होने से पाप ही हैं । इसलिये विषयकषायवान् पुरुष स्वानुरक्त (अपने प्रति अनुराग वाले) पुरुषों को पुण्य का कारण भी नहीं होते, तब फिर वे संसार से निस्तार के कारण तो कैसे हो सकते हैं? (नहीं हो सकते); इसलिये उनसे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता (अर्थात् विषयकषायवान् पुरुषरूप विपरीत कारण का फल अविपरीत नहीं होता) ॥२५८॥
अब अविपरीत फल का कारण, ऐसा जो 'अविपरीत कारण' यह बतलाते हैं :-
पाप के रुक जाने से सर्वधर्मियों के प्रति स्वयं मध्यस्थ होने से और गुणसमूह का सेवन करने से जो श्रमण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के युगपत्पनेरूप परिणति से रचित एकाग्रतास्वरूप सुमार्ग का भागी (सुमार्गशाली-सुमार्ग का भाजन) है वह निज को और पर को मोक्ष का और पुण्य का आयतन (स्थान) है इसलिये वह (श्रमण) अविपरीत फल का कारण ऐसा अविपरीत कारण है, ऐसी प्रतीति करनी चाहिये ॥२५१॥
अब, अविपरीत फल का कारण, ऐसा जो 'अविपरीत कारण' है उसे विशेष समझाते हैं :-
यथोक्त लक्षण वाले श्रमण ही-जो कि मोह, द्वेष और अप्रशस्त राग के उच्छेद से अशुभोपयोगरहित वर्तते हुए, समस्त कषायोदय के विच्छेद से कदाचित् शुद्धोपयुक्त (शुद्धोपयोग में युक्त) और प्रशस्त राग के विपाक से कदाचित् शुभोपयुक्त होते हैं वे स्वयं मोक्षायतन (मोक्ष के स्थान) होने से लोक को तार देते हैं; और उनके प्रति भक्तिभाव से जिनके प्रशस्त भाव प्रवर्तता है ऐसे पर जीव पुण्य के भागी (पुण्यशाली) होते हैं ॥२६०॥
अब, अविपरीत फल का कारण ऐसा जो 'अविपरीत कारण' उसकी उपासनारूप प्रवृत्तिसामान्य और विशेषरूप से करने योग्य है ऐसा दो सूत्रों द्वारा बतलाते हैं -
यदि कोई श्रमण अन्य श्रमण को देखे तो प्रथम ही, मानो वे अन्य श्रमण गुणातिशयवान् हों इस प्रकार उनके प्रति (अभ्युत्थानादि) व्यवहार करना चाहिये । फिर उनका परिचय होने के बाद उनके गुणानुसार बर्ताव करना चाहिये ॥२६१॥
श्रमणों को अपने से अधिक गुणवान (श्रमण) के प्रति अभ्युत्थान, ग्रहण, उपासन, पोषण, सत्कार, अंजलिकरण और प्रणामरूप प्रवृत्तियाँ निषिद्ध नहीं हैं ॥२६२॥
अब श्रमणभासों के प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध करते हैं :-
जिनके सूत्रों में और पदार्थों में विशारदपने के द्वारा संयम, तप और स्वतत्त्व का ज्ञान प्रवर्तता है उन श्रमणों के प्रति ही अभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियाँ अनिषिद्ध हैं, परन्तु उसके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासों के प्रति वे प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं ॥२६३॥
अब, कैसा जीव श्रमणाभास है सो कहते हैं :-
आगम का ज्ञाता होने पर भी, संयत होने पर भी, तप में स्थित होने पर भी, जिनोक्त अनन्त पदार्थों से भरे हुए विश्व को—जो कि (विश्व) अपने आत्मा से ज्ञेयरूप से पिया जाता होने के कारण आत्मप्रधान है उसका—जो जीव श्रद्धान नहीं करता वह श्रमणाभास है ॥२६४॥
अब, जो श्रामण्य से समान हैं उनका अनुमोदन (आदर) न करनेवाले का विनाश बतलाते हैं :-
जो श्रमण द्वेष के कारण शासनस्थ श्रमण का भी अपवाद बोलता है और (उसके प्रति सत्कारादि) क्रियायें करने में अनुमत नहीं है, वह श्रमण द्वेष से कषायित होने से उसका चारित्र नष्ट हो जाता है ॥२६५॥
अब, जो श्रामण्य में अधिक हो उसके प्रति जैसे कि वह श्रामण्य में हीन (अपने से मुनिपने में नीचा) हो ऐसा आचरण करनेवाले का विनाश बतलाते हैं :-
जो श्रमण स्वयं जघन्य गुणों वाला होने पर भी मैं भी श्रमण हूँ, ऐसे गर्व के कारण दूसरे अधिक गुण वालों (श्रमणों) से विनय की इच्छा करता है, वह श्रामण्य के गर्व के वश से कदाचित् अनन्त संसारी भी होता है ॥२६६॥
अब, जो श्रमण श्रामण्य से अधिक हो वह, जो अपने से हीन श्रमण के प्रति समान जैसा (अपने बराबरीवाले जैसा) आचरण करे तो उसका विनाश बतलाते हैं :-
जो स्वयं अधिक गुण वाले होने पर भी अन्य हीन गुण वालों (श्रमणों) के प्रति (वंदनादि) क्रियाओं में वर्तते हैं वे मोह के कारण असम्यक् उपयुक्त होते हुए (मिथ्याभावों में युक्त होते हुए) चारित्र से भ्रष्ट होते हैं ॥२६७॥
अब, असत्संग निषेध्य है ऐसा बतलाते हैं :-
- विश्व के वाचक, 'सत्' लक्षणवान् ऐसा जो शब्दब्रह्म और उस शब्दब्रह्म के वाच्य 'सत्' लक्षण वाला ऐसा जो सम्पूर्ण विश्व उन दोनों के ज्ञेयाकार अपने में युगपत् गुंथ जाने से (ज्ञातृतत्त्व में एक ही साथ ज्ञात होने से) उन दोनों का अधिष्ठानभूत 'सत्' लक्षण वाले ज्ञातृत्व का निश्चय किया होने से जिसने सूत्रों और अर्थों के पद को (अधिष्ठान को) निश्चित किया है ऐसा हो,
- निरुपराग उपयोग के कारण 'जिसने कषायों को शमित किया है ऐसा' हो, और
- निष्कंप उपयोग का बहुश: अभ्यास करने से 'अधिक तप वाला हो'
अब, 'लौकिक' (जन) का लक्षण कहते हैं :-
परम-निर्ग्रन्थतारूप प्रवृज्या की प्रतिज्ञा ली होने से जो जीव संयम-तप के भार को वहन करता हो उसे भी, यदि उस मोह की बहुलता के कारण शुद्धचेतन व्यवहार को छोड़कर निरंतर मनुष्य-व्यवहार के द्वारा चक्कर खाने से ऐहिक कर्मों से अनिवृत्त हो तो, लौकिक कहा जाता है ॥२६९॥
अब, सत्संग विधेय (करने योग्य) है, ऐसा बतलाते हैं : —
आत्मा परिणामस्वभाव वाला है इसलिये अग्नि के संग में रहे हुए पानी की भाँति (संयत के भी) लौकिकसंग से विकार अवश्यंभावी होने से संयत भी असंयत ही हो जाता है । इसलिये दुःखमोक्षार्थी (दुःखों से मुक्ति चाहने वाले) श्रमण को
- समान गुण वाले श्रमण के साथ अथवा
- अधिक गुण वाले श्रमण के साथ
- शीतल घर के कोने में रखे हुए शीतल पानी की भाँति समान गुणवाले की संगति से गुण रक्षा होती है और
- अधिक शीतल हिम (बरफ) के संपर्क में रहनेवाले शीतल पानी की भांति अधिक गुण वाले के संग से गुणवृद्धि होती है ॥२७०॥
(( (कलश-१७--मनहरण कवित्त)
इसप्रकार शुभ उपयोगमयी किंचित् ही ।
शुभरूप वृत्ति का सुसेवन करके ॥
सम्यक्प्रकार से संयम के सौष्टव से ।
आप ही क्रमशर निरवृत्ति करके ॥
अरे ज्ञानसूर्य का है अनुपम जो उदय ।
सब वस्तुओं को मात्र लीला में ही जान लो ॥
ऐसी ज्ञानानन्दमयी दशा एकान्ततः ।
अपने में आपही नित अनुभव करो ॥१७॥))
इस प्रकार शुभोपयोगजनित किंचित् प्रवृत्ति का सेवन करके यति सम्यक् प्रकार से संयम के सौष्ठव (श्रेष्ठता, सुन्दरता) से क्रमश: परम निवृत्ति को प्राप्त होता हुआ; जिसका रम्य उदय समस्त वस्तुसमूह के विस्तार को लीलामात्र से प्राप्त हो जाता है (जान लेता है) ऐसी शाश्वती ज्ञानानन्दमयी दशा का एकान्तत: (केवल, सर्वथा, अत्यन्त) अनुभव करो ।
((इस प्रकार शुभोपयोग-प्रज्ञापन पूर्ण हुआ ।))
अब पंचरत्न हैं (पाँच रत्नों जैसी पाँच गाथायें कहते हैं)
(वहाँ पहले, श्लोक द्वारा उन पाँच गाथाओं की महिमा कहते हैं :)
(( (कलश-१७--मनहरण कवित्त)
अब इस शास्त्र के मुकुटमणि के समान ।
पाँच सूत्र निर्मल पंचरत्न गाये हैं ॥
जो जिनदेव अरहंत भगवान के ।
अद्वितीय शासन को सर्वतः प्रकाशे हैं ॥
अद्भुत पंचरत्न भिन्न-भिन्न पंथवाली ।
भव-अपवर्ग की व्यतिरेकी दशा को ॥
तप्त-संतप्त इस जगत के सामने ।
प्रगटित करते हुये जयवंत वर्तो ॥१८॥))
अब इस शास्त्र के कलंगी के अलङ्कार जैसे (चूड़ामणि-मुकुटमणि समान) यह पाँच सूत्ररूप निर्मल पंचरत्न -- जो कि संक्षेप से अर्हन्त-भगवान के समग्र अद्वितीय शासन को सर्वत: प्रकाशित करते हैं वे -- विलक्षण पंथवाली संसार-मोक्ष की स्थिति को जगत के समक्ष प्रकट करते हुए जयवन्त वर्तो ।
अब संसारतत्त्व को प्रकट करते हैं :-
जो स्वयं अविवेक से पदार्थों को अन्यथा ही अंगीकृत करके (अन्य प्रकार से ही समझकर) ऐसा ही तत्त्व (वस्तुस्वरूप) है ऐसा निश्चय करते हुए, सतत एकत्रित किये जाने वाले महा मोहमल से मलिन मन वाले होने से नित्य अज्ञानी हैं, वे भले ही समय में (द्रव्यलिंगी रूप से जिनमार्ग में) स्थित हों तथापि परमार्थ श्रामण्य को प्राप्त न होने से वास्तव में श्रमणाभास वर्तते हुए अनन्त कर्मफल की उपभोगराशि से भयंकर ऐसे अनन्तकाल तक अनन्त भावान्तररूप परावर्त्तनों से अनवस्थित वृत्ति वाले रहने से, उनको संसारतत्त्व ही जानना ॥२७१॥
अब मोक्ष तत्व को प्रगट करते हैं :-
जो (श्रमण) त्रिलोक की चूलिका के समान निर्मल विवेकरूपी दीपिका के प्रकाश वाला होने से यथास्थित पदार्थ निश्चय से उत्सुकता का निवर्तन करके स्वरूपमंथर रहने से सतत ‘उपशांतात्मा’ वर्तता हुआ, स्वरूप में एक में ही अभिमुखतया विचरता (क्रीड़ा करता) होने से अयथाचार रहित वर्तता हुआ नित्य ज्ञानी हो, वास्तव में उस सम्पूर्ण श्रामण्य वाले साक्षात् श्रमण को मोक्षतत्त्व जानना, क्योंकि पहले के सकल कर्मों के फल उसने लीलामात्र से नष्ट कर दिये हैं इसलिये और वह नूतन कर्मफलों को उत्पन्न नहीं करता इसलिये पुन: प्राणधारणरूप दीनता को प्राप्त न होता हुआ द्वितीय भावरूप परावर्तन के अभाव के कारण शुद्धस्वभाव में अवस्थित वृत्ति वाला रहता है ॥२७२॥
अब मोक्षतत्त्व का साधन-तत्त्व प्रगट करते हैं :-
अनेकान्त के द्वारा ज्ञात सकल ज्ञातृतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व के यथास्थित स्वरूप में जो प्रवीण हैं, अन्तरंग में चकचकित होते हुए अनन्तशक्ति वाले चैतन्य से भास्वर (तेजस्वी) आत्मतत्त्व के स्वरूप को जिनने समस्त बहिरंग तथा अन्तरंग संगति के परित्याग से विविक्त (भिन्न) किया है, और (इसलिये) अन्त:तत्त्व की वृत्ति (आत्मा की परिणति) स्वरूप गुप्त तथा सुषुप्त (जैसे कि सो गया हो) समान (प्रशांत) रहने से जो विषयों में किंचित् भी आसक्ति को प्राप्त नहीं होते,—ऐसे जो सकल-महिमावान् भगवन्त शुद्ध (शुद्धोपयोगी) हैं उन्हें ही मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व जानना । (अर्थात् वे शुद्धोपयोगी ही मोक्षमार्गरूप हैं), क्योंकि वे अनादि संसार से रचित-बन्द रहे हुए विकट कर्मकपाट को तोड़ने-खोलने के अति उग्र प्रयत्न से पराक्रम प्रगट कर रहे हैं ॥२७३॥
अब मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व का (अर्थात् शुद्धोपयोगी का) सर्व मनोरथों के स्थानकेरूप में अभिनन्दन (प्रशंसा) करते हैं :-
प्रथम तो, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के युगपदत्वरूप से प्रवर्तमान एकाग्रता जिसका लक्षण है ऐसा जो साक्षात् मोक्षमार्गभूत श्रामण्य, शुद्ध के ही होता है; समस्त भूत-वर्तमान-भावी व्यतिरेकों के साथ मिलित (मिश्रित), अनन्य वस्तुओं का अन्वयात्मक जो विश्व उसके (१) सामान्य और (२) विशेष के प्रत्यक्ष प्रतिभासस्वरूप जो (१) दर्शन और (२) ज्ञान वे 'शुद्ध' के ही होते हैं,—निर्विघ्न खिले हुए सहज ज्ञानानन्द की मुद्रावाला (स्वाभाविक ज्ञान और आनन्द की छापवाला) दिव्य जिसका स्वभाव है ऐसा जो निर्वाण, वह 'शुद्ध' के ही होता है; और टंकोत्कीर्ण परमानन्द-अवस्थारूप से सुस्थित आत्मस्वभाव की उपलब्धि से गंभीर ऐसे जो भगवान सिद्ध, वे 'शुद्ध' ही होते हैं (अर्थात् शुद्धोपयोगी ही सिद्ध होते हैं), वचन-विस्तार से बस हो! सर्व मनोरथों के स्थानभूत, मोक्षतत्त्व के साधन-तत्त्वरूप, 'शुद्ध' को, जिसमें परस्पर अंग-अंगीरूप से परिणमित भावक-भाव्यता के कारण स्व-पर का विभाग अस्त हुआ है ऐसा भाव-नमस्कार हो ॥२७४॥
अब (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव) शिष्यजन को शास्त्र के फल के साथ जोड़ते हुए शास्त्र समाप्त करते हैं :-
सुविशुद्धज्ञानदर्शनमात्र स्वरूप में अवस्थित परिणति में लगा होने से साकार-अनाकार चर्या से युक्त वर्तता हुआ, जो शिष्यवर्ग स्वयं समस्त शास्त्रों के अर्थों के विस्तारसंक्षेपात्मक श्रुतज्ञानोपयोगपूर्वक प्रभाव द्वारा केवल आत्मा को अनुभवता हुआ, इस उपदेश को जानता है, वह वास्तवमें, भूतार्थस्वसंवेद्य-दिव्य ज्ञानानन्द जिसका स्वभाव है, पूर्वकाल में कभी जिसका अनुभव नहीं किया, ऐसे भगवान आत्मा को प्राप्त करता है-जो कि (जो आत्मा) तीनों काल के निरवधि प्रवाह में स्थायी होने से सकल पदार्थों के समूहात्मक प्रवचन का सारभूत है ॥२७५॥
इस प्रकार (श्रीमद् भगवत्कृन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद्अमृतचन्द्राचार्यदेव विरचित तत्त्वदीपिका नामक टीका में चरणानुयोगसूचक चूलिका नाम का तृतीय श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।
'यह आत्मा कौन है (कैसा है) और कैसे प्राप्त किया जाता है' ऐसा प्रश्न किया जाय तो इसका उत्तर (पहले ही) कहा जा चुका है और (यहाँ) पुनः कहते हैं :-
प्रथम तो, आत्मा वास्तव में चैतन्य-सामान्य से व्याप्त अनन्त धर्मों का अधिष्ठाता (स्वामी) एक द्रव्य है, क्योंकि अनन्त धर्मों में व्याप्त होनेवाले जो अनन्त नय हैं उनमें व्याप्त होनेवाला जो एक श्रुतज्ञान-स्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से (वह आत्म-द्रव्य) प्रमेय होता है (ज्ञात होता है) ।
- वह आत्मद्रव्य द्रव्यनय से, पटमात्र की भाँति, चिन्मात्र है (आत्मा द्रव्यनय से चैतन्यमात्र है, जैसे वस्त्र वस्त्रमात्र है तदनुसार) ।
- आत्मद्रव्य पर्यायनय से, तंतुमात्र की भाँति, दर्शन-ज्ञानादिमात्र है (अर्थात् आत्मापर्यायनय से दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिमात्र है, जैसे वस्त्र तंतुमात्र है ।)
- आत्मद्रव्य अस्तित्वनय से स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला है; --
- लोहमय (स्व-द्रव्य),
- डोरी और धनुष के मध्य में स्थित (स्व-क्षेत्र),
- संधानदशा में रहे हुए (स्व-काल) और
- लक्ष्योन्मुख (स्व-भाव)
- आत्मद्रव्य नास्तित्वनय से पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्तित्ववाला है; -
- अलोहमय,
- डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित,
- संधानदशा में न रहे हुए और
- अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य अस्तित्वनास्तित्वनय से क्रमशः स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व-नास्तित्ववाला है;
- लोहमय तथा अलोहमय,
- डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित,
- संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और
- लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य अव्यक्तव्यनय से युगपत् स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अवक्तव्य है; --
- लोहमय तथा अलोहमय,
- डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित,
- संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और
- लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य अस्तित्व-अवक्तव्य नय से स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला-अवक्तव्य है;
- (स्वचतुष्टय से) लोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए और लक्ष्योन्मुख ऐसे तथा
- (युगपत् स्व-पर चतुष्ट से) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य नास्तित्व-अवक्तव्यनय से पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्तित्ववाला-अवक्तव्य है; --
- (पर-चतुष्टय से) अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में नहिं रहे हुए और अलक्ष्योन्मुख ऐसे तथा
- (युगपत् स्व-पर-चतुष्टय से) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्यनय से स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से, पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला-नास्तित्ववाला-अवक्तव्य है; --
- (स्व-चतुष्टय से) लोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए और लक्ष्योन्मुख ऐसे,
- (पर-चतुष्टय से) अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में न रहे हुए और अलक्ष्योन्मुख ऐसे तथा
- (युगपत् स्व-पर-चतुष्टय से) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा प्रत्यञ्चा और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य विकल्पनय से, बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे एक पुरुष की भाँति, सविकल्प है (आत्मा भेदनय से, भेद-सहित है, जैसे कि एक पुरुष बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे भेदवाला है ।)
- आत्मद्रव्य अविकल्पनय से, एक पुरुषमात्र की भाँति, अविकल्प है (अभेदनय से आत्मा अभेद है, जैसे कि एक पुरुष बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे भेद-रहित एक पुरुषमात्र है ।)
- आत्मद्रव्य नामनय से, नामवाले की भाँति, शब्दब्रह्म को स्पर्श करनेवाला है (आत्मा नामनय से शब्दब्रह्म से कहा जाता है, जैसे कि नामवाला पदार्थ उसके नामरूप शब्द से कहा जाता है ।)
- आत्मद्रव्य स्थापनानय से, मूर्तिपने की भाँति, सर्व पुद्गलों का अवलम्बन करनेवाला है(स्थापनानय से आत्मद्रव्य की पौद्गलिक स्थापना की जा सकती है, मूर्ति की भाँति)
- आत्मद्रव्य द्रव्यनय से बालक, सेठ की भाँति और श्रमण, राजा की भाँति, अनागत और अतीत पर्याय से प्रतिभासित होता है (आत्मा द्रव्यनय से भावी और भूत पर्यायरूप से ख्याल में आता है, जैसे कि बालक सेठपने स्वरूप भावी पर्यायरूप से ख्याल में आता है और मुनि राजास्वरूप भूत-पर्यायरूप से आता है ।)
- आत्मद्रव्य भावनय से, पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री की भाँति, तत्काल (वर्तमान) की पर्यायरूप से उल्लसित / प्रकाशित / प्रतिभासित होता है (आत्मा भावनय से वर्तमानपर्यायरूप से प्रकाशित होता है, जैसे कि पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री पुरुषत्वरूप पर्यायरूप से प्रतिभासित होती है ।)
- आत्मद्रव्य सामान्यनय से, हार / माला / कंठी के डोरे की भाँति, व्यापक है, (आत्मा सामान्यनय से सर्व पर्यायों में व्याप्त रहता है, जैसे मोती की माला का डोरा सारे मोतियों में व्याप्त होता है ।)
- आत्मद्रव्य विशेषनय से, उसके एक मोती की भाँति, अव्यापक है (आत्मा विशेषनय से अव्यापक है, जैसे पूर्वोक्त माला का एक मोती सारी माला में अव्यापक है ।)
- आत्मद्रव्य नित्यनय से, नट की भाँति, अवस्थायी है (आत्मा नित्यनय से नित्य / स्थायी है, जैसे राम-रावणरूप अनेक अनित्य स्वांग धारण करता हुआ भी नट तो वह का वही नित्य है ।)
- आत्मद्रव्य अनित्यनय से, राम-रावण की भाँति, अनवस्थायी है (आत्मा अनित्यनय से अनित्य है, जैसे नट के द्वारा धारण किये गये राम-रावणरूप स्वांग अनित्य है ।)
- आत्मद्रव्य सर्वगतनय से, खुली हुई आँख की भाँति, सर्ववर्ती (सब में व्याप्त होनेवाला) है
- आत्मद्रव्य असर्वगतनय से, मींची हुई (बन्द) आँख की भाँति, आत्मवर्ती (अपने में रहनेवाला) है ।
- आत्मद्रव्य शून्यनय से, शून्य (खाली) घर की भाँति, एकाकी (अमिलित) भासित होता है ।
- आत्मद्रव्य अशून्यनय से, लोगों से भरे हुए जहाज की भाँति, मिलित भासित होता है ।
- आत्मद्रव्य ज्ञानज्ञेय-अद्वैतनय से (ज्ञान और ज्ञेय के अद्वैतरूप नय से), महान-ईंधन-समूहरूप परिणत अग्नि की भाँति, एक है ।
- आत्मद्रव्य ज्ञान-ज्ञेय-द्वैतनय से, पर के प्रतिबिंबों से संपृक्त दर्पण की भाँति, अनेक है (आत्मा ज्ञान और ज्ञेय के द्वैतरूपनय से अनेक है, जैसे पर-प्रतिबिम्बों के संगवाला दर्पण अनेकरूप है ।)
- आत्मद्रव्य नियतिनय से नियत-स्वभावरूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित (नियत) होती है ऐसी अग्नि की भाँति । (आत्मा नियतिनय से नियत-स्वभाववाला भासित होता है जैसे अग्नि के उष्णता का नियम होने से अग्नि नियत-स्वभाववाली भासित होती है ।)
- आत्मद्रव्य अनियतिनय से अनियत-स्वभावरूप भासित होता है, जिसके उष्णता नियति (नियम) से नियमित नहीं है ऐसे पानी के भाँति । (आत्मा अनियतिनय से अनियत स्वभाववाला भासित होता है, जैसे पानी के (अग्नि के निमित्त से होनेवाली) उष्णता अनियत होने से पानी अनियत स्वभाववाला भासित होता है ।)
- आत्मद्रव्य स्वभावनय से संस्कार को निरर्थक करनेवाला है (आत्मा को स्वभावनय से संस्कार निरुपयोगी है), जिसकी किसी के नोक नहीं निकाली जाती (किन्तु जो स्वभाव से ही नुकीला है) ऐसे पैने काँटे की भाँति ।
- आत्मद्रव्य अस्वभावनय से संस्कार को सार्थक करनेवाला (आत्मा को अस्वभावनय से संस्कार उपयोगी है), जिसकी (स्वभाव से नोक नहीं होती, किन्तु) संस्कार करके लुहार के द्वारा नोक निकाली गई हो ऐसे पैने बाण की भाँति ।
- आत्मद्रव्य कालनय से जिसकी सिद्धि समयपर आधार रखती है ऐसा है, गर्मी के दिनों के अनुसार पकनेवाले आम्रफल की भाँति । (कालनय से आत्मद्रव्य की सिद्धि समय पर आधार रखती है, गर्मी के दिनों के अनुसार पकनेवाले आम की भाँति ।)
- आत्मद्रव्य अकालनय से जिसकी सिद्धि समयपर आधार नहीं रखती ऐसा है, कृत्रिमगर्मी से पकाये गये आम्रफल की भाँति ।
- आत्मद्रव्य पुरुषकारनय से जिसकी सिद्धि यत्नसाध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषकार से नींबू का वृक्ष प्राप्त होता है (उगता है) ऐसे पुरुषकारवादी की भाँति । (पुरुषार्थनय से आत्मा की सिद्धि प्रयत्नसे होती है, जैसे किसी पुरुषार्थवादी मनुष्य को पुरुषार्थ से नीबू का वृक्ष प्राप्त होता है ।)
- आत्मद्रव्य दैवनय से जिसकी सिद्धि अयत्नसाध्य है (यत्न बिना होता है) ऐसा है;पुरुषकारवादी द्वारा प्रदत्त नींबू के वृक्ष के भीतर से जिसे (बिना यत्न के, दैव से) माणिक प्राप्त हो जाता है ऐसे दैववादी की भाँति ।
- आत्मद्रव्य ईश्वरनय से परतंत्रता भोगनेवाला है, धाय की दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक की भाँति ।
- आत्मद्रव्य अनीश्वरनय से स्वतंत्रता भोगनेवाला है, हिरन को स्वच्छन्दता (स्वतन्त्रता,स्वेच्छा) पूर्वक फाड़कर खा जानेवाले सिंह की भाँति ।
- आत्मद्रव्य गुणीनय से गुणग्राही है, शिक्षक के द्वारा जिसे शिक्षा दी जाती है ऐसे कुमार की भाँति ।
- आत्मद्रव्य अगुणीनय से केवल साक्षी ही है (गुणग्राही नहीं है), जिसे शिक्षक के द्वारा शिक्षा दी जा रही है ऐसे कुमार को देखनेवाले पुरुष (प्रेक्षक) की भाँति ।
- आत्मद्रव्य कर्तृनय से, रंगरेज की भाँति, रागादि परिणाम का कर्ता है (आत्माकर्तानय से रागादिपरिणामों का कर्ता है, जैसे रंगरेज रंगने के कार्य का कर्ता है ।)
- आत्मद्रव्य अकर्तृनय से केवल साक्षी ही है (कर्ता नहीं), अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेज को देखनेवाले पुरुष (प्रेक्षक) की भाँति ।
- आत्मद्रव्य भोक्तृनय से सुख-दुःखादि का भोक्ता है, हितकारी / अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी की भाँति । (आत्मा भोक्तानय से सुख-दुःखादि को भोगता है, जैसे हितकारक या अहितकारक अन्न को खानेवाला रोगी सुख या दुःख को भोगता है ।)
- आत्मद्रव्य अभोक्तृनय से केवल साक्षी ही है, हितकारी / अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी को देखनेवाले वैद्य की भाँति । (आत्मा अभोक्तानय से केवल साक्षी ही है - भोक्ता नहीं; जैसे सुख-दुःख को भोगनेवाले रोगी को देखनेवाला वैद्य वह तो केवल साक्षी ही है । )
- आत्मद्रव्य क्रियानय से अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि सधे ऐसा है, खम्भे से सिर फूट जाने पर दृष्टि उत्पन्न होकर जिसे निधान प्राप्त हो जाय ऐसे अंध की भाँति । (क्रियानय से आत्मा अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि हो ऐसा है; जैसे किसी अंध-पुरुष को पत्थर के खम्भे के साथ सिर फोड़ने से सिर के रक्त का विकार दूर होने से आँखे खुल जायें और निधान प्राप्त हो, उस प्रकार ।)
- आत्मद्रव्य ज्ञाननय से विवेक की प्रधानता से सिद्धि सधे ऐसा है; मुट्ठीभर चने देकरचिंतामणि-रत्न खरीदनेवाले घर के कोने में बैठे हुए व्यापारी की भाँति । (ज्ञाननय से आत्मा को विवेक की प्रधानतासे सिद्धि होती है, जैसे घर के कोने में बैठा हुआ व्यापारी मुट्ठीभर चना देकर चिंतामणि-रत्न खरीद लेता है, उस प्रकार । )
- आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बंध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करनेवाला बंधक है, (बंधकरनेवाले) और मोचक (मुक्त करनेवाले) ऐसे अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होनेवाले और उससे वियुक्त होनेवाले परमाणु की भाँति । (व्यवहारनय से आत्मा बंध और मोक्ष में, पुद्गल के साथ, द्वैतको प्राप्त होता है, जैसे परमाणु के बंध में वह परमाणु अन्य परमाणु के साथ संयोग को पानेरूप द्वैत को प्राप्त होता है और परमाणु के मोक्ष में वह परमाणु अन्य परमाणु से पृथक् होनेरूप द्वैत को पाता है, उस प्रकार । )
- आत्मद्रव्य निश्चयनय से बंध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करनेवाला है, अकेले बध्यमानऔर मुच्यमान ऐसे बंध-मोक्षोचित्त स्निग्धत्व-रूक्षत्व-गुणरूप परिणत परमाणु की भाँति । (निश्चयनय से आत्मा अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, जैसे बंध और मोक्ष के योग्य स्निग्ध या रूक्षत्वगुणरूप परिणमित होता हुआ परमाणु अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, उस प्रकार । )
- आत्मद्रव्य अशुद्धनय से, घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र की भाँति, सोपाधि-स्वभाववाला है ।
- आत्मद्रव्य शुद्धनय से, केवल मिट्टी-मात्र की भाँति, निरुपाधि-स्वभाववाला है ।
((जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा ।
जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥
परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा ।
जइणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ॥गो. क. 894/1073॥))
जितने वचनपंथ हैं उतने वास्तव में नयवाद हैं; और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (पर मत) हैं । परसमयों (मिथ्यामतियों) का वचन सर्वथा (अपेक्षा बिना) कहा जाने के कारण वास्तव में मिथ्या है; और जैनों का वचन कथंचित् (अपेक्षा सहित) कहा जाता है इसलिये वास्तव में सम्यक् है ।
इसप्रकार इस (उपरोक्त) सूचनानुसार (अर्थात् ४७ नयों में समझाया है उस विधि से)
- एक-एक धर्म में एक-एक नय (व्यापे), इसप्रकार अनन्त-धर्मों में व्यापक अनन्त नयों से निरूपण किया जाय तो, समुद्र के भीतर मिलनेवाले श्वेत-नील गंगा-यमुना के जल-समूह की भाँति, अनन्त-धर्मों को परस्पर अतद्भावमात्र से पृथक् करने में अशक्य होने से, आत्मद्रव्य अमेचक स्वभाववाला, एक धर्म में व्याप्त होनेवाला, एक धर्मी होने से यथोक्त एकान्तात्मक (एक धर्म-स्वरूप) है ।
- परन्तु युगपत् अनन्तधर्मों में व्यापक ऐसे अनन्त नयों में व्याप्त होनेवाला एक श्रुतज्ञान-स्वरूप प्रमाण से निरूपण किया जाय तो, समस्त नदियों के जल-समूह के समवायात्मक (समुदायस्वरूप) एक समुद्र की भाँति, अनन्त धर्मों को वस्तुरूप से पृथक् करना अशक्य होने से आत्मद्रव्य मेचक स्वभाववाला, अनन्त धर्मों में व्याप्त होनेवाला, एक धर्मी होने से यथोक्त अनेकान्तात्मक (अनेक धर्मस्वरूप) है ।
(( (दोहा)
स्याद्वादमय नय प्रमाण से दिखे न कुछ भी अन्य ।
अनंत धर्ममय आत्म में दिखे एक चैतन्य ॥१९॥))
इसप्रकार स्यात्कारश्री (स्यात्काररूपी लक्ष्मी) के निवास के वशीभूत वर्तते नय-समूहों से (जीव) देखें तो भी और प्रमाण से देखें तो भी स्पष्ट अनन्त धर्मोंवाले निज-आत्मद्रव्य को भीतर में शुद्ध-चैतन्यमात्र देखते ही हैं ।
इसप्रकार आत्मद्रव्य कहा गया । अब उसकी प्राप्ति का प्रकार कहा जाता है :-
प्रथम तो, अनादि पौद्गलिक कर्म जिसका निमित्त है ऐसी मोहभावना के (मोह के अनुभव के) प्रभाव से आत्म-परिणति सदा चक्कर खाती है, इसलिये यह आत्मा समुद्र की भाँति अपने में ही क्षुब्ध होता हुआ क्रमशः प्रवर्तमान अनन्त ज्ञप्ति-व्यक्तियों से परिवर्तन को प्राप्त होता है, इसलिये ज्ञप्ति-व्यक्तियों के निमित्तरूप होने से जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्य-पदार्थ-व्यक्तियों के प्रति उसकी मैत्री प्रवर्तती है, इसलिये आत्म-विवेक शिथिल हुआ होने से अत्यन्त बहिर्मुख ऐसा वह पुनः पौद्गलिक कर्म के रचयिता राग-द्वेष द्वैतरूप परिणमित होता है और इसलिये उसके आत्म-प्राप्ति दूर ही है । परन्तु अब जब यही आत्मा प्रचण्ड कर्मकाण्ड द्वारा अखण्ड ज्ञान-कांड को प्रचंड करने से अनादि - पौद्गलिक-कर्मरचित मोह को वध्य-घातक के विभागज्ञान पूर्वक विभक्त करने से (स्वयं) केवल आत्मभावना के (आत्मानुभव के) प्रभाव से परिणति निश्चल की होने से समुद्र की भाँति अपने में ही अति-निष्कंप रहता हुआ एक साथ ही अनन्त ज्ञप्ति-व्यक्तियों में व्याप्त होकर अवकाश के अभाव के कारण सर्वथा विवर्तन (परिवर्तन) को प्राप्त नहीं होता, तब ज्ञप्ति-व्यक्तियों के निमित्तरूप होने से जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्य-पदार्थव्यक्तियों के प्रति उसे वास्तव में मैत्री नहीं प्रवर्तती और इसलिये आत्म-विवेक सुप्रतिष्ठित (सुस्थित) हुआ होने के कारण अत्यन्त अन्तर्मुख हुआ ऐसा यह आत्मा पौद्गलिक कर्मों के रचयिता राग-द्वेष द्वैतरूप परिणति से दूर होता हुआ पूर्व में अनुभव नहीं किये गये अपूर्व ज्ञानानन्द-स्वभावी भगवान् आत्मा को आत्यंतिक रूप से ही प्राप्त करता है । जगत भी ज्ञानानन्दात्मक परमात्मा को अवश्य प्राप्त करो ।
यहाँ श्लोक भी है :-
(( (हरिगीत)
आनन्द अमृतपूर से भरपूर जो बहती हुई ।
अरे केवलज्ञान रूपी नदी में डूबा हुआ ॥
जो इष्ट है स्पष्ट है उल्लसित है निज आतमा ।
स्याद्चिह्नित जिनेन्द्र शासन से उसे पहिचान लो ॥२०॥))
आनन्दामृत के पूर से भरपूर बहती हुई कैवल्य-सरिता में (मुक्तिरूपी नदी में) जो डूबा हुआ है, जगत को देखने में समर्थ ऐसी महासंवेदनरूपी श्री (महाज्ञानरूपी लक्ष्मी) जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्न-किरण की भाँति स्पष्ट है और जो इष्ट है ऐसे उल्लसित (प्रकाशमान, आनन्दमय) स्वतत्त्व को जन स्यात्कार लक्षण जिनेश शासन के वश से प्राप्त हों । ('स्यात्कार' जिसका चिह्न है ऐसे जिनेन्द्रभगवान के शासन का आश्रय लेकर के प्राप्त करो ।)
(( (हरिगीत)
वाणिगुंफन व्याख्या व्याख्येय सारा जगत है ।
और अमृतचन्द्रसूरि व्याख्याता कहे हैं ॥
इसतरह कह मोह में मत नाचना हे भव्यजन! ।
स्याद् विद्याबल से निज पा निराकुल होकर नचो ॥२१॥))
वास्तव में पुद्गल ही स्वयं शब्दरूप परिणमित होते हैं, आत्मा उन्हें परिणमित नहीं कर सकता, तथा वास्तव में सर्व पदार्थ ही स्वयं ज्ञेयरूप – प्रमेयरूप परिणमित होते हैं, शब्द उन्हें ज्ञेय बना - समझा नहीं सकते इसलिये 'आत्मा सहित विश्व वह व्याख्येय (समझाने योग्य) है, वाणी का गुंथन वह व्याख्या है और अमृतचन्द्रसूरि वे व्याख्याता हैं, इसप्रकार जन मोह से मत नाचो (मत फूलो) (किन्तु) स्याद्वादविद्याबल से विशुद्ध ज्ञान की कला द्वारा इस एक समस्त शाश्वत स्व-तत्त्व को प्राप्त करके आज (जन) अव्याकुलरूप से नाचो (परमानन्दपरिणामरूप परिणत होओ ।)
(( (हरिगीत)
चैतन्य का गुणगान तो उतना ही कम जितना करो ।
थोड़ा-बहुत जो कहा वह सब स्वयं स्वाहा हो गया ॥
निज आत्मा को छोड़कर इस जगत में कुछ अन्य ना ।
इक वही उत्तम तत्त्व है भवि उसी का अनुभव करो ॥२२॥))
इसप्रकार (इस परमागम में) अमन्दरूप से (बलपूर्वक, जोरशोर से) जो थोड़ा-बहुत तत्त्व कहा गया है, वह सब चैतन्य में वास्तव में अग्नि में होमी गई वस्तु के समान (स्वाहा) हो गया है । (अग्नि में होमे गये घी को अग्नि खा जाती है, मानो कुछ होमा ही न गया हो ! इसीप्रकार अनन्त माहात्म्यवन्त चैतन्य का चाहे जितना वर्णन किया जाय तथापि मानो उस समस्त वर्णन को अनन्त महिमावान चैतन्य खा जाता है; चैतन्य की अनन्त महिमा के निकट सारा वर्णन मानो वर्णन ही न हुआ हो इस प्रकार तुच्छता को प्राप्त होता है ।) उस चैतन्य को ही चैतन्य आज प्रबलता / उग्रता से अनुभव करो (अर्थात् उस चित्स्वरूप आत्मा को ही आत्मा आज अत्यन्त अनुभवो ) क्योंकि इस लोक में दूसरा कुछ भी (उत्तम) नहीं है, चैतन्य ही परम (उत्तम) तत्त्व है ।
इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद्-अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित) तत्त्वदीपिका नामक संस्कृत टीका के अनुवाद का हिन्दी रूपान्तर समाप्त हुआ ।