ग्रन्थ:प्रवचनसार - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[एस] यह जो मैं ग्रन्थकार इस ग्रन्थ को करने का उद्यमी हुआ हूं और अपने ही द्वारा अपने आत्मा का अनुभव करने में लवलीन हूँ सो
- [सुरासुर- मणुसिंदवदिदं] तीन जगत् में पूजने योग्य अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों के आधारभूत अर्हत पद में विराजमान होने के कारण से तथा इस पद के चाहने वाले तीन भुवन के बडे पुरुषों द्वारा भले प्रकार जिनके चरण कमलों की सेवा की गई है, इस कारण से सवर्गवासी देवों और भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों के इन्द्रों से वंदनीक,
- [धोयघाइ-कम्ममलं] परम आत्म-लवलीनतारूप समाधिभाव से जो रागद्वेषादि मलों से रहित निश्चय आत्मीक सुखरूपी अमृतमय निर्मल जल उत्पन्न होता है, उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मो के मल को धोने वाले अथवा दूसरों के पाप-रूपी मल को धोने के लिए निमित्त कारण होने वाले,
- [धम्मस्स कत्तारं] रागादि से शून्य निज आत्मतत्व में परिणमन रूप निश्चय धर्म के उपादान कर्त्ता अथवा दूसरे जीवों को उत्तम क्षमा आदि अनेक प्रकार धर्म का उपदेश देने वाले
- [तित्थं] तीर्थ अर्थात् देखे, सुने, अनुभवे इन्द्रियों के विषय-सुख की इच्छा रूप जल के प्रवेश से दूरवर्ती, परम समाधिरूपी जहाज पर चढकर संसार समुद्र से तिरने वाले अथवा दूसरे जीवों को संसार सागर से पार होने का उपाय-मय एक जहाज-स्वरूप
- [वडढ्माणं] सब तरह से अपने उन्नत-रूप ज्ञान को धरने वाले तथा
- रत्नत्रय-मय धर्म तत्व के उपदेश करने वाले
इसके बाद प्रणाम करता हूँ । किन्हें प्रणाम करता हूँ? [सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे] वृषभादि पार्श्व पर्यन्त शेष सभी तीर्थकरों तथा शुद्ध आत्म-स्वभाव की प्राप्ति है लक्षण जिनका, ऐसे सभी सिद्धों को प्रणाम करता हूँ । ये सभी कैसे हैं? [विसुद्धसब्भावे] सर्व मल रहित आत्मा की प्राप्ति के बल से सम्पूर्ण आवरणों के पूर्णतया विनष्ट हो जाने के कारण तथा केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वभाव सम्पन्न होने के कारण विशुद्ध सत्तावाले हैं । [समणे य] तथा श्रमण शब्द से कहने योग्य आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को प्रणाम करता हूँ । वे श्रमण किन लक्षणों वाले हैं? [णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे] सर्व विशुद्ध द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप चेतन वस्तु में जो वह रागादि विकल्प रहित चंचलता रहित स्थिरता; उसमें अन्तर्भूत व्यवहार पंचाचार-रूप सहकारी कारण से उत्पन्न निश्चय पंचाचार-रूप से परिणमित होने के कारण सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्याचार सहित (उन श्रमणों) को (नमस्कार करता हूँ) ।
अब, [ते ते सव्वे] पहले कहे हुये उन सभी पंच-परमेष्ठियों को । [वंदामि च] कर्ता-रूप मैं नमस्कार करता हूँ । उन सभी को कैसे नमस्कार करता हूँ? [समगं समगं] सामूहिक वन्दना-रूप से अर्थात् सभी को एक साथ नमस्कार करता हूँ । उन सभी को और कैसे नमस्कार करता हूँ? [पत्तेगमेव पत्तेगं] व्यक्तिगत वन्दनारूप से अर्थात प्रत्येक को पृथक्-पृथक् नमस्कार करता हूँ । मैं मात्र पूर्वोक्त इन्हें ही नमस्कार नहीं करता हूँ, वरन् । [अरहंते] अरहन्तों को भी नमस्कार करता हूँ । वे अरहंत कैसे है? [वट्टंते माणुसे खेत्ते] विद्यमान हैं । वे अरहंत कहाँ विद्यमान हैं? मानुष क्षेत्र में (ढ़ाई द्वीप में) विद्यमान हैं ।
वह इसप्रकार- अभी यहीं भरतक्षेत्र में तीर्थकरों का अभाव होने से पाँच महाविदेहों में विद्यमान श्री सीमन्धर-स्वामी तीर्थंकर परमदेव आदि तीर्थंकरों के साथ उन्हीं पंच-परमेष्ठियों को नमस्कार करता हूँ । पूर्वोक्त सभी को कैसे नमस्कार करता हूँ? मोक्ष-लक्ष्मी के स्वयंवर मण्डपभूत जिनदीक्षा के अवसर पर साधनभूत मंगलाचार स्वरूप, सिद्ध भगवान के अनन्त ज्ञानादि गुणों की भावनारूप सिद्ध-भक्ति से, और उसी-प्रकार निर्मल समाधि-रूप परिणमित परमयोगियों के गुणों की भावना लक्षण योग-भक्ति से; उन सभी को नमस्कर करता हूँ ।
अब, [किच्चा] करके । क्या करके? [णमो] नमस्कार करके । किन्हे नमस्कार करके? [अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव] अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार करके । कितनी संख्या वाले अरहन्तादि को नमस्कार करके? [सव्वेसिं] सभी को नमस्कार करके ॥४॥
इस प्रकार पंच-परमेष्ठियों को नमस्कार करके क्या करता हूँ ? [उवसंपयामि] आश्रय लेता हूँ । किसका आश्रय लेता हूँ ? [सम्मं] साम्य-चारित्र का । उस चारित्र का आश्रय लेने से क्या होता है? [जत्तो णिव्वाणसंपत्ति] उससे निर्वाण की प्राप्ति होती है । उसका आश्रय लेने से पूर्व क्या करके? [समासेज] प्राप्त करके । किसे प्राप्त करके? [विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं] विशुद्ध ज्ञान दर्शन है लक्षण जिसका, ऐसे प्रधान आश्रम को प्राप्त करके । किनसे सम्बन्धित उस प्रधान आश्रम को प्राप्त करके? [तेसिं] उन पूर्वोक्त पंच-परमेष्ठियों के उस प्रधान आश्रम को प्राप्त करके ।
वह इसप्रकार- मैं आराधक हूँ, और ये अरहंत आदि आराध्य हैं- इसप्रकार आराधक-आराध्य की भिन्नता-रूप नमस्कार को द्वैत नमस्कार कहते हैं, तथा रागादि उपाधि-रूप विकल्पों से रहित परम समाधि के बल से स्वयं में ही आराध्य-आराधक भाव अद्वैत नमस्कार कहलाता है ।
इसप्रकार पूर्वोक्त ३ गाथाओं द्वारा कहे गये पंच-परमेष्ठियों को पूर्वोक्त लक्षण द्वैताद्वैत नमस्कार करके । पंचपरमेष्ठियों को द्वैताद्वैत नमस्कार करके क्या करता हूँ? मठ-चैत्यालय आदि रूप व्यवहार आश्रम से भिन्न लक्षण वाले रागादि से भिन्न अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न यह सुख स्वभावी परमात्मा है- ऐसा भेदज्ञान तथा वह सुख स्वभावी आत्मा ही पूर्णत: उपादेय है- ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व इन लक्षणों वाले ज्ञान-दर्शन स्वभावी भावाश्रम-रूप प्रधान आश्रम को प्राप्त कर उस पूर्वक होने वाला सराग-चारित्र क्रमापतित अवश्यम्भावी होने पर भी पुण्य बंध का कारण है, ऐसा जानकर उसे छोड़कर शुद्धात्मा में स्थिर अनुभूति स्वरूप वीतराग-चारित्र का मैं आश्रय लेता हूँ- यह गाथा का भाव है ॥५॥
[संपज्जदि] प्राप्ति होती है । किसकी प्राप्ति होती है? [णिव्व्वणं] मोक्ष की प्राप्ति होती है । कैसे मोक्ष की प्राप्ति होती है? इनके साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है । किनके साथ उसकी प्राप्ति होती है? [देवासुरमणुयरायविहवेहिं] देवेन्द्र, असुरेन्द्र एवं नरेन्द्र सम्बन्धी वैभवों के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है । उसकी प्राप्ति किसे होती है? [जीवस्स] जीव को उसकी प्राप्ति होती है । जीव को उसकी प्राप्ति किससे होती है? [चरित्तादो] चारित्र से उसकी प्राप्ति होती है । कैसे चारित्र से होती है? [दंसणणाणप्पहाणादो] सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रधान चारित्र से जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
वह इसप्रकार - स्वाधीन ज्ञान-सुख स्वभावी शुद्धात्म-द्रव्य में चंचलता रहित निर्विकार अनुभूतिरूप स्थिरता लक्षण वाले निश्चय चारित्र से जीव के उत्पन्न होता है । क्या उत्पन्न होता है? पराधीन इन्द्रिय जनित ज्ञान-सुख से भिन्न लक्षण वाला स्वाधीन अतीन्द्रिय-रूप उत्कृष्ट ज्ञान-सुख सम्पन्न मोक्ष उत्पन्न होता है । सराग-चारित्र से मुख्यतया देवेन्द्र, असुरेन्द्र एवं नरेन्द्र सम्बन्धी वैभव को उत्पन्न करने वाला विशिष्ट पुण्य बंध होता है, एवं परम्परा से मोक्ष प्राप्त होता है ।
असुरों में सम्यग्दृष्टि कैसे उत्पन्न होता है? यदि ऐसी शंका हो, तो निदान बंध से सम्यक्त्व की विराधना करके वहाँ उत्पन्न होता है- ऐसा जानना चाहिये ।
यहाँ निश्चय से वीतराग-चारित्र उपादेय और सराग-चारित्र हेय है- यह गाथा का भाव है ।
[चारित्तं] चारित्र-रूप कर्ता (इस गाथामें चारित्र 'कर्ता कारक' के स्थान पर है) [खलु धम्मो] स्पष्ट रूप से धर्म है । [धम्मो जो तो समो त्ति णिद्दिट्ठो] जो धर्म है वह शम कहा गया है । [समो] और जो शम है वह [मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु] मोह-क्षोभ से रहित परिणाम है । मोह-क्षोभ से रहित वह शम किसका परिणाम है? वह आत्मा का परिणाम है । [हु] स्पष्टरूप से ।
वह इसप्रकार - शुद्ध चैतन्य स्वरूप मे चरण-प्रवृत्ति-लीनता चारित्र है, वही चारित्र, मिथ्यात्व-रागादि परिणमन रूप भाव संसार में डूबे हुये प्राणियों को निकालकर निर्विकार शुद्ध चैतन्य स्वरूप में धरता है, अत: धर्म है । वही धर्म स्वात्मा के आश्रय से उत्पन्न होने वाले सुखमयी अमृतरूप शीतल जल के द्वारा काम-क्रोधादि-रूप अग्नि से उत्पन्न सांसारिक दुखों-रूप जलन को शान्त करनेवाला होने से शम है; और इसलिये शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन को नष्ट करनेवाला होने से दर्शनमोहनीय नामक (कर्म) मोह कहलाता है, तथा वीतराग स्थिर परिणमन-रूप चारित्र को नष्ट करनेवाला होने से चारित्र-मोहनीय नामक (कर्म) क्षोभ कहलाता है; मोह और क्षोभ- इन दोनों को पूर्णत: नष्ट करने वाला होने से वही शम, मोह-क्षोभ रहित शुद्धात्मा का परिणाम कहलाता है - यह अभिप्राय है ॥७॥
[परिणमदि जेण दव्वं तक्काले तम्मय त्ति पण्णत्तं] द्रव्यरूप कर्ता (इस गाथा में द्रव्य कर्ताकारक के स्थान पर है) जिस पर्याय से परिणमित होता है, [यत:] उस समय उस पर्याय से तन्मय होता है ऐसा कहा गया है, [तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो] अत: धर्म पर्याय से परिणत आत्मा ही धर्म मानना चाहिये ।
वह इसप्रकार- निज शुद्धात्म परिणति रूप निश्चय धर्म, तथा पंच परमेष्ठी आदि के प्रति भक्ति के परिणाम-रूप व्यवहार धर्म कहा गया है क्योंकि उस विवक्षित-अविवक्षित पर्याय से परिणत द्रव्य उस पर्याय- रूप होता है, इसलिये तपे हुए लोहे के गोले के समान, अभेदनय की अपेक्षा पूर्वोक्त दो प्रकार के धर्मरूप परिणत आत्मा ही धर्म है - ऐसा जानना चाहिये ।
धर्मरूप से परिणत आत्मा धर्म क्यों जानना चाहिये? उपादान कारण के समान ही कार्य होता है- ऐसा वचन होने से धर्मरूप परिणत आत्मा धर्म जानना चाहिये । शुद्ध और अशुद्ध उपादान के भेद से वह उपादान कारण भी दो प्रकार का है । आगम भाषा में जिसे शुक्लध्यान कहते हैं वह रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञान केवलज्ञान की उत्पत्ति का शुद्ध उपादान कारण है; तथा अशुद्ध निश्चयनय से अशुद्धात्मा रागादि का अशुद्ध उपादान कारण है । यह गाथा का भाव है ।
[जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा] जीवरूपी कर्ता जब शुभ या अशुभ परिणाम से परिणमित होता है, [सुहो असुहो हवदि] तब शुभ से शुभ-रूप वा अशुभ से अशुभ-रूप होता है । [सुद्धेण तदा सुद्धो हि] और जब शुद्ध परिणाम से परिणमित होता है, तब स्पष्ट-रूप से शुद्ध होता है । जीव कैसा होता हुआ शुभादि-रूप होता है? [परिणामसब्भावो] परिणाम सद्भाव वाला होता हुआ- परिणाम स्वभावी होने से शुभादि-रूप होता है ।
वह इसप्रकार- जैसे अत्यन्त निर्मल स्फटिक-मणि भी जपा के फूल आदि लाल, काले और सफेद रंग रूप उपाधि के वश से लाल, काला व सफेद रंग वाला हो जाता है; उसीप्रकार स्वभाव से शुद्ध-बुद्ध एक स्वरूप वाला होने पर भी यह जीव व्यवहार से गृहस्थ दशा की अपेक्षा यथासंभव सराग सम्यक्त्व-पूर्वक दान-पूजा आदि शुभ क्रिया से, तथा मुनिदशा अपेक्षा मूलगुण-उत्तरगुण आदि शुभ क्रिया से परिणमता हुआ शुभ जानना चाहिये । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग इन पांच (बंध के) कारणों रूप अशुभोपयोग से परिणमता हुआ अशुभ जानना चाहिये; तथा निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग से परिणमता हुआ शुद्ध जानना चाहिये ।
विशेष यह कि सिद्धान्त ग्रन्थों में असंख्यात लोक प्रमाण जीव के परिणाम, मध्यम-रूप से जानकारी कराने की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानरूप से कहे गये हैं । यहाँ प्राभृतशास्त्र (अध्यात्मशास्त्र) में वे ही गुणस्थान संक्षिप्तरूप से अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग रूप से कहे गये हैं ।
प्राभृतशास्त्र में तीन उपयोग किस प्रकार से कहे गये हैं?
- मिथ्यात्व सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से (घटता हुआ) अशुभोपयोग; इसके बाद
- असंयत सम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत - इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से (बढ़ता हुआ) शुभोपयोग; इसके आगे
- अप्रमत्त संयत गुणस्थान से क्षीणकषाय पर्यन्त छह गुणस्थानों में तारतम्य से (बढ़ता हुआ) शुद्धोपयोग,
- इसके बाद सयोगीजिन और अयोगीजिन - ये दो गुणस्थान शुद्धोपयोग के फल हैं
[णत्थि विणा परिणामं अत्थो] सबसे पहले मुक्त जीव में कहते हैं- सिद्ध पर्याय रूप शुद्ध परिणाम के बिना शुद्ध जीव पदार्थ नहीं है । सिद्ध पर्याय के बिना शुद्ध जीव पदार्थ क्यों नहीं है? सिद्ध पर्याय और शुद्ध जीव में नाम लक्षण, प्रयोजन आदि भेद होने पर भी दोनों में प्रदेश-भेद नहीं होने से सिद्ध पर्याय के बिना शुद्ध जीव नहीं है । [अत्थं विणेह परिणामो] इस लोक में मुक्त-स्वरूपी आत्म-पदार्थ के बिना शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण सिद्ध पर्याय-रूप शुद्ध परिणाम नहीं है । मुक्त जीव के बिना सिद्ध पर्याय क्यों नहीं है? मुक्त जीव और सिद्ध पर्याय में नामादि (पूर्वोक्त) भेद होने पर भी प्रदेशभेद नहीं होने से मुक्त जीव के बिना सिद्ध पर्याय नही होती । [दव्वगुणपज्जयत्थो] आत्मस्वरूप द्रव्य, उसमें ही केवलज्ञानादि गुण और सिद्धरूप पर्याय; इसप्रकार कहे गये लक्षण वाले द्रव्य-गुण-पर्याय में रहता है- द्रव्य-गुण-पर्याय में स्थित है । द्रव्य-गुण-पर्यायों में स्थिति करने वाला कर्तारूप वह कौन है? [अत्थो] जैसे सुवर्ण पदार्थ सुवर्ण द्रव्य, पीलेपन आदि गुणों तथा कुण्डल आदि पर्यायों में स्थित है उसीप्रकार परमात्म पदार्थ पूर्वोक्त अपने द्रव्य-गुण-पर्यायों में स्थित है । वह परमात्म-पदार्थ और कैसा है? [अत्थित्तणिव्वत्तो] जैसे सुवर्ण पदार्थ सुवर्ण द्रव्य सुवर्ण-मय गुण और सुवर्णमय पर्यायों रूप अस्तित्व से बना हुआ है, उसीप्रकार परमात्मपदार्थ भी शुद्ध द्रव्य, शुद्ध गुणों, शुद्ध पर्यायों के आधारभूत शुद्ध अस्तित्व से बना होने के कारण अस्तित्व से रचित है ।
यहाँ तात्पर्य यह है कि जैसे मुक्त जीव में द्रव्य-गुण-पर्याय, इन तीनों का परस्पर अविनाभाव दिखाया गया है, उसीप्रकार नय-भेद से संसारी-जीव में भी मतिज्ञानादि विभाव-गुणों और मनुष्य-नारकी आदि विभाव-पर्यायों में परस्पर अविनाभाव यथा-योग्य जान लेना चाहिये । उसी प्रकार पुद्गलादि शेष द्रव्यों में भी द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर अविनाभाव जान लेना चाहिये ॥१०॥
[धम्मेण परिणदप्पा अप्पा] धर्मरूप से परिणत स्वरूप वाला होता हुआ यह आत्मा, [जदि सुद्धसंपयोगजुदो] यदि शुद्धोपयोग है नाम जिसका ऐसे शुद्धसंप्रयोग परिणामरूप परिणत होता है, [पावदि णिव्वाणसुहं] तो मोक्षसुख प्राप्त करता है । [सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं] शुभोपयोग से परिणत होता हुआ स्वर्ग-सुख प्राप्त करता है ।
यहाँ इसका विस्तार करते है- इस गाथा में धर्म शब्द से अहिंसा लक्षण धर्म, गृहस्थ धर्म, मुनि धर्म, उत्तम क्षमादि लक्षण रत्नत्रय स्वरूप धर्म, मोह-क्षोभ रहित आत्मा के परिणाम अथवा वस्तु का शुद्ध स्वभाव ग्रहण किया जाता है । चारित्र ही वास्तविक धर्म है ऐसा वचन होने से, वही धर्म दूसरे शब्दों में चारित्र कहा जाता है । और वह चारित्र अपहृत संयम-उपेक्षा संयम भेद से अथवा सराग-वीतराग भेद से और शुभोपयोग-शुद्धोपयोग भेद से दो प्रकार का है । वहाँ जो शुद्धसंप्रयोग शब्द से कहा जाने वाला शुद्धोपयोग स्वरूप वीतराग चारित्र है उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है । निर्विकल्प समाधि रूप शुद्धोपयोग में रहने की शक्ति का अभाव होने पर जब (पूर्वोक्त जीव) शुभोपयोगरूप सराग-चारित्र से परिणत होता है, तो अनाकुलता लक्षण पारमार्थिक सुख से विपरीत आकुलता पैदा करने वाला स्वर्ग-सुख प्राप्त करता है । तथा बाद में परम समाधिरूप मोक्ष की कारणभूत वीतराग चारित्ररूप सामग्री के सद्भाव में मोक्ष प्राप्त करता है- यह गाथा का भाव है ॥११॥
[असुहोदयेण] अशुभ-कर्म के उदय से, [आदा] आत्मा, [कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो] कुमनुष्य, तिर्यंच, नारकी होकर । इन रूप होकर आत्मा क्या करता है? [दुक्ससहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्चंतं] हजारों दु:खों से हमेशा पीड़ित होता हुआ संसार में दीर्घ काल तक घूमता रहता है ।
वह इसप्रकार- निर्विकार शुद्धात्म तत्त्व की रुचि-रूप निश्चय सम्यग्दर्शन तथा उसी मे निर्विकल्प मनोवृत्तिरूप निश्चयचारित्र से विरुद्ध लक्षण वाले विपरीत मान्यता के उत्पादक, देखे हुए, सुने हुए, भोगे हुए विषयों की इच्छा सम्बन्धी तीव्र संक्लेश परिणाम-रूप अशुभोपयोग से बंधे हुये पाप-कर्मों के उदय में यह आत्मा सहज-शुद्धात्मा के आश्रय से उत्पन्न आनन्द है स्वलक्षण जिसका, ऐसे पारमार्थिक-सुख से विपरीत दुःख से दुखी होता हुआ आत्मस्वभाव की भावना से रहित होकर संसार में दीर्घकाल तक घूमता रहता है- यह तात्पर्य है ॥१२॥
इस प्रकार शुभादि तीनों उपयोगों के फल को बताने वाले चौथे सथल में दो गाथायें समाप्त हुई ।
(अब शुद्धोपयोग के फल अनन्तसुख और शुद्धोपयोगी पुरुषका लक्षण बताने वाला, दो गाथाओं में निबद्ध पाँचवाँ स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब
- शुभोपयोग और अशुभोपयोग- इन दोनों को निश्चयनय से हेय जानकर अधिकार प्रारम्भ करते हुए शुद्धात्म-भावना को आत्मसात् करने वाले-शुद्धोपयोगी जीव के प्रोत्साहन के लिये शुद्धोपयोग का फल प्रकाशित करते हैं-
- अथवा द्रितीय पातनिका- यद्यपि शुद्धोपयोग का फल ज्ञान और सुख आगे संक्षेप-विस्तार से कहेंगे तथापि यहाँ पीठिका में भी सूचना करते हैं -
- अथवा तृतीय पातनिका- पहले (ग्यारहवीं गाथा मे) शुद्धोपयोग का फल निर्वाण कहा था, अब निर्वाण का फल अनन्त सुख कहते हैं -
- [अइसयं] अनादि संसार से देवेन्द्र आदि सम्बन्धी सुख से भी अपूर्व परम आह्लादमय होने से अतिशय स्वरूप है;
- [आदसमुत्थं] रागादि विकल्प रहित निज शुद्धात्मा के आश्रय से उत्पन्न होने के कारण आत्मोत्पन्न है
- [विसयातीदं] निर्विषय परमात्म-तत्त्व से विरुद्ध पाँच इन्द्रियों के विषयों से रहित होने के कारण विषयातीत है;
- [अणोवमं] निरुपम परमानन्द रूप एक लक्षण मय होने से उपमा रहित होने के कारण अनुपम है,
- [अणंतं] अनन्त भविष्यकाल में नष्ट नहीं होने से अथवा असीम होने से अनन्त है,
- [अवुच्छिण्णं च] और असातावेदनीय कर्म के उदय का अभाव हो जाने से हमेशा रहने के कारण विच्छेद रहित अव्याबाध है,
यहाँ यही सुख उपादेय रूप से निरन्तर भावना करने योग्य है - यह भाव है ।
[सुविदिदपयत्थसुत्तो] जिसने संशयादि रहित होने के कारण अच्छी तरह से निज शुद्धात्मा आदि पदर्थों और उनके प्रतिपादक सूत्रों (आगम-जिनवाणी) को जान लिया है, और उनका श्रद्धान किया है, उसे पदार्थों और सूत्रों को अच्छी तरह जाननेवाला कहते हैं । [संजमतवसंजुदो] बाह्य में द्रव्येन्द्रियों से निवृत्त होकर छहकाय के जीवों की रक्षा से और अन्तरंग में अपने शुद्धात्मा के अनुभव के बल से स्वरूप में संयमित होने से जो संयम-सम्पन्न हैं तथा बहिरंग और अन्तरंग तप के बल से काम-क्रोधादि शत्रुओं के द्रारा जिसका प्रताप खण्डित नहीं हुआ है, ऐसे निज शुद्धात्मा मे प्रतापवंत-विजयवंत होने से (स्वरूपलीन होने से) जो तप-सम्पन्न हैं । [विगदरागो] वीतराग शुद्धात्म-भावना के बल से समस्त रागादि दोषों से रहित होने के कारण जो विगतराग हैं । [समसुहदुक्खो] वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न उसीप्रकार परमानन्द सुख-रस में लीन जो निर्विकार स्व-संवेदनरूप उत्कृष्ट कला, उसके अवलम्बन से इष्ट-अनिष्ट पंचेन्द्रिय विषयों में हर्ष-विषाद रहित होने के कारण जो समसुख-दु:ख हैं । [समणो] ऐसे गुणों से समृद्ध श्रमण-उत्कृष्ट मुनि, [भणिदो सुद्धोवओगो त्ति] शुद्धोपयोग कहे गये हैं - यह अभिप्राय है ॥१४॥
इसप्रकार पाँचवें स्थल में शुद्धोपयोग के फलभूत अनन्त-सुख का और शुद्धोपयोगी पुरुष का स्वरूप बताने वाली दो गाथायें समाप्त हुई ।
इसप्रकार यहाँ चौदह गाथाओं द्वारा पाँच स्थलों में विभक्त 'पीठिका' नामक प्रथम अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
इसके बाद सात गाथाओं में निबद्ध सामान्य से सर्वज्ञसिद्धि-ज्ञान विचार और संक्षेप में शुद्धोपयोग का फल बताने वाला दूसरा अन्तराधिकार है । वहाँ चार स्थल हैं-
- उनमें से पहले स्थल में सर्वज्ञ का स्वरूप बताने वाली पहली गाथा और स्वयंभू का कथन करनेवाली दूसरी- इसप्रकार [उवओगविसुद्धो] इत्यादि दो गाथायें हैं ।
- दूसरे स्थल में उन्हीं सर्वज्ञ भगवान के उत्पाद-व्यय-धौव्य की स्थापना करने के लिये पहली गाथा तथा उन्हीं उत्पाद-व्यय-धौव्य को दृढ़ करने के लिये दूसरी- इसप्रकार [भंग विहीणो] इत्यादि दो गाथायें हैं ।
- तीसरे स्थल में सर्वज्ञ की श्रद्धा से अनन्त-सुख होता, इसे दिखाने के लिये [तं सव्वट्ठवरिट्ठं] इत्यादि एक गाथा है ।
- इसके बाद चौथे स्थल में अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख रूप परिणमन को बताने की मुख्यता से पहली गाथा तथा केवली भगवान के कवलाहार निषेध की मुख्यता से दूसरी गाथा- इसप्रकार [पक्खीणघाइकम्मो] इत्यादि दो गाथायें हैं ।
स्थल क्रम | विषय | गाथा | कुल |
---|---|---|---|
प्रथम | सर्वज्ञ एवं स्वयंभू स्वरूप प्रतिपादक | 15-16 | 2 |
द्वीतीय | सर्वज्ञ के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सिद्धि एवं पुष्टि | 17-18 | 2 |
तृतीय | सर्वज्ञ श्रद्धा का फल | 19 | 1 |
चतुर्थ | अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख रूप परिणमन तथा केवली कवलाहार निषेध | 20-21 | 2 |
कुल ४ | कुल 7 |
अब, दूसरे अन्तराधिकार में दो गाथाओं वाला सर्वज्ञ एवं स्वयम्भू प्रतिपादक प्रथम स्थल प्रारम्भ होता वह इसप्रकार -
अब -
- शुद्धोपयोग की प्राप्ति के बाद केवलज्ञान होता है, यह कहते हैं -
- अथवा दूसरी पातनिका - 'कुन्दकुन्दाचार्यदेव’ सम्बोधन करते हैं कि हे 'शिवकुमार महाराज' संक्षिप्त रुचिवाला कोई आसन्न-भव्य पीठिका के व्याख्यान को ही सुनकर अपना कार्य (स्वरूप-लीनतारूप कार्य) कर लेता है । विस्तार रुचि वाला कोई दूसरा, शुद्धोपयोग से उत्पन्न सर्वज्ञ के ज्ञान-सुखादिक का विचार कर बाद में (स्वरूप-लीनतारूप) अपना कार्य करता है; अत: सर्वज्ञ के ज्ञान-सुखादिक की व्याख्या करते हैं -
[उवओगविसुद्धो जो] शुद्धोपयोग रूप परिणाम से विशुद्ध होकर जो हैं [विगदावरणंतरायमोहरओ] ज्ञानावरण, दर्शनावरण अन्तराय और मोहरज रहित होते हुये वर्तते हैं । वे शुद्धोपयोग से विशुद्ध ज्ञानावरणादि रज से रहित कैसे हुये? [सयमेव] निश्चय से स्वयं ही ऐसे हुये । [आदा] वे पूर्वोक्त परमात्मा, [जादि] जाते हैं । वे सर्वज्ञ परमात्मा कहाँ जाते हैं? [पारं] अन्त तक जाते हैं । वे परमात्मा किनके अन्त तक जाते हैं? [णेयभूदाणं] जानने योग्य पदार्थों के अन्त तक जाते हैं । सबको जानते है - यह इसका अर्थ है ।
यहाँ इसका विस्तार करते हैं- आगम भाषा में जिसे पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान कहते हैं, ऐसे निर्मोह स्वभावी निज शुद्धात्मा मे स्थिरतारूप शुद्धोपयोग नामक परिणामों से, पहले सम्पूर्ण मोह का क्षय कर उसके बाद रागादि विकल्परूप उपाधि रहित स्वसम्वेदन सम्पन्न एकत्ववितर्क अवीचार नामक दूसरे शुक्लध्यान के साथ क्षीणकषाय गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त काल ठहरकर उसके ही अन्तिम समय में उन शुद्धोपयोगी जीव के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वीर्यान्तराय नामक तीन घातिकर्म एक साथ नष्ट हो जाते हैं और तीन-लोक तीन-कालवर्ती सम्पूर्ण वस्तुओं में रहनेवाले अनन्त धर्मों को एक साथ प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्रगट हो जाता है ।
इससे फलित हुआ कि शुद्धोपयोग से ही सर्वज्ञ होते हैं ॥१५॥
[तह सो लद्धसहावो] जैसे निश्चय रत्नत्रय लक्षण शुद्धोपयोग के प्रसाद से (यह आत्मा) सभी को जानता है, उसी प्रकार पूर्वोक्त (पन्द्रहवीं गाथा में कहे) शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त करता हुआ, [आदा] यह आत्मा [हवदि सयंभु त्ति णिद्दिट्ठो] स्वयंभू है, ऐसा कहा गया है । वह आत्मा कैसा होता हुआ स्वयंभू है ? [सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो भूदो] सर्वज्ञ और सम्पूर्ण लोक के (विविध) राजाओं द्वारा पूजित होता हुआ स्वयंभू है । वह स्वयंभू कैसे है? [सयमेव] वह निश्चय से स्वयं ही स्वयंभू है ।
वह इसप्रकार-
- अभिन्न कारकरूप ज्ञानानंद एक स्वभाव से स्वतंत्र होने के कारण कर्ता है ।
- नित्यानन्द एक स्वभाव से स्वयं को प्राप्त होने के कारण कर्म कारक है ।
- शुद्ध चैतन्य स्वभाव से साधकतम होने के कारण करण कारक है ।
- वीतराग परमानन्द एक परिणति लक्षण कर्म से समाश्रित होने के कारण (स्वयं को दिया गया होने से) सम्प्रदान है ।
- उसी प्रकार पहले के मति आदि ज्ञान के भेदों का अभाव होने पर भी अखण्डित एक चैतन्य-प्रकाश से अविनाशी होने के कारण अपादान है ।
- निश्चय से शुद्ध चैतन्य आदि गुण स्वभावी आत्मा का स्वयं ही आधार होने के कारण अधिकरण है;
[भंगविहीणो य भवो] विनाश रहित उत्पाद जीवन-मरण आदि में समता-भाव लक्षण परम-उपेक्षा संयम-रूप शुद्धोपयोग से उत्पन्न जो वह केवलज्ञान रूप उत्पाद । वह केवलज्ञानरूप उत्पाद किस विशेषता वाला है ? वह केवलज्ञानरूप उत्पाद विनाश रहित है । [संभवपरिवज्जिदो विणासो त्ति] उत्पाद रहित विनाश है । जो वह मिथ्यात्व रागादि परिवर्तनरूप संसार पर्याय का विनाश है । वह संसार पर्याय का विनाश किस विशेषता वाला है? वह संसार पर्याय का विनाश उत्पाद से रहित है- वीतरागी आत्मतत्त्व से विरुद्ध लक्षण वाले रागादि परिणामों का अभाव होने से उत्पाद से रहित है । इससे जाना जाता है कि उन्हीं भगवान के द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा सिद्ध-स्वरूप से विनाश नहीं है । [विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवाओ] फिर भी उन्हीं के ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय का समवाय (संग्रह) विद्यमान है । उन्हीं भगवान के पर्यायार्थिकनय से शुद्ध व्यंजन पर्याय की अपेक्षा सिद्ध पर्यायरूप से उत्पाद संसार पर्यायरूप से विनाश और केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत द्रव्यपने से धौव्य है ।
इससे सिद्ध हुआ कि द्रव्यार्थिकनय से नित्यपना होने पर भी पर्यायार्थिकनय से उत्पाद-व्यय-धौव्य तीनों पाये जाते हैं ।
[उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स] सभी पदार्थ समूह के उत्पाद और व्यय विद्यमान हैं । सभी पदार्थों के उत्पाद-व्यय किस रूप में विद्यमान हैं? [पज्जाएण दु केणवि] अर्थ-व्यंजन पर्याय-रूप अथवा स्वभाव-विभाव पर्याय-रूप किसी विवक्षित पर्याय से उनके उत्पाद-व्यय विद्यमान है । उत्पाद-व्यय वाले वे पदार्थ किस विशेषता वाले हैं? [अट्ठो खलु होदि सब्भूदो] वास्तव में पदार्थ सत्ताभूत-सत्ता से आभिन्न होते हैं ।
वह इसप्रकार - जैसे लोक में सुवर्ण, गोरस, मिट्टी, पुरुष आदि मूर्त पदार्थों में उत्पाद आदि तीनों प्रसिद्ध हैं, उसीप्रकार अमूर्त मुक्तजीव में भी जानना चाहिये । यद्यपि संसार के विनाश से उत्पन्न शुद्धात्मा में रुचि, जानकारी, निश्चल अनुभूति लक्षण कारण-समयसाररूप पर्याय का विनाश होता है और उसी प्रकार केवल-ज्ञानादि की व्यक्ति (प्रगटता) रूप कार्य-समयसार पर्याय का उत्पाद होता है; तथापि पदार्थ होने के कारण उत्पाद-व्यय दोनों ही पर्यायों रूप से परिणत आत्मद्रव्यत्व की अपेक्षा मुक्त जीव धौव्य रूप हैं ।
अथवा जैसे ज्ञेय पदार्थ प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-धौव्य तीनभंग रूप से परिणमन करते हैं उसीप्रकार ज्ञान भी (ज्ञेय पदार्थ सम्बन्धी) जानकारी की अपेक्षा उत्पाद-व्यय-धौव्य तीनभंग रूप से परिणमित होता है, अथवा षटस्थानगत अगुरुलघुक गुण सम्बन्धी वृद्धि-हानि की अपेक्षा उत्पादादि तीनों भंग जानना चाहिये - यह गाथा का तात्पर्य है ॥१८॥
इस प्रकार सिद्ध जीव में द्रव्यार्थिक-नय से नित्यपना होने पर भी विवक्षित पर्याय से उत्पाद-व्यय-धौव्य की स्थापना रूप से दूसरे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।
[तं सव्व्ट्ठवरिट्ठं] वे सम्पूर्ण पदार्थों में श्रेष्ठ, [इट्ठं] स्वीकृत हैं । वे सर्वोत्कृष्ट (सर्वज्ञ) किनसे स्वीकृत है? [अमरासुरप्पहाणेहिं] देवों और असुरों में प्रधान इन्द्रों से स्वीकृत हैं । [ये सद्दहन्ति] जो श्रद्धा-रुचि करते हैं [जीवा] भव्य जीव; जो भव्य जीव उनकी श्रद्धा करते हैं [तेसिं] उन श्रद्धालु भव्य जीवों के [दुक्खाणि] वीतराग-पारमार्थिक-सुख से भिन्न लक्षणवाले दुःख [खीयंति] नष्ट हो जाते हैं- यह गाथा का अर्थ है ॥१९॥
[पक्खीणघादिकम्मो] ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय स्वरूप परमात्म-द्रव्य की भावना लक्षण शुद्धोपयोग के बल से घातिकर्म रहित होते हुये । [अणंतवरवीरिओ] अनन्त उत्कृष्ट वीर्यवाले है । घातिकर्मों से रहित और अनन्तवीर्य सम्पन्न वे और किन विशेषताओं सहित है? [अहियतेजो] अधिक तेज युक्त हैं । यहाँ तेज शब्द से केवलज्ञान और केवलदर्शन- ये दोनों ग्रहण करना चाहिये । [जादो सो] वे घातिकर्म रहित इत्यादि पूर्वोक्त लक्षण सम्पन्न आत्मा उत्पन्न हुये हैं । वे आत्मा कैसे उत्पन्न हुये हैं? [अणिंदियो] अनिन्द्रिय-इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति से रहित-रूप से उत्पन्न हुये हैं । अनिन्द्रिय होकर वे क्या करते हैं? [णाणं सोक्खं च परिणमदि] केवलज्ञान और अनन्त सुख रूप से परिणमित हैं ।
वह इसप्रकार- इस व्याख्यान से क्या कहा गया है? निश्चय से अनन्त ज्ञान-सुख स्वभावी आत्मा भी व्यवहार से संसार अवस्था में कर्मों से ढंके हुये ज्ञान-सुख रूप होता हुआ, पश्चात् इन्द्रियों के आधार से कुछ थोड़े से ज्ञान और सुख रूप परिणमित होता है । जब निर्विकल्प स्व-संवेदन के बल से कर्म का अभाव होता है, तब क्षयोपशम का अभाव हो जाने से इन्द्रियाँ नहीं होने पर भी अपने अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख का अनुभव करता है ।
इससे यह फलित हुआ कि इन्द्रियों का अभाव होने पर भी अपने अनन्त ज्ञान और सुख का अनुभव होता है । इन्द्रियों के अभाव में अनन्त ज्ञानादि का अनुभव कैसे हो सकता है? स्वभाव को पर की अपेक्षा नहीं होती; अत: इन्द्रियों के बिना भी अनन्त ज्ञानादि का अनुभव हो जाता है- ऐसा अभिप्राय है ॥२०॥
[सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि] सुख अथवा दुःख केवलज्ञानी के नहीं हैं । केवलज्ञानी के कैसे सुख-दुख नहीं हैं? [देहगदं] देह सम्बन्धी- देह के आधारवाली जिह्वा (जीभ) इन्द्रिय आदि से उत्पन्न ग्रासाहार आदि सुख और असाता के उदय से उत्पन्न भूख आदि दुःख केवली-भगवान के नहीं हैं । ये देहगत सुख-दुःख केवली भगवान के क्यों नहीं हैं ? [जम्हा अदिंदियत्तं जादं] क्योंकि वे मोहादि घातिकर्मों का अभाव होने पर पाँच इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति से रहित होते हुये उत्पन्न हुये हैं, अत: उन्हें ये सुख-दुःख नहीं हैं । [तम्हा दु तं णेयं] इसलिये अतीन्द्रियता होने के कारण उनके ज्ञान और सुख अतीन्द्रिय ही जानने चाहिये ।
वह इसप्रकार- जैसे लोहे के गोले के संसर्ग का अभाव होने से अग्नि घन के आघात को प्राप्त नहीं होती, उसीप्रकार यह आत्मा भी लोह-पिण्ड के समान इन्द्रिय-समूह का अभाव होने से सांसारिक सुख-दुःख का अनुभव नहीं करता - यह अर्थ है ॥
यहाँ कोई कहता है- औदारिक शरीर विद्यमान होने से केवली के भोजन है अथवा असातावेदनीय कर्म का उदय होने से हम लोगों के समान उनके भी भोजन होता है? आचार्य इसका निराकरण करते हैं - उन भगवान का शरीर औदारिक नहीं परमौदारिक है । कहा भी है -
'क्षीण दोषवाले वीतराग-सर्वज्ञ जीव के सात-धातु रहित, शुद्ध स्फटिक मणि के समान, अत्यन्त तेजस्वी शरीर होता है ।'
तथा असाता-वेदनीय का उदय होने से उनके भोजन है, ऐसा जो कहते है- वहाँ निराकरण करते हैं - जैसे धान्य आदि बीज जलरूप सहकारी कारण से सहित होने पर अंकुर आदि कार्य को उत्पन्न करता है, उसी प्रकार असाता वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्मरूप सहकारी कारण सहित होने पर ही भूख आदि कार्य उत्पन्न करता है । मोहनीय के सद्भाव में असातावेदनीय भूख आदि कार्य करता है; यह कैसे जाना?
'वेदनीय कर्म मोह के बल से जीव का घात करता है' - ऐसा वचन होने से । और यदि मोह के अभाव में भी वेदनीयकर्म क्षुधादि परिषह उत्पन्न करता है, तो वह वध-रोगादि परिषहों को भी उत्पन्न करे, परन्तु नहीं करता । मोह के अभाव में वेदनीयकर्म वध आदि परिषहों को उत्पन्न नहीं करता- यह कैसे जाना? 'भोजन और उपसर्ग का अभाव होने से' इस वचन से यह जानकारी होती हैं ।
'केवली के भोजन' मानने पर और भी दोष आते हैं । यदि केवली भगवान के क्षुधा की बाधा है तो क्षुधा की उत्पत्तिरूप शक्ति की क्षीणता से उनके अनन्त वीर्य नहीं है; उसीप्रकार क्षुधा से दुःखित जीव के अनन्त सुख भी नहीं है; जिह्वा इन्द्रिय की जानकारीरूप मतिज्ञान से परिणत जीव के केवल-ज्ञान भी सम्भव नही है । अथवा और भी कारण हैं । केवली के असाता-वेदनीय के उदय की अपेक्षा साता-वेदनीय का उदय अनन्तगुणा है । इसलिये शक्कर की राशि में नीम की कणिका के समान असाता-वेदनीय का उदय होने पर भी ज्ञात नहीं होता ।
इसीप्रकार (केवली कवलाहार के विषय मे) और भी बाधक (कारण) हैं-जैसे वेद कषाय का उदय होने पर भी मोह का मंद उदय होने से अखण्ड ब्रह्मचारी प्रमतसंयत आदि मुनिराजों के स्त्री परिषह सम्बन्धी बाधा नहीं होती है; और जैसे नव-ग्रैवियक आदि अहमिन्द्र देवों के वेद कषाय का उदय होने पर भी, मोह का मंद उदय होने से स्त्री विषयक बाधा नहीं होती है; उसीप्रकार भगवान में असातावेदनीय का उदय विद्यमान होने पर भी मोह का पूर्णत: अभाव हो जाने से क्षुधा की बाधा नहीं होती है ।
हमारे ऐसा कहने पर यदि आपके द्वारा फिर से ऐसा कहा जाता है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आहारक हैं '- ऐसा आहारक मार्गणा के प्रकरण में आगम में कहा गया है- इसलिये केवली के आहार है; परन्तु आपका यह कथन उचित नहीं है ।
'नोकर्माहार, कर्माहार, कवलाहार, लेपाहार, ओजाहार और मानसिक आहार- क्रमश: ये छह प्रकार के आहार जानना चाहिये ।'
इसप्रकार गाथा में कहे हुये क्रमानुसार यद्यपि आहार छह प्रकार के है, तथापि केवली के नोकर्माहार अपेक्षा आहारकपना जानना चाहिये; कवलाहार की अपेक्षा नहीं ।
वह इसप्रकार- लाभान्तरायकर्म के सम्पूर्ण क्षय हो जाने से अन्य मनुष्यों के असम्भव कवलाहार के बिना भी कुछ कम पूर्व कोटी पर्यन्त शरीर स्थिति के कारणभूत, सप्तधातु से रहित परमौदारिक शरीर सम्बन्धी नोकर्माहार के योग्य सूक्ष्म, सुरस सुगन्धमय पुद्गल प्रतिक्षण आते रहते हैं -ऐसा नव केवललब्धि व्याख्यान के प्रंसग में कहा गया है । इससे ज्ञात होता है कि नोकर्माहार की अपेक्षा ही केवली के आहारकपना है ।
यहाँ फिर प्रश्न है कि आपकी कल्पना से केवली के आहारक - अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है, कवलाहार की अपेक्षा नहीं है- यह कैसे ज्ञात होता है?
आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं है । 'एक दो अथवा तीन समय तक ही अनाहारक होता है' ऐसा तत्वार्थसूत्र में कहा गया है । इस सूत्र का भाव कहते है- दूसरे भव के प्रति गमन के समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होने पर नवीन शरीर ग्रहण करने के लिये तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल-स्कन्धों का ग्रहण नोकर्माहार कहलाता है; और वह विग्रहगति में कर्माहार विद्यमान होने पर भी एक, दो अथवा तीन समय तक नहीं होता । इसलिये नोकर्माहार की अपेक्षा ही आगम में आहारक और अनाहारकपना जानना चाहिये । यदि यह कवलाहार की अपेक्षा मानते हो तो भोजन के समय को छोड़कर हमेशा अनाहारक ही है, तब तीन समय का नियम घटित नहीं होता ।
यदि आपका यह मत हो कि वर्तमान मनुष्यों के समान, केवलियों के भी मनुष्यपना होने से कवलाहार है। तो (यह भी) उचित नहीं हैं, क्योंकि तब तो यह कहा जा सकता है कि वर्तमान मनुष्यों के समान, पूर्वकालीन पुरुषों के भी सर्वज्ञपना नहीं हैं, और राम-रावण आदि पुरुषों के विशेष सामर्थ्य नहीं है; परन्तु ऐसा तो नहीं है ।
दूसरा तथ्य यह है कि सात धातु रहित परमौदारिक शरीर के अभाव में 'छटवें गुणस्थान तक प्रथम आहार संज्ञा होती है ।' - ऐसा वचन होने से यद्यपि प्रमत्तसंयत नामक छटवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ मुनिराज भी आहार ग्रहण करते हैं; तथापि ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिये ही; देह के प्रति ममत्व के लिये वे आहार ग्रहण नहीं करते ।
'शरीर की स्थिति के लिये आहार है, शरीर ज्ञान के लिये माना गया है, ज्ञान कर्म नष्ट करने के लिये है और कर्मो के नाश से परमसुख होता है ।'
'मुनिराज शरीर के बल व आयु के हेतु से और शरीर के चय (हृष्ट-पुष्टता) के लिये तथा तेज के लिये भोजन नहीं करते; अपितु ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिये भोजन करते हैं ।' (यहाँ 'ण बलाउसाहणट्ठं' के स्थान पर 'ण बलाउसाउअट्ठं' भी पाठ हैं; जिसका अर्थ है - बल, आयु और स्वाद के लिये भोजन नहीं करते ।) उन भगवान के ज्ञान, संयम, ध्यान आदि गुण स्वभाव से ही हैं; आहार के बल से नहीं (अत: एतदर्थ तो कवलाहार नहीं हैं) और यदि देह के ममत्व से आहार ग्रहण करते है, तो वे छद्यस्थों से भी हीनता को प्राप्त होते हैं ।
यहाँ पुन: कोई कहता है कि उनके विशिष्ट अतिशय होने से प्रगट भोजन नहीं है, गुप्त भोजन है ।
आचार्य इसका उत्तर देते हैं कि यदि ऐसा है तो परमौदारिक शरीरपना होने से भोजन ही नहीं है, यही अतिशय क्यों नहीं हो जाता है । वहाँ गुप्त भोजन में मायास्थान (छल) दीनता तथा और भी भोजन सम्बंधी कहे गये अनेक दोष आते हैं । वे अन्यत्र तर्क शास्त्र से जानना चाहिये । यह अध्यात्मग्रन्थ होने से यहाँ नहीं कहे हैं ।
यहाँ भाव यह है कि यह वस्तु का स्वरूप ही है, ऐसा जानकर यहाँ आग्रह नहीं करना चाहिये । आग्रह क्यों नहीं करना चाहिये? दुराग्रह होने पर राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और उससे वीतराग ज्ञानानन्द स्वभावी परमात्मा की भावना नष्ट होती है; अत: आग्रह नहीं करना चाहिये ॥२१॥
इस प्रकार सात गाथाओं वाले चार स्थलों के द्वारा 'सामन्य से सर्वज्ञसिद्धि' नामक दूसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।
अब, 'ज्ञान-प्रपञ्च' नामक तीसरे अन्तराधिकार में ३३ गाथायें हैं । वहाँ आठ स्थल हैं । उनमें से
- पहले स्थल में 'केवलज्ञान में सब प्रत्यक्ष होता है'- इस कथन की मुख्यता से परिणमदो खलु इत्यादि दो गाथायें;
- दूसरे स्थल में 'आत्मा और ज्ञान के निश्चय से असंख्यात प्रदेशी होने पर भी व्यवहार से सर्वगतत्व है' इत्यादि कथन की मुख्यता से आदा णाणपमाणं इत्यादि पाँच गाथायें;
- इसके बाद तीसरे स्थल में 'ज्ञान और ज्ञेय का परस्पर गमन निराकरण' की मुख्यता से णाणी णाणसहावो इत्यादि पाँच गाथायें;
- चौथे स्थल में 'निश्चय-व्यवहार केवली का प्रतिपादन' आदि की मुख्यता से जो हि सुदेण इत्यादि चार गाथायें;
- पाँचवें स्थल में 'वर्तमान ज्ञान में तीन काल सम्बन्धी पर्यायों की जानकारी' के कथनरूप से तक्कालिगेव सव्वे इत्यादि पाँच गाथायें;
- छठे स्थल में 'केवलज्ञान तथा रागादि विकल्प रहित छद्मस्थ-ज्ञान भी बंध का कारण नहीं है, किन्तु रागादि बंध के कारण हैं' इत्यादि निरूपण की मुख्यता से परिणमदि णेयं इत्यादि पाँच गाथायें;
- सातवें स्थल में 'केवलज्ञान-सर्वज्ञान को सर्वज्ञतारूप से प्रतिपादित करते हैं' इत्यादि व्याख्यान की मुख्यता से जं तक्कालियमिदरं इत्यादि पाँच गाथायें; तथा
- अन्तिम आठवें स्थल में 'ज्ञान प्रपंच अधिकार' के उपसंहार की मुख्यता से पहली गाथा और नमस्कार कथनरूप दूसरी गाथा-इसप्रकार ण वि परिणमदि इत्यादि दो गाथायें हैं ।
इसप्रकार आठ स्थलों में विभक्त ३३ गाथाओं में निबद्ध ज्ञानप्रपंच नामक तीसरे अन्तराधिकार की समुदायपातनिका (सामूहिक उत्थानिका) समाप्त हुई ।
<colgroup>
<col><col><col><col>
</colgroup>
ज्ञान-प्रपंच नामक तीसरे अंतराधिकार की सामुदायिक पातनिका | |||
---|---|---|---|
स्थलक्रम | प्रतिपादित संक्षिप्त विषय वस्तु | गाथायें कहाँ से कहाँ तक | कुल गाथायें |
प्रथम | केवलज्ञान के सर्व प्रत्यक्ष है | 22 से 23 | 2 |
द्वितीय | आत्मा और ज्ञान-निश्चय से आत्मगत, व्यवहार से सर्वगत | 24 से 28 | 5 |
तृतीय | ज्ञान-ज्ञेय का परस्पर गमन निराकरण | 29 से 33 | 5 |
चतुर्थ | निश्चय व्यवहार केवली प्रतिपादन | 34 से 37 | 4 |
पंचम | वर्तमान ज्ञान त्रिकालज्ञ | 38 से 42 | 5 |
षष्टम | बंधकारक-ज्ञान नहीं राग है | 43 से 47 | 5 |
सप्तम | केवलज्ञान सर्वज्ञता | 48 से 52 | 4 |
अष्टम | उपसंहार एवं नमस्कार परक | 52 से 54 | 2 |
कुल आठ स्थल | कुल 33 |
[पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया] - सभी द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष हैं । सभी द्रव्य-पर्यायें किनके प्रत्यक्ष हैं? केवली भगवान के । वे क्या करते हुये केवली के प्रत्यक्ष हैं? [परिणमदो] - वे परिणमन करते हुए केवली भगवान के प्रत्यक्ष हैं । [खलु] - वास्तव में । वे सर्व द्रव्य- पर्यायें किस रूप से परिणमन करते हुये केवली के प्रत्यक्ष है? [णाणं] - अनन्त पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञानरूप से परिणमन करते हुये केवली के वे प्रत्यक्ष हैं । तो क्या वे उन्हें क्रम से जानते हैं? [सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं] - और वे भगवान उन्हें अवग्रह पूर्वक क्रियाओं से नहीं जानते हैं, वरन् एक साथ जानते हैं - यह अर्थ है ।
यहाँ इसका विस्तार करते हैं - अनाद्यनन्त, अहेतुक ज्ञानानन्द एक स्वभावी निज शुद्धात्मा को उपादेय कर केवलज्ञान की उत्पत्ति के बीजभूत आगम- भाषा की अपेक्षा शुक्लध्यान नामक रागादि विकल्पजाल रहित स्वसंवेदनज्ञानरूप से जब यह आत्मा परिणमित होता है, तब स्वसंवेदनज्ञान के फलभूत केवलज्ञान स्वरूप जानकारीरूप से परिणत उस आत्मा के उसी क्षण क्रम से प्रवृत्ति करनेवाले क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव होने से; एक साथ स्थित सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप से सभी द्रव्य-गुण-पर्यायें प्रत्यक्ष होती है - यह अभिप्राय है ।
अब पूर्व गाथा (बाईसवीं गाथा) में सब प्रत्यक्ष है- ऐसा अन्वय (अस्ति-विधि) रूप से कथन किया था; यहाँ परोक्ष कुछ भी नहीं है, इसप्रकार उसी अर्थ को व्यतिरेक (नास्ति-निषेध) रूप से दृढ़ करते है -
[णत्थि परोक्खं किंचि वि] - उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है । किस विशेषता वाले उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है? [समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स] - सभी आत्मप्रदेशों से अथवा पूर्णरूप से स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द की जानकारीरूप सभी इन्द्रियों के गुणों से समृद्ध उन केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है । तो क्या इन्द्रियसहित केवली के, कुछ भी परोक्ष नहीं है? ऐसा नहीं है । [अक्खातीदस्स] - इन्द्रिय व्यापार से रहित केवली के, कुछ भी परोक्ष नहीं है ।
अथवा दूसरा व्याख्यान- जो ज्ञान से व्याप्त होता है, जानता है; वह आत्मा है; उस आत्मा के गुणों से समृद्ध इन्द्रिय व्यापार से रहित केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं हैं । [सदा] - हमेशा ही उन्हें कुछ भी परोक्ष नहीं हैं । वे केवली भगवान किस विशेषता वाले हैं? [सयमेव हि णाणजादस्स] - स्वयं ही वास्तव में केवलज्ञानरूप से परिणत उन केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है ।
वह इसप्रकार-अतीन्द्रिय स्वभावी परमात्मा से विपरीत क्रम से प्रवृति की कारणभूत इन्द्रियों से रहित तीनलोक, तीनकालवर्ती समस्त पदार्थों को एक-साथ जानने में समर्थ, अविनाशी, अखण्ड एक-प्रतिभासमय (ज्योतिस्वरूप) केवलज्ञानरूप से परिणत उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है, यह भाव है |
इसप्रकर केवली के सभी प्रत्यक्ष है- इस कथनरूप से प्रथम स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।
(अब, आत्मा और ज्ञान के निश्चय से आत्मगतपना तथा व्यवहार से सर्वगतपना बताने वाली पाँच गाथाओं में निबद्ध दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब, आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान व्यवहार से सर्वगत है; ऐसा उपदेश देते हैं-
[आदा णाणपमाणं] - ज्ञान के साथ हीनाधिकता का अभाव होने से आत्मा ज्ञान प्रमाण है ।
वह इसप्रकार- [समगुणयर्यायं द्रव्यं भवति] - गुण-पर्यायों के बराबर द्रव्य होता है' - ऐसा वचन होने से, जैसे यह आत्मा वर्तमान मनुष्य भव में वर्तमान मनुष्य पर्याय के बराबर है और वैसे ही मनुष्य पर्याय के प्रदेशवर्ती ज्ञानगुण के बराबर प्रत्यक्षरूप से दिखाई देता है; उसी प्रकार यह आत्मा निश्चय से सदैव अव्याबाध अक्षयसुख आदि अनन्त गुणों के आधारभूत केवलज्ञान-गुण के बराबर है ।
[णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठम्] - ईंधन-निष्ठ अग्नि के समान ज्ञान ज्ञेयों के बराबर कहा गया है । [णेयं लोयालोयं] - ज्ञेय लोकालोक है । सर्व प्रकार से आश्रय करने योग्य शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्मद्रव्य आदि छह द्रव्य स्वरूप लोक है, लोक से बाह्य भाग में शुद्ध (मात्र) आकाश अलोक है, और ये लोक एवं अलोक दोनों अपनी-अपनी अनन्त पर्यायों रूप से परिणमन करने के कारण अनित्य भी हैं और द्रव्यार्थिक नय से नित्य भी हैं । [तम्हा णाणं तु सव्वगयं] - जिस कारण से निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग की भावना के बल से उत्पन्न जो केवलज्ञान वह टंकोत्कीर्ण (टाँकी से उकेरे गये) आकार को जाननेरूप न्याय से हमेशा ज्ञेयों को जानता है, उसकारण व्यवहार से ज्ञान सर्वगत कहा गया है ।
इससे यह सिद्ध हुआ कि आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान सर्वगत है ।
[णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह] इस लोक में जिस वादी के मत में ज्ञान के बराबर आत्मा नहीं है । [तस्स सो आदा] उसके मत में वह आत्मा [हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव] - निश्चित ही ज्ञान से कम अथवा ज्यादा है ॥२५॥
[हीणो जदि सो आदा तं णाणमचेदणं ण जाणादि] जैसे अग्नि का अभाव होने पर उसका उष्णगुण ठंडा हो जाता है; उसीप्रकार यदि आत्मा को ज्ञान से कम माना जावे तो अपने आधारभूत चेतनात्मक द्रव्य के संयोग का अभाव हो जाने से, उस आत्मा का ज्ञान अचेतन होता हुआ कुछ भी नहीं जानता है । [अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि] और जैसे उष्ण गुण के नहीं होने पर अग्नि ठंडी होती हुई जलाने का कार्य करने में असमर्थ है; उसीप्रकार यदि आत्मा को ज्ञान से अधिक माना जावे, तो ज्ञान गुण के बिना आत्मा भी अचेतन होता हुआ कैसे जानने में समर्थ हो सकता है, अर्थात् जानने में समर्थ नहीं हो सकता ।
यहाँ भाव यह है कि जो कोई आत्मा को अंगूठे के पर्व (पोर) जितना श्यामाक (सावाँ) चावल जितना अथवा वटक कणिका (छोटे पिण्ड के अत्यन्त छोटे हिस्से) जितना - इत्यादि आकार वाला मानते हैं; उन सभी की मान्यताओं का इस कथन से निराकरण हुआ; तथा जो सात समुद्घातों को छोड़कर देह प्रमाण से भी अधिक प्रमाणवाला आत्मा को मानते हैं; उनकी मान्यताओं का निराकरण भी इस कथन से हो गया ॥२६॥
अब जैसे पहले (२४ वीं गाथा में) ज्ञान को सर्वगत कहा था, उसीप्रकार सर्वगत ज्ञान की अपेक्षा भगवान भी सर्वगत हैं यह ज्ञान कराते हैं -
[सव्वगदो] सर्वगत हैं । कर्तारूप वे सर्वगत कौन हैं? [जिणवसहो] - सर्वज्ञ सर्वगत हैं । सर्वज्ञ सर्वगत क्यों हैं? [जिणो णाणमयादो य] - सर्वज्ञ-जिन ज्ञानमय होने के कारण सर्वगत हैं । [सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा] - और वे जगत् के सभी पदार्थ, दर्पण में बिम्ब के समान, व्यवहार से उन भगवान में गये हैं । वे पदार्थ भगवान में गये हैं, यह कैसे जाना? [ते भणिया] - वे पदार्थ वहाँ गये हैं - ऐसा कहा गया है । [विषयादो] - ज्ञान के विषय - ज्ञेय होने से वे पदार्थ भगवान में गये हैं - ऐसा कहा गया है । किसके ज्ञेय होने से वे गये हुये कहे गये हैं? [तस्स] - भगवान के ज्ञेय होने से वे भगवान में गये हुये कहे गये हैं ।
वह इसप्रकार - जो अनन्तज्ञान और अनाकुलता लक्षण अनन्तसुख का आधार है वह आत्मा है ।
ऐसा होने से आत्मप्रमाण ज्ञान आत्मा का अपना स्वरूप है । ऐसे अपने स्वरूप को तथा शरीर में रहने रूप स्थिति को नहीं छोड़ते हुये ही वे सर्वज्ञ लोकालोक को जानते हैं । इसलिये व्यवहार से भगवान सर्वगत कहे गये हैं । और दर्पण में बिम्ब के समान क्योंकि नीले, पीले आदि बाह्य पदार्थ जानकारी-रूप से ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं (झलकते है), इसलिये पदार्थों के कार्यभूत पदार्थाकार भी पदार्थ कहलाते हैं और वे ज्ञान में स्थित हैं - ऐसे कथन में दोष नही है - यह अभिप्राय है ।
अब ज्ञान आत्मा है, परन्तु आत्मा ज्ञान अथवा सुखादि भी है, ऐसा प्रतिपादित करते हैं -
[णाणं अप्प त्ति मदं] - ज्ञान आत्मा है, यह स्वीकृत है । ज्ञान आत्मा है - ऐसा क्यों स्वीकार किया गया है ? [वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं] - ज्ञानरूप कर्ता स्वजीव के बिना अन्यत्र घड़े, कपड़े आदि में नहीं रहता हैं । [तम्हा णाणं अप्पा] - इससे जाना जाता है कि कथंचित् ज्ञान आत्मा ही है । इसप्रकार गाथा के तीन चरणों से ज्ञान का कथंचित् आत्मत्व स्थित हुआ । [अप्पा णाणं व अण्णं वा] - आत्मा ज्ञानधर्म की अपेक्षा ज्ञान है; सुख, वीर्य आदि धर्मों की अपेक्षा अन्य भी है; नियम नही है ।
वह इसप्रकार - यदि एकान्त से "ज्ञान आत्मा है" - यह कहा जाये तो ज्ञान गुण मात्र ही आत्मा प्राप्त होता है, सुखादि धर्मों के लिये स्थान नहीं रहता । ऐसी स्थिति में सुख, वीर्य आदि धर्म-समूहों का अभाव होने से आत्मा का अभाव होगा । आधारभूत आत्मा का अभाव होने पर आधेयभूत ज्ञानगुण का भी अभाव होगा - इसप्रकार एकान्त मानने पर दोनों का ही अभाव हो जाएगा । इसलिये आत्मा कथंचित् ज्ञान है, सर्वथा नहीं ।
यहाँ अभिप्राय यह है कि आत्मा व्यापक है और ज्ञान व्याप्य; इसलिये ज्ञान आत्मा हो परन्तु आत्मा ज्ञान भी है और अन्य भी है ।
वैसा ही कहा भी है - 'व्यापक तद् और अतद् दोनों में रहता है परन्तु व्याप्य मात्र तद् में ही रहता है । '
इसप्रकार (क्षेत्र अपेक्षा) आत्मा और ज्ञान का एकत्व तथा व्यवहार से ज्ञान का सर्वगतत्व इत्यादि कथनरूप से दूसरे स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।
अब ज्ञान और ज्ञेय का परस्पर गमन-निराकरण प्रतिपादक (एक दूसरे में जाने के निषेध परक) पाँच गाथाओं में निबद्ध तीसरा स्थल आरम्भ होता है ।
अब ज्ञान ज्ञेय के समीप नहीं जाता; यह निश्चित करते हैं -
[णाणी णाणसहावो] - ज्ञानी सर्वज्ञ केवलज्ञान स्वभावी ही हैं । [अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स] - तीनलोक, तीनकालवर्ती पदार्थ ज्ञेयस्वरूप ही हैं, ज्ञानस्वरूप नहीं हैं । वे सभी पदार्थ किसके ज्ञेय स्वरूप हैं? वे ज्ञानी के ज्ञेय स्वरूप हैं । [रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वट्टन्ति] - ज्ञानी और पदार्थ परस्पर में एकपने से प्रवृत्ति नहीं करते । ज्ञानी और पदार्थ किसके समान, किससे सम्बन्धित परस्पर में प्रवृत्ति नहीं करते? जैसे नेत्र और रूप परस्पर में प्रवृत्ति नहीं करते, उसीप्रकार वे दोनों आपस में प्रवृत्ति नहीं करते हैं ।
वह इसप्रकार - जैसे रूपी द्रव्य नेत्र के साथ परस्पर में सम्बन्ध का अभाव होने पर भी अपने आकार को समर्पित करने में समर्थ हैं और नेत्र भी उनके आकार को ग्रहण करने में समर्थ हैं, उसी प्रकार तीनलोक रूपी उदरविवर (छिद्र) में स्थित, तीनकाल सम्बन्धी पर्यायों से परिणमित पदार्थ, ज्ञान के साथ परस्पर प्रदेशों का सम्बन्ध नहीं होने पर भी अपने आकार को समर्पित करने में समर्थ हैं; अखण्ड एक प्रतिभासमय केवलज्ञान भी उनके आकारों को ग्रहण करने में समर्थ है - यह भाव है ।
[ण पविट्ठो] - निश्चयनय से प्रविष्ट नहीं है । [णाविट्ठो] - व्यवहार से अप्रविष्ट नहीं, वरन् प्रविष्ट ही है । प्रविष्ट-अप्रविष्ट नहीं होने वाला कर्तारूप वह कौन है? [णाणी] - ज्ञानीरूप कर्ता प्रविष्ट और अप्रविष्ट नहीं है । ज्ञानी प्रविष्ट- अप्रविष्ट किनमें नहीं है? [णेयेसु] - वह ज्ञेय पदार्थो में प्रविष्ट-अप्रविष्ट नहीं है । ज्ञानी किसके समान उनमें प्रविष्ट-अप्रविष्ट नहीं है? [रूवमिवचक्खू] - रूप के सम्बन्ध में नेत्र के समान ज्ञानी उनमें प्रविष्ट-अप्रविष्ट नहीं है । ऐसा होता हुआ ज्ञानी क्या करता है? [जाणदि पस्सदि] - उन्हें जानता और देखता है । [णियदं] - वह उन्हें संशयरहित जानता-देखता है । वह जानने-देखने वाला ज्ञानी किस विशेषता वाला है? वह [अक्खातीदो] - अक्षातीत-इन्द्रिय रहित है । वह किसे जानता-देखता है? [जगमसेसं] - वह समूर्ण जगत् को जानता-देखता है ।
वह इसप्रकार - जैसे नेत्ररुपी कर्ता यद्यपि निश्चय से रूपी द्रव्यों को स्पर्श नहीं करता, तथापि व्यवहार से लोक में स्पर्श करते हुए के समान ज्ञात होता है; उसीप्रकार यह आत्मा केवलज्ञान से पूर्व मिथ्यात्व-रागादि आस्रव और आत्मा के बीच में होने वाले विशिष्ट भेदज्ञान से उत्पन्न होनेवाले केवलज्ञान और केवलदर्शन से तीनलोक और तीनकालवर्ती पदार्थों को निश्चय से स्पर्श नहीं करता हुआ भी व्यवहार से स्पर्श करता है; तथा स्पर्श करते हुए के समान ज्ञान से जानता और दर्शन से देखता है । वह आत्मा कैसा होता हुआ जानता और देखता है ? अतीन्द्रिय सुखरूप आस्वाद से परिणत (स्वाद का आस्वादी) होता हुआ अक्षातीत होता हुआ उन सबको जानता और देखता है ।
इससे ज्ञात होता है कि निश्चय से अप्रवेश के समान ज्ञेय पदार्थों में व्यवहार से प्रवेश भी घटित होता है ।
[रयणं] - रत्न, [इह] - इस लोक में । इस लोक में किस नाम वाला रत्न? [इंदणीलं] - इन्द्रनील नामक रत्न । वह इन्द्रनील नामक रत्न किस विशेषता वाला है? [दुद्धज्झसियं] - दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न, [जहा] - जैसे [सभासाए] - अपनी प्रभा से [अभीभूय] - तिरस्कृत कर । इन्द्रनील रत्न अपनी प्रभा से किसे तिरस्कृत कर ? [तं पि दुद्धं] - वह रत्न अपनी प्रभा से उस पूर्वोक्त दूध को तिरस्कृत कर, [वट्टदि] - वर्तता है । इसप्रकार दृष्टान्त पूर्ण हुआ । [तह णाणमत्त्थेसु] - उसी प्रकार ज्ञान पदार्थों में वर्तता है ।
वह इसप्रकार- जैसे इन्द्रनील रत्नरूप कर्ता अपनी नील प्रभारूप साधन से दूध को नीला करके वर्तता है, उसी प्रकार निश्चय रत्नत्रय स्वरूप परमसामायिक संयम से उत्पन्न हुआ जो केवलज्ञान वह स्व-पर को जाननेरूप सामर्थ्य से सम्पूर्ण अज्ञान-रूपी अन्धकार को तिरस्कृत कर एक साथ ही सभी पदार्थों में ज्ञानाकार रूप से वर्तता है ।
यहाँ भाव यह है - कारणभूत सभी पदार्थों के कार्यभूत ज्ञानाकार उपचार से 'अर्थ' कहलाते हैं और उनमें ज्ञान वर्तता है; अत: अर्थों मे ज्ञान वर्तता है - इस कथन में भी व्यवहार से दोष नहीं है ।
[जइ] - यदि [ते अट्ठा न सन्ति] - वे पदार्थ अपने ज्ञानाकार समर्पण की अपेक्षा दर्पण में बिम्ब के समान नहीं हैं । दर्पण में बिम्ब के समान वे पदार्थ कहाँ नहीं हैं? [णाणे] - यदि वे पदार्थ केवलज्ञान में नहीं हैं । [णाणं ण होदि सव्वगयं] - तो ज्ञान सर्वगत नहीं हो सकता । [सव्वगयं वा णाणं] - यदि आपको व्यवहार से सर्वगत ज्ञान स्वीकृत है, [कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा] - तो अपने ज्ञेयाकारों को जानकारी रूप से समर्पित करने की अपेक्षा व्यवहारनय से वे पदार्थ ज्ञान में स्थित कैसे नहीं हैं, वरन् हैं ही ।
यहाँ अभिप्राय यह है कि जिस कारण व्यवहार से ज्ञेय सम्बन्धी ज्ञानाकारों को ग्रहण करने की अपेक्षा ज्ञान सर्वगत कहलाता है, उसी कारण व्यवहार से ज्ञेय सम्बन्धी ज्ञानाकार समर्पण की अपेक्षा पदार्थ भी ज्ञानगत कहलाते हैं ।
अब, यद्यपि व्यवहार से ज्ञानी का पदार्थों के साथ ग्राह्यग्राहक-ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध है, तथापि संश्लेषादि सम्बन्ध नहीं है, अत: ज्ञेय पदार्थों के साथ उनकी भिन्नता ही है; ऐसा प्रतिपादित करते हैं -
[गेण्हदि णेव ण मुंचदि] - ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं हैं, [ण परं परिणमदि] - परद्रव्य रूप ज्ञेय पदार्थों का परिणमन नहीं करते । ग्रहण करने, छोड़ने और परिणमन करनेरूप क्रिया को नहीं करने वाले कर्तारूप वे कौन हैं? [केवली भगवं] - केवली भगवान--सर्वज्ञ परद्रव्य को
- ग्रहण नहीं करते,
- छोड़ते नहीं हैं,
- परिणमन नहीं करते ।
अथवा दूसरा व्याख्यान - यतः सर्वज्ञ अन्तरंग में काम-क्रोधादि को एवं बाह्य विषयों में पंचेन्द्रिय विषयादिक बाह्य द्रव्य को ग्रहण नहीं करते, अपने अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय को छोड़ते नहीं हैं, अत: ये जीव केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय से ही एक साथ सबको जानते हुए अन्य विकल्परूप परिणमित नहीं होते । ऐसे होते हुये वे केवली क्या करते हैं? आत्मतत्त्व से उत्पन्न केवलज्ञानरुपी ज्योति द्वारा स्फटिक मणि के समान अत्यन्त स्थिर चैतन्य-प्रकाशरूप होकर अपने आत्मा को, अपने आत्मा द्वारा, अपने आत्मा में अनुभव करते हैं।
इस कारण भी परद्रव्य के साथ ज्ञान की पृथकता ही है - यह अभिप्राय है ।
इसप्रकार ज्ञान ज्ञेयरूप से परिणमित नहीं होता, इत्यादि व्याख्यानरूप तीसरे स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब निश्चय-व्यवहार केवली के प्रतिपादन की मुख्यता वाला चार गाथाओं में निबद्ध चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब, जैसे निरावरण, परिपूर्ण प्रगट स्वरूप केवलज्ञान से आत्मा का परिज्ञान होता है; उसी प्रकार सावरण, अल्पप्रगट-स्वरूप केवलज्ञान की उत्पत्ति के बीजभूत, स्वसंवेदन ज्ञानरूप भाव-श्रुतज्ञान से भी आत्मा का परिज्ञान होता है - यह निश्चित करते हैं ।
अथवा द्वितीय पातनिका - जैसा केवलज्ञान प्रमाण है, उसीप्रकार केवलज्ञान द्वारा दर्शाये गये पदार्थों को प्रकाशित करने वाला श्रुतज्ञान भी परोक्ष प्रमाण है । इसप्रकार दोनों पातनिकाओं को मन में धारण कर इस गाथा का प्रतिपादन करते हैं -
[जो] - जो कर्ता, [हि] - स्पष्टरूप से, [सुदेण] - निर्विकार स्वसंवेदनरूप भाव-श्रुत परिणाम द्वारा [विजाणदि] - विशेषरूप से जानता है -- विषय सुख सम्बन्धी आनन्द से विलक्षण निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परमानन्द एक स्वरूपी सुखरस के आस्वादरूप अनुभव करते हैं । भाव-श्रुत परिणाम द्वारा किसका अनुभव करता है? [अप्पाणं] - निजात्मद्रव्य का भाव-श्रुतजान द्वारा अनुभव करता है । ऐसे निजात्मद्रव्य का अनुभव कैसे करता है? [सहावेण] - सम्पूर्ण विभाव रहित अपने स्वभाव से अनुभव करता है । [तं सुयकेवलिं] - उन आत्मानुभवी महायोगीन्द्र को श्रुतकेवली [भणंति] - कहते हैं । उन्हें श्रुतकेवली कर्तारूप कौन कहते हैं? [इसिणो] - ऋषी उन्हें श्रुतकेवली कहते हैं । वे ऋषी किस विशेषता वाले हैं? [लोयप्पदीवयरा] - वे लोक को प्रकाशित करने वाले हैं ।
यहाँ विस्तार करते हैं - परद्रव्य से रहितपने रूप एक साथ परिपूर्ण सम्पूर्ण चैतन्य की समृद्धि से सम्पन्न केवलज्ञान द्वारा जैसे, अनादि-अनन्त, अहेतुक, अन्य द्रव्यों से असाधारण स्वानुभूति-गम्य परम चैतन्य सामान्य स्वरूपवाले मात्र आत्मा का आत्मा में स्वानुभव करने से भगवान केवली हैं, उसीप्रकार ये गणधरदेव आदि निश्चय रत्नत्रय के आराधक मनुष्य भी पूर्वोक्त लक्षण वाले आत्मा का भाव-श्रुतज्ञान द्वारा स्वसंवेदन करने से निश्चय श्रुतकेवली हैं ।
विशेष यह है कि जैसे कोई देवदत्त दिन में सूर्य का उदय होने से देखता है, रात्रि में दीपक से कुछ देखता है; उसीप्रकार केवली भगवान सूर्य के उदय के समान केवलज्ञान से दिन के समान मोक्ष पर्याय में भगवान आत्मा को देखते हैं तथा संसारी ज्ञानीजन रात्रि के समान संसार पर्याय में दीपक के समान रागादि विकल्पों से रहित परम समाधि से निजात्मा को देखते हैं ।
यहाँ अभिप्राय यह है कि आत्मा परोक्ष है, कैसे ध्यान कर सकते हैं, ऐसे संदेह को धारण कर परमात्म-भावना नहीं छोड़ना चाहिये ।
अब, व्यवहार से शब्दरूप द्रव्यश्रुत ज्ञान है, तथा निश्चय से पदार्थों की जानकारी रूप भावश्रुत ही ज्ञान है, ऐसा कहते है ।
अथवा, आत्मभावना में लीन निश्चय श्रुतकेवली हैं ऐसा पिछली गाथा (गाथा ३४) में कहा था । इस गाथा में ये व्यवहार-श्रुतकेवली हैं ऐसा कहते हैं -
[सुत्तं] - द्रव्यश्रुत । वह द्रव्यश्रुत कैसा है? [जिणोवदिट्ठम्] - जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है । वह द्रव्यश्रुत जिनेन्द्र भगवान ने कैसे कहा है? [पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं] - पुद्गलद्रव्यात्मक दिव्यध्वनि-रूप वचनों से वह द्रव्यश्रुत जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । [तं जाणणा हिणाणं] - उस पूर्वोक्त शब्दश्रुत के आधार से ज्ञप्ति-पदार्थों की जानकारी ज्ञान कहलाती है, [हि] - वास्तव में । [सुत्तस्स य जाणणा भणिया] - इसलिये व्यवहार से पूर्वोक्त द्रव्यश्रुत की भी ज्ञान संज्ञा है, परन्तु निश्चय से नहीं । वह इसप्रकार --
जैसे निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव सम्पन्न जीव है, पश्चात् व्यवहार से नर-नारकादि रूप भी जीव कहा जाता है, उसीप्रकार निश्चय से समस्त वस्तुओं को जाननेवाला अखण्ड एक प्रतिभासरूप ज्ञान कहा गया है, पश्चात् व्यवहार से मेघसमूह से ढंके हुये सूर्य की विशिष्ट अवस्था के समान कर्मसमूह से ढंके हुये अखण्ड एक ज्ञानरूप जीव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि नाम होते हैं - यह भाव है ।
अब भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं होता, ऐसा उपदेश देते हैं -
[जो जाणदि सो णाणं] - कर्तारूप (जानने की क्रिया करनेवाला) जो जानता है वह ज्ञान है । वह इसप्रकार - जैसे नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि के भेद होने पर भी अभेदनय से जलाने की क्रिया करने में समर्थ उष्णगुण से परिणत अग्नि भी उष्ण कहलाती है, उसी प्रकार पदार्थों को जानने सम्बन्धी क्रिया करने में समर्थ ज्ञान गुण से परिणत आत्मा भी ज्ञान कहलाता है ।
वैसे ही कहा है - "[जानातीति ज्ञानमात्मा] - जो जानता है वह ज्ञान-आत्मा है । [ण हवदि णाणेण जाणगो आदा] - आत्मा सर्वथा ही भिन्न ज्ञान से ज्ञानी नहीं है । यहाँ कोई कहता है - जैसे देवदत्त स्वयं से भिन्न दात्र (हंसिया) से लावक (काटने-छेदने वाला) है, उसीप्रकार आत्मा भी भिन्न ज्ञान से ज्ञायक हो, क्या दोष है? आचार्य कहते हैं - ऐसा नहीं है । छेदन क्रिया के विषय में बहिरंग साधनरूप दात्र देवदत्त से भिन्न (भले ही) हो, परन्तु छेदन क्रिया के विषय में अंतरंग साधनरूप देवदत्त की शक्ति विशेष उससे अभिन्न ही है; उसी प्रकार पदार्थों की जानकारी के विषय में अंतरंग साधनरूप ज्ञान आत्मा से अभिन्न ही है, बहिरंग साधनरूप उपाध्याय-अध्यापक, प्रकाश आदि आत्मा से भिन्न भी हों, दोष नहीं है । और यदि भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी है तो दूसरे के ज्ञान से घड़े, खम्भे आदि सभी जड़ पदार्थ भी ज्ञानी हो जावें, परन्तु वे ज्ञानी नहीं होते ।
[णाणं परिणमदि सयं] - क्योंकि भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं है, इसलिये घट की उत्पत्ति में मिट्टी के पिण्ड समान उपादान रूप से स्वयं जीव ही ज्ञानरूप परिणमन करता है । [अट्ठा णाणट्ठियो सव्वे] - दर्पण में झलकने वाले बिम्ब के समान व्यवहार से ज्ञेय पदार्थ जानकारी रूप से ज्ञान में स्थित हैं - यह अभिप्राय है ।
अब आत्मा ज्ञान है और शेष ज्ञेय हैं, ऐसा निरूपण करते हैं -
[तम्हा णाणं जीवो] - क्योंकि आत्मा ही उपादान रूप से ज्ञानरूप परिणमित है, उसी प्रकार पदार्थों को जानता है, ऐसा पहले गाथा (३६) में कहा था, अत: आत्मा ही ज्ञान है । आत्मा का ज्ञेय कौन है? द्रव्य आत्मा का ज्ञेय है । [तिहा समक्खादं] - और वह द्रव्य तीन कालवर्ती पर्यायों की परिणति रूप से अथवा द्रव्य-गुण-पर्याय रूप से और उसी प्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप से तीन प्रकार का कहा गया है । [दव्वं ति पुणो आदा परं च] - और वह ज्ञेयभूत द्रव्य आत्मा और पर है । ज्ञेयभूत द्रव्य आत्मा और पर कैसे है? दीपक के समान ज्ञान स्व और पर को जानता है; अत: ज्ञेयभूत् द्रव्य स्व और पर हैं । और वे स्व-पर द्रव्य कैसे हैं? [परिणामसंबद्धं] - वे स्व-पर द्रव्य कथंचित् परिणामी हैं - यह अर्थ है ।
यहाँ नैयायिक मत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है - घट आदि के समान प्रमेयता होने से ज्ञान ज्ञानान्तर से (अन्य ज्ञान से) जानने योग्य है? आचार्य उसका निराकरण करते है - आपका यह कथन दीपक के साथ दोष को प्राप्त है । जिसप्रकार दीपक प्रमेय-परिच्छेद्य-ज्ञेय -- जानने योग्य होने पर भी दूसरे दीपक से प्रकाशित नही होता (अपितु स्वयं प्रकाशित है); उसी प्रकार ज्ञान भी स्वयं ही स्वयं को प्रकाशित करता है, दूसरे ज्ञान से प्रकाशित नही होता । यदि वह ज्ञान स्वयं को प्रकाशित न करता हुआ दूसरे ज्ञान से प्रकाशित हो तो आकाश व्यापी महान दुर्निवार अनवस्था प्राप्त होती है - यह गाथा का अर्थ है ।
इसप्रकार निश्चय-श्रुतकेवली - व्यवहार-श्रुतकेवली कथन की मुख्यता से, भिन्न ज्ञान निराकरण और ज्ञान-ज्ञेय स्वरूप कथन से चौथे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब वर्तमान ज्ञान तीन काल को जानता है, इस तथ्य का प्रतिपादक पाँच गाथाओं में निबद्ध पाँचवां स्थल प्रारम्भ होता है)
अब, भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में विद्यमान--वर्तमान की भांति दिखाई देती हैं; ऐसा निरूपण करते हैं -
[सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया] - जो सभी विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें हैं, [हि] - वास्तव में, [वट्टन्ते ते] - वे पूर्वोक्त सभी पर्यायें वर्तती हैं, प्रतिभासित होती हैं, ज्ञात होती हैं । विद्यमान-अविद्यमान वे सभी पर्यायें कहाँ वर्तती हैं? [णाणे]- वे सभी पर्यायें केवलज्ञान में वर्तती हैं । वे पर्यायें किसके समान केवलज्ञान में वर्तती हैं? [तक्कालिगेव] - वे वर्तमान पर्यायों के समान केवलज्ञान में वर्तती हैं । वे पर्यायें किनसे सम्बन्धित--किनकी हैं? [तासिं दव्वजादीणं] - उन प्रसिद्ध शुद्ध जीवद्रव्य आदि द्रव्य-जातियों--समूहों की वे पर्यायें हैं । केवलज्ञान में एक साथ वर्तते हुये भी वे सभी पर्यायें परस्पर सम्बन्ध रहित हैं । युगपत् वर्तती हुई वे पर्यायें सम्बन्ध रहित कैसे हैं? [विसेसदो] - अपने-अपने प्रदेश, काल, आकार रूप विशेषों के द्वारा संकर, व्यतिकर दोषों के निराकरण रूप रहने के कारण वे सर्व पर्यायें परस्पर सम्बन्ध रहित हैं - यह अर्थ है ।
विशेष यह है कि जैसे मन में विचार करते हुये छद्मस्थ पुरुष के भूत-भावि पर्यायें स्फुरायमान होती हैं, और जैसे चित्र-दीवाल पर (दीवाल पर बने हुये चित्रों में) बाहुबली-भरत आदि भूतकालीन रूप और श्रेणिक-तीर्थंकर आदि भावि रूप वर्तमान के समान प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उसीप्रकार चित्र-दीवाल के स्थानीय (समान) केवलज्ञान में भूत-भावि पर्यायें एक साथ प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं, एक साथ दिखाई देने में कुछ भी विरोध नही है ।
जैसे ये केवली भगवान परद्रव्य-पर्यायों को जानकारी मात्र से जानते हैं, तन्मयरूप से नहीं, निश्चय से केवलज्ञानादि गुणों की आधारभूत अपनी सिद्ध-पर्याय को ही केवली-भगवान स्वसंवित्ति आकार से तन्मय होकर जानते हैं; उसीप्रकार आसन्न-भव्य जीव को भी निज शुद्धात्मा के सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय पर्याय ही सर्व प्रयोजन से जानने योग्य है - यह तात्पर्य है ।
[जे णेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया] - जो आज तक उत्पन्न नहीं हुई हैं, अर्थात् भविष्य-कालीन पर्यायें और वास्तव में नष्ट हुई पर्यायें । वे पर्यायें क्या करके नष्ट हुई हैं ? उत्पन्न हो कर वे पर्यायें नष्ट हुई हैं । [ते होंति असब्भूदा पज्जाया] - वे पूर्वोक्त भूत-भावि पर्यायें विद्यमान नहीं होने से असद्भूत कही जाती हैं । [णाणपच्चक्खा] - विद्यमान नहीं होने से वे असद्भूत हैं तो भी वर्तमान ज्ञान की विषय होने के कारण व्यवहार से भूतार्थ कही जाती हैं, और उसीप्रकार वे ज्ञान प्रत्यक्ष भी होती हैं ।
जैसे ये भगवान निश्चय से परमानन्द एक लक्षण सुख स्वभावमय मोक्ष-पर्याय को ही तन्मयतापूर्वक जानते हैं परद्रव्य-पर्यायों को तो व्यवहार से जानते हैं; उसीप्रकार आत्मा की भावना करने वाले पुरुष के द्वारा रागादि विकल्पों की उपाधि रहित स्वसंवेदन पर्याय ही प्रधानता से जानने योग्य है, बाह्य द्रव्य और पर्यायें तो गौणरूप से हैं - यह भाव है ।
[जइ पच्चक्खमजायं पज्जायं पलइयं च णाणस्स ण हवदि वा] - यदि प्रत्यक्ष नहीं है । वह कौन प्रत्यक्ष नहीं है ? भविष्यकालीन पर्याय । भविष्यकालीन पर्याय ही नहीं, अपितु भूतकालीन पर्याय भी । भूत-भावि पर्याय किसके प्रत्यक्ष नहीं है? भूत-भावि पर्याय ज्ञान (केवलज्ञान) के प्रत्यक्ष नहीं है (तो) । [तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति] - उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगें? कोई भी नहीं कहेगें ।
वह इसप्रकार - क्रम और साधन सम्बन्धी बाधा से रहित होने के कारण यदि ज्ञानरूप कर्ता वर्तमान पर्याय के समान भूत-भावि पर्यायों को साक्षात् प्रत्यक्ष नहीं करता, तो वह ज्ञान दिव्य नहीं है । वास्तव में वह ज्ञान ही नहीं है ।
जैसे, केवली भगवान यद्यपि परद्रव्य-पर्यायों को जानकारी-मात्र से जानते हैं, तथापि निश्चयनय से सहजानन्द एक स्वभावी स्वशुद्धात्मा में तन्मयरूप से उसकी जानकारी करते हैं; उसी प्रकार निर्मल भेदज्ञानी जीव भी यद्यपि व्यवहार से परद्रव्य-गुण-पर्यायों का ज्ञान करते हैं, तथापि निश्चय से स्व-विषय होने से निर्विकार स्वसंवेदन पर्याय में पर्याय द्वारा परिज्ञान करते हैं - यह गाथा का तात्पर्य है ।
[अत्थं] - घट, पट आदि ज्ञेय पदार्थ । वे ज्ञेय पदार्थ कैसे हैं ? [अक्खणिवदिदं] - इन्द्रियों से सम्बन्धित वे पदार्थ हैं । इसप्रकार के पदार्थ को [ईहापुब्व्वेहिं जे विजाणंति] - जो पुरुष अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदि क्रम से वास्तव में जानते हैं । [तेसिं परोक्खभूदं] - उनका वह ज्ञान परोक्ष होता हुआ [णादुमसक्कं ति पण्णत्तं] - सूक्ष्मादि पदार्थों को जानने में असमर्थ है - ऐसा कहा है । वह परोक्ष ज्ञान उनको जानने में असमर्थ है - ऐसा किनने कहा है? ऐसा ज्ञानियों ने कहा है ।
वह इसप्रकार - नेत्र आदि इन्द्रियाँ घट, पट आदि पदार्थो के निकट जाकर बाद में पदार्थ को जानती हैं - ऐसा सन्निकर्ष का लक्षण नैयायिक मत में कहा गया है । अथवा संक्षेप से, इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध ही सन्निकर्ष है, और वही प्रमाण है । और वह सन्निकर्ष
- आकाशादि अमूर्तिक पदार्थों में,
- दूर देशवर्ती मेरु आदि पदार्थों मे,
- दूर कालवर्ती राम-रावणादि में,
- स्वभाव से अदृश्य भूतादि में,
इसलिये ही अतीन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति के कारणभूत, रागादि विकल्प रहित, स्वसंवेदन ज्ञान को छोड़कर जो पंचेन्द्रिय-सुख के साधनभूत इन्द्रिय ज्ञान में और विविध इच्छाओं के विकल्प-जालरूप मानस ज्ञान में स्नेह करते हैं, वे सर्वज्ञ-पद प्राप्त नहीं करते - यह गाथा का अभिप्राय है ।
[अपदेसं] अप्रदेशी--कालाणु, परमाणु आदि (एक प्रदेशी द्रव्य), [सपदेसं] शुद्ध जीवास्तिकाय आदि पाँच अस्तिकाय स्वरूप (बहुप्रदेशी द्रव्य), [मुत्तं] मूर्तिक पुद्गल द्रव्य, [अमुत्तं च] और शुद्ध जीव द्रव्यादि अमूर्तिक द्रव्य [पज्जयमजादं पलयं गयं च] अनुत्पन्न भावि तथा नष्ट हुई भूतकालीन पर्यायें -- पूर्वोक्त इन सभी ज्ञेय वस्तुओं को, [जाणदि] जो ज्ञानरूप कर्ता जानता है, [तं णाणमदिंदियं भणियं] उस ज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं उससे ही सर्वज्ञ होते हैं ।
इसलिये पहले (४१ वी) गाथा में कहे गये इन्द्रिय-ज्ञान और मानस-ज्ञान को छोड़कर जो समस्त विभाव परिणामों के त्याग पूर्वक निर्विकल्प समाधिरूप स्वसंवेदन-ज्ञान में प्रीति करते हैं, वे ही परमाह्लाद एक लक्षण स्वभाव वाले सर्वज्ञ पद को प्राप्त करते हैं - यह अभिप्राय है ।
इसप्रकार भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में प्रत्यक्ष नहीं होती है - इस मान्यता वाले बौद्धमत के निराकरण की मुख्यता से तीन गाथायें, और उसके बाद नैयायिक मतानुसारि शिष्य के सम्बोधन के लिए इन्द्रिय-ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते अतीन्द्रिय-ज्ञान से सर्वज्ञ होते हैं - इसप्रकार दो गाथायें -- इसप्रकार समूहरूप से पाँचवें स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब छठवॉ स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब राग-द्वेष-मोह बंध के कारण हैं, ज्ञान नही - इत्यादि कथनरूप से पाँच गाथा पर्यन्त व्याख्यान करते हैं । वह इसप्रकार है -
[परिणमदि णेयमट्ठम् णादा जदि] - यदि ज्ञाता आत्मा यह नीला, यह पीला इत्यादि विकल्प-रूप से ज्ञेय-पदार्थों के प्रति परिणमन करता है, [णेव खाइगं तस्स णाणं ति] - तो उस आत्मा को क्षायिक-ज्ञान नहीं है । अथवा ज्ञान ही नही है । ज्ञेयार्थ परिणत उस आत्मा को ज्ञान कैसे नहीं है? [तं जिणिन्दा खवयंतं कम्ममेवुत्ता] - उस कर्मतापन्न पुरुष को (कर्म कारक में प्रयुक्त पुरुष को) जिनेन्द्र-भगवानरूपी कर्ता कहते हैं । जिनेन्द्र-भगवान उस पुरुष को क्या करता हुआ कहते हैं? वे उसे अनुभव करता हुआ कहते हैं । वे उसे किसका अनुभव करता हुआ ही कहते हैं? वे उसे कर्म का अनुभव करता हुआ ही कहते हैं । निर्विकार सहजानन्द एक सुख-स्वभाव के अनुभव से रहित होता हुआ वह उदय में आये हुये अपने कर्मों का ही अनुभव करता रहता है, ज्ञान का अनुभव नहीं करता - यह अर्थ है ।
अथवा दूसरा व्याख्यान - यदि ज्ञाता, पदार्थ के प्रति परिणमन कर बाद में पदार्थ को जानता है तो पदार्थों के अनन्त होने से (उसे) सभी पदार्थों की जानकारी नहीं है ।
अथवा तीसरा व्याख्यान - छद्मस्थ-अवस्था में जब बाह्य ज्ञेय पदार्थों का विचार किया जाता है, तब रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञान नहीं है, उसके अभाव में क्षायिक ज्ञान ही उत्पन्न नहीं होता है - यह अभिप्राय है ।
अब, अनन्त पदार्थों की जानकारी रूप से परिणत होने पर भी ज्ञान बंध का कारण नहीं है, इसी प्रकार रागादि रहित कर्म का उदय भी बंध का कारण नहीं है; ऐसा निश्चित करते हैं -
[उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया] उदय को प्राप्त ज्ञानावरणादि मूल-उत्तर कर्म प्रकृति भेद वाले कर्मांश तीर्थंकरों ने स्वभाव से कहे हैं, किन्तु (वे) अपने-अपने शुभाशुभ फल को देकर चले जाते हैं, रागादि परिणामों से रहित होने पर बंध नहीं करते हैं । तो फिर जीव बंध कैसे करता है? यदि यह प्रश्न हो तो? [तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बन्धमणुभवदि] मोह, राग, द्वेष से विलक्षण निज शुद्धात्मतत्व की भावना से रहित होता हुआ उदय में आये हुये कर्मांशों में विशेष रूप से मोह, राग, द्वेष रूप होता है, वह केवलज्ञानादि अनन्त गुणों की प्रगटता स्वरूप मोक्ष से विलक्षण प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेदवाले बंध का अनुभव करता है ।
इससे यह निश्चय हुआ कि ज्ञान बंध का कारण नहीं, इसी प्रकार कर्म का उदय भी बंध का कारण नहीं है; किन्तु रागादि बंध के कारण हैं ।
[ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य] स्थान--ऊपर स्थिति--खड़ा होना, [निषद्या] आसन--बैठना, श्रीविहार और धर्मोपदेश [णियदयो] ये क्रियायें स्वाभाविक--बिना इच्छा के होती हैं । ये क्रियायें स्वाभाविक किनके होती है ? [तेसिं अरहंताणं] उन अरहन्त निर्दोषी परमात्मा के ये क्रियायें स्वाभाविक होती हैं । उनके ये कब होती हैं ? [काले] अरहन्त अवस्था में उनके ये होती हैं । उनके ये क्रियायें किसके समान होती हैं? [मायाचारो व्व ड़त्थीणं] स्त्रियों के मायाचार के समान उनके ये क्रियायें होती हैं ।
वह इसप्रकार - जैसे स्त्रीवेद के उदय का सद्भाव होने से स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी मायाचार होता है, उसी प्रकार शुद्धात्म-तत्व के विरोधी मोह के उदय में होने वाले इच्छा पूर्वक प्रयत्न-रूप कार्य का अभाव होने पर भी भगवान के श्रीविहारादि होते हैं । अथवा बादलों के ठहरने, गमन करने, गरजने, पानी बरसाने आदि के समान भगवान के ये क्रियायें सहज होती हैं ।
इससे यह सिद्ध हुआ कि मोहादि का अभाव होने पर क्रिया विशेष भी बंध का कारण नहीं है ।
अब रागादि रहित कर्मोदय तथा विहारादि क्रिया बंध का कारण नहीं है - ऐसा जो पहले (४४- ४५ वीं गाथा में) कहा था; उसी अर्थ को अन्य प्रकार से दृढ़ करते हैं -
[पुण्यफला अरहंता] महाकल्याणक पूजा को उत्पन्न करने वाला, तीनों लोकों में विजय को करने वाला जो तीर्थंकर नामक पुण्य नामकर्म, उसके फलस्वरूप अरहन्त तीर्थंकर होते हैं । [तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया] उनकी जो दिव्यध्वनि-रूप वचन व्यापारादि क्रिया, वह निःक्रिय शुद्धात्म-तत्व से विपरीत कर्मोदय से उत्पन्न होने के कारण वास्तव में सब ही औदयिकी है । [मोहादीहिं विरहिदा] क्योंकि निर्मोह शुद्धात्म-तत्व को आवृत्त करने वाले ममकार-अहंकार को उत्पन्न करने में समर्थ मोहादि से रहित है, [तम्हा सा खायग त्ति मदा] इसलिये यद्यपि वह औदयिकी है, तथापि निर्विकार शुद्धात्म-तत्व में विकार-उत्पादक नहीं होने से क्षायिकी मानी गई है ।
यहाँ शिष्य कहता है- (तीर्थंकरों की औदयिकी क्रिया बंध-कारक नहीं होने से क्षायिकी मानने पर) 'औदयिक भाव बंध के कारण हैं' - यह आगम वचन व्यर्थ है ।
आचार्य इसका निराकरण करते हैं - औदयिक भाव बंध के कारण हैं, किन्तु मोह के उदय से सहित औदयिक भाव ही; अन्य नहीं । द्रव्य मोह का उदय होने पर भी यदि शुद्धात्म-भावना के बल से भाव मोहरूप परिणमन नहीं करता तो बंध नहीं होता । यदि पुन: कर्मोदय मात्र से बंध होता तो संसारियों के सदैव कर्म के उदय की विद्यमानता होने से सदैव--सर्वदा बंध ही होगा, (कभी भी) मोक्ष नहीं हो सकेगा - यह अभिप्राय है ।
[जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण] - जैसे शुद्धनय से आत्मा शुभाशुभरूप परिणमित नहीं होता, उसी प्रकार यदि अशुद्धनय से भी स्वयं अपने उपादान कारण स्वभावरूप अशुद्ध निश्चय से भी नहीं परिणमता तो । अशुद्धनय से भी शुभाशुभरूप न परिणमने में क्या दोष होता? [संसारो वि ण विज्जदि] - नि:संसार शुद्धात्मस्वरूप से विपरीत संसार व्यवहारनय से भी नहीं होता । अशुद्धनय से भी उसरूप न परिणमने पर संसार किनके नहीं होता? [सव्वेसिं जीवकायाणं] - सभी जीव समूहों के संसार नहीं होता ।
वह इसप्रकार - प्रथम तो आत्मा परिणामी है, और वह कर्मोपाधि का निमित्त होने पर स्फटिक मणि के समान उपाधि को ग्रहण करता है, इसकारण संसार का अभाव नहीं होता । और यदि ऐसा मत हो कि सांख्यों के लिये संसार का अभाव दोष नही, वरन् भूषण गुण ही है; तो ऐसा भी नहीं है । संसार का अभाव ही मोक्ष कहलाता है और वह प्रत्यक्ष विरोधरूप से संसारी जीवों के दिखाई नहीं देता - यह भाव है ।
इसप्रकार रागादि बंध के कारण हैं, ज्ञान बंध का कारण नहीं है - इत्यादि व्याख्यान की मुख्यता से छठवें स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब सातवाँ स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब सर्वप्रथम केवलज्ञान ही सर्वज्ञस्वरूप है, इसके बाद सभी की जानकारी होने पर एक की जानकारी, एक की जानकारी होने पर सर्व की जानकारी - इत्यादि कथनरूप से पाँच गाथा पर्यन्त व्याख्यान करते हैं । वह इसप्रकार -
यहाँ ज्ञान प्रपंच का प्रकरण है, उस प्रकरण का अनुसरण कर फिर से केवलज्ञान को सर्वज्ञरूप से निरूपित करते हैं -
[जं] जो ज्ञानरूप कर्ता [जाणदि] - जानता है । ज्ञान किसे जानता है? [अत्थं] - ज्ञान पदार्थ को जानता है । यहाँ पदार्थ यह विशेष पद है । किस विशेषता वाले पदार्थ को जानता है? [तक्कालियमिदरं] - तात्कालिक-वर्तमान, इतर-भूत-भावि काल सम्बन्धी पदार्थों को जानता है । ज्ञान इन पदार्थों को कैसे जानता है? [जुगवं] - एक साथ एक समय में और [समंतदो] - सब ओर से - सर्व आत्मप्रदेशों से अथवा सर्व प्रकार से ज्ञान उनको जानता है । ज्ञान कितनी संख्यावाले पदार्थों को जानता है? [सव्वमं] - सम्पूर्ण पदार्थों को वह जानता है । और किस विशेषतावाले पदार्थों को जानता है? [विचित्तं] - विविध भेदवाले पदार्थों को जानता है । वे पदार्थ और कैसे हैं? [विसमं] - मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन आदि विविध जाति विशेषों से असमान उन सभी पदार्थों को जानता है । [तं णाणं खाइयं भणियं] - जो इसप्रकार के गुणों से विशिष्ट ज्ञान है, वह ज्ञान क्षायिक कहा गया है । अभेदनय से वही सर्वज्ञ-स्वरूप है, वही उपादेयभूत अनन्त सुखादि अनन्त गुणों का आधारभूत ज्ञान सर्व प्रकार उपादेयरूप से भावना करने योग्य है - यह तात्पर्य है ।
अब जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता; ऐसा विचार करते हैं ।
[जो ण विजाणदि] - कर्तारूप जो (इस वाक्य में कर्ता कारक में प्रयुक्त जो) नहीं जानता है । जो कैसे नहीं जानता है? [जुगवं] - जो एक साथ एक समय में नहीं जानता है । एक साथ किन्हें नहीं जानता है ? [अत्थे] - जो पदार्थों को एक साथ नहीं जानता है । कैसे पदार्थों को नहीं जानता? [तिक्कालिगे] - त्रिकालवर्ती पर्यायरूप परिणत पदार्थों के जो नहीं जानता है । और कैसे पदार्थों को नहीं जानता है? [तिहुवणत्थे] - तीनलोक में स्थित पदार्थों को नहीं जानता है । [णादुं तस्स ण सक्कं] - उस पुरुष का ज्ञान जानने में समर्थ नहीं है । किसे जानने में समर्थ नहीं है? [दव्वं] - ज्ञेयद्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है । किस विशेषता वाले ज्ञेयद्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है? [सपज्जयं] - अनन्त पर्याय सहित ज्ञेय द्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है । कितनी संख्या सहित ज्ञेय द्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है? [एगं वा] - एक भी ज्ञेयद्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है ।
वह इस प्रकार - आकाश द्रव्य एक, धर्म द्रव्य एक और इसीप्रकार अधर्म द्रव्य एक, लोकाकाश प्रमाण असंख्यात कालाणु, उससे अनंतगुणे जीव द्रव्य और उससे भी अनन्तगुणे पुद्गल द्रव्य हैं । उसीप्रकार सभी में से प्रत्येक की अनन्त पर्यायें; ये सब ज्ञेय हैं तथा उनमें से एक विवक्षित जीव द्रव्य ज्ञाता है । इसप्रकार वस्तु का स्वभाव है ।
वहाँ जैसे अग्नि समस्त जलाने योग्य पदार्थों को जलाती हुई सम्पूर्ण दाह्य के निमित्त से होनेवाले सम्पूर्ण दाह्याकार पर्यायरूप से परिणत सम्पूर्ण एक दहन-स्वरुप उष्णरूप से परिणत घास-पत्ते आदि के आकाररूप स्वयं को परिणत करती है, उसीप्रकार यह आत्मा सम्पूर्ण ज्ञेयों को जानता हुआ सम्पूर्ण ज्ञेयों के निमित्त से होने वाले सम्पूर्ण ज्ञेयाकार पर्यायरूप से परिणत सकल एक अखण्ड ज्ञानरूप अपने आत्मा को परिणमित करता है, जानता है, निश्चित करता है ।
और जैसे वही अग्नि पूर्वोक्त लक्षण दाह्य को नहीं जलाती हुई उस आकाररूप परिणत नही होती, उसीप्रकार आत्मा भी पूर्वोक्त लक्षणवाले सर्व ज्ञेयों को नहीं जानता हुआ पूर्वोक्त लक्षणवाले सकल एक अखण्ड ज्ञानाकाररूप अपने आत्मा को परिणमित नहीं करता, जानता नहीं, निश्चित नहीं करता है ।
दूसरा भी उदाहरण देते हैं- जैसे कोई अन्धा सूर्य से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ सूर्य को नहीं देखने के समान; दीपक से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ दीपक को नहीं देखने के समान; दर्पण में स्थित बिम्ब को नहीं देखते हुये दर्पण को नहीं देखने के समान; अपनी दृष्टि से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ हाथ-पैर आदि अंगों रूप से परिणत अपने शरीराकार स्वयं को अपनी दृष्टि से नहीं देखता; उसी-प्रकार यह विवक्षित आत्मा भी केवलज्ञान से प्रकाशित पदार्थों को नहीं जानता हुआ सम्पूर्ण अखण्ड एक केवलज्ञानरूप आत्मा को भी नहीं जानता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि जो सबको नहीं जानता, वह आत्मा को भी नहीं जानता ।
अब एक को नहीं जानता हुआ सबको नहीं जानता है, ऐसा निश्चित करते हैं -
[दव्वं] - द्रव्य [अणंतपज्जयं] - अनन्त पर्याय [एगं] - एक [अणंताणि दव्वजादीणि] - अनन्त द्रव्य समूह को [जो ण विजाणदि] - जो नहीं जानता है, [किध सो सव्वाणि जाणादि] - वह सबको कैसे जान सकता है? [जुगवं] - युगपत् - एक समय में, किसी भी तरह नहीं जान सकता है ।
वह इसप्रकार- ज्ञान आत्मा का लक्षण है और वह अखण्ड प्रतिभासमय सभी जीवों में सामान्यरूप से पाया जाने वाला महासामान्यरूप है । और वह महासामान्य ज्ञानमय अनन्त विशेषों में व्याप्त है । और वे ज्ञान विशेष विषयभूत, ज्ञेयभूत अनन्त द्रव्य-पर्यायों के ज्ञायक-ग्राहक-जाननेवाले हैं । अखण्ड एक प्रतिभासमय जो महासामान्य उस स्वभाववाले आत्मा को जो वह प्रत्यक्ष नहीं जानता, तो वह पुरुष प्रतिभासमय महासामान्य से व्याप्त जो अनन्त ज्ञानविशेष, उनके विषयभूत जो अनन्त द्रव्य-पर्यायें, उन्हें कैसे जान सकता है? किसी भी प्रकार नहीं जान सकता ।
इससे यह निश्चित हुआ कि जो आत्मा को नहीं जानता वह सर्व को नहीं जानता । वैसा ही कहा है -
एक भाव सर्वभाव-स्वभाववाला है, सभी भाव एकभाव-स्वभाववाले हैं; अत: जिसके द्वारा एक भाव वास्तविकरूप से जान लिया गया है, उसके द्वारा सभी भाव वास्तविकरूप से जान लिये गये हैं ।
यहाँ शिष्य कहता है - आत्मा की विशिष्ट जानकारी होने पर सभी की जानकारी होती है - ऐसा यहाँ कहा गया है, वहाँ पहले (४९वीं गाथा में) सर्व की जानकारी होने पर आत्मा की जानकारी होती है - ऐसा कहा था । यदि ऐसा है तो छद्मस्थजीवों को तो सभी की जानकारी नहीं है, उन्हें आत्मा की जानकारी कैसे होगी? आत्मा की जानकारी के अभाव में आत्मभावना कैसे होगी? और उसके अभाव में केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है ।
आचार्य इसका निराकरण करते हैं – परोक्ष प्रमाणभूत श्रुतज्ञान द्वारा सभी पदार्थ जाने जाते है । श्रुतज्ञान द्वारा सभी पदार्थ कैसे जाने जाते हैं ? यदि यह शंका हो तो कहते हैं – छद्मस्थों के भी व्याप्तिज्ञान (अनुमान ज्ञान) रूप से लोकालोकादि की जानकारी पायी जाती है। तथा केवलज्ञान सम्बन्धी विषय को ग्रहण करने वाला वह व्याप्तिज्ञान परोक्षरूप से कथंचित आत्मा ही कहा गया है । अथवा स्वसंवेदनज्ञान से आत्मा जाना जाता है, और उससे भावना की जाती है, और उस रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञानरूप भावना से केवलज्ञान उत्पन्न होता है – इसप्रकार दोष नहीं है ।
अब क्रमप्रवृत्त (क्रम से पदार्थों को जाननेवाले) ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते हैं, ऐसी व्यवस्था करते हैं - ऐसा निश्चित करते हैं -
[उप्पज्जदि जदि णाणं] - यदि ज्ञान उत्पन्न होता है । [कमसो] - क्रम से । ज्ञान क्रम से क्या करके उत्पन्न होता है? [अट्ठे पडुच्च] - ज्ञेय पदार्थों का आश्रयकर यदि ज्ञान उत्पन्न होता है? [णाणिस्स] - ज्ञानी आत्मा का ज्ञान यदि क्रमश: ज्ञेयों का आश्रयकर उत्पन्न होता है, तो [तं णेव हवदि णिच्चं] - उत्पत्ति के निमित्तभूत पदार्थों का विनाश होने पर उसका भी विनाश हो जाता है; अत: वह ज्ञान नित्य नहीं है । [ण खाइगं] - ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की पराधीनता होने से क्षायिक भी नहीं है । [णेव सव्वगदं] - क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से पराधीन होने के कारण नित्य नहीं है, क्षयोपशम के अधीन होने के कारण क्षायिक नहीं है; इसलिए एक साथ सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की जानकारीरूप सामर्थ्य का अभाव होने से सर्वगत नहीं है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि जो ज्ञान क्रम से पदार्थों का आश्रय लेकर उत्पन्न होता है, उस ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते हैं ।
अब एक साथ जानकारीरूप ज्ञान से ही सर्वज्ञ होते हैं ऐसा आवेदन करते हैं -
[जाणदि] - जानता है । इस क्रिया का कर्ता कौन है? कौन जानता है? [जोण्हं] - जिनेन्द्र भगवान का ज्ञान जानता है । उनका ज्ञान कैसे जानता है? [जुगवं] - एक साथ-एक समय में जानता है । [अहो हि णाणस्स माहप्प्म] - अहो! स्पष्टरूप से यह जैन-ज्ञान केवलज्ञान की महिमा देखो । वह ज्ञान किसे जानता है? पदार्थ को जानता है । यहाँ अर्थ (पदार्थ) शब्द अध्याहार है अर्थात् पूर्व गाथा से लिया गया है । वे पदार्थ कैसे हैं? [तिक्कालणिच्चविसयं] - तीनकाल सम्बन्धी विषय-सर्वकाल स्थित हैं । वे पदार्थ और किस विशेषता वाले हैं? [सयलं] - सम्पूर्ण हैं । वे पदार्थ और कैसे हैं? [सव्वत्थसम्भवं] - लोक में सर्वत्र स्थित हैं । वे और कैसे हैं? [चित्तं] - अनेक जातियों के भेद से विचित्र हैं ।
वह इसप्रकार- एक साथ सम्पूर्ण पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान से सर्वज्ञ होते हैं- ऐसा जानकर क्या करना चाहिये? अज्ञानी जीवों के चित्त को चमत्कृत करने के कारण और परमात्मा सम्बन्धी भावना को नष्ट करने वाले जो ज्योतिष्क, मन्त्रवाद, रससिद्धि आदि खण्ड-विज्ञान-एकदेशज्ञान-क्षयोपशमज्ञान हैं; वहाँ आग्रह छोड़कर तीनलोक-तीनकालवर्ती सम्पूर्ण वस्तुओं को एक साथ प्रकाशित करनेवाले अविनश्वर, अखण्ड, एक प्रतिभासमय सर्वज्ञ शब्द से वाच्य जो केवलज्ञान उसकी उत्पत्ति का कारणभूत जो सम्पूर्ण रागादि विकल्प जाल रहित सहज शुद्धात्मा से अभेदरूप ज्ञान उसकी ही भावना करना चाहिये - यह तात्पर्य है ।
इसप्रकार केवलज्ञान ही सर्वज्ञ है-इस कथनरूप से एक गाथा, इसके बाद सर्व पदार्थों की जानकारी से परमात्मज्ञान होता है-इस कथन परक पहली गाथा और परमात्मज्ञान से सभी पदार्थों की जानकारी होती है - इसप्रकार दूसरी गाथा है । इसके बाद क्रमप्रवृत्त ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते है- इसप्रकार पहली गाथा तथा एक साथ सबको जाननेवाले ज्ञान से सर्वज्ञ होते हैं-इसप्रकार दूसरी गाथा-इसप्रकार सामूहिकरूप से सातवें स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुई ।
[ण वि परिणमदि] - जैसे अपने आत्म-प्रदेशों के साथ समरसी भाव से परिणत होते हैं, वैसे ज्ञेयरूप से परिणत नहीं हैं । [ण गेण्हदि] - और जैसे अनन्त-ज्ञानादि चतुष्टय-स्वरूप स्वयं को स्वयं से ग्रहण करते हैं, वैसे ज्ञेयरूप को ग्रहण नहीं करते हैं । [उपज्जदि णेव अट्ठेसु] - और जैसे निर्विकार परमानन्द एक सुखरूप अपनी सिद्ध-पर्याय से उत्पन्न होते हैं, वैसे ही ज्ञेय पदार्थों में उत्पन्न नहीं होते । क्या करते हुए भी ये सब नहीं करते हैं? [जाणण्णवि ते] - स्वयं से पृथक्-रूप उन ज्ञेय पदार्थों को जानते हुये भी उन रूप परिणमन आदि क्रियाओं को नहीं करते हैं । उनको जानते हुये भी उनरूप परिणमन आदि कौन नहीं करते हैं - इस क्रिया का कर्ता कौन है? [आदा] - मुक्तात्मा-केवली भगवान, उन्हें जानते हुये भी उनरूप परिणमन आदि नहीं करते हैं । [अबंधगो तेण पण्णतो] - इस कारण उन्हें कर्मों का अबंधक कहा है ।
वह इस प्रकार - रागादि रहित ज्ञान बन्ध का कारण नहीं हैं - ऐसा जानकर शुद्धात्मा की परिपूर्ण प्राप्ति लक्षण मोक्ष से विपरीत नारकादि दुःखों के कारणभूत कर्मबन्ध के कारण इन्द्रिय-मन से उत्पन्न एकदेश विज्ञान को छोड़कर, कर्मबंध के अकारणभूत परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान के बीजभूत निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान में ही भावना करना चाहिये - यह अभिप्राय है ।
[करेदि] - करता है । वह कौन करता है? [लोगो] - लोक करता है । कैसा लोक करता है? [देवासुरमणुअरायसंबंधो] - देवेन्द, असुरेन्द्र और नरेन्द्र सम्बन्धी लोक करता है । और वह लोक कैसा है? [भत्तो] - भक्त है । [णिच्चं] - सदैव । और वह लोक किस विशेषता वाला है? [उवजुत्तो] - उपयोगयुक्त अथवा प्रयत्नशील है । ऐसा लोक क्या करता है? [णमाइं] - नमस्कार करता है । किन्हें नमस्कार करता है? उन पूर्वोक्त सर्वज्ञ को नमस्कार करता है । [तं तहा वि अहं] - मैं ग्रन्थकर्ता भी उन सर्वज्ञ को उसी प्रकार से नमस्कार करता हूँ ।
यहाँ अर्थ यह है कि जैसे देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि अनन्त, अक्षय सुखादि गुणों के स्थानभूत सर्वज्ञ स्वरूप को नमस्कार करते हैं; उसी प्रकार उस पद का अभिलाषी मैं भी परम भक्ति से उनको प्रणाम करता हूँ ।
इस प्रकार आठ स्थलों द्वारा ३२ गाथायें और उसके बाद एक नमस्कार-गाथा - इस प्रकार सामूहिक रूप से ३३ गाथाओं द्वारा ज्ञानप्रपंच नामक तीसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
अब 'सुखप्रपंच' नामक चतुर्थान्तराधिकार में अठारह गाथायें हैं । यहाँ पाँच स्थल हैं - उनमें से
- पहले स्थल में [अत्थि अमुत्तं] इत्यादि एक अधिकार गाथा,
- इसके बाद दूसरे स्थल में अतीन्द्रियज्ञान की मुख्यता से [जं पेच्छदो] इत्यादि एक गाथा;
- इसके बाद तीसरे स्थल में इन्द्रियज्ञान की मुख्यता से [जीवो सयं अमुत्तो] इत्यादि चार गाथायें;
- तत्पश्चात् चौथे स्थल में अतीन्द्रिय-सुख की मुख्यता से [जादं सयं] इत्यादि चार गाथायें तथा
- तदनन्तर पाँचवे स्थल में इन्द्रियसुख के प्रतिपादन रूप से आठ गाथायें हैं । पांचवें स्थल की उन आठ गाथाओं में से भी
- सर्वप्रथम इन्द्रियसुख को दुःखरूप से स्थापन के लिये [मणुआसुरा] इत्यादि दो गाथायें,
- उसके बाद मुक्तात्माओं को शरीर के अभाव में भी सुख है - यह बताने के लिये शरीर सुख का कारण नहीं है- इस कथनरूप से [पप्पा इट्ठे विसये] इत्यादि दो गाथायें,
- तत्पश्चात् इन्द्रिय-विषय भी सुख के कारण नहीं हैं - इस कथन रूप से [तिमिरहरा] - इत्यादि दो गाथायें और
- इसके बाद सर्वज्ञ नमस्कार की मुख्यता से [तेजोदिट्ठि] - इत्यादि दो गाथायें हैं ।
(अब यहाँ अधिकार - गाथा रूप से पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब उपादेयभूत अतीन्द्रियसुख के स्वरूप का विस्तार करते हुये अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख उपादेय हैं, तथा इन्द्रिय जन्य ज्ञान सुख हेय हैं - इसप्रकार प्रतिपादन रूप से सबसे पहले प्रथम अधिकार स्थल गाथा द्वारा चार स्थलों को सूत्रित करते हैं (व्यवस्थित करते हैं) -
[अत्थि] - है । क्या है- इस क्रिया का कर्ता कौन है? [णाणं] - ज्ञान है - यहाँ भिन्न विशिष्ट क्रम परस्पर सम्बन्ध-रहितता का सूचक है । वह ज्ञान किस विशेषतावाला है? [अमुत्तं मुत्तं] - अमूर्त और मूर्त है । वह ज्ञान और किस विशेषतावाला है? [अदिंदियं इदियं च] - जो ज्ञान अमूर्त है, वह अतीन्द्रिय है और जो मूर्त है, वह इन्द्रियजन्य है । इन विशेषताओं वाला ज्ञान है । इन विशेषताओ वाला ज्ञान किन विषयों में है? [अत्थेसु] - ऐसा ज्ञान, ज्ञेय पदार्थों के सम्बन्ध में है । [तहा सोक्खं च] - उसीप्रकार ज्ञान के समान अमूर्त, अतीन्द्रिय और मूर्त, इन्द्रियजन्य सुख होता है । [जं तेसु परं च तं णेयं] - उन पूर्वोक्त ज्ञान और सुख के मध्य जो उत्कृष्ट अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख है, वह उपादेय है - ऐसा जानना चाहिये ।
उसका ही विस्तार करते हैं – अमूर्त, क्षायिकी, अतीन्द्रिय, चिदानन्द एक लक्षणवाली शुद्धात्म-शक्तियों से उत्पन्न होने के कारण स्वाधीन और अविनश्वर होने से अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख उपादेय है; तथा पूर्वोक्त अमूर्त शुद्धात्म-शक्तियों से विरुद्ध लक्षणवाली क्षायोपशमिक इन्द्रिय- शक्तियों से उत्पन्न होने के कारण पराधीन और विनश्वर होने से इन्द्रियजन्य ज्ञान और सुख हेय है- यह तात्पर्य है ।
(अब यहाँ अतीन्द्रिय ज्ञान की प्रधानता परक दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब पूर्वोक्त उपादेयभूत अतीन्द्रिय ज्ञान को विशेषरूप से व्यक्त करते हैं -
[जं] - जो अतीन्द्रिय ज्ञान रूप कर्ता है, अर्थात् इस वाक्य का कर्ता जो ज्ञान है । [पेच्छदो] - देखनेवाले पुरुष का वह ज्ञान जानता है । उसका वह ज्ञान क्या-क्या जानता है? [अमुत्तं] - अमूर्त अतीन्द्रिय, निरुपराग, सदानन्द एक सुख स्वभाववाले परमात्मद्रव्य प्रभृति सर्व अमूर्त द्रव्य-समूह को, [मुत्तेसु अर्दिदियं च] - मूर्त पुद्गल द्रव्यों में जो अतीन्द्रिय पुद्गल परमाणु आदि हैं उन्हें जानता है ।
- [पच्छण्णं] - कालाणु आदि द्रव्यरूप से प्रच्छन्न व्यवहित - अन्तरित-सूक्ष्म;
- अलोकाकाश के प्रदेशों से लेकर (अन्य द्रव्यों के प्रदेश) क्षेत्रप्रच्छन्न;
- निर्विकार परमानन्द एक सुखस्वाद रूप से परिणत परमात्मा के वर्तमान समयवर्ती परिणामों से लेकर जो सम्पूर्ण द्रव्यों के वर्तमान समयवर्ती परिणाम, वे कालरूप से प्रच्छन्न; तथा
- उन्हीं परमात्मा की सिद्ध-रूप शुद्ध व्यजंन-पर्याय और शेष द्रव्यों की जो यथासंभव व्यंजन पर्यायें, उनमें गर्भित प्रति समय होने वाली षटप्रकार हानि-वृद्धि रूप अर्थ पर्यायें भाव-प्रच्छन्न कही गई हैं ।
यहाँ शिष्य कहता है-ज्ञानप्रपंचाधिकार पहले ही पूर्ण हो गया है, इस सुख-प्रपंचाधिकार में सुख ही कहना चाहिये । आचार्य उसका निराकरण करते है- जो अतीन्द्रिय-ज्ञान पहले कहा गया है, वही अभेदनय से सुख है- ऐसा बताने के लिये अथवा वहाँ ज्ञान की मुख्यता होने से हेयोपादेय विचार नहीं किया है -यह बताने के लिये सुखप्रपंचाधिकार में भी ज्ञान का स्वरूप स्पष्ट करते हैं ।
इस प्रकार अतीन्द्रिय-ज्ञान उपादेय है - इस कथन की मुख्यता से एक गाथा द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ।
(अब हेयभूत इन्द्रिय-ज्ञान की मुख्यता से चार गाथाओं में निबद्ध तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब हेयभूत इन्द्रिय-सुख का कारण होने से और अल्प-विषय होने से इन्द्रिय-ज्ञान हेय है ऐसा उपदेश देते हैं -
[जीवो सयं अमुत्तो] - प्रथम तो जीव शक्तिरूप से शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय से अमूर्त, अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख स्वाभावी है, बाद में अनादि बंध के वश से व्यवहार-नय से [मुत्तिगदो] – मूर्त शरीरगत – मूर्त शरीररूप से परिणत होता है । [तेण मुत्तिणा] – उस मूर्त शरीर से – मूर्त शरीर के आधार से उत्पन्न मूर्त द्रव्येंद्रिय-भावेंद्रिय के आधार से [मुत्तं] मूर्त वस्तु को [ओगेण्हित्ता] – अवग्रहादि रूप से क्रम और साधन सम्बन्धी व्यवधान रूप कर [जोग्गं] – उन स्पर्शादि मूर्त वस्तु को । कैसी स्पर्शादि मूर्त वस्तु को? इन्द्रिय ग्रहण के योग्य मूर्त वस्तुओं को [जाणदि वा तण्ण जाणादि]- स्वावरण कर्म के क्षयोपशम योग्य कुछ स्थूल को जानता है तथा विशेष क्षयोपशम का अभाव होने से सूक्ष्म को नहीं जानता है ।
यहाँ भाव यह है – यद्यपि इन्द्रियज्ञान व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है, तथापि निश्चय से केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष ही है; और परोक्षज्ञान, जितने अंशों में सूक्ष्म पदार्थ को नहीं जानता उतने अंशों में मन के खेद का कारण होता है, और खेद दुःख हैं- इसप्रकार दुःख को उत्पन्न करने वाला होने से इन्द्रियज्ञान हेय है ।
अब, चक्षु आदि इन्द्रिय-ज्ञान, रूपादि अपने विषय को भी एक साथ नहीं जानता है, अत: हेय है; ऐसा निश्चय करते हैं -
[फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो व पुग्गला होंति] - स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द पुद्गल मूर्त हैं । और वे विषय हैं । वे किनके विषय हैं? [अक्खाणं] - वे स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषय हैं । [ते अक्खा] - वे इन्द्रियरूप कर्ता (इस वाक्य में कर्ता के स्थानीय वे इन्द्रियाँ) [जुगवं ते णेव गेण्हंति]- एक साथ उन अपने विषयों को भी ग्रहण नहीं करतीं - जानती नहीं हैं ।
यहाँ अभिप्राय यह है - जैसे सर्व प्रकार से उपादेयभूत (प्रगट करने योग्य) अनन्त सुख का उपादान कारणभूत केवलज्ञान, एक साथ सम्पूर्ण वस्तुओं को जानता हुआ जीव के सुख का कारण है, वैसे अपने विषय में भी एक साथ जानकारी का अभाव होने से यह इन्द्रिय-ज्ञान, सुख का कारण नहीं है ।
अब, इन्द्रिय-ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है,यह निश्चित करते हैं -
[परदव्वं ते अक्खा] – वे प्रसिद्ध इन्द्रियाँ परद्रव्य हैं ।वे किसके परद्रव्य हैं? वे आत्मा के परद्रव्य हैं । [णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा] – आत्मा का जो वह विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव है, इन्द्रियाँ निश्चय से उस स्वभाव रूप नहीं कही गई है ।वे आत्मस्वभावरूप क्यों नही कही गई हैं? वे इन्द्रियाँ पृथक अस्तित्व से रचित होने के कारण उसरूप नहीं कही गई है। [उवलद्धं तेहिं] जो पंचेन्द्रिय विषयभूत वस्तु उनके द्वारा ज्ञात है, [कधं पच्चक्खं अप्पणो होदि] – वह वस्तु आत्मा के प्रत्यक्ष कैसे हो सकती है? (किसी भी प्रकार नहीं हो सकती)
और उसी प्रकार विविध मनोरथों की व्याप्ति के विषय में प्रतिपाद्य-प्रतिपादकादि(विषय-विषयी आदि) विकल्प-जालरूप जो मन वह भी इन्द्रिय ज्ञान के समान निश्चय से परोक्ष है-ऐसा जान कर क्या करना चाहिये? सम्पूर्ण एक अखण्ड प्रत्यक्ष प्रतिभासमय उत्कृष्ट ज्योति-केवलज्ञान के कारणभूत शुद्धात्म-स्वरूप की भावना से उत्पन्न परमाह्लाद एक लक्षण सुखसंवित्ति (आनन्दानुभूति) के आकार परिणतिरूप रागादि विकल्पों की उपाधि रहित स्वसंवेदन ज्ञान में (उसी एक शुद्धात्मस्वरूप की) भावना करना चाहिये – यह अभिप्राय है ।
अब, पुन: अन्य विधि से प्रत्यक्ष- परोक्ष का लक्षण कहते हैं -
[जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदं] - जो पर से ज्ञान होता है वह परोक्ष कहा गया है । किन विषयों सम्बन्धी ज्ञान को परोक्ष कहा गया है? [अट्ठेसु] –ज्ञेय पदार्थों सम्बन्धी पर से होनेवाले ज्ञान को परोक्ष कहा गया है । [जदि केवलेण णादं हवदि हि] - यदि केवल - बिना किसी की सहायता के स्पष्टरूप से ज्ञात होता है । किस कर्ता द्वारा ज्ञात होता है? जीव द्वारा ज्ञात होता है । तो [पच्चक्खं] - प्रत्यक्ष है ।
यहाँ विस्तार करते हैं – इन्द्रिय, मन, परोपदेश, प्रकाश आदि बाह्य कारणभूत और इसीप्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न पदार्थों को ग्रहण करने की शक्तिरूप उपलब्धि – लब्धि से और अन्तरंग कारणभूत पदार्थ-ज्ञान के अवधारणरूप संस्कार से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह पराधीन होने से परोक्ष कहा गया है । और यदि पूर्वोक्त सर्व परद्रव्यों से निरपेक्ष मात्र शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा से उत्पन्न होता है, तो वह ज्ञान अक्ष नामक आत्मा को लेकर (आत्मा के आश्रय से) उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष है - यह गाथा का अभिप्राय है ।
इसप्रकार हेयभूत इन्द्रिय-ज्ञान के कथन की मुख्यता से चार गाथाओं में निबद्ध तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।
(अब चार गाथाओं में निबद्ध मुख्यतया अतीन्द्रिय सुख का प्रतिपादक चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब, अभेद नय से पाँच विशेषणों से विशिष्ट केवलज्ञान ही सुख है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं -
[जादं] - उत्पन्न है । कर्तारूप कौन उत्पन्न है - इस वाक्य में कर्ता कौन है ? [णाणं] - केवलज्ञान उत्पन्न है । वह कैसे उत्पन्न हैं? [सयं] - स्वयं ही वह उत्पन्न है? । वह केवलज्ञान और किस विशेषता वाला है? [समत्तं] – परिपूर्ण है । किस स्वरूपवाला है? [अणंतत्थवित्थडं] – वह अनन्त पदार्थों में विस्तृत है । वह और कैसा है? [रहियं तु ओग्गहादिहिं] - और वह अवग्रहादि से रहित है । वह और कैसा है? [विमलं] - संशयादि मल से रहित है । इसप्रकार पांच विशेषणों सहित जो केवलज्ञान है [सुहं ति एगंतियं भणियं] - वह सुख कहा गया है । वह सुख कहा गया है? वह नियम से (सर्वथा) सुख कहा गया है ।
वह इसप्रकार -
- पर-निरपेक्ष होने से ज्ञानानन्द एक-स्वभावी निज-शुद्धात्मा को उपादान-कारण करके (निज शुद्धात्मारूप उपादान-कारण से) उत्पन्न होने से स्वयं उत्पन्न होता हुआ,
- सम्पूर्ण शुद्धात्म-प्रदेशों के आधारत्व से उत्पन्न होने के कारण समस्त अर्थात् सर्वज्ञान के अविभागी परिच्छेदों (प्रतिच्छेदों) से परिपूर्ण होता हुआ,
- सम्पूर्ण आवरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होने के कारण सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को जाननेवाला होने से विस्तृत होता हुआ और
- संशय-विमोह-विभ्रम से रहित होने से सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थों के ज्ञान के विषय में अत्यंत विशद होने से विमल होता हुआ
- क्रम-करण की बाधा से उत्पन्न खेद का अभाव होने से अवग्रहादि रहित होता हुआ
अब, अनन्त पदार्थों की जानकारी होने से केवलज्ञान में भी खेद है, ऐसा पूर्व पक्ष (प्रश्न) होने पर निराकरण करते हैं -
[जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं] - जो केवलज्ञान है वही सुख है, इसलिये [खेदो तस्स ण भणिदो] -उस केवलज्ञान के खेद-दुःख नहीं कहा है । केवलज्ञान के दुःख क्यों नही कहा है? [जम्हा घादी खयं जादा] - क्योंकि मोहादि घातिकर्म क्षय को प्राप्त हुये हैं इसलिये उसे खेद नहीं कहा है । तब फिर उसके अनन्त पदार्थों की जानकारीरूप परिणाम दुःख का कारण होता होगा? ऐसा नहीं है । [परिणमं च सो चेव] - उस केवलज्ञान का वह परिणाम भी सुखरूप ही है ।
यहाँ उसका विस्तार करते है- ज्ञानावरण - दर्शनावरण के उदय होने पर एक साथ पदार्थों को जानने में असमर्थ होने से क्रम-करण व्यवधान (बाधा) रूप से ग्रहण होने पर खेद होता है । दोनों आवरण कर्मों का अभाव हो जाने पर (पदार्थों को) एक साथ ग्रहण करने (जानने) में केवल-ज्ञान को खेद नही है, अपितु सुख ही है । वैसे ही उन भगवान के तीन-लोक तीन-कालवर्ती सर्व पदार्थों को एक साथ जानने में समर्थ अखण्ड एक रूप प्रत्यक्ष जानकारी स्वरूप परिणमता हुआ केवलज्ञान ही परिणाम है; केवलज्ञान से भिन्न कोई परिणाम नही है जिससे खेद होगा ।
अथवा परिणाम के विषय में दूसरा व्याख्यान करते हैं - एक साथ अनन्त पदार्थों की जानकारीरूप परिणाम होने पर भी, वीर्यान्तराय के पूर्ण क्षय से अनन्त वीर्यता हो जाने के कारण खेद का हेतु नहीं है; और उसीप्रकार शुद्धात्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में समरसी भाव से परिणमित होते हुये सहज शुद्ध आनन्द एक स्वरूप सुखरस के आस्वादनरूप परिणमित आत्मा से अभिन्न अनाकुलता की अपेक्षा खेद नहीं है।
इसप्रकार संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि कृत भेद होने पर भी निश्चय से अभेदरूप से परिणमन करता हुआ केवलज्ञान ही सुख कहा गया है । इससे यह निश्चित हुआ कि केवलज्ञान से भिन्न सुख नहीं है । इसीलिये केवलज्ञान में खेद संभव नहीं है।
अब और भी केवलज्ञान की सुखस्वरूपता दूसरी पद्धति से दृढ़ करते हैं -
[णाणं अत्थंतगयं] - केवलज्ञान ज्ञेय पदार्थों के अन्त-पार को प्राप्त है, [लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी] - दृष्टि-केवलदर्शन लोकालोक में विस्तृत है । [णट्ठमणिट्ठम सव्वं] - अनिष्ट- दुःख और अज्ञान सभी नष्ट हैं, [इट्ठम पुण जं हि तं लद्धं] - और जो वास्तविक इष्ट ज्ञान और सुख है, वे सभी प्राप्त हुये हैं ।
वह इसप्रकार -- स्वभाव- घात के अभाव से सुख होता है - स्वभाव का घात नहीं होना सुख है । केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों स्वभाव हैं, उनका घात करने वाले दो आवरण कर्म हैं केवली के उन आवरण कर्मों का अभाव है; इसलिये स्वभाव-घात के अभाव में होनेवाला अक्षयानन्तसुख है । और क्योंकि परमानन्द एक लक्षण सुख से विपरीत, आकुलता के उत्पादक अनिष्टरूप दुःख और अज्ञान नष्ट हुये हैं; तथा क्योंकि पूर्वोक्त लक्षण सुख के अविनाभावी तीन लोक के उदर-विवर (छिद्र) में स्थित सम्पूर्ण पदार्थों को एक साथ प्रकाशित करनेवाला- जाननेवाला इष्ट ज्ञान प्राप्त है - इससे ज्ञात होता है कि केवली का ज्ञान ही सुख है - यह अभिप्राय है ।
अब परमार्थिक सुख केवली के ही है, जो उसे संसारियों के मानते हैं, वे अभव्य हैं; ऐसा निरूपण करते हैं -
[णो सद्दहंति] - जो नहीं मानते हैं । किसे नहीं मानते हैं ? [सोक्खं] - निर्विकार परमाह्लादमय एक सुख को जो नही मानते हैं । उस सुख को कैसा नहीं मानते हैं? [सुहेसुपरमंति] – सुखों में वही निर्विकार परमाह्लादमय सुख ही सर्वोत्कृष्ट है - उस सुख को जो ऐसा नहीं मानते हैं । ऐसा सुख किन्हें होता है? [विगदघादीणं] - घाति कर्मों से रहित भगवान को ऐसा सुख होता है । क्या करके भी नहीं मानते हैं? [सुणिदूण – “जाद सयं समत्तं“] वह सुख स्वोत्पन्न है, परिपूर्ण है..... इत्यादि पूर्वोक्त (६१ से ६३) तीन गाथाओं में कही पद्धति से सुनकर भी जो नहीं मानते हैं । [ते अभव्वा] - वे अभव्य हैं । वे जीव वर्तमान समय में सम्यक्त्वरूपी भव्यत्व की प्रगटता का अभाव होने से अभव्य कहे जाते हैं, सर्वथा अभव्य नहीं हैं । [भव्वा वा तं पडिच्छंति] - जो वर्तमान काल में सम्यक्त्वरूप भव्यत्व की प्रगटतारूप से भविष्य में परिणमित हैं, वे उस अनंत-सुख को अभी मानते हैं । और जो सम्यक्त्वरूप भव्यत्व की प्रगटतारूप से भविष्य में परिणमित होंगे, वे दूरभव्य आगे श्रद्धान करेंगे ।
यहाँ अर्थ यह है- जैसे मारने के लिये कोतवाल द्वारा पकड़े गये चोर को मरण अच्छा नहीं लगता; उसीप्रकार यद्यपि इन्द्रिय-सुख इष्ट नहीं है; तथापि कोतवाल के समान चारित्र-मोहनीय के उदय से मोहित होता हुआ उपराग रहित अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सुख को प्राप्त नहीं करता हुआ, आत्म-निन्दा आदि रूप से परिणत सरागसम्यग्दृष्टि, हेयरूप से उसका अनुभव करता है । और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि शुद्धोपयोगी हैं उनको, मछलियों के भूमि पर आने के समान अथवा अग्नि में प्रवेश के समान निर्विकार शुद्धात्म-सुख से च्युत होना भी दुःख प्रतीत होता है ।
वैसा ही कहा है- समतारूपी सुख का अनुभव करनेवाले मनुष्य को समता से च्युत होना ही अच्छा नहीं लगता, तब पंचेन्द्रिय विषय-भोगों की तो बात ही क्या? अर्थात् वे वहाँ कैसे रम सकते हैं? नहीं रम सकते । जैसे मछलियों को जब भूमि ही जलाती है, तब अग्नि-अंगारों का तो कहना ही क्या? वे तो जलायेंगे ही ।
(अब इन्द्रिय-सुख के प्रतिपादन की मुख्यता से आठ गाथाओं में निबद्ध पाँचवा स्थल प्रारम्भ होता है । यह स्थल चार भागों में विभक्त है । उनमें से सर्वप्रथम इन्द्रिय-सुख दुःख है - इस तथ्य का प्रतिपादक दो गाथाओं वाला प्रथम भाग प्रारम्भ होता है ।)
अब, संसारियों के साधक इन्द्रिय-ज्ञान के साध्यभूत इन्द्रिय-सुख का विचार करते हैं -
[मणुआसुरामरिंदा] - मनुष्येन्द्र – चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और देवेन्द्र । ये सभी कैसे हैं? [अहिद्दुदा इन्दियेहिं सहजेहिं] - कदर्थित - दु:खित-पीड़ित हैं । ये सभी किनसे पीड़ित हैं? ये सभी स्वाभाविक इन्द्रियों से पीड़ित हैं । [असहंता तं दुक्खं] - ये दु:खोद्रेक - दुःखों की तीव्रता को सहन नहीं करते हुये, [रमंते विसएसु रम्मेसु] - रम्याभास विषयों में रमण करते हैं ।
अब विस्तार करते हैं- मनुष्य आदि जीव अमूर्त, अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख के आस्वाद को प्राप्त नहीं करते हुये, मूर्त, इन्द्रिय ज्ञान-सुख के लिये उनके कारणभूत पंचेन्द्रियों में (पंचेन्द्रिय विषयों में) मित्रता करते हैं और इससे तप्त लोहे के गोले के जल खींचने (सोखने) के समान विषयों में तीव तृष्णा उत्पन्न होती है । उस तृष्णा को सहन नहीं करते हुए, वे विषयों का अनुभव करते हैं । इससे ज्ञात होता है कि पाँचों इन्द्रियाँ रोग (बीमारी) के समान हैं और विषय उनके निराकरण के लिये औषध के समान है - इस प्रकार संसारियों के वास्तविक सुख नहीं है ।
अब जो इन्द्रिय व्यापार है वह दुःख ही है, ऐसा कहते हैं -
[जेसिं विसएसु रदी] - जिनके निर्विषय अतीन्द्रिय परमात्मस्वरूप से विपरीत विषयों में प्रीति है, [तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं] - उन बर्हिमुख जीवों के निज शुद्धात्मद्रव्य की संवित्ति से उत्पन्न निरुपाधि पारमार्थिक सुख से विपरीत दुःख स्वभाव से ही है - ऐसा जानना चाहिये । उनके स्वभाव से दुःख है- यह कैसे ज्ञात होता है? पंचेन्द्रिय विषयों में प्रीति दिखाई देने से यह ज्ञात होता है । [जइ तं ण हि सब्भावं] - यदि वास्तव में वह दुःख उनके स्वभाव से नहीं होता [वावारो णत्थि विसयत्थम] - तो उनका विषयों के लिए व्यापार घटित नहीं होता । व्याधि-निवारण के लिये औषधि में प्रवृत्ति के समान यत: उनका विषयों में प्रवर्तन देखा जाता है- इससे ही यह ज्ञात होता है कि उनके दुःख है - यह अभिप्राय है ।
(अब, शरीर सुख का कारण नहीं है - इस तथ्य की प्रतिपादक दो गाथाओं वाला पाँचवे स्थल का दूसरा भाग प्रारम्भ होता है ।)
अब सिद्धात्माओं के शरीर का अभाव होने पर भी सुख है - यह बताने के लिये शरीर सुख का कारण नहीं है, यह स्पष्ट करते हैं –
[पप्पा] - प्राप्तकर । किन्हें प्राप्तकर? [इट्ठे विसये] - इष्ट-पंचेन्द्रिय विषयों को प्राप्त कर । कैसे विषयों को प्राप्त कर? [फासेहि समस्सिदे] - स्पर्शनादि इन्द्रियों से रहित शुद्धात्मतत्व से विलक्षण स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा अच्छी तरह से प्राप्त-ग्रहण करने के योग्य विषयों को प्राप्तकर । उन विषयों को वह कौन प्राप्त कर? [अप्पा] - आत्मारूप कर्ता- इस वाक्य का कर्ता आत्मा उन्हें प्राप्त कर । वह आत्मा किस विशेषता वाला है? [सहावेण परिणममानो] – अनंत-सुख के उपादानभूत शुद्धात्म-स्वभाव से विपरीत अशुद्ध-सुख के उपादानभूत अशुद्धात्म-स्वभाव से परिणमित होता हुआ - ऐसा होता हुआ [सयमेव सुहं] - स्वयं ही इन्द्रिय-सुखरूप परिणमित होता है । [ण हवदि देहो] - तथा शरीर अचेतन होने से सुखरूप नहीं है ।
यहाँ अर्थ यह है-कर्म से आच्छादित संसारी जीवों के जो इन्द्रिय-सुख है, उसमें भी जीव उपादान कारण है; शरीर नहीं । और शरीर तथा कर्म से रहित मुक्तात्माओं के जो अनन्त अतीन्द्रिय-सुख है, उसमें तो विशेष रूप से आत्मा ही कारण है ।
अब मनुष्य-शरीर सुख का कारण भले ही न हो, परन्तु देवों का दिव्य शरीर तो सुख का कारण होगा? ऐसी आशंका का निराकरण करते हैं -
[एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि] - एकान्त से-नियमरूप से वास्तव में देहरूप कर्ता सुख को नहीं करता है । किसके सुख को नहीं करता है? संसारी जीव के सुख को नहीं करता है । [सग्गे वा] - मनुष्यों का मानव शरीर सुख नहीं करता - यह तथ्य तो रहने दो अर्थात् इसे तो सुखकारक कोई नहीं मानेगा, परन्तु स्वर्ग में जो वह देवों का दिव्य शरीर है - वैक्रियिक शरीर है; वह भी उपचार को छोड़कर (मात्र उपचार से सुख का कारण कहा जाता है, वास्तव में) सुख को नहीं करता । [विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा] - किन्तु निश्चय से निर्विषय अमूर्त स्वाभाविक सदानन्द एक सुख-स्वभावी होने पर भी, व्यवहार से अनादि कर्म-बन्ध के वश विषयाधीन-रूप परिणमन कर स्वयं आत्मा ही सांसारिक सुख-दुःख रूप होता है, शरीर सुख-दुःख रूप नहीं होता - यह अभिप्राय है ।
इसप्रकार मुक्तात्माओं के शरीर का अभाव होने पर भी सुख है - इस परिज्ञान के लिये संसारियों के भी शरीर सुख का कारण नहीं है - इस कथनरूप से दो गाथाये पूर्ण हुईं ।
(अब इन्द्रिय-विषय भी सुख के कारण नहीं हैं - इस तथ्य की प्रतिपादक दो गाथाओं वाला पाँचवे स्थल का तीसरा भाग प्रारम्भ होता है ।)
अब आत्मा का, स्वयं ही सुख स्वभाव होने से, जैसे निश्चय से शरीर सुख का साधन नहीं है, उसी प्रकार निश्चय से विषय भी सुख के करण नहीं है; ऐसा प्रतिपादन करते हैं -
[जइ] यदि [दिट्ठी] निशाचर प्राणियों की दृष्टि [तिमिरहरा] अन्धकार को नष्ट करने वाली है, तो [जणस्स] प्राणी को [दीवेण णत्थि कायव्वं] दीपक से कोई कर्तव्य नहीं रहता । उसे जैसे दीपक से प्रयोजन ही नहीं है [तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति] उसी प्रकार निश्चय से आत्मा ही निर्विषय, अमूर्त, सर्व प्रदेशों से आह्लाद को उत्पन्न करने वाला सहजानन्द एक लक्षण सुख स्वभावी है, वहाँ मुक्त अथवा संसारी दशा में विषय क्या करते हैं? कुछ भी नहीं - यह भाव है ।
[सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि] - अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं करके जैसे सूर्य स्वयं ही स्व-पर प्रकाशरूप से तेज है, उसीप्रकार स्वयं ही उष्ण है और वैसे ही अज्ञानी मनुष्यों का देवता है। कहाँ स्थित सूर्य इनरूप है? आकाश में स्थित सूर्य इनरूप है । [सिद्धो वा तहा णाणं सुहं च] - उसी प्रकार सिद्ध भगवान भी अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं करके स्वभाव से ही स्व-पर प्रकाशक केवलज्ञान-मय और उसी प्रकार परम संतुष्टि स्वरूप अनाकुलता लक्षण सुखमय हैं । सिद्ध भगवान इनमय कहाँ है? [लोगे] - वे लोक में इनमय हैं । [तहा देवो] - और उसी प्रकार निज-शुद्धात्मा के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप अभेद रत्नत्रय स्वरूप निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न सुन्दर आनन्द के तीव्र प्रवाह-रूप सुखामृत पान के पिपासु गणधर देव आदि परम-योगियों और देवेन्द्र आदि आसन्न-भव्य जीवों के मन में निरन्तर परम आराध्य और वैसे ही अनन्त ज्ञानादि गुणों के स्तवन से स्तुत्य जो पवित्र आत्म-स्वरूप - उस स्वभाव के कारण देव हैं ।
इससे ज्ञात होता है कि मुक्तात्माओं को विषयों से भी प्रयोजन नहीं है ।
इसप्रकार स्वभाव से ही सुख-स्वभावी होने से विषय भी मुक्तात्माओं को सुख के कारण नहीं - इस कथनरूप दो गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब सर्वज्ञ-नमस्कार परक दो गाथाओं वाला पाँचवे स्थल का चौथा भाग प्रारम्भ होता है ।)
[तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं तिहुवणपहाणदइयं] -
- प्रभामण्डल,
- तीनलोक तीनकालवर्तीं सम्पूर्ण वस्तुओं के सामान्य-अस्तित्व को एक साथ ग्रहण करनेवाला केवलदर्शन,
- उसीप्रकार सभी के विशेष-अस्तित्व को ग्रहण करने वाला केवल-ज्ञान,
- ऋद्धि शब्द से समवशरणादि लक्षण विभूति,
- सुख शब्द से अव्याबाध अनंतसुख,
- उस पद की इच्छा से इन्द्र आदि भी भृत्यता (सेवा-नौकरी) करते हैं - इस लक्षण वाली ईश्वरता,
- तीन-लोकों के राजाओं के भी प्रिय-स्वामी देव कहे जाते हैं
इसप्रकार वस्तु-स्तवनरूप से नमस्कार किया गया है ।
[पणमामि] - नमस्कार करता हूँ । [पुणो पुणो] - बारम्बार । बारम्बार किन्हें नमस्कार करता हूँ? [तं सिद्धं] - परमागम में प्रसिद्ध उन सिद्धों को नमस्कर करता हूँ । वे सिद्ध कैसे हैं? [गुणदो अधिगदरं] -अव्याबाध- अनन्त सुखादि गुणों से अधिकतर-अच्छी तरह विशिष्टाधिक-परिपूर्ण गुणवाले हैं । वे सिद्ध और कैसे हैं? [अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं] - जैसे पहले अरहन्त अवस्था में चक्रवर्ती, देवेन्द्र आदि समवशरण में आकर नमस्कार करते हैं, उससे प्रभुता होती है; उससे उल्लंघित हो जाने के कारण मानवपति, देवपति भाव से रहित हैं । वे सिद्ध और किस विशेषतावाले हैं? [अपुणब्भावणिबद्धं] - द्रव्य क्षेत्रादि पाँच प्रकार के भवों से विलक्षण शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी निजात्मा की प्राप्ति लक्षण जो मोक्ष, उसके अधीन होने से अपुनर्भावनिबद्ध हैं - यह भाव है ।
इस प्रकार नमस्कार की मुख्यता से दो गाथायें पूर्ण हुईं ।
इस प्रकार आठ गाथाओं वाला पाँचवा स्थल जानना चाहिये ।
इसप्रकार अठारह गाथाओं द्वारा पाँच स्थलों में विभक्त 'सुख प्रपंच' नामक चतुर्थ अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार पूर्वोक्त प्रकार से ['एस सुरासुर'] इत्यादि चौदह गाथाओं द्वारा पीठिका पूर्ण हुई उसके बाद सात गाथाओं द्वारा (सामान्य-सर्वज्ञसिद्धि), तदनन्तर तेंतीस गाथाओं द्वारा (ज्ञानप्रपंच) और उसके बाद अठारह गाथाओं द्वारा (सुखप्रपंच) - इसप्रकार सामूहिक बहत्तर गाथाओं द्वारा चार अन्तराधिकार रूप से प्रथम (शुद्धोपयोग अधिकार) पूर्ण हुआ ।
इसके आगे पच्चीस गाथा पर्यन्त चलनेवाला ['ज्ञानकण्डिका चतुष्टय'] नामक द्वितीयाधिकार प्रारम्भ होता है । वहाँ पच्चीस गाथाओं में सबसे पहले शुभाशुभ के विषय में मूढता-निराकरण के लिये ['देवदजदिगुरु'] इत्यादि दस गाथा पर्यन्त पहली ज्ञानकण्डिका कहते हैं । उसके बाद आप्त और आत्मा के स्वरूप परिज्ञान के विषय में मूढता-निराकरण के लिये ['चत्ता पावारंभं'] इत्यादि सात गाथा पर्यन्त दूसरी ज्ञान कण्डिका, अब उसके बाद द्रव्य-गुण-पर्याय सम्बन्धी परिज्ञान के विषय में मूढता-निराकरण के लिये ['दव्वादिएसु'] इत्यादि छह गाथा पर्यन्त तीसरी ज्ञान कण्डिका है । तत्पश्चात् स्व-पर तत्त्व परिज्ञान सम्बन्धी विषय में मूढता-निराकरण के लिये ['णाणप्पग'] इत्यादि दो गाथाओं द्वारा चौथी ज्ञान कण्डिका कही गई है ।
इसप्रकार ज्ञानकण्डिका चतुष्टय नामक दूसरे अधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।
अब, इस समय पहली ज्ञान कण्डिका अन्तराधिकार में स्वतंत्र व्याख्यानरूप से चार गाथायें, उसके बाद पुण्य जीव को विषयतृष्णा का उत्पादक है - इस कथनरूप से चार गाथायें, उसके बाद उपसंहार रूप से दो गाथायें - इसप्रकार तीन स्थल पर्यन्त क्रम से व्याख्यान करते हैं ।
(अब यहाँ द्वितीयाधिकार के अन्तर्गत प्रथम ज्ञानकण्डिका रूप प्रथम अन्तराधिकार का चार स्वतंत्र गाथा प्रतिपादक चार गाथाओं में निबद्ध पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)
वह इसप्रकार - अब यद्यपि पहले छह गाथाओं (६५ से ७०) द्वारा इन्द्रिय-सुख का स्वरूप कहा गया है, तथापि उसे ही और भी विस्तार से कहते हुये उसके साधक शुभोपयोग का प्रतिपादन करते हैं ।
अथवा दूसरी पातनिका - पीठिका में जिस शुभोपयोग के स्वरूप की सूचना दी थी उसका इस समय इन्द्रिय-सुख का साधक होने से इन्द्रिय-सुख के विशेष विचार के प्रसंग में विशेष विवरण करते हैं -
[देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु] - देवता, यति और गुरु की पूजा में तथा दान और सुशीलों में [उववासादिसु रत्तो] - और उसी प्रकार उपवासादि में आसक्त-लीन [अप्पा] - जीव [सुहोवओगप्पगो] - शुभोपयोगात्मक कहा गया है ।
वह इसप्रकार -
- निर्दोषी परमात्मा देव हैं,
- इन्द्रिय-जय से शुद्धात्म-स्वरूपलीनता में प्रयत्नशील यति हैं,
- स्वयं भेदाभेद रत्नत्रय के आराधक तथा उस रत्नत्रय के अभिलाषी भव्यों को जिनदीक्षा देने वाले गुरु हैं
पूर्वोक्त देवता, यति, गुरुओं तथा उनके प्रतिबिम्बादि के प्रति यथासम्भव द्रव्य - भावादि पूजा और आहारादि चार प्रकार का दान तथा आचारादि ग्रंथों (चरणानुयोग के ग्रंथों) में कहे हुये शील व्रत और उसी प्रकार जिनगुणसम्पत्ति आदि विधि-विशेषरूप उपवासादि । जो इन शुभ अनुष्ठानों में लीन है और द्वेषरूप, विषयानुरागरूप अशुभ-अनुष्ठानों से विरक्त है, वह जीव शुभोपयोगी है - यह गाथा का अर्थ है ।
अब पूर्वोक्त शुभोपयोग द्वारा साध्य इन्द्रिय-सुख को कहते हैं -
[सुहेण जुत्तो आदा] - जैसे निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोग से सहित यह जीव, मुक्त होकर अनन्तकाल तक अतीन्द्रिय सुख पाता रहता है; उसी प्रकार पूर्व गाथा (७३ गाथा) में कहे लक्षण वाले शुभोपयोग से सहित - परिणत यह आत्मा [तिरियो वा माणुसो वा देवो वा भूदो] - तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव होकर [तावदि कालं] - अपनी आयु पर्यन्त [लहदि सुहं इंदियं विविहं] - इन्द्रियजन्य विविध सुखों को प्राप्त करता है - यह गाथा का अभिप्राय है ।
[सोक्खं सहावसिद्धं] - उपादान-कारणभूत ज्ञानानन्द एक स्वभाव से उत्पन्न जो रागादि उपाधि रहित स्वाभाविक सुख, वह स्वभाव-सिद्ध सुख कहलाता है । [तच्च णत्थि सुराणं पि] - वह सुख मनुष्यादि के तो दूर ही रहो, देवेन्द्रादि के भी नहीं है । [सिद्धमुवदेसे] - ऐसा परमागम में कहा गया है । [ते देहवेदणट्ठा रमंति विसएसु रम्मेसु] - उस प्रकार के स्वभावसिद्ध सुख का अभाव होने से वे देवादि शरीर सम्बन्धी वेदना से पीड़ित-दु:खित होते हुये रम्याभास विषयों में रमण करते हैं ।
अब इसका विस्तार करते हैं - जैसे कोई पुरुष विशेष
- नीचे भाग में सात नरक स्थानीय (रूपी) विशाल अजगर के फैलाये हुये मुख में,
- क्रोध-मान-माया-लोभ स्थानीय चारों कोनों पर स्थित चार सर्पों द्वारा फैलाये हुये मुख में,
- शरीर स्थानीय महान अन्धकूप में गिरा हुआ,
- संसार स्थानीय विशाल भयंकर वन में,
- मिथ्यात्वादि कुमार्ग में नष्ट होता हुआ,
- मृत्यु स्थानीय हाथी के भय से,
- जिसकी जड़ शुक्ल और कृष्ण पक्ष रूपी दो चूहे काट रहे हैं ऐसी आयुकर्म स्थानीय वृक्ष की शाखा-विशेष पर,
- रोग स्थानीय मधु-मक्खियों से घिरा हुआ,
- उसी हाथी द्वारा वृक्ष हिलाये जाने पर,
- विषय-सुख स्थानीय मधु-बिन्दु के स्वाद से
[णरणारयंतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं] - सहज अतीन्द्रिय, अमूर्त, सदानन्द एक लक्षण वास्तविक सुख को प्राप्त नहीं करते हुये मनुष्य, नारकी, तिर्यंच, देव यदि समानरूप से पूर्वोक्त पारमार्थिक सुख से विलक्षण पंचेन्द्रियात्मक शरीर से उत्पन्न दुःख को ही निश्चयनय से भोगते हैं, [किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं] - व्यवहार से विशेष भेद होने पर भी निश्चय से शुद्धोपयोग से विलक्षण वह प्रसिद्ध शुभ-अशुभ उपयोग भिन्नता को कैसे प्राप्त हो सकता है? किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकता - यह भाव है ।
इस प्रकार स्वतंत्र चार गाथाओं द्वारा प्रथम स्थल पूर्ण हुआ ।
(अब तृष्णोत्पादक पुण्य प्रतिपादक चार गाथाओं में निबद्ध दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब पुण्य देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि पद देता है - इस प्रकार पहले प्रशंसा करते है । पुण्य की प्रशंसा किसलिये करते हैं? उसके फल के आधार से आगे तृष्णा की उत्पत्तिरूप दुःख दिखाने के लिये पहले उसकी प्रशंसा करते हैं -
[कुलिसाउहचक्कधरा] - देवेन्द्र और चक्रवर्ती रूप कर्ता - इस वाक्य में कर्ता कारक में प्रयुक्त देवेन्द्र और चक्रवर्ती । [सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं] - शुभोपयोग के फल से उत्पन्न भोगों द्वारा [देहादीणं वृद्धिं करेंति] - विशेष क्रियाओं के माध्यम से शरीर-परिवार आदि की वृद्धि करते हैं । वे कैसे होते हुये इनकी वृद्धि करते हैं? [सुहिदा इवाभिरदा] - वे सुखी के समान आसक्त होते हुये शरीरादि की वृद्धि करते हैं।
यहाँ अर्थ यह है - जो परम अतिशय संतुष्टि को उत्पन्न करने वाला और विषय-तृष्णा को नष्ट करने वाला स्वाभाविक सुख है, उसे प्राप्त नहीं करने वाले दूषित रक्त में आसक्त जलयूका (जोंक) के समान आसक्त होते हुये सुखाभास से देहादि की वृद्धि करते हैं । इससे ज्ञात होता है कि उन्हें स्वाभाविक सुख नहीं है।
[जदि संति हि पुण्णाणि य] - यदि निश्चय से पुण्य-पाप रहित परमात्मा से विपरीत पुण्य हैं । और वे भी पुण्य किस विशेषता वाले हैं? [परिणामसमुब्भवाणि] - निर्विकार स्वसंवेदन से विलक्षणशुभ परिणामों से उत्पन्न [विविहाणि] - अपने अनन्त भेदों से अनेक प्रकार वाले हैं । तब वे पुण्य क्या करते हैं? [जणयंति विसयतण्हं] - उत्पन्न करते हैं । वे पुण्य क्या उत्पन्न करते हैं? वेविषय-तृष्णा उत्पन्न करते हैं । वे किनकी विषय-तृष्णा उत्पन्न करते हैं? [जीवाणं देवदंताणं] - देखे हुये, सुने हुये, अनुभव किये हुये भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध से लेकर विविध प्रकार के इच्छा रूपी घोड़ों और विकल्प जालों से रहित परमसमाधि (स्वरूपलीनता) से उत्पन्न, सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों में परमाह्लाद को उत्पन्न करने वाले एकाकार परम समरसीभाव स्वरूप, विषयेच्छा रूप अग्नि से उत्पन्न तीव्रदाह की विनाशक, सुखामृत स्वरूप तृप्ति को प्राप्त नहीं करने वाले देवेन्द्रों से लेकर बहिर्मुख संसारी जीवों की विषय-तृष्णा को उत्पन्न करते हैं ।
यहाँ तात्पर्य यह है कि यदि (उक्त बहिर्मुखी जीवों के) उस प्रकार की विषय-तृष्णा नहीं होती, तो वे दूषित रक्त में आसक्त जलयूका (जोंक) के समान विषयों में प्रवृत्ति कैसे करते? और यदि वे करते है, तो तृष्णा के उत्पादक होने से पुण्य दुःख के कारण ज्ञात होते हैं।
[ते पुण उदिण्णतण्हा] - सहज शुद्धात्म-तृप्ति का अभाव होने से सर्व संसारी जीव तृष्णा की प्रगटता वाले होते हुये [दुहिदा तण्हाहिं] - स्वसंवेदन से उत्पन्न पारमार्थिक सुख का अभाव होने से पूर्वोक्त तृष्णा से दुःखित होते हुये । तृष्णा से दुःखी वे क्या करते है? [विसयसोक्साणि इच्छंति] - उससे दुःखी वे निर्विषय परमात्मसुख से विलक्षण विषय-सुख की इच्छा करते हैं । वे मात्र उसकी इच्छा ही नहीं करते, अपितु [अणुभंवति य] - अनुभव भी करते हैं । वे विषय-सुख का अनुभव कब तक करते हैं? [आमरण] - वे उसका अनुभव मरण पर्यन्त करते हैं । कैसे होते हुये वे उसका अनुभव करते है? [दुक्खसंतत्ता] - दुःख से संतप्त होते हुये वे उसका अनुभव करते हैं ।
यहाँ अर्थ यह है - जैसे तृष्णा की वृद्धि से प्रेरित दूषित रक्त की इच्छा करते हुये जलौकस (जोंक) उसके ही अनुभव करते हुये मरण पर्यन्त दुःखी होते है; उसी प्रकार स्वशुद्धात्मा के संवेदन से रहित जीव भी, मृगतृष्णा के कारण जल की इच्छा के समान विषयों को चाहते हुये तथा उनका ही अनुभव करते हुये मरण पर्यन्त दु:खी होते हैं ।
इससे यह निश्चित हुआ कि तृष्णा रूपी रोग को उत्पन्न करने वाले होने से पुण्य वास्तव में दुःख के कारण हैं ।
- [सपरं] - पर-द्रव्य की अपेक्षा वाला होने से सपर-पराधीन है, और पारमार्थिक सुख परद्रव्य से निरपेक्ष होने के कारण स्वाधीन है ।
- [बाधासहियं] - इन्द्रिय-सुख तीव्र क्षुधा (भूख), तृष्णा आदि अनेक बाधाओं से सहित होने के कारण विघ्न-सहित है । और निजात्म-सुख पूर्वोक्त सब बाधाओं से रहित होने के कारण अव्याबाध निर्विघ्न है ।
- [विच्छिण्णं] - इन्द्रिय-सुःख अपने विरोधी असाता के उदय सहित होने के कारण विच्छिन्न - अन्तर सहित - खण्डित है और अतीन्द्रिय सुख अपने विरोधी असाता के उदय का अभाव होने से अविच्छिन्न - अन्तर रहित - अखण्डित है ।
- [बंधकारणं] - इन्द्रिय-सुख देखे हुए, सुने हुए, भोगे हुए भोगों की इच्छा को लेकर (इच्छा से) होने वाले अनेक प्रकार के अपध्यानों (खोटे-ध्यानों) के वश भविष्य काल में नरकादि दु:खों को उत्पन्न करने वाले कर्म-बंध का उत्पादक होने से बंध का कारण है, और अतीन्द्रिय-सुख सम्पूर्ण अपध्यानों रहित होने के कारण बन्ध का कारण नहीं है ।
- [विसमं] - वह शम अर्थात् परमोपशम से रहित अथवा संतुष्टि कारक नहीं होने से या हानि-वृद्धि सहित होने के कारण विषम है और अतीन्द्रिय सुख परम संतुष्टि कारक तथा हानि-वृद्धि रहित है ।
इस प्रकार पुण्य जीव की तृष्णा के उत्पादक होने से दुःख के कारण हैं - इस कथनरूप से दूसरे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब उपसंहार परक दो गाथाओं वाला तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
[ण हि मण्णदि जो एवं] - जो इसप्रकार नहीं मानता है । क्या नहीं मानता है? [णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं] - निश्चय से पुण्य और पाप मे विशेष (भेद-अन्तर) नहीं है - ऐसा नहीं मानता है । वह क्या करता है? [हिंडदि घोरमपारं संसारं] - वह घूमता है । कहाँ घूमता है? संसार में घूमता है । कैसे संसार में घूमता है? अभव्य की अपेक्षा से - वह घोर अपार संसार में घूमता है । वह ऐसे संसार में कैसा होता हुआ घूमता है? [मोहसंछण्णो] - वह मोह से आच्छादित होता हुआ (घिरा हुआ) ऐसे संसार में घूमता है ।
वह इसप्रकार - व्यवहार से द्रव्य पुण्य-पाप में भेद है, अशुद्ध निश्चयनय से भाव पुण्य-पाप और उनके फलस्वरूप होनेवाले सुख-दुख में भेद है, परन्तु शुद्ध निश्चय से शुद्धात्मा से भिन्न होने के कारण (इनमें) भेद नहीं है । इसप्रकार शुद्ध निश्चयनय से पुण्य और पाप में अभेद को जो नहीं मानता है, वह देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, कामदेव आदि पदों के निमित्त निदानबन्धरूप से पुण्य को चाहता हुआ, निर्मोह शुद्धात्मतत्त्व से विपरीत दर्शनमोह-चारित्रमोह से आच्छादित होता हुआ सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी के समान पुण्य और पाप दोनों से बंधा हुआ, संसार रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में भ्रमण करता है - यह अर्थ है ।
[एवं विदिदत्थो जो] - इसप्रकार ज्ञानानन्द एक स्वभावरूप परमात्म-तत्त्व ही उपादेय है, अन्य सर्व हेय हैं - इसप्रकार हेयोपादेय के परिज्ञान से अर्थ--तत्त्व को जानकर, जो [दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा] - निज शुद्धात्म-द्रव्य से भिन्न शुभाशुभ सम्पूर्ण द्रव्यों में राग अथवा द्वेष को प्राप्त नहीं होता है, [उवओगविसुद्धो सो] - रागादि रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण शुद्धोपयोग से विशुद्ध होकर वह [खवेदि देहुब्भवं दुक्खं] - अनाकुलता लक्षण पारमार्थिक सुख से विलक्षण तपे हुये लोह-पिण्ड के समान देह से उत्पन्न तीव्र आकुलता के उत्पादक शारीरिक दुःख को, लोह-पिण्ड से रहित अग्नि के समान, घनघात परम्परा के स्थानीय देह रहित होकर नष्ट कर देता है - यह अभिप्राय है ।
इसप्रकार उपसंहार रूप से तीसरे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुईं ।
इसप्रकार शुभाशुभ विषयक मूढ़ता के निराकरण के लिये १० गाथा पर्यन्त ३ स्थलों के समूह द्वारा प्रथम ज्ञानकण्डिका नामक पहला अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
(अब आप्त-आत्मा के स्वरूप परिज्ञान विषयक मूढ़ता निराकरण की प्रधानता वाला सात गाथाओं में निबद्ध द्वितीय ज्ञानकण्डिका नामक दूसरा अन्तराधिकार प्रारम्भ होता है ।)
[चत्ता पावारंभं] - पहले घर में निवास आदि रूप पापारम्भ को छोड़कर [समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि] - फिर अच्छी तरह स्थित होता है । अच्छी तरह कहाँ स्थित होता है? शुभचारित्र में स्थित होता है। [ण जहदि जदि मोहादि] - यदि राग-द्वेष-मोह को नहीं छोड़ता है, [ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं] - वह शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है ।
यहाँ विस्तार करते हैं - यदि कोई मोक्षार्थी, पहले परम-उपेक्षा लक्षण परम सामायिक की प्रतिज्ञा लेकर, बाद में विषय-सुख की साधक शुभोपयोग परिणति से मोहित चित्तवाला होता हुआ, निर्विकल्प समाधि स्वरूप पूर्वोक्त सामायिक का अभाव होने पर निर्मोह शुद्धात्म-तत्त्व से विरुद्ध मोहादि को नहीं छोड़ता है, तो जिन रूप सिद्ध-भगवान के समान निज-शुद्धात्मा को प्राप्त नही करता है -- यह गाथा का अर्थ है ।
[तवसंजमप्पसिद्धो] - सम्पूर्ण रागादि परभावों की इच्छा के त्याग से, स्व-स्वरूप में प्रतपन-विजयन तप है; बाह्य में इन्द्रिय-संयम और प्राणसंयम के बल से शुद्धात्मा में संयमन पूर्वक समरसी भाव से परिणमन संयम है । उन दोनों से प्रसिद्ध-उत्पन्न-इसप्रकार तप और संयम से प्रसिद्ध [सुद्धो] - क्षुधादि अठारह दोषों से रहित, [सग्गापवग्गमग्गकरो] - स्वर्ग और प्रसिद्ध केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टय लक्षण मोक्ष - उन दोनों का मार्ग करते हैं अर्थात् मार्ग का उपदेश देते हैं - इसप्रकार स्वर्ग-मोक्ष मार्गकर, [अमरासुरिंदमहिदो] - उस पद के इच्छुक देवेन्द्रों-असुरेन्द्रों द्वारा पूजित हैं - इसप्रकार अमरासुरेन्द्र महित, [देवो सो] - इन गुणों से विशिष्ट वे अरहंत देव हैं । [लोयसिहरत्थो] - वे ही भगवान लोक के अग्र शिखर पर स्थित होते हुये सिद्ध हैं - इसप्रकार जिनरूप सिद्ध भगवान का स्वरूप जानना चाहिये ।
[तं देवदेवदेवं] - सौधर्मेन्द्रादि देवों के भी देव-देवेन्द्र हैं, उनके देव-आराध्य - उन देवाधिदेव को, [जदिवरवसहं] - जितेन्द्रियत्व होने से निजशुद्धात्मा में प्रयत्नशील यति हैं, उनमें श्रेष्ठ गणधर देवादि हैं, उनमें भी प्रधान यतिवर वृषभ--उन यतिवर-वृषभ को [गुरुम् तिलोयस्स] - अनन्त ज्ञानादि महान गुणों के द्वारा तीन लोक के भी गुरु - उन त्रिलोकगुरु को [पणमंति जे मणुस्सा] - इसप्रकार के उन भगवान को जो मनुष्यादि द्रव्य-भाव नमस्कार पूर्वक प्रणाम करते हैं - उनकी आराधना करते हैं, [ते सोक्खं अक्खयं जंति] - वे उस आराधना के फल-स्वरूप परम्परा से अक्षय-अनन्त सौख्य को प्राप्त करते हैं - यह गाथा का भाव है ।
[जो जाणदि अरहंतं] - कर्तारूप जो जानता है - इस कथन में कर्ता कारक में प्रयुक्त जो जानता है । किसे जानता है? जो अरहन्त को जानता है । किस रूप से अरहंत को जानता है? [दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं] - जो द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से अरहन्त को जानता है । [सो जाणदि अप्पाणं] - वह पुरुष अरहन्त के परिज्ञान के बाद आत्मा को जानता है, [मोहो खलु जादि तस्स लयं] - उस आत्म-परिज्ञान से उसका मोह-दर्शनमोह विनाश को प्राप्त होता है ।
वह इसप्रकार - केवलज्ञानादि विशेषगुण, अस्तित्वादि सामान्यगुण, परमौदारिक शरीराकार-रूप जो आत्म-प्रदेशों का अवस्थान (आकार) वह व्यंजन-पर्याय, अगुरुलघुक गुण की षडवृद्धि-हानि रूप से प्रति-समय होने वाली अर्थ-पर्यायें - इन लक्षण वाले गुण-पर्यायों का आधारभूत अमूर्त असंख्यात प्रदेशी शुद्ध चैतन्य के अन्वयरूप (नित्य-वही-वही) द्रव्य है ।
इसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप को पहले कहे हुये अरहन्त नामक परमात्मा में जानकर, तदनन्तर निश्चय नय से उसी आगम के सारपदभूत अध्यात्म-भाषा (की अपेक्षा) से स्वशुद्धात्म-भावना के सम्मुख रूप सविकल्प 'स्वसंवेदन ज्ञान से', - उसीप्रकार आगम भाषा (की अपेक्षा) से अध:प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण नामक दर्शनमोह के क्षय में समर्थ परिणाम-विशेष के बल से पश्चात् (अपने ज्ञान को) आत्मा में जोड़ता है ।
इसके बाद निर्विकल्प स्वरूप प्राप्त होने पर, जैसे अभेदनय से पर्याय स्थानीय मुक्ताफल (मोती) और गुण स्थानीय धवलता (सफेदी) हार ही है, उसीप्रकार अभेद नय से पूर्वोक्त द्रव्य-गुण-पर्याय आत्मा ही हैं - इसप्रकार परिणमित होता हुआ (उसका) दर्शन-मोहरूप अन्धकार विनाश को प्राप्त होता है - यह गाथा का भाव है ।
[जीवो] जीवरूप कर्ता - इस गाथा में कर्ता कारक में प्रयुक्त जीव । वह जीव किस विशेषता वाला है । [ववगदमोहो] शुद्धात्म-तत्त्व की रुचि को रोकने वाले दर्शन-मोह से रहित है । वह और किस विशेषता वाला है? [उवलद्धो] जानने वाला है । किसे जानने वाला है? [तच्चं] परमानन्द एक स्वभावी आत्म-तत्त्व को जानने वाला है । किसके आत्म-तत्त्व को जाननेवाला है? [अप्पणो] निज शुद्धात्मा सम्बन्धी आत्म-तत्त्व को जानने वाला है । निज शुद्धात्म-तत्व को कैसे जानता है? [सम्मं] संशयादि दोषों से रहित होने के कारण अच्छी तरह जानता है । [जहदि जदि रागदोसे] यदि शुद्धात्मानुभूति लक्षण वीतराग-चारित्र को रोकने वाले चारित्र-मोह नामक राग-द्वेष को छोड़ता है, [सो अप्पाणं लहदि सुद्धं] वही अभेद रत्नत्रय परिणत जीव शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी आत्मा को प्राप्त करता है - मुक्त होता है ।
यहाँ प्रश्न है कि पहली ज्ञान कण्डिका में -
((उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं -- (गाथा ८२ उत्तरार्द्ध) ))
उपयोग की विशुद्धि (शुद्धोपयोग) वाला वह जीव, देहज दुःखों का क्षय करता है।
- ऐसा कहा गया है और यहाँ -
((जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं -- (प्रकृत गाथा उत्तरार्द्ध) ))
यदि वह राग-द्वेष को छोड़ता है तो शुद्धात्मा को प्राप्त करता है - ऐसा कहा गया है । दोनों ही गाथाओं से मोक्ष फलित होता है; अन्तर क्या है?
आचार्य उसके प्रति उत्तर कहते हैं -- वहाँ (गाथा ८२ मे) निश्चय से शुभाशुभ में समानता जानकर, बाद में शुभ रहित निज शुद्धस्वरूप में लीन होकर मोक्ष प्राप्त करता है, इस कारण शुभाशुभ-मूढ़ता के निराकरण के लिये (वह) ज्ञानकण्डिका कही गई है । और यहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय से आप्त का स्वरूप जानकर, बाद में उसरूप स्व-शुद्धात्मा में लीन होकर मोक्ष प्राप्त करता है, इस कारण यह आप्त और आत्म-स्वरूप विषयक मूढ़ता के निराकरण के लिए ज्ञान-कण्डिका है - इन दोनों में इतना ही अन्तर है ।
[सव्वे वि य अरहंता] - और सभी अरहन्त [तेण विधाणेण] - द्रव्य-गुण-पर्याय द्वारा पहले अरहन्त को जानकर बाद में वैसे ही अपने आत्मा में स्थितिरूप-लीनतारूप - उस पूर्वोक्त प्रकार से [खविदकम्मंसा] - विविध कर्मों से रहित होकर [किच्चा तधोवदेसं] - हे भव्यों! निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण यह ही मोक्षमार्ग है, दूसरा नहीं है - ऐसा उपदेश देकर [णिव्वादा] - अक्षय-अनन्त सुख से तृप्त हुये हैं - मुक्त हुये हैं [ते] - वे अरहन्त भगवान । [णमो तेसिं] - इसप्रकार मोक्षमार्ग का निश्चय करके, मोक्ष और मोक्ष-मार्ग - उन दोनों के इच्छुक ('श्री कुंदकुंदाचार्यदेव') उस निज शुद्धात्मानुभूति स्वरूप मोक्षमार्ग तथा उसके उपदेशक अरहंतों को 'उन्हें नमस्कार हो' इस पद द्वारा नमस्कार करते हैं -- यह अभिप्राय है ।
[दंसणसुद्धा] - निज शुद्धात्मा की रुचिरूप, निश्चय सम्यकत्व को साधनेवाले, तीन मूढता आदि पच्चीस दोषों से रहित तत्वार्थ-श्रद्धान लक्षण, दर्शन से शुद्ध - दर्शनशुद्ध हैं । [पुरिसा] - जीव । और वे जीव कैसे हैं? [णाणपहाणा] - उपराग रहित स्वसंवेदन-ज्ञान को साधने वाले वीतराग - सर्वज्ञ द्वारा कहे गये परमागम का अभ्यास लक्षण ज्ञान से प्रधान - ज्ञान से समर्थ - ज्ञान में प्रौढ - ज्ञान प्रधान हैं । और वे जीव कैसे हैं? [समग्गचरियत्था] - विकार रहित, चंचलता रहित आत्मानुभूति लक्षण निश्चय चारित्र को साधने वाले आचारादि शास्त्रों में कहे गये मूलगुणों व उत्तरगुणों के अनुष्ठानादिरूप चारित्र से समग्र - परिपूर्ण - समग्र चारित्रवान हैं, [पूजासक्काररिहा] - द्रव्य व भाव रूप पूजा व गुण - प्रशंसारूप सत्कार - उन दोनों के योग्य हैं । [दाणस्सय हि] - और स्पष्टरूप से दान के योग्य हैं [ते] - वे पहले कहे हुये रत्नत्रय के आधारभूत जीव । [णमो तेसिं] - उन्हें नमस्कार हो - इसप्रकार वे ही नमस्कार-योग्य हैं ।
[दव्वादिएसु] - शुद्धात्मादि द्रव्यों में, उन द्रव्यों के अनंत-ज्ञानादि और अस्तित्वादि विशेष - सामान्य लक्षण गुणों में और शुद्वात्म - परिणति लक्षण सिद्धत्वादि पर्यायों में तथा यथासंभव पहले कहे गये तथा आगे कहे जाने वाले द्रव्य-गुण-पर्यायों में [मूढो भावो] - इन पूर्वोक्त द्रव्य-गुण-पर्यायों में, विपरीत अभिप्राय रूप से तत्त्व में संशय उत्पन्न करनेवाला मूढभाव [जीवस्स हवदि मोहो त्ति] - जीव का इसप्रकार का भाव दर्शनमोह है । [खुब्भदि तेणुच्छण्णो] - उस दर्शनमोह से घिरा हुआ, निराकुल आत्म-तत्त्व से विपरीत आकुलता द्वारा क्षोभ, स्वरूप चंचलता, विपरीतता को प्राप्त होता है । क्या करके स्वरूप विपरीतता को प्राप्त होता है? [पप्पा रागं व दोसं वा] - विकार रहित शुद्धात्मा से विपरीत इष्टानिष्ट इन्द्रिय - विषयों में हर्ष-विषाद रूप चारित्रमोह नामक राग-द्वेष को प्राप्तकर स्वरूप-विपरीतता को प्राप्त होता है ।
इससे क्या कहा गया है - यह सब कहने का तात्पर्य क्या है? मोह - दर्शनमोह और राग-द्वेष दोनों चारित्रमोह - इसप्रकर मोह तीन भूमिकावाला - तीन भेदवाला है ।
[मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स] - मोहादि रहित परमात्मस्वरूप परिणति से रहित मोह, राग, द्वेष परिणत बाह्यदृष्टिवाले (बहिरात्मा) जीव के [जायदि विविहो बंधो] - शुद्धोपयोग लक्षण भाव-मोक्ष तथा उसके बल से जीव-प्रदेश और कर्म-प्रदेशों का अत्यन्त पृथक् होना द्रव्यमोक्ष है -- इसप्रकार द्रव्य-भाव मोक्ष से विलक्षण सभी प्रकार से उपादेयभूत - प्रगट करने योग्य स्वाभाविक सुख से विपरीत नारकादि दुःखों के कारणभूत विविध प्रकार के बंध होते हैं । [तम्हा ते संखवइदव्वा] - क्योंकि राग-द्वेष-मोह परिणत जीव के इसप्रकार बन्ध होता है, इसलिये रागादि से रहित शुद्धात्मा के ध्यान द्वारा, वे राग-द्वेष-मोह अच्छी तरह नष्ट करने योग्य हैं -- यह तात्पर्य है ।
[अट्ठे अजधागहणं] - यथास्वरूप (अपने-अपने स्वरूप मे) स्थित होने पर भी शुद्धात्मादि पदार्थों में विपरीत अभिप्राय के कारण जैसा नहीं है, वैसा ग्रहण करना (विपरीत जानना/मानना), [करुणाभावो य] - शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण परम उपेक्षा संयम से विपरीत करुणा भाव - दया परिणाम अथवा व्यवहार से करुणा का अभाव - किन विषयों में करुणा या करुणा का अभाव भाव? [मणुवतिरिएसु] - मनुष्य और तिर्यंच जीवों में करुणा भाव या करुणा का अभाव [(मोहस्सेदाणि लिंगाणि)] - ये दर्शन मोह के चिन्ह हैं । [विसएसु च प्पसंगो] - विषय रहित सुखरूपी स्वाद से रहित बहिरात्मा जीवों को रुचिकर और अरुचिकर विषयों में जो वह विशेषरूप से संग-संसर्ग प्रवृत्ति है, उसे देखकर प्रीति और अप्रीति के चिन्हों से विवेकियों द्वारा चारित्रमोह नामक राग और द्वेष जाने जाते हैं; इसलिये उनके परिज्ञान के तत्काल बाद ही, निर्विकार निज शुद्धात्मा की भावना से, राग-द्वेष-मोह पूर्णरूप से नष्ट करने योग्य हैं - यह गाथा का अर्थ है ।
[जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा] जिन-शास्त्र से प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा शुद्धात्मादि पदार्थों को जाननेवाले जीव का निश्चय से । उन्हें जानने का क्या फल है? [खीयदि मोहोवचयो] - उन्हें जानने से विपरीत अभिप्रायरूप संस्कार करनेवाला मोह समूह नष्ट हो जाता है । [तम्हा सत्थं समधिदव्वं] - इसलिये शास्त्र का अच्छी तरह से अध्ययन करना चाहिये ।
वह इसप्रकार - कोई भव्य,
- वीतराग-सर्वज्ञ देव द्वारा कहे गये शास्त्र से 'एक मेरा शाश्वत आत्मा' इत्यादि परमात्मा का उपदेश देने वाले श्रुतज्ञान द्वारा सर्वप्रथम आत्मा को जानता है और
- उसके बाद विशिष्ट अभ्यास के वश से परम-समाधि (स्वरूप-लीनता) के समय रागादि विकल्पों से रहित मानस-प्रत्यक्ष (स्व-संवेदन प्रत्यक्ष) से उसी आत्मा को जानता है, अथवा
- उसीप्रकार अनुमान से जानता है।
[दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया] - द्रव्य-गुण और उन द्रव्यों की पर्यायें- तीनों को 'अर्थ' नाम से कहा गया है - इन सभी का अर्थ नाम है - यह अर्थ - भाव है । [तेसु] - उन तीनों द्रव्य-गुण-पर्यायों के मध्य [गुणपज्जयाणं अप्पा] - गुण-पर्यायों का सम्बन्धी आत्मा - स्वभाव है । गुण-पर्यायों का सम्बन्धी आत्मा कौन है? ऐसा पूछने पर [दव्व त्ति उवदेसो] - द्रव्य ही उन गुण-पर्यायों का आत्मा-स्वभाव है - ऐसा उपदेश है । अथवा - द्रव्य का क्या स्वभाव है? ऐसा पूछने पर गुण-पर्यायों का आत्मा - स्वरूप ही उसका स्वभाव है - ऐसा उपदेश है ।
अब यहाँ उसका विस्तार करते है- जिस कारण अनन्तज्ञान-सुख आदि गुणों को और उसीप्रकार अमूर्तत्व, अतीन्द्रियत्व, सिद्धत्व आदि पर्यायों को प्राप्त करता है - उसरूप से परिणमन करता है - उनका आश्रय लेता है, उसकारण अर्थ कहलाता है । अर्थ कौन कहलाता है? शुद्धात्म-द्रव्य अर्थ कहलाता है ।
जिस कारण आधारभूत उस शुद्धात्मद्रव्य को प्राप्त करते हैं - उसरूप से परिणमन करते है - उसका आश्रय लेते हैं, उस कारण वे अर्थ कहलाते हें। वे अर्थ कहलाने वाले कौन हैं? वे अर्थ कहलाने वाले ज्ञानत्व आदि गुण तथा सिद्धत्वादि पर्यायें हैं ।
ज्ञानत्व-सिद्धत्वादि गुण-पर्यायों का आत्मा अर्थात् स्वभाव क्या है? ऐसा पूछने पर शुद्धात्मद्रव्य ही स्वभाव है, अथवा शुद्धात्मद्रव्य का स्वभाव क्या है? ऐसा पूछने पर पूर्वोक्त गुण-पर्यायें ही उसका स्वभाव है।
इसीप्रकार शेष द्रव्य-गुण-पर्यायों की भी अर्थ संज्ञा जानना चाहिये - यह अर्थ है ।
[जो मोहरागदोसे णिहणदि] - जो मोह-राग-द्वेष को नष्ट करता है । क्या करके उन्हें नष्ट करता है ? [उवलब्भ] - प्राप्तकर उन्हें नष्ट करता है । क्या प्राप्त कर उन्हें नष्ट करता है ? [जोण्हमुवदेसं] - जिनेन्द्र भगवान का उपदेश प्राप्त कर उन्हें नष्ट करता है । [सो सव्वदुक्खमोक्खं पवदि]- वह सर्व दु:खों से मोक्ष (छुटकारा) प्राप्त करता है । कैसे-कब प्राप्त करता है? [अचिरेण कालेण] अल्प समय में--थोड़े ही समय में मोक्ष प्राप्त करता है ।
वह इस प्रकार - एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियादि (जीवों की) दुर्लभ परम्परा से जिनेन्द्र भगवान का उपदेश प्राप्त कर मोह-राग-द्वेष से विलक्षण अविनाभावी निश्चय-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान युक्त अपने शुद्धात्मा की निश्चल अनुभूति लक्षण वीतराग चारित्र नामक तीक्ष्ण (पैनी) तलवार को जो मोह-राग-द्वेष रूपी शत्रुओं के ऊपर दृढ़ता से गिराता है, वही वास्तविक अनाकुलता लक्षण सुख से विपरीत दुःखों का क्षय करता है -- यह अर्थ है ।
इस प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय के विषय में मूढ़ता निराकरण के लिये छह गाथाओं द्वारा तीसरी ज्ञान-कण्डिका पूर्ण हुई ।
(अब स्व-पर तत्त्व परिज्ञान विषयक मूढ़ता का निराकरण करनेवाला दो गाथाओं में निबद्ध चतुर्थ ज्ञान-कण्डिका नामक चौथा अन्तराधिकार प्रारम्भ होता है ।)
[णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं जाणदि जदि] - यदि ज्ञान-स्वरूपी आत्मा को जानता है । कैसे ज्ञान-स्वरूपी आत्मा को जानता है? अपने शुद्ध चैतन्य द्रव्यत्व से अभिसम्बद्ध - बँधे हुये - जुड़े हुये आत्मा को जानता है । मात्र अपने आत्मा को ही नहीं जानता अपितु अपने-अपने द्रव्यरूप से सम्बन्धित चेतन-अचेतन दूसरे द्रव्यों को जानता है । इन सबको कैसे जानता है? [णिच्छयदो] - निश्चयनय के अनुकूल भेदज्ञान का आश्रय लेकर जानता है । [जो] - जो कर्ता - इस वाक्य का कर्ता जो, [सो] - वह [मोहक्खयं कुणदि] - मोह रहित परमानन्द एक स्वभावी शुद्धात्मा से विपरीत मोह का क्षय करता है - यह गाथा का अर्थ है ।
[तम्हा जिणमग्गादो] - जिस कारण पहले (९६ वीं गाथा मे) स्व-पर भेद-विज्ञान से मोह-क्षय होता है - ऐसा कहा था उस कारण जिनमार्ग से - जिनागम/जिनवाणी से [गुणेहिं] - गुणों द्वारा [आदं] - आत्मा को - स्वयं को, मात्र आत्मा को ही नहीं [परं च] - अपितु परद्रव्य को भी । गुणों द्वारा आत्मा और पर को किनके बीच जानो? [दव्वेसु] - शुद्धात्मादि छह द्रव्यों में [अभिगच्छदु] - जानो । यदि क्या चाहते हो? [णिम्मोहं इच्छदि जदि] - यदि निर्मोह भाव को चाहते हो तो । वह कौन निर्मोह भाव को चाहता है? [अप्पा] - आत्मा निर्मोह भाव को चाहता है तो । किस सम्बन्धी उसे चाहता है? [अप्पणो] - आत्मा का - स्वयं का निर्मोह भाव चाहता है तो ।
वह इस प्रकार - जो यह मेरा स्व-पर को जानने वाला चैतन्य है, उसके द्वारा मैं कर्तारूप विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी अपने आत्मा को जानता हूँ तथा पुद्गलादि पाँच द्रव्य और शेष दूसरे जीव-रूप पर को पररूप से जानता हूँ, इस कारण एक अपवरक - अन्दर के कमरे में जलते हुए अनेक दीपकों के प्रकाश के समान एक साथ रहने पर भी सहज-शुद्ध चिदानन्द एक स्वभावी मेरा सभी द्रव्यों मे किसी के साथ भी मोह नहीं है - यह अभिप्राय है ।
इसप्रकार स्व और पर की जानकारी के विषय मे मूढ़ता-निराकरण के लिये दो गाथाओं द्वारा चतुर्थ ज्ञान-कण्डिका पूर्ण हुई ।
इसप्रकार पच्चीस गाथाओं द्वारा ज्ञान-कण्डिका चतुष्टय नामक दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ ।
(अब चार स्वतंत्र गाथायें प्रारम्भ होती हैं ।)
[सत्ता संबद्धे] - महासत्ता के सम्बन्ध से सहित [एदे] - इन पूर्वोक्त (९४, ९६ एवं १७ वीं गाथा में कहे हुये) शुद्ध जीवादि पदार्थों की । वे जीवादि पदार्थ और किस विशेषता वाले हैं? [सविसेसे] - विशेषसत्ता - अवान्तरसत्ता अर्थात् अपनी-अपनी स्वरूप सत्ता से सहित जीवादि पदार्थों की [जो हि णेव सामण्णे सद्दहदि] - जो कर्ता - इस वाक्य का जो कर्ता है वह, द्रव्य श्रामण्य (द्रव्य-मुनिपना) में स्थित होते हुये भी श्रद्धान नहीं करता है, तो वास्तव में [ण सो समणो] - निज शुद्धात्मा की रुचि-रूप निश्चय-सम्यग्दर्शन पूर्वक परमसामायिक-संयम लक्षण श्रामण्य का अभाव होने से वह श्रमण नहीं है । इसप्रकार की भाव-श्रमणता का अभाव होने से [तत्तो धम्मो ण संभवदि] - उस पहले कहे हुये द्रव्यश्रमण से रागादि मलिनता रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण धर्म भी संभव नहीं है - यह गाथा का अर्थ है ।
अब, "[उवसंपयामि सम्मं] - साम्य का आश्रय ग्रहण करता हूँ, इत्यादि नमस्कार गाथा में जो प्रतिज्ञा की थी, उसके बाद "[चारित्तं खलु धम्मो] - चारित्र वास्तविक धर्म है" - इत्यादि गाथा द्वारा चारित्र का धर्मपना स्थापित किया था । इसके बाद "[परिणमदि जेण दव्वं] - द्रव्य जिसरूप से परिणमित होता है" - इत्यादि गाथा द्वारा आत्मा का धर्मपना कहा था - इत्यादि । वह सब शुद्धोपयोग के प्रसाद से सिद्ध करने योग्य है । अब निश्चय रत्नत्रय परिणत आत्मा ही धर्म है, यह सिद्ध है ।
अथवा दूसरी पातनिका - सम्यक्त्व के अभाव में श्रमण(मुनि) नहीं है, उस श्रमण से धर्म भी नहीं है । तो कैसे श्रमण हैं? ऐसा प्रश्न पूछने पर उत्तर देते हुये ज्ञानाधिकार का उपसंहार करते हैं -
[जो णिहदमोहदिट्ठी] - तत्वार्थ-श्रद्धान लक्षण व्यवहार-सम्यक्त्व से उत्पन्न निज शुद्धात्मा की रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व रूप से परिणत होने के कारण जो मोहदृष्टि - दर्शनमोह से रहित है । और जो किस स्वरूप वाले हैं? [आगमकुसलो] - सर्व-दोष रहित परमात्मा द्वारा कहे गये परमागम के अभ्यास से उपाधि रहित स्व-संवेदन ज्ञान मे होने से आगम में कुशल - चतुर हैं । और जो किस स्वरूप वाले हैं? [विराग चरियम्हि अब्भुट्ठिदो] - व्रत, समित, गुप्ति आदि बाह्य चारित्र के अनुष्ठान के वश से स्व-शुद्धात्मा में निश्चल परिणति रूप वीतराग चारित्रमय परिणत होने के कारण परमवीतराग चारित्र में अच्छी तरह से स्थित हैं - तत्पर हैं । जो और कैसे हैं? [महप्पा] - मोक्ष लक्षण रूप महान अर्थ - पुरुषार्थ के साधक होने से महात्मा हैं, [धम्मो त्ति विसेसिदो समणो] - जीवन-मरण, लाभ-अलाभ आदि में समता भावरूप परिणत जो आत्मा हैं, वे श्रमण (मुनिराज) ही अभेदनय से धर्म हैं - ऐसा मोह और क्षोभ से रहित आत्मपरिणाम-रूप निश्चय धर्म कहा गया है - ऐसा अर्थ है ।
[जो तं दिट्ठो तुट्ठो] - जो भव्यों में प्रधान जीव उपराग रहित शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण निश्चय धर्म परिणत पहले (९९ वीं गाथा मे) कहे (स्वरूप वाले) मुनिराज को देखकर (विद्यमान) गुणों से पूर्ण भरे हुये होने के कारण अनुराग से संतुष्ट होता हुआ । संतुष्ट होता हुआ क्या करता है? [अब्भुट्ठित्ता करेदि सक्कारं] - उठकर मोक्ष के साधक सम्यक्त्वादि गुणों की प्रशंसा करता है । [वंदणणमंसणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियादि] - "तप से सिद्ध, नय से सिद्ध इत्यादि रूप से वन्दना करता है, आपको नमस्कार हो", इसप्रकार नमस्कार करता है, इत्यादि रूप से उनके प्रति विशेष भक्ति द्वारा वह भव्य उन मुनिवरों से पुण्य ग्रहण करता है - उनके माध्यम से उस समय पुण्य बन्ध करता है ।
[तेण णरा व तिरिच्छा] - उस पूर्वोक्त पुण्य से इस वर्तमान भव में मनुष्य और तिर्यंच [देविं वा माणुसिं गदिं पप्पा] - दूसरे भव में देव अथवा मनुष्य गति प्राप्त कर [विहविस्सरियेहिं सया संपुण्णमणोरहा होंति] - राजाधिराज, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदि परिपूर्ण सम्पत्ति विभव कहलाती है, आज्ञा के फल को ऐश्वर्य कहते हैं । उन विभव और ऐश्वर्य द्वारा परिपूर्ण मनोरथ वाले होते हैं । वही पुण्य भोगादि निदान रहित होने से यदि सम्यक्त्व पूर्वक है तो उससे परम्परा मोक्ष प्राप्त करते हैं - यह भाव है ।
(इस प्रकार चार स्वतंत्र गाथायें पूर्ण हुई)
इसप्रकार [श्री जयसेनाचार्य] कृत [तात्पर्य वृत्ति] में पूर्वोक्त प्रकार से [एस सुरासुरमणुसिंदवंदिय] इस प्रकार इस गाथा को आदि लेकर बहत्तर द्वारा शुद्धोपयोगाधिकार; उसके बाद [देवदजदिगुरुपूजासु] - इत्यादि पच्चीस गाथाओं द्वारा 'ज्ञानकण्डिका चतुष्टय' नामक दूसरा अधिकार; और उसके बाद [सत्ता सम्बद्धदे] इत्यादि सम्यक्त्व कथन रूप से पहली गाथा, रत्नत्रय के आधारभूत पुरुष के ही धर्म संभव है, इसप्रकार दो स्वतंत्र गाथाएं; उन निश्चय धर्मधारी मुनिराज की जो भक्ति करता है, उसके फल कथनरूप से [जो तं दिट्ठा] 'इत्यादि दो गाथायें - इस प्रकार पृथग्भूत चार गाथाओं से सहित दो अधिकारों द्वारा एक सौ एक गाथाओं में निबद्ध [ज्ञानतत्व प्रतिपादक] नामक पहला महाधिकार पूर्ण हुआ ।
[तम्हा तस्स णमाइं किच्चा] क्योंकि सम्यक्त्व के बिना श्रमण नहीं होते इसकारण उन सम्यक्चारित्र युक्त पूर्वोक्त मुनिराजों को नमस्कार करके, [णिच्चं पि तम्मणो होज्ज] हमेशा उनमें ही मन लगाकर [वोच्छामि] मै कर्ता (इस क्रिया को करने वाला मै) कहूँगा [संगहादो] संक्षेप से । नमस्कारादि करके क्या कहेंगे? [परमट्ठविणिच्छयाधिगमं] परमार्थ (त्रिकाली धुवतत्त्व निज भगवान आत्मा) का निश्चय करानेवाले अधिगम-सम्यक्त्व को कहूँगा ।
परमार्थ का निश्चय कराने वाले अधिगम शब्द से सम्यक्त्व कैसे कहते है? यदि यह प्रश्न हो तो परम अर्थ-परमार्थ-शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा, परमार्थ का विशेषरूप से - संशय आदि से रहित निश्चय - परमार्थ विनिश्चयरूप अधिगम है, जो शंका आदि आठ दोषों से रहित, क्योंकि यथार्थरूप से पदार्थों की जानकारी स्वरूप है, इसलिये परमार्थ विनिश्चय अधिगम सम्यक्त्व है - उसे कहूँगा ।
अथवा, परमार्थ विनिश्चय अर्थात् अनेकान्तात्मक - अनन्त गुणों अथवा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्म-युगल सहित अनन्त धर्मयुगलों स्वरूप पदार्थ समूह, उनका अधिगम- सम्यग्ज्ञान जिससे होता है, उसे कहूँगा ॥१०२॥
अर्थ, ज्ञान का विषयभूत पदार्थ, वास्तव में द्रव्यमय है । पदार्थ द्रव्यमय कैसे है? तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य लक्षण द्रव्य से रचित होने के कारण पदार्थ द्रव्यमय है । तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य का लक्षण कहते हैं --
- एक समय में अनेक वस्तुओं में पाया जाने वाला अन्वय तिर्यक् सामान्य कहलाता है । वहाँ दृष्टांत देते हैं जैसे - अनेक सिद्ध जीवों में 'ये सिद्ध हैं, ये सिद्ध हैं' - इसप्रकार समान स्वभाव वाली सिद्धजाति का ज्ञान तिर्यक् सामान्य है ।
- अनेक समयों में एक वस्तु सम्बन्धी समानता ऊर्ध्वता सामान्य कहलाती है । वहाँ दृष्टान्त देते हैं जैसे - केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय जो मुक्तात्मा हैं दूसरे आदि समयों में भी वही हैं - ऐसी जानकारी ऊर्ध्वता सामान्यरूप है ।
द्रव्य गुणात्मक गुणस्वभावी कहे गये है । यह वही-यह वही गुण हैं अथवा साथ-साथ रहने वाले गुण हैं- इसप्रकार गुण का लक्षण है । जैसे सिद्ध जीव द्रव्य अनन्त ज्ञान, सुख आदि विशेष गुणों के साथ और उसीप्रकार अगुरुलघुक आदि सामान्य गुणों के साथ अभिन्नता होने के कारण गुणात्मक हैं । उसीप्रकार अपने-अपने विशेष-सामान्य गुणों के साथ अभिन्नता होने से सभी द्रव्य गुणात्मक हैं ।
उन पूर्वोक्त लक्षण द्रव्य और गुणों से पर्यायें होती हैं । जो व्यतिरेकि (भिन्न-भिन्न) है, वे पर्यायें हैं अथवा जो क्रम से होती हैं वे पर्यायें है - इसप्रकार पर्याय का लक्षण है । जैसे एक मुक्तात्मा द्रव्य में गति मार्गणा से विलक्षण अन्तिम शरीर के आकार से कुछ कम आकार वाली सिद्ध गति पर्याय तथा अगुरुलघुक गुण की षडवृद्धि-हानि रूप साधारण स्वभाव गुणपर्यायें हैं; उसीप्रकार सभी द्रव्यों में स्वभाव द्रव्य पर्यायें और स्वजातीय-विजातीय विभाव द्रव्य पर्यायें होती हैं और उसीप्रकार 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ में पहले कहे हुये क्रम से 'जिनका अस्ति स्वभाव है' -- इत्यादि गाथा में और उसीप्रकार 'जीवादिक द्रव्य भाव है' इत्यादि गाथा में यथासंभव जानना चाहिये ।
क्योंकि इसप्रकार द्रव्य -गुण-पर्याय की जानकरी के सम्बन्ध में जो मूढ (अज्ञानी) हैं अथवा 'नारकादि पर्याय रूप मैं नहीं हूँ' - इसप्रकार के भेद-विज्ञान में जो अज्ञानी हैं - वे परसमय मिथ्यादृष्टि हैं । इसलिए यह परमेश्वर (वीतराग-सर्वज्ञ देव) द्वारा कही गई द्रव्य-गुण-पर्याय की व्याख्या समीचीन कल्याणकारी है -- यह अभिप्राय है ॥१०३॥
[जे पज्जयेसु णिरदा जीवा] जो पर्यायों में लीन-आसक्त जीव हैं, [परसमयिग त्ति णिद्दिट्ठा] वे परसमय है- ऐसा कहा गया है । वह इसप्रकार -- मनुष्यादि पर्यायरूप मैं हूँ - ऐसी परिणति को अहंकार कहते हैं । मनुष्यादि शरीर, उस शरीर के आधार से उत्पन्न पाँच इन्द्रियाँ, उनके विषय तथा तज्जन्य सुख -ये मेरे है- ऐसी परिणति ममकार हैं, ममकार- अहंकार रहित परम चैतन्य चमत्कार परिणति से रहित जो जीव उन दोनों रूप परिणत हैं वे जीव कर्म के उदय में उत्पन्न पर-पर्याय में लीन - आसक्त होने से परसमय- मिथ्यादृष्टि कहे गये हैं । [आदसहावम्मिठिदा] और जो आत्म- स्वरूप में स्थित है- लीन हैं [ते सगसमया मुणेदव्वा] वे स्वसमय हैं, ऐसा मानना-जानना चाहिये । वह इसप्रकार-जो अनेक कमरों में ले जाये गये एक रत्नदीप के समान अनेक शरीरों में भी 'मैं एक हूँ' इसप्रकार के दृढ़ संस्कार से निज शुद्धात्मा में स्थित रहते हैं -लीन रहते हैं वे कर्म के उदय से उत्पन्न पर्यायरूप परिणमन से रहित होने के कारण स्वसमय हैं- यह अर्थ है ॥१०४॥
[अपरिच्चत्तसहावेण] स्वभाव को नहीं छोड़ने वाले अस्तित्व के साथ अभिन्न [उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं] उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के साथ संयुक्त [गुणवं च सपज्जायं] गुणयुक्त और पर्याय सहित [जं] जो इसप्रकार सत्ता आदि तीन लक्षणों से सहित है, [तं दव्वं ति वुच्चंति] वह द्रव्य है-ऐसा सर्वज्ञ कहते हैं ।
यह द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और गुण-पर्याय के साथ लक्ष्य-लक्षण भेद होने पर भी सत्ता से भिन्न नहीं है । यदि सत्ताभेद नहीं है तो क्या करता है? स्वरूप से ही उस प्रकारता का अवलम्बन करता है । उस प्रकारता का अवलम्बन करता है - इसका क्या अर्थ है? शुद्धात्मा के समान ही उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वरूप और गुण-पर्याय स्वरूप परिणमित होता है - यह अर्थ है ।
वह इसप्रकार --
- केवलज्ञान की उत्पत्ति के प्रसंग में
- शुद्धात्मा की रुचि जानकारी निश्चल अनुभूति- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप कारण-समयसार पर्याय का विनाश होने पर
- शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप कार्य-समयसार का उत्पाद, कारण-समयसार का व्यय तथा उन दोनों का आधारभूत परमात्मा द्रव्यरूप से धौव्य है ।
उसी प्रकार सभी द्रव्य अपने-अपने यथोचित उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और उसी प्रकार गुण-पर्यायों के साथ यद्यपि संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि के द्वारा भेद करते हैं; तथापि सत्ता-स्वरूप से भेद नहीं करते हैं, स्वभाव से ही उस प्रकारता का अवलम्बन करते हैं । उस प्रकारता का क्या अर्थ है? उत्पाद-व्यय आदि स्वरूप से परिणमित होते है- यह अर्थ है ।
अथवा जैसे कपड़ा निर्मल पर्याय से उत्पन्न, मलिन पर्याय से नष्ट और उन दोनों के आधारभूत कपड़े रूप से ध्रुव-अविनश्वर है और उसीप्रकार सफेद रंग आदि गुण तथा नवीन-पुरानी पर्याय सहित है; उसी प्रकार सत् उन उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और अपने गुण-पर्यायों के साथ संज्ञा आदि भेद होने पर भी सत्तारूप से भेद नहीं करता है । सत्तारूप से भेद नहीं करता है तो क्या करता है? स्वरूप से ही उत्पादादि रूप परिणमित होता है; इसीप्रकार सभी द्रव्य भी जानना चाहिये- यह अभिप्राय है ॥१०५॥
[सहावो हि] वास्तव में स्वभाव-स्वरूप है । स्वभाव रूपकर्ता कौन है- स्वभाव क्या है? [सब्भावो] सद्भाव शुद्धसत्ता अथवा शुद्धअस्तित्व स्वभाव है । शुद्धअस्तित्व किसका स्वभाव है? [दव्वस्स] मुक्तात्मद्रव्य का स्वभाव है । और वह स्वरूपास्तित्व जैसे मुक्तात्माओं से भिन्नभूत पुद्गलादि पाँच द्रव्यों का और शेष जीव द्रव्यों का भिन्न है, वैसा भिन्न नहीं है । वह स्वरूप किनके साथ भिन्न नहीं है? [गुणेहिं सगपज्जएहिं] केवलज्ञानादि गुणों और कुछ कम अन्तिम शरीर के आकार आदि अपनी पर्यायों के साथ भिन्न नही है । वे पर्यायें कैसी हैं? चित्तेहिं- सिद्धगतित्व, अतीन्द्रियत्व, अशरीरत्व, अयोगत्व, अवेदत्व इत्यादि अनेक भेदों से पृथक्-पृथक् है । मात्र गुण-पर्यायों के साथ भिन्न नहीं है - ऐसा ही नहीं है, अपितु [उप्पादव्वयधुवत्तेहिं] शुद्धात्मा की प्राप्तिरूप मोक्षपर्याय का उत्पाद रागादि विकल्प रहित परमसमाधिरूप मोक्षमार्ग-रत्नत्रयपर्याय का व्यय तथा मोक्ष एवं मोक्षमार्ग के आधारभूत अन्वयरूप से रहनेवाली द्रव्यता लक्षण धौव्य - इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले उत्पाद-व्यय-धौव्य के साथ भिन्न नहीं है । उन सबसे भिन्न कैसे नहीं है? [सव्वकालं] हमेशा ही उसरूप से रहने के कारण भिन्न नहीं है । अथवा उन उत्पादादि से भिन्न कब नही हैं? [सव्वकालं] हमेशा ही (कभी भी) उनसे भिन्न नहीं हैं । उन सबके साथ भिन्न क्यों नही है? क्योंकि कर्ताभूत गुण-पर्याय के अस्तित्व से और उत्पाद-व्यय-धौव्य के अस्तित्व से शुद्धात्मद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है, तथा शुद्धात्मद्रव्य के अस्तित्व से गुण-पर्याय उत्पाद-व्यय-धौव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है; इसलिये ये सब परस्पर में भिन्न-भिन्न नहीं हैं ।
वह इसप्रकार -- जैसे अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा स्वर्ण से अभिन्न पीलापन आदि गुणों तथा कुण्डल आदि पर्यायों सम्बन्धी जो अस्तित्व है, वह ही स्वर्ण का शुद्ध अस्तित्व है; वैसे ही अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा परमात्म-द्रव्य से अभिन्न केवलज्ञानादि गुणों तथा अन्तिम शरीराकार से कुछ कम आकार आदि पर्यायों का जो अस्तित्व है, वही मुक्तात्मद्रव्य का शुद्ध अस्तित्व है । जैसे-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा पीलेपन आदि गुणों तथा कुण्डल आदि पर्यायों से अभिन्न स्वर्ण सम्बन्धी जो अस्तित्व है वही पीलेपन आदि गुणों तथा कुण्डल आदि पर्यायों का स्वभाव है; उसीप्रकार अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा केवलज्ञानादि गुणों तथा अन्तिम शरीराकार से कुछ कम आकार आदि पर्यायों से अभिन्न मुक्तात्मा द्रव्य सम्बन्धी जो अस्तित्व है वही केवलज्ञानादि गुणों तथा अन्तिम शरीराकार से कुछ कम आकारादि पर्यायों का स्वभाव जानना चाहिये ।
अब यहाँ उत्पाद-व्यय- धौव्य का भी द्रव्य के साथ अभिन्न अस्तित्व कहते हैं । जैसे- अपने द्रव्यादि चतुष्टय द्वारा स्वर्ण से अभिन्न कटक (कड़ा) पर्याय से उत्पाद, कंकण पर्याय का विनाश और स्वर्णता लक्षण धौव्य सम्बन्धी जो अस्तित्व है, वही स्वर्ण का शुद्ध अस्तित्व है; उसीप्रकार स्वद्रव्यादि चतुष्टय द्वारा परमात्मा द्रव्य से अभिन्न मोक्षपर्याय का उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा उन दोनों की आधारभूत परमात्मद्रव्यता लक्षण धौव्य सम्बन्धी जो अस्तित्व है, वही मुक्तात्मा द्रव्य का शुद्ध अस्तित्व है ।
जैसे स्वद्रव्यादि चतुष्टय द्वारा कटक पर्याय का उत्पाद, कंकण पर्याय का व्यय तथा स्वर्णता लक्षण धौव्य से अभिन्न स्वर्ण सम्बन्धी जो अस्तित्व है वही कटक पर्याय का उत्पाद, कंकण पर्याय का व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत स्वर्णत्व लक्षण धौव्य का स्वभाव है; उसी प्रकार स्वद्रव्यादि चतुष्टय द्वारा मोक्षपर्याय का उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत मुक्तात्मद्रव्यत्व लक्षण धौव्य से अभिन्न परमात्मद्रव्य संबंधी जो अस्तित्व है, वही मोक्षपर्याय का उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत मुक्तात्म-द्रव्यत्व लक्षण धौव्य का स्वभाव है ।
इसप्रकार जैसे मुक्तात्म-द्रव्य की अपने गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-धौव्य के साथ स्वरूपास्तित्व नामक अवान्तरसत्ता अभिन्न स्थापित की है; वैसे ही सम्पूर्ण शेष द्रव्यों की भी स्थापित करना चाहिये -- यह अर्थ है ॥१०६॥
[इह विविहलक्खणाणं] इस लोक में प्रत्येक सत्ता नामक स्वरूपास्तित्व के द्वारा भिन्न-भिन्न लक्षण वाले चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त पदार्थों का [लक्खणमेगं तु] एक अखण्ड लक्षण है । वह अखण्ड लक्षण क्या है? अथवा अखण्ड लक्षणरूप कर्ता कौन है? [सदिति] सब 'सत्' है - इसप्रकार महासत्तारूप अखण्ड लक्षण है । वह लक्षण किस विशेषतावाला है? [सव्वगयं] संकर और व्यतिकर दोषों से रहित अपनी जाति का विरोध नहीं करनेवाले शुद्ध- संग्रहनय से सर्वगत - सभी पदार्थों में व्यापक पाया जाता है । यह किसने कहा है? [उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं] वस्तु का स्वभाव धर्म है -- ऐसा स्पष्टरूप से उपदेश देनेवाले जिनवरो में प्रधान - तीर्थंकरों ने संक्षेप में यह कहा ।
वह इसप्रकार - जैसे 'सभी मुक्तात्मा हैं' - ऐसा कहने पर परमानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृतरस के आस्वाद से भरित [अवस्थ] परिपूर्ण भरे हुए लोकाकाश के बराबर शुद्ध - मात्र असंख्यात आत्मप्रदेशों से, तथा अन्तिम शरीर के आकार से कुछ कम आकार आदि पर्यायों से, तथा संकर-व्यतिकर दोषों के निराकरण रूप जाति भेद से भिन्न-भिन्न होने पर भी सर्व सिद्धों का ग्रहण होता है; उसीप्रकार 'सभी सत् हैं'- ऐसा कहने पर संग्रहनय से सभी पदार्थों का ग्रहण होता है ।
अथवा जैसे यह सेना है, यह वन है - ऐसा कहने पर अपनी-अपनी जाति के भेद से भिन्न-भिन्न क्रमश: घोडा, हाथी आदि पदार्थों का और नीम, आम आदि वृक्षों का एक साथ ग्रहण होता है; उसीप्रकार 'सभी सत् है' -ऐसा कहने पर शुद्ध संग्रह नय के द्वारा सादृश्यसत्ता नामक महासत्तारूप, अपनी जाति के अविरोधरूप से सभी पदार्थों का ग्रहण होता है - ऐसा अर्थ है ॥१०७॥
[दव्वं सहावसिद्धं] द्रव्य-परमात्मद्रव्य स्वभावसिद्ध है । परमात्मद्रव्य स्वभावसिद्ध कैसे है? अनादि-अनन्त अन्य कारणों से निरपेक्ष स्वयं से ही सिद्ध केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत, हमेशा आनंदमयी एकरूप सुखरूपी अमृतरसमयी परमसमतारस भाव से परिणत सभी शुद्धात्म प्रदेशो में परिपूर्ण भरे हुए शुद्ध उपादानभूत अपने स्वभाव से निष्पन्न होने के कारण परमात्मद्रव्य स्वभावसिद्ध है । और जो स्वभावसिद्ध नहीं है वह द्रव्य भी नहीं है । द्वयणुक आदि पुद्गलस्कंध पर्यायों के समान और मनुष्यादि जीव पर्यायों के समान स्वभाव-सिद्ध नहीं होने वाला द्रव्य भी नहीं है । [सदिति] जैसे जो स्वभाव से सिद्ध है वह द्रव्य है, उसी प्रकार 'सत्' ऐसा सत्ता का लक्षण भी स्वभाव से ही है, भिन्न सत्ता के समवाय से सत् नहीं है ।
अथवा, जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है, उसी प्रकार उसका जो वह सत्ता गुण है वह भी स्वभावसिद्ध ही है । द्रव्य के समान उसका गुण सत् स्वभावसिद्ध कैसे है? यदि प्रश्न हो तो- सत्ता और द्रव्य के संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी दण्ड और दण्डी के समान प्रदेश भेद का अभाव होने से; द्रव्य का गुण होने से; द्रव्य के समान सत् भी स्वभावसिद्ध है ।
उपर्युक्त यह सब कौन कहते हैं? [जिणा तच्चदो समक्खादा] जिनेन्द्र भगवान रूप कर्ता वास्तव में भलीभांति यह कहते हैं, [सिद्धं तह आगमदो] द्रव्यार्थिकनय से परम्परा की अपेक्षा अनादि-अनन्त आगम से भी वैसा ही सिद्ध है, [णेच्छदि जो सो हि परसमओ] जो इस वस्तुस्वरूप को नहीं मानता है, वह स्पष्ट परसमय-मिथ्यादृष्टि है । इसप्रकार जैसे परमात्मद्रव्य स्वभाव से सिद्ध है, उसीप्रकार सभी द्रव्यों को जानना चाहिये ।
यहाँ, द्रव्य किसी भी पुरुष के द्वारा नहीं किया गया है, सत्ता गुण भी द्रव्य से भिन्न नहीं है - यह अभिप्राय है ॥१०८॥
[सदवटि्ठदं सहावे दव्वं] द्रव्य-मुक्तात्मा द्रव्य है । वह द्रव्य क्या है? इस वाक्य में कर्ता क्या है? 'सत्' - ऐसा शुद्ध-चेतना का अन्वय (वही-वही) रूप अस्तित्व द्रव्य है । वह अस्तित्व किस विशेषता वाला है? वह अच्छी तरह से स्थित है । अच्छी तरह से कहाँ स्थित है? वह स्वभाव में अच्छी तरह स्थित है । (उस) स्वभाव (को) कहते है- [दव्वस्स जो हि परिणामो] उस परमात्म-द्रव्य सम्बन्धी स्पष्ट जो परिणाम है । किन विषयों में वह परिणाम है? [अत्थेसु] परमात्म-पदार्थ का धर्म-स्वभाव होने से अभेदनय से उन्हें अर्थ कहते हैं । वे अर्थ कौन है? केवलज्ञानादि गुण और सिद्धत्वादि पर्यायें अर्थ हैं । उन अर्थों-विषयों में जो वह परिणाम है । [सो सहावो] केवलज्ञानादि गुण और सिद्धत्वादि पर्यायरूप परिणमन उन परमात्म-द्रव्य का स्वभाव है । और वह स्वभाव कैसा है? [ठिदिसंभवणाससंबद्धो] निजात्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष-पर्याय की उत्पत्ति, उसी समय परमागम की भाषा से एकत्ववितर्क-अवीचार रूप द्वितीय शुक्लध्यान नामक शुद्ध उपादानभूत समस्त रागादि विकल्पों की उपाधि (संयोग) रहित स्वसंवेदन-ज्ञान-पर्याय का नाश और उसी समय उन दोनों के आधारभूत परमात्म-द्रव्य की स्थिति-ध्रुवता -- इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य -- इन तीनों से सहित वह स्वभाव है ।
इस प्रकार यद्यपि पर्यायार्थिक-नय से एक समय में उत्पाद-व्यय-धौव्य -- इन तीनरूप परमात्मद्रव्य परिणत है, तथापि द्रव्यार्थिकनय से सत्ता लक्षण ही है । तीन लक्षण वाला होने पर भी सत् का सत्ता लक्षण कैसे कहा जाता है? यदि यह प्रश्न हो तो उत्तर देते हैं - 'सत् उत्पाद-व्यय और धौव्य सहित है' - ऐसा वचन होने से सत्ता लक्षण वाला कहा जाता है ।
जैसे यह परमात्म-द्रव्य, एक समय में उत्पाद-व्यय-धौव्य रूप से परिणमता हुआ ही सत्ता लक्षण वाला कहा गया है, उसीप्रकार सभी द्रव्य, एक ही समय में उत्पादादि रूप से परिणमित होते हुये सत्ता लक्षणवाले है - यह अर्थ है ॥१०९॥
इसप्रकार
- स्वरूप-सत्तारूप से पहली गाथा,
- महा-सत्तारूप से दूसरी गाथा,
- जैसे द्रव्य स्वत-सिद्ध है वैसे सत्तागुण भी, इस कथनरूप तीसरी गाथा और
- उत्पाद-व्यय-धौव्य सहित होने पर भी सत्ता ही द्रव्य कही गयी है - इस कथनरूप चौथी गाथा--
[ण भवो भंगविहीणो] निर्दोष परमात्मा की रुचिरूप सम्यक्त्व-पर्याय का उत्पाद, वह उससे विपरीत मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना नहीं होता । मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना सम्यक्त्व-पर्याय का उत्पाद क्यों नहीं होता? उपादानकारण का अभाव होने से जैसे मिट्टी के पिण्ड के विनाश बिना घड़े की उत्पत्ति नहीं होती उसीप्रकार मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना सम्यक्त्व-पर्याय की उत्पत्ति नहीं होती है । और दूसरा भी कारण है - मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश का सम्यक्त्व-पर्यायरूप से प्रतिभासन होने से उसके विनाश बिना सम्यक्त्व-पर्याय उत्पन्न नहीं होती है । उसके विनाश का सम्यक्त्व-पर्यायरूप से प्रतिभासन कैसे होता है? 'अभाव अन्य पदार्थ के स्वभावरूप होता है'- ऐसा वचन होने से जैसे मिट्टी के पिण्ड का अभाव घड़े की उत्पत्तिरूप से प्रतिभासित होता है; उसीप्रकार मिथ्यात्व-पर्याय का अभाव सम्यक्त्व-पर्याय की उत्पत्तिरूप से प्रतिभासित होता है ।
यदि सम्यक्त्व के उपादान-कारणभूत मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना ही शुद्धात्मा की अनुभूति-रुचि रूप सम्यक्त्व का उत्पाद होता है, तो उपादान-कारण से रहित आकाशफूल आदि का भी उत्पाद हो । परन्तु वैसा तो नहीं होता है । [भंगो वा णत्थि संभवविहीणो] परद्रव्य उपादेय है ऐसी रुचिरूप मिथ्यात्व का विनाश नही होता है । कैसे मिथ्यात्व का विनाश नहीं होता है? पहले कहे हुये सम्यक्त्व-पर्याय के उत्पाद से रहित मिथ्यात्व का विनाश नहीं होता है । सम्यक्त्व-पर्याय की उत्पत्ति के बिना मिथ्यात्व-पर्याय का विनाश क्यों नहीं होता है? विनाश के कारण का अभाव होने से, घड़े की उत्पत्ति के अभाव में मिट्टी के पिण्ड का विनाश नहीं होने के समान, सम्यक्त्व की उत्पत्ति के अभाव में मिथ्यात्व का विनाश नही होता है । और दूसरा भी कारण है - सम्यक्त्व पर्याय के उत्पाद का मिथ्यात्व-पर्याय के अभावरूप दर्शन होने के कारण, उसकी उत्पत्ति के बिना मिथ्यात्व-पर्याय नष्ट नहीं होती है । उसका उत्पाद मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना क्यों दिखाई नहीं देता है? एक पर्याय के अन्य पर्याय की अभावरूपता होने से जैसे घटपर्याय का दर्शन मिट्टी के पिण्ड के अभावरूप से होता है; उसीप्रकार सम्यक्त्व-पर्याय का दिखाई देना मिथ्यात्व-पर्याय के विनाशरूप से होता है ।
यदि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बिना ही मिथ्यात्वपर्याय का अभाव होता है, तो उसका अभाव ही नहीं होगा । सम्यक्त्व की उत्पत्ति बिना मिथ्यात्व का अभाव क्यों नहीं होगा? अभाव के कारण का अभाव होने से (विनाश का कारण उत्पाद है, उसके नहीं होने से) घड़े की उत्पत्ति के अभाव में मिट्टी के पिण्ड का विनाश नहीं होने के समान सम्यक्त्व की उत्पत्ति के अभाव में मिथ्यात्व का विनाश नही होगा ।
[उप्पादो वि य भंगो ण विणा दव्वेण अत्थेण] परमात्मा की रुचिरूप सम्यक्त्व का उत्पाद तथा उससे विपरीत मिथ्यात्व का विनाश नहीं होता है । उन दोनों का उत्पाद-विनाश किसके बिना नहीं होता है? उन दोनों के आधारभूत परमात्मारूप द्रव्य-पदार्थ के बिना उन दोनों का उत्पाद-विनाश नहीं होता है । दोनों के आधारभूत परमात्म-पदार्थ के बिना दोनों का उत्पाद-विनाश क्यों नहीं होता है? द्रव्य के अभाव में विनाश और उत्पत्ति का अभाव होने से मिट्टी द्रव्य के अभाव में घड़े की उत्पत्ति तथा मिट्टी के पिण्ड का विनाश नहीं होने के समान परमात्म-द्रव्य के अभाव में सम्यक्त्व की उत्पत्ति और मिथ्यात्व का विनाश नहीं होता है ।
इसप्रकार जैसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व - इन दो पर्यायों में एक दूसरे की अपेक्षा सहित उत्पाद आदि तीनों दिखाये हैं, उसीप्रकार सभी द्रव्यों की पर्यायों में देख लेना चाहिये- समझ लेना चाहिये ॥११०॥
[उप्पादट्ठिदिभंगा] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव आत्मतत्त्व का निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानरूप से उत्पाद, उसी समय स्वंसवेदनज्ञान से विपरीत अज्ञानपर्यायरूप से व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप से स्थिति - इसप्रकार कहे गये लक्षण वाले तीनों भंगरूप कर्ता- इस वाक्य में कर्ता कारक में प्रयुक्त ये तीनों [विज्जंते] होते हैं । ये तीनों किनमें होते हैं? [पज्जएसु] सम्यक्त्व पूर्वक निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानपर्याय में उत्पाद होता है, तब स्वसंवेदनज्ञान से विपरीत अज्ञान पर्यायरूप से व्यय और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप पर्याय से धौव्य - इसप्रकार कहे गये लक्षण वाली अपनी- अपनी पर्यायों में वे सब रहते हैं । [पज्जाया दव्वं हि संति] वे कहे गये लक्षणवाली ज्ञान, अज्ञान और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप पर्यायें स्पष्टरूप से द्रव्य हैं । [णियदं] प्रदेशों का अभेद होने पर भी अपने- अपने संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि के भेद से वे वास्तव में द्रव्य हैं । [तम्हा दव्वं हवदि सव्वं] क्योंकि उत्पादादि निश्चय आधार- आधेय भाव से रहते हैं उसकारण उत्पादादि तीनों और स्वसंवेदनज्ञानादि तीनों पर्यायें-ये सभी अन्वय-द्रव्यार्थिकनय से सर्व द्रव्य हैं ।
पूर्वोक्त उत्पादादि तीनों और उसीप्रकार स्वसंवेदनज्ञानादि तीनों पर्यायों का साथ-साथ रहने वाला अन्वयरूप से जो आधारभूत है, वह अन्वय द्रव्य कहा गया है, वह जिसका विषय होता है, वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है । जैसे यह ज्ञान-अज्ञान दो पर्यायों में (उत्पादाकि) तीनों भंगों का व्याख्यान किया गया है उसीप्रकार सभी द्रव्य-पर्यायों में यथासंभव जानना चाहिये - ऐसा अभिप्राय है ॥१११॥
[समवेदं खलु दव्वं] स्पष्टरूप से एकीभूत - अभिन्न है । अभिन्न कौन है? आत्म-द्रव्य अभिन्न है । आत्मद्रव्य किनके साथ (किनसे) अभिन्न है? [संभवठिदिणाससण्णिदट्ठेहिं] सम्यक्त्व, ज्ञान पूर्वक निश्चल निर्विकर निजात्मानुभूतिलक्षण वीतराग चारित्र पर्यायरूप से उत्पाद, उसीप्रकार रागादि परद्रव्यों के साथ एकत्व परिणतिरूप चारित्रपर्याय से नाश और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थितिरूप पर्याय से स्थिति- धौव्य- इसप्रकार कहे गये लक्षण और नाम वाले उत्पाद-व्यय-धौव्य के साथ आत्मद्रव्य अभिन्न है । तो क्या बौद्धमत के समान भिन्न-भिन्न समय में तीन होते होगें? (परन्तु ऐसा नहीं है) । [एक्कम्मि चेव समये] अंगुलि द्रव्य की वक्र (टेढी) पर्याय के समान संसारी जीव की मरण समय में ऋजुगति के समान, क्षीणकषाय (१२ वें गुणस्थान) के अन्तिम समय में केवलज्ञान की उत्पत्ति के समान और अयोगी (१४ वें गुणस्थान) के अन्तिम समय में मोक्ष के समान एक समय में ही उत्पादादि तीनों आत्मद्रव्य में होते हैं । [तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं] क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से एक समय में तीनों भंगरूप से परिणमित होता है; इसलिये संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होने पर भी प्रदेशों का अभेद होने से तीनों ही स्पष्ट रूप से द्रव्य हैं ।
जैसे यह तीन भंग चारित्र और अचारित्र दो पर्यायों में अभेदरूप से दिखाये हैं उसीप्रकर सभी द्रव्यों में जान लेना चाहिये - ऐसा अर्थ है ॥११२॥
[पाडुब्भवदि य] और उत्पन्न होती है । [अण्णो] शाश्वत रहनेवाली (वैसी की वैसी रहने वाली) कोई नवीन अनन्त ज्ञान-सुखादि गुणों की स्थानभूत दूसरी । वह दूसरी कौन है? [पज्जाओ] परमात्मा (दशा) की प्राप्तिरूप स्वभाव-द्रव्यपर्याय । [पज्जओ वयदि अण्णो] पर्याय नष्ट होती है । कैसी पर्याय नष्ट होती है? पूर्वोक्त मोक्षपर्याय से भिन्न निश्चय रत्नत्रय स्वरूप निर्विकल्प समाधिरूप मोक्षपर्याय की उपादान कारणभूत पर्याय नष्ट होती है । वह पर्याय किस सम्बन्धी - किसकी है? [दव्वस्स] परमात्म द्रव्य की वह पर्याय है | [तं पि दव्वं] तो भी परमात्मद्रव्य [णेव पणट्ठं ण उप्पण्णं] शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न ही होता है ।
अथवा संसारी जीव की अपेक्षा देवादिरूप विभाव-द्रव्यपर्याय उत्पन्न होती है, मनुष्यादिरूप पर्याय नष्ट होती है और वह जीवद्रव्य निश्चय से न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है अथवा पुद्गलद्रव्य द्वयणुकादि स्कंधरूप स्वजातीय-विभाव-द्रव्यपर्यायों के नष्ट और उत्पन्न होने पर भी निश्चय से उत्पन्न और विनष्ट नहीं होता है ।
इससे यह फलित हुआ कि जिस कारण उत्पाद-व्यय-धौव्य रूप से द्रव्य पर्यायों का विनाश और उत्पाद होने पर भी द्रव्य का विनाश नहीं होता है, उस कारण द्रव्यपर्यायें भी द्रव्य का लक्षण होती हैं - यह अभिप्राय है ॥११३॥
[परिणमदि सयं दव्वं] स्वयं ही उपादानकारणभूत जीवद्रव्यरूप कर्ता परिणमित होता है । जीवद्रव्य किसरूप परिणमित होता है? [गुणदो य गुणंतरं] केवलज्ञान की उत्पत्ति के बीजभूत उपराग रहित-वीतराग स्वसंवेदनज्ञान गुण से परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान गुण स्वरूप दूसरी पर्यायरूप परिणमित होता है । सत् कैसा होता हुआ परिणमित होता है? [सदविसिट्ठं] अपने स्वरूप चैतन्यरूप अस्तित्व से अविशिष्ट-अभिन्न होता हुआ परिणमित होता है । [तम्हा गुण पज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति] इस कारण न केवल पूर्व गाथा (गाथा नं. ११३) में कही हुई द्रव्यपर्यायें द्रव्य हैं वरन् गुणरूप पर्यायें-गुणपर्यायें कहलाती है, वे भी द्रव्य ही हैं ।
अथवा संसारी जीवद्रव्य मति-स्मृति आदि विभावगुणों को छोड्कर श्रुतज्ञानादि दूसरे विभावगुण रूप परिणमित होता है, अथवा पुद्गलद्रव्य हरे गुण को छोड़कर दूसरे पीले बदलने वाले आम्रफल (आम) के समान पूर्वोक्त सफेद रंग आदि गुणों को छोड़कर लाल आदि गुणरूप परिणमित होता है- यह गाथा का भाव है ॥११४॥
[ण हवदि जदि सद्दव्वं] परमचैतन्य प्रकाशरूपस्वूरूप-सत्तामय अस्तित्वगुण के द्वारा यदि सत् नहीं है । कर्तारूप कौन सत् नहीं है? परमात्मद्रव्य सत् नहीं है । तब [असद्धूवं हो्दि] परमात्मद्रव्य निश्चित असत् होगा । असत् होता हुआ [तं कहं दव्वं] वह परमात्मद्रव्य कैसे होगा? अपितु नहीं होगा । और परमात्मद्रव्य का सत् द्रव्य नहीं होना प्रत्यक्ष-विरुद्ध है । उसका सत् द्रव्य नहीं होना प्रत्यक्ष-विरुद्ध कैसे है? स्वसंवेदनज्ञान से ज्ञात होने के कारण परमात्मद्रव्य को सत् नहीं मानना प्रत्यक्ष-विरुद्ध है ।
अब, अविचारित रमणीय न्याय से (विचार नहीं करने पर सुन्दर प्रतीत होनेवाले न्याय से) सत्तागुण का अभाव होने पर भी वह रहता है; यदि ऐसा माना जाये, तो वहाँ विचार करते हैं - यदि द्रव्य केवलज्ञानदर्शनगुण के अविनाभावि अपने स्वरूपास्तित्व से पृथक् रहता है, तो स्वरूपास्तित्व नहीं बनेगा और स्वरूपास्तित्व के अभाव में द्रव्य भी सिद्ध नहीं होगा । अथवा अपने स्वरूपास्तित्व से संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी यदि प्रदेशरूप से अभिन्न रहता है, तो वह स्वीकृत ही है ।
इस प्रसंग में बौद्धमत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है - सिद्धपर्याय की सत्तारूप से शुद्धात्मद्रव्य उपचार से है, मुख्यरूप से नहीं है । आचार्य उसका निराकरण करते हैं - वृक्ष के अभाव में फल के अभाव के समान सिद्धपर्याय के उपादानकारणभूत परमात्मद्रव्य के अभाव में, सिद्धपर्याय की सत्ता ही संभव नहीं है; अत: वहाँ शुद्धात्मद्रव्य मुख्यरूप से ही है, उपचार से नहीं ।
इस प्रसंग में नैयायिकमत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है - [हवदि पुणो अण्णं वा] वह परमात्मद्रव्य है, किन्तु सत्ता से भिन्न है, बाद में सत्ता के साथ समवाय से सत् है । आचार्य निराकरण करते हुये कहते हैं कि सत्ता के समवाय से पहले द्रव्य सत् था अथवा असत्? यदि पहले से ही सत् था तो सत्ता का समवाय व्यर्थ है, पहले से ही अस्तित्व विद्यमान है, और यदि पहले असत् था तो आकाश-कुसुम के समान अभावरूप द्रव्य के साथ सत्ता समवाय कैसे करती है? यदि करती है तो आकाश-कुसुम के साथ भी कर्तारूप सत्ता समवाय को करे? परन्तु वैसा तो नहीं करती । [तम्हा दव्वं सयं सत्ता] इसीलिए अभेदनय से शुद्धचैतन्यस्वरूपसत्ता ही परमात्मद्रव्य है ।
यह जैसे परमात्मद्रव्य के साथ शुद्धचेतना सत्ता का अभेद व्याख्यान किया, उसीप्रकार सभी चेतन-अचेतन द्रव्यों का अपनी- अपनी सत्ता के साथ अभेद व्याख्यान करना चाहिये - यह अभिप्राय है ॥११५॥
[पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तं] पृथक्त्व नामक भेद है । वह पृथक्त्व भेद किस विशेषता वाला है? विशेषरूप से प्रदेशों की भिन्नता वाला है । किसके समान विशेषरूप से प्रदेश भिन्नता वाला है? दण्ड और दण्डी के समान विशेषरूप से प्रदेश भिन्नता वाला है । इस प्रकार का पृथक्त्व शुद्धात्म-द्रव्य और शुद्ध सत्ता गुण में घटित नहीं होता है । उन दोनो में यह भेद क्यों नहीं घटित होता है? उन दोनों में भिन्न-भिन्न प्रदेशों का अभाव होने से वह भेद घटित नहीं होता है । किनके समान उनमें यह घटित नहीं होता है? सफेदवस्त्र और सफेदगुण के समान उनमें यह भेद घटित नहीं होता है । [इदि सासणं हि वीरस्स] इसप्रकार शासन-उपदेश-आदेश है । ऐसा किसका उपदेश-आदेश है? वीर नामक अन्तिम तीर्थंकर परमदेव का यह उपदेश- आदेश है । [अण्णत्तं] मुक्तात्मद्रव्य और शुद्धसत्तागुण के प्रदेशों का अभेद होने पर भी अन्यता-भिन्नता है । उन दोनों में अन्यत्व कैसा है? [अतब्भावो] संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि भेद - भिन्न स्वभावरूप अतद्भावरूप अन्यत्व है ।
जैसे प्रदेशों की अपेक्षा अभेद है, वैसे ही संज्ञादि लक्षणरूप से भी अभेद हो - क्या दोष है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो आचार्य उत्तर देते हैं-ऐसा नहीं है । [ण तब्भवं होदि] वह मुक्तात्मद्रव्य शुद्धात्मसत्तागुण के साथ प्रदेशों का अभेद होने पर भी संज्ञादिरूप से तन्मय नही है । [कधमेगं] वास्तव में तन्मयता ही एकता का लक्षण है । संज्ञादिरूप से तन्मयता के अभाव में एकता कैसे हो सकती है? अपितु भिन्नता ही है ।
जैसे यह मुक्तात्मद्रव्य में प्रदेश अभेद होने पर भी, संज्ञादिरूप से भिन्नता कही गई है; उसीप्रकार सभी द्रव्यों की अपने-अपने स्वरूपास्तित्वगुण के साथ जानना चाहिये - यह अर्थ है ॥११६॥
[सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो] - सत् द्रव्य, सत् गुण और सत् ही पर्याय - इसप्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायों में सत्ता गुण का विस्तार है । वह इसप्रकार जैसे- मोतियों के हार में सत्ता गुण के स्थान पर-जो वहाँ सफेदगुण है, वह प्रदेशों का अभेद होने से क्या-क्या कहा जाता है? वह सफ़ेद हार, सफ़ेद सूत्र (धागा), सफेद मोती - ऐसा कहा जाता है और जो हार, सूत्र तथा मोती हैं - ये तीनों, तीनों के साथ (परस्पर) प्रदेशों का अभेद होने से, सफेद गुण कहे जाते हैं - इसप्रकार यह तद्भाव का लक्षण है । तद्भाव का क्या अर्थ है? हार, सूत्र और मोतियों की सफेद गुण के साथ तन्मयता - प्रदेशों की अभिन्नता-एकता तद्भाव का अर्थ है । उसी प्रकार मुक्तात्मपदार्थ (सिद्ध भगवान्) में जो वह शुद्ध सत्तागुण है, वह प्रदेशों का अभेद होने से क्या- क्या कहा जाता है? वह सत्ता लक्षण परमात्मपदार्थ, सत्ता लक्षण केवलज्ञानादि गुण, सत्ता लक्षण सिद्धपर्याय - ऐसा कहा जाता है । और जो परमात्मपदार्थ, केवलज्ञानादिगुण और सिद्धत्वपर्याय - ये तीनों (परस्पर) तीनों के साथ (प्रदेशों का अभेद होने से) शुद्धसत्तागुण कहे जाते है - इसप्रकार यह तद्भाव का लक्षण है । तद्भाव का क्या अर्थ है? परमात्मपदार्थ, केवलज्ञानादिगुण, सिद्धत्वपर्यायों का शुद्धसत्तागुण के साथ संज्ञादि भेद होने पर भी प्रदेशों के साथ तन्मयता तद्भाव का अर्थ है । [जो खलु तस्स अभावो] - जो इस पूर्वोक्त लक्षण तद्भाव का स्पष्टरूप से संज्ञादि भेद की विवक्षा में अभाव है, [सो तदभावो] - वह पूर्वोक्त लक्षण तद्भाव कहा जाता है । वह तद्भाव क्यों कहा जाता है? [अतब्भावो] - तद्भाव नहीं है, तन्मयता नहीं है अथवा अतद्भाव है अर्थात् संज्ञा लक्षण, प्रयोजनादिकृत भेद है - यह अर्थ है । वह इसप्रकार -
जैसे मोतियों के हार में जो वह सफेद गुण है, उसके वाचक शुक्ल (सफेद) - इन दो अक्षरों द्वारा हार वाच्य नही होता है, सूत्र अथवा मोती भी वाच्य नहीं होते हैं; तथा हार और मोतियों के वाचक शब्दों द्वारा सफेद गुण वाव्य नही होता है । इसप्रकार परस्पर प्रदेशों का अभेद होने पर भी जो वह संज्ञादि भेद है, वह उस पूर्वाक्त लक्षण तद्भाव का अभाव (होने से) तद्भाव कहलाता है । वह तद्भाव और भी क्या कहलाता है? वह अतद्भाव, संज्ञा-लक्षण-प्रयोजनादिकृतभेद भी कहलाता है । उसीप्रकार मुक्तजीव में जो वह शुद्धसत्तागुण है, उसके वाचक सत्ताशब्द द्वारा मुक्तजीव वाच्य नहीं होते हैं अथवा केवलज्ञानादिगुण और सिद्धपर्याये भी वाच्य नहीं होती है; मुक्तजीव, केवलज्ञानादिगुण और सिद्धपर्याय शब्दों द्वारा भी शुद्धसत्तागुण वाच्य नहीं होता है । इसप्रकार परस्पर प्रदेशों का अभेद होने पर भी जो वह संज्ञादि भेद है,वह उस पूर्वोक्त लक्षण तद्भाव का अभाव-तदभाव कहलाता है । और वह तदभाव और भी क्या कहलाता है? अतद्भाव, संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि कृत भेद इत्यादि कहलाता है - यह अर्थ है ।
जैसे यहाँ शुद्धात्मा में शुद्धसत्तागुण के साथ अभेद स्थापित किया है, उसीप्रकार यथासंभव सभी द्रव्यों में जानना चाहिये - यह अभिप्राय है ॥११७॥
[जं दव्वं तण्ण गुणो] जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है - जो मुक्तजीवद्रव्य है, वह शुद्ध सत् गुण नहीं है । मुक्तजीवद्रव्य शब्द से शुद्धसत्तागुण वाच्य नहीं है - ऐसा अर्थ है । [जो वि गुणो तो ण तच्चमत्थादो] - जो भी गुण है वह परमार्थ से तत्व-द्रव्य नहीं है, जो शुद्धसत्तागुण है- वह मुक्तजीवद्रव्य नहीं है । शुद्धसत्ता शब्द के द्वारा मुक्तजीवद्रव्य वाच्य नहीं होता है -ऐसा अर्थ है । [एसो हि अतब्भावो] - यह कहा गया लक्षण ही वास्तव में अतद्भाव है । कहा गया लक्षण - इसका क्या अर्थ है? गुण और गुणी में संज्ञादि भेद होने पर भी प्रदेशभेद का अभाव है - इस कहे गये लक्षण वाला अतद्भाव है- यह इसका अर्थ है । [णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो] - (सर्वथा) अभाव नहीं है - ऐसा कहा है । (सर्वथा) अभाव नहीं है - इसका क्या अर्थ है? जैसे सत्ता वाचक शब्द से मुक्तजीवद्रव्य वाच्य नहीं होता है, वैसे ही यदि सत्ता के प्रदेशों द्वारा भी सत्तागुण से वह भिन्न है, तो जैसे- जीव के प्रदेशों से भिन्न पुद्गलद्रव्य भिन्न सत्-दूसरा द्रव्य है; उसीप्रकार सत्तागुण के प्रदेशों से भिन्न मुक्तजीवद्रव्य, सत्तागुण से भिन्न होते हुये पृथक दूसरे द्रव्य प्राप्त होते हैं । इससे क्या सिद्ध होगा? इससे सत्तागुणरूप पृथक् द्रव्य और मुक्तजीवद्रव्यरूप पृथक् द्रव्य - इसप्रकार दो द्रव्य सिद्ध होते है परन्तु ऐसा नहीं है ।
और दूसरा दोष (भी) प्राप्त होता है - जैसे सुवर्णत्वगुण के प्रदेशों से भिन्न सुवर्ण का अभाव है, वैसे ही सुवर्ण के प्रदेशों से भिन्न सुवर्णत्वगुण का भी अभाव है; उसीप्रकार सत्तागुण के प्रदेशों से भिन्न मुक्त जीवद्रव्य का अभाव तथा मुक्त जीवद्रव्य के प्रदेशों से भिन्न सत्तागुण का भी अभाव सिद्ध होगा - इसप्रकार दोनों का ही अभाव प्राप्त होगा (परन्तु ऐसी वस्तुस्थिति नहीं है) ।
जैसे यह मुक्त जीव-द्रव्य में संज्ञा आदि भेदों से पृथक् उसका (सत्ता का) अतद्भाव तथा सत्तागुण के साथ (जीव सम्बन्धी) प्रदेशों के अभेद का व्याख्यान किया है; उसीप्रकार यथासंभव सभी द्रव्यों में जानना चाहिये-यह अर्थ है ॥११८॥
[जो खलु दव्वसहावो परिणामो] - जो वास्तव में द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम-पंचेन्द्रिय विषयों के भोगरूप मन की क्रिया से उत्पन्न सम्पूर्ण मनोरथरूपी विकल्पसमूह का अभाव होने पर ज्ञानानन्द एक स्वभाव की अनुभूतिरूप निज में स्थिरतामय जो परिणाम - उसका उत्पाद पहले कहे हुये विकल्पसमूहों का अभावरूप व्यय और उन दोनों का आधारभूत जीवत्वरूप धौव्य- इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वरूप स्वभावभूत जो वह जीवद्रव्य का परिणाम है, [सो गुणो] - वह गुण है । वह परिणाम कैसा होता हुआ गुण है? [सदविसिट्ठो] - वे उत्पादादि तीनों एक अस्तित्व से अभिन्न- एक अस्तित्वरूप रहते हैं । वे अस्तित्व के साथ अभिन्न कैसे होते हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर देते है) 'सत् उत्पाद-व्यय-धौव्यस्वरूप है' - ऐसा वचन होने से वे सब अस्तित्व से अभिन्न हैं । ऐसा होने पर सत्ता ही गुण है - यह अर्थ है ।
इसप्रकार गुण का कथन हुआ ।
[सदवट्ठिदं सहावे दव्वं ति] - स्वभाव में स्थित सत् द्रव्य है, द्रव्य अर्थात् परमात्मद्रव्य है । सत् द्रव्य कैसे है? अभेदनय से सत् द्रव्य है । कैसा सत् द्रव्य है? अच्छी तरह से स्थित सत् द्रव्य है । कहाँ स्थित सत् द्रव्य है? उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वरूप स्वभाव में स्थित सत् द्रव्य है । [जिणोवदेसोयं] - यह जिनोपदेश है । "सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हु परिणामो" - स्वभाव में अवस्थित द्रव्य सत् है, वास्तव में द्रव्य का जो परिणमन है-----इत्यादि पहले (प्रवचनसार, गाथा १०९) गाथा में जो कहा था, वही यह व्याख्यान है; मात्र गुण का कथन अधिक है- यह तात्पर्य है ।
जैसे यह जीव द्रव्य में गुण्-गुणी का व्याख्यान किया है, उसी प्रकार सभी द्रव्यों में जानना चाहिये ॥११९॥
[णत्थि] नहीं पाया जाता है । वह कौन नहीं पाया जाता है? [गुणो त्ति व कोई] कोई गुण नहीं पाया जाता है । मात्र गुण ही नहीं [पज्जाओ त्तिह वा] कोई पर्याय भी इस लोक में नहीं पाई जाती है । यह दोनों कैसे नहीं पाए जाते है? [विणा] ये बिना नहीं पाये जाते है । ये किसके बिना नहीं पाये जाते हैं? [दव्वं] ये द्रव्य के बिना नहीं पाये जाते है । अब द्रव्य (के सम्बन्ध में) कहते हैं - [दव्वत्तं पुण भावो] - द्रव्यत्व अर्थात् अस्तित्व । वह अस्तित्व और क्या कहलाता है? [भाव:] वह भाव कहलाता है? । भाव का क्या अर्थ है? उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप सद्भाव-विद्यमानता भाव का अर्थ है । [तम्हा दव्वं सयं सत्ता] - इसलिये अभेदनय से सत्ता स्वयं ही द्रव्य है ।
वह इसप्रकार- मुक्तात्मद्रव्य में स्वभाव की उत्कृष्ट परिपूर्ण प्राप्तिरूप मोक्षपर्याय और केवलज्ञानादिरूप गुणसमूह - जिस कारण ये दोनों भी परमात्मद्रव्य के बिना नहीं है- नहीं पाये जाते हैं । ये किस कारण नहीं पाए जाते है? प्रदेशों का अभेद होने से ये द्रव्य के बिना नहीं पाये जाते हैं । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप शुद्धसत्तारूप मुक्तात्मद्रव्य है । इसलिये अभेदनय से सत्ता ही द्रव्य है - ऐसा अर्थ है ।
जैसे मुक्तात्मद्रव्य में गुण-पर्यायों के साथ अभेद व्याख्यान किया है वैसा ही यथासंभव सभी द्रव्यो में जानना चाहिये ॥१२०॥
[एवंविहसब्भावे] इसप्रकार के सद्भाव में -
- सत्तालक्षण
- उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण और
- गुण-पर्याय लक्षण
वह इसप्रकार- जैसे
- जिससमय द्रव्यार्थिकनय से विवक्षा की जाती है तो कटक (कड़ा) पर्याय में जो स्वर्ण है वही कंकण पर्याय में है, दूसरा नहीं है; उससमय सद्भावनिबद्ध- विद्यमान वस्तु का ही उत्पाद है । (अविद्यमान नवीनपर्याय उत्पन्न होने पर भी) विद्यमानवस्तु का ही उत्पाद कैसे है? द्रव्य का द्रव्यरूप से अविनाशी होने के कारण विद्यमान वस्तु का ही उत्पाद है । और
- जब पर्याय (पर्यायार्थिकनय) से विवक्षा की जाती है, तब कटकपर्याय से भिन्न जो सुवर्ण सम्बन्धी कंकण पर्याय, वह होती ही नहीं है, तब फिर असत् का उत्पाद है । असत् पर्याय का उत्पाद कैसे है? पूर्व पर्याय का विनाश हो जाने के कारण असत् का उत्पाद है ।
- जब द्रव्यार्थिकनय से विवक्षा की जाती है तब पहले गृहस्थदशा में इस-इस प्रकार के गृह- व्यापार (घर-गृहस्थी के कार्यो) को करते थे, बाद में जिन-दीक्षा (मुनि-दीक्षा) ग्रहण कर, अब वे ही रामादि केवलीपुरुष, निश्चय रत्नत्रयस्वरूप उत्कृष्ट आत्मध्यान से अनन्तसुखरूपी अमृत से तृप्त हुये हैं और दूसरे नहीं; तब सद्भावनिबद्ध (विद्यमानता सहित) ही उत्पाद हुआ है । अविद्यमान नवीनपर्याय उत्पन्न होने पर भी विद्यमान का ही उत्पाद कैसे हुआ? पुरुष (जीव) रूप से नष्ट नहीं होने के कारण, विद्यमान का ही उत्पाद हुआ है । और
- जब पर्यायनय से विवक्षा की जाती है; तब पहले सराग-अवस्था से भिन्न यह भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि केवली-पुरुषों की उपराग-रहित वीतराग-परमात्म-पर्याय वही नहीं है; तब फिर असद्भावनिबद्ध-अविद्यमान का ही उत्पाद हुआ है । अविद्यमान का उत्पाद कैसे होता है? पहले की पर्याय से भिन्नता के कारण अविद्यमान का उत्पाद होता है ।
[जीवो] जीवरूपी कर्ता (कर्ताकारक में प्रयुक्त जीव) [भवं] परिणमित होता हुआ [भविस्सदि] होगा । परिणमित होता हुआ जीव क्या-क्या होगा? विकार रहित शुद्धोपयोग से विलक्षण शुभाशुभ उपयोगरूप से परिणमन कर [णरोऽमरो वा परो] मनुष्य, देव और अन्य तिर्यंच, नारकी रूप अथवा पूर्ण विकार रहित शुद्धोपयोग से सिद्ध होगा । [भवीय पुणो] इसप्रकार पहले कहे हुये मनुष्यादि रूप होकर भी ।
अथवा दूसरा व्याख्यान -
- होता हुआ- वर्तमानकाल की अपेक्षा से,
- होगा- भविष्यकाल की अपेक्षा से, और
- होकर- भूतकाल की अपेक्षा से-
[मणुवो ण हवदि देवो] आकुलता को उत्पन्न करने वाली मनुष्य, देव आदि विभाव-पर्यायों से विलक्षण अनाकुलतारूप स्वभाव-परिणति लक्षण परमात्मद्रव्य, यद्यपि निश्चय से मनुष्यपर्याय व देवपर्याय में समान है, तो भी मनुष्य, देव नहीं है । मनुष्य, देव क्यों नहीं है? देवपर्याय के समय मनुष्यपर्याय की प्राप्ति नहीं होने के कारण मनुष्य, देव नहीं है । [देवो वा माणुसो वा सिद्धो वा] अथवा देव, मनुष्य नहीं है, अथवा अपने आत्मा की पूर्ण प्राप्तिरूप सिद्धपर्याय नहीं है । ये सब पर्यायें एक रूप क्यों नहीं है? जैसे सुवर्ण द्रव्य में कुण्डल आदि पर्यायों का पृथक्-पृथक् समय होने से (किसी विशिष्ट सुवर्ण की) एक समय में सभी पर्यायें नहीं हो सकती, उसीप्रकार मनुष्यादि सभी पर्यायों का पृथक्-पृथक् समय होने से, वे सब एक-दूसरे रूप नहीं हैं । [एवं अहोज्जमाणो] इसप्रकार एक-दूसरे रूप नहीं होते हुए [अणण्णभावं कधं लहदि] अनन्यभाव-अभिन्नता-एकता को कैसे प्राप्त हो सकती हैं? कैसे भी नही अर्थात् वे एक नहीं हो सकतीं हैं ।
इससे इतना सिद्ध हुआ कि असद्भावनिबद्धोत्पाद-असदुत्पाद पूर्वपर्याय से भिन्न होता है ॥१२३॥
[हवदि] है । कर्तारूप कौन है? [सव्वं दव्वं] सभी विवक्षित - अविवक्षित जीवद्रव्य हैं । वे किस विशेषता वाले हैं? [अणण्णं] वे अनन्य - अभिन्न-एक अथवा तन्मय हैं । वे किसके साथ अभिन्न हैं? वे उन नारक, तिर्यंच, मनुष्य वा देव रूप विभावपर्यायसमूह और केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टय शक्ति (गुण) रूप सिद्धपर्याय के साथ अभिन्न हैं । वे इनके साथ किसके द्वारा-किस अपेक्षा से अभिन्न हैं? [दव्वट्ठिएण] शुद्धअन्वय द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा वे इनसे अभिन्न है । इस नय की अपेक्षा वे उनसे अभिन्न क्यों है? कुण्डल आदि पर्यायों में व्याप्त सुवर्ण के समान- भेद का अभाव होने से वे उनसे अभिन्न हैं । [तं पज्जयट्ठिएण पुणो] और वह द्रव्य पर्यायार्थिकनय से [अण्णं] दूसरा-भिन्न अनेक पर्यायों के साथ पृथक्-पृथक् है। पर्यायार्थिकनय से वह पृथक-पृथक् क्यों है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (आचार्य उत्तर देते है) [तक्काले तम्मयत्तादो] घास की अग्नि, लकड़ी की अग्नि, पत्ते की अग्नि के समान अपनी पर्यायों के साथ उस काल में तन्मय होने से वह पृथक्-पृथक् है ।
इससे क्या कहा गया है? अर्थात् इस सब कथन का तात्पर्य क्या है? (इस सब कथन का तात्पर्य यह है कि) द्रव्यार्थिकनय से जब वस्तु की परीक्षा की जाती है, तब पर्यायों के क्रमरूप से सभी पर्यायों का समूह द्रव्य ही ज्ञात होता है । और जब पर्यायार्थिकनय से विवक्षा की जाती है, तब पर्यायरूप से द्रव्य भी भिन्न-भिन्न ज्ञात होता है । और जब परस्पर सापेक्ष दोनों नयों से (प्रमाणदृष्टि से) एक साथ अच्छी तरह देखा जाता है, तब एकता और अनेकता एक साथ ज्ञात होती है ।
जैसे यह जीवद्रव्य में विशेष कथन किया है, वैसा यथासंभव सभी द्रव्यों में जानना चाहिये - यह अर्थ है ॥१२४॥
[अत्थि त्ति य] स्यात् अस्ति ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् -यह स्यात् का अर्थ है । कथंचित् का क्या अर्थ है? विवक्षित प्रकार से -किसी अपेक्षासे -स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से अस्ति है- यह कथंचित् का अर्थ है । शुद्धजीव के विषय में उस स्वचतुष्टय को कहते हैं- शुद्धगुण और शुद्धपर्यायों का आधारभूत शुद्धात्मद्रव्य-द्रव्य कहा जाता है, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यातप्रदेश-क्षेत्र कहलाता है, वर्तमान शुद्धपर्यायरूप परिणत वर्तमान समय-काल है और शुद्धचैतन्य-भाव; इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले द्रव्यादि चतुष्टय रूप 'अस्ति' है - यह पहला भंग है ।
[णत्थि त्ति य] स्यात् नहीं ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् - किसी अपेक्षा से -विवक्षित प्रकार से - परद्रव्यादि चतुष्टयरूप से नहीं ही है - यह स्यात् शब्द का अर्थ है- यह दूसरा भंग है ।
[हवदि] है । कैसा है? [अवत्तव्वमिदि] स्यात् अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित्-किसी अपेक्षा से- विवक्षित प्रकार से -एक साथ स्वपरद्रव्यादि चतुष्टयरूप से स्यात् अवक्तव्य ही है -यह स्यात् का अर्थ है - यह तीसरा भंग है ।
इसप्रकार
- स्यात् अस्ति ही है,
- स्यात् नास्ति ही है,
- स्यात् अवक्तव्य ही है,
- स्यात् अस्ति-नास्ति ही है,
- स्यात् अस्ति अवक्तव्य ही है,
- स्यात् नास्ति अवक्तव्य ही है और
- स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही है
कैसा सत् इस-इस प्रकार का है? [आदिट्ठं] कहा हुआ विवक्षित प्रकार का सत् इस-इस प्रकार का है । विवक्षित सत् कैसे इस-इस प्रकार का है ? [पज्जायेण दु] पर्याय से प्रश्नोत्तररूप नयविभाग से विवक्षित सत् इस-इस प्रकार का है । कैसी पर्याय से अथवा कैसे? प्रश्नोत्तररूप नयविभाग से उस रूप है । [केण वि] किसी भी विवक्षित-पर्याय से अथवा नैगमादि नयरूप से उसरूप है । [अण्णं वा] और दूसरे तीन संयोगी-भंगरूप से उसरूप है ।
उन संयोगी-भंगों को कहते हैं - स्यात् अस्ति - अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् - विवक्षित प्रकार से -स्वद्रव्यादि चतुष्टय और एकसाथ स्वपरद्रव्यादि चतुष्टय से स्यात् अस्ति - अवक्तव्य ही है- यह स्यात् का अर्थ है- यह पाँचवाँ भंग है । स्यात् नास्ति-अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् - विवक्षित प्रकार से-परद्रव्यादि चतुष्टय और युगपत् (एक साथ) स्व-पर-द्रव्यादिचतुष्टय के द्वारा स्यात् नास्ति- अवक्तव्य ही है - यह स्यात् का अर्थ है- यह छठवाँ भंग है । स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् -विवक्षितप्रकार से- क्रम से स्व-पर द्रव्यादि चतुष्टय और एक साथ स्व-पर द्रव्यादिचतुष्टय से स्यात् अस्ति-नास्ति- अवक्तव्य ही है - यह स्यात् का अर्थ है- यह सातवाँ भंग है ।
पहले 'पंचास्तिकाय संग्रह' नामक ग्रन्थ में 'स्यात् अस्ति' इत्यादि प्रमाण वाक्य द्वारा (गाथा १४ - टीका) प्रमाण सप्तभंगी का व्याख्यान किया था और यहाँ जो 'स्यात् अस्ति एव' - 'स्यात् है ही' इसप्रकार एवकार- 'ही' शब्द का ग्रहण किया है, वह नय सप्तभंगी को बताने के लिये किया है - यह भाव है । जैसे यह नय सप्तभंगी का विशेष कथन शुद्धात्म-द्रव्य में घटित कर दिखाया है, उसीप्रकार यथासंभव सभी पदार्थों में देखना चाहिये ॥१२५॥
इसप्रकार
- पूर्वोक्त प्रकार से
- पहली नमस्कार गाथा,
- द्रव्य-गुण-पर्याय कथनरूप से दूसरी,
- स्वसमय-परसमय प्रतिपादनरूप से तीसरी,
- द्रव्य के सत्ता आदि तीन लक्षणों की सूचनारूप से चौथी
- उसके बाद
- अवान्तर-सत्ता कथनरूप पहली,
- महासत्तारूप दूसरी, जैसे द्रव्य स्वभावसिद्ध है उसीप्रकार सत्तागुण भी स्वभावसिद्ध है-इस कथनरूप तीसरी,
- उत्पाद-व्यय-धौव्यरूप से भी सत्ता ही द्रव्य है -- इस कथनरूप चौथी
- तत्पश्चात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के लक्षण विवरण-परक तीन गाथाओं वाला तीसरा स्थल,
- उसके बाद द्रव्य-पर्याय और गुण-पर्याय के कथनरूप दो गाथाओं वाला चौथा स्थल,
- तदनन्तर
- द्रव्य के अस्तित्व की स्थापनारूप पहली,
- पृथक्त्व लक्षण और अतद्भाव नाम अन्यत्व लक्षण के कथनरूप दूसरी,
- संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि भेदरूप अतद्भाव के विवरणरूप तीसरी,
- उसे ही दृढ़ करने के लिये चौथी
- उसके बाद
- सत्ता और द्रव्य के गुण-गुणी कथनरूप पहली,
- गुण-पर्यायों का द्रव्य के साथ अभेद कथनरूप दूसरी
अब, इसके बाद वहाँ सामान्य ज्ञेयव्याख्यान नामक प्रथमाधिकार में ही प्रथम सामान्यद्रव्यनिर्णय अन्तराधिकार के बाद सामान्यभेदभावना नामक द्वितीय अन्तराधिकार में सामान्य भेदभावना की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं। वहाँ क्रम से पाँच स्थल हैं।
- सर्वप्रथम वार्तिक व्याख्यान के अभिप्राय से सांख्य-एकान्तमत का निराकरण, अथवा शुद्ध-निश्चयनय से जैनमत ही है - इसप्रकार व्याख्यान की मुख्यता से [एसो त्ति णत्थि कोई] -इत्यादि एक गाथावाला पहला स्थल है ।
- उसके बाद मनुष्यादि पयायें निश्चयनय से कर्म के फल हैं, शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं हैं -- इसप्रकार उसही अधिकारसूत्र के विवरण के लिये [कम्मं॑ णामसमक्खं] इत्यादि पाठक्रम से चार गाथाओं वाला दूसरा स्थल है;
- तत्पश्चात् रागादि परिणाम ही द्रव्य-कर्म के कारण होने से भावकर्म कहलाते हैं-- इसप्रकार परिणाम की मुख्यता से [आदा कम्ममलिमसो] इत्यादि दो गाथाओं वाला तीसरा स्थल है;
- उसके बाद कर्मफल चेतना, कर्मचेतना, ज्ञान चेतना - इसप्रकार त्रिविध चेतना के प्रतिपादन रूप [परिणमदि चेदणाए] इत्यादि तीन गाथाओं वाला चौथास्थल है और
- उसके बाद शुद्धात्म-भेदभावना का फल कहते हुये [कत्ताकरणं] इत्यादि एक गाथा द्वारा उपसंहार करते हैं- यह पाँचवाँ स्थल है ।
[एसो त्ति णत्थि कोई] टाँकी से उकेरे हुये के समान ज्ञायक एक स्वभावी परमात्मद्रव्य के सदृश संसार में मनुष्यादि पर्यायों में से 'हमेशा ही यह एकरूप ही नित्य है' - ऐसा कोई भी नहीं है । तो मनुष्यादि पर्यायों को रचनेवाली संसार सम्बन्धी क्रिया- वह भी नहीं होगी? [ण णत्थि किरिया] मिथ्यात्व, रागादि परिणतिरूप संसार-क्रिया नही है- ऐसा नहीं है; अपितु चार पर्यायरूप क्रिया है ही । और वह क्रिया कैसी है? [सभावणिव्वत्ता] शुद्धात्म-स्वभाव से विपरीत होने पर भी मनुष्य नारकी आदि विभाव पर्याय स्वभाव से रची हुई है- उसरूप है । तो क्या वह क्रिया निष्फल होगी? [किरिया हि णत्थि अफला] वह मिथ्यात्व रागादि परिणति रूप क्रिया, यद्यपि अनन्तसुख आदि गुणस्वरूप मोक्षरूपी कार्य के प्रति निष्फल है; तथापि अनेक प्रकार के दुखों को देनेवाली, अपने कार्यरूप मनुष्य आदि पर्यायों को रचने वाली होने से सफल-फल सहित ही है, पर्यायों की उत्पत्ति ही उसका फल है । यह कैसे जाना जाता है? यदि ऐसा कहो तो कहते हैं- [धम्मो जदि णिप्फलो परमो] राग रहित परमात्मा की प्राप्तिरूप से परिणत अथवा आगम भाषा से परम यथाख्यात चारित्ररूप परिणत जो वह उत्कृष्टधर्म है - वह केवलज्ञान आदि अनन्तचतुष्टय की प्रगटतारूप कार्य समयसार को उत्पन्न करने वाला होने से फल सहित होने पर भी मनुष्य, नारकी आदि पर्यायों के कारणभूत ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध को उत्पन्न नहीं करता है, इसलिये निष्फल-फल रहित है । इससे जाना जाता है कि मनुष्य नारकी आदि संसाररूपकार्य मिथ्यात्व रागादि क्रियाओं के फल हैं ।
अथवा इस गाथा का दूसरा अर्थ करते हैं- जैसे यह जीव शुद्धनय से रागादिविभावरूप परिणमित नहीं होता है, वैसे ही अशुद्धनय से भी परिणमित नहीं होता है- ऐसा जो सांख्यमत के द्वारा कहा गया है, उसका निराकरण किया है । इससे उनका निराकरण कैसे किया है? इसका उत्तर देते हैं- अशुद्धनय से मिथ्यात्व रागादि विभावरूप परिणत जीवों के मनुष्य, नारकी आदि पर्यायों रूप परिणति दिखाई देने के कारण वे इसरूप परिणमित होते है- यह स्पष्ट हुआ - इससे उनका निराकरण हो गया ॥१२६॥
[कम्मं] कर्म रहित परमात्मा से विलक्षण कर्मरूप कर्ता । कर्म किस विशेषता वाला है? [णामसमक्खं] नाम-रहित, गोत्र-रहित मुक्तात्मा से विपरीत 'नाम' ऐसा सम्यक् नाम है जिसका वह 'नाम' नामक कर्म -- नामकर्म है, ऐसा अर्थ है । [सभावं] शुद्ध-बुद्ध एक परमात्म-स्वभाव को, [अह] अब [अप्पणो सहावेण] अपने ज्ञानावरणादि अपने स्वभावरूप साधन द्वारा [अभिभूय] उस पूर्वोक्त आत्म-स्वभाव का तिरस्कार कर । बाद में क्या करता है? [णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि] मनुष्य, तिर्यंच, नारक और देवरूप करता है ।
यहाँ अर्थ यह है -- जैसे अग्निरूपी कर्ता, कर्मरूपी तैल के स्वभाव का तिरस्कार कर बत्ती के माध्यम से दीपशिखा - दीपक की लौ - ज्योतिरूप से परिणमन करता है, उसीप्रकार कर्माग्निरूपी कर्ता, तैल के स्थान पर शुद्धात्म-स्वभाव का तिरस्कार कर, बत्ती के स्थान पर शरीर के माध्यम से दीपशिखा के समान मनुष्य, नारक आदि पर्यायरूप परिणमन करता है । इससे ज्ञात होता है कि मनुष्यादि पर्यायें निश्चयनय से कर्म-जनित हैं ॥१२७॥
[णरणारयतिरियसुरा जीवा] मनुष्य, नारक, तिर्यंच, देव नामवाले जीव हैं । [खलु] वास्तव में । मनुष्यादि जीव कैसे हैं? [णामकम्मणिव्वत्ता] वे मनुष्य, नारक आदि अपने-अपने नामकर्म से रचित हैं । [ण हि ते लद्धसहावा] किन्तु जैसे माणिक्य से जड़े हुये सुवर्णकंकणो में वास्तव में माणिक्य की मुख्यता नहीं है, उसीप्रकार वे जीव ज्ञानानन्द एक शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त नहीं करते हुये प्राप्तस्वभाव वाले नहीं हैं; उसकारण स्वभाव का तिरस्कार कहा जाता है; जीव का अभाव स्वभाव का तिरस्कार नहीं है । वे जीव कैसे होते हुये प्राप्तस्वभाववाले (शुद्धोपयोगरूप अतीन्द्रियानन्दमय परिणमित) नहीं हैं? [परिणममाणा सकम्माणि] अपने उदय में आये हुये कर्मो के प्रति सुख-दुःख रूप से परिणमन करते हुये वे जीव प्राप्तस्वभाव वाले नहीं हैं ।
यहाँ अर्थ यह है - जैसे वृक्षसिंचन के विषय में प्रवाहित जल, चन्दन आदि वनों की पंक्तिरूप से परिणत होता हुआ अपने कोमल, शीतल, निर्मल आदि स्वभाव को प्राप्त नहीं होता है; उसीप्रकार यह जीव भी वृक्षों के समान कर्मों के उदय से परिणत होता हुआ उत्कृष्ट आह्लाद एक लक्षण सुखरूपी अमृत का आस्वाद, नैर्मल्य (सर्वविकार रहितता-निर्मलता) आदि अपने गुण-समूह को प्राप्त नहीं करता है ॥१२८॥
[जायदि णेव ण णस्सदि] द्रव्यार्थिकनय से न उत्पन्न होता है न नष्ट होता है । कहाँ उत्पन्न और नष्ट नही होता है ? [खणभंगसमुब्भवे जणे कोई] पर्यायार्थिकनय से प्रतिसमय उत्पाद और व्यय जिसमें संभव हैं - हो रहे हैं, वह क्षणभंग समुद्भव है, उस प्रतिसमय नश्वर उत्पाद- व्यय वाले इस लोक मे कोई भी उसकारण से ही न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है - इसप्रकार हेतु कहते है । [जो हि भवो सो विलओ] जिसकारण द्रव्यार्थिकनय से उत्पाद का ही नाश होता है ।
वह इसप्रकार- मुक्तात्मा के जो ही परिपूर्ण, निर्मल केवलज्ञानादिरूप मोक्षपर्याय से उत्पाद है, वही निश्चयरत्नत्रयस्वरूप निश्चयमोक्षमार्गपर्याय से विनाश है और वे दोनों मोक्षपर्याय और मोक्षमार्गपर्याय कार्य-कारण रूप से पृथक-पृथक् है, तथापि मिट्टी के पिण्ड और घड़े के आधारभूत मिट्टी द्रव्य के समान और मनुष्यपर्याय वा देवपर्याय के आधारभूत संसारी जीव के समान, उन दोनों का आधारभूत जो परमात्मद्रव्य है, वह वही है । प्रतिसमय के उत्पाद और विनाश में हेतु कहते हैं - [संभवविलय त्ति ते णाणा] जिसकारण उत्पाद और विनाश दोनों भिन्न हैं इसलिये पर्यायार्थिकनय से उत्पाद और विनाश हैं ।
वह इसप्रकार - जो ही पूर्वोक्त मोक्षपर्याय का उत्पाद और मोक्षमार्गपर्याय का विनाश है - वे दोनों भिन्न ही हैं परन्तु उन दोनों का आधारभूत परमात्मद्रव्य भिन्न नहीं है । इससे ज्ञात होता है कि द्रव्यार्थिकनय से नित्य होने पर भी पर्यायरूप से विनाशशील है ॥१२९॥
[तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति] इसलिये कोई स्वभाव में समवस्थित नहीं है । जिसकारण पूर्वोक्तप्रकार से मनुष्यादि पर्यायों की नश्वरता का व्याख्यान किया है, उससे ही यह जाना जाता है कि परमानन्द एक लक्षण परमचैतन्य चमत्कारपरिणत शुद्धात्मस्वभाव के समान अवस्थित-नित्य- स्थायी कोई भी नहीं है । कोई भी स्थायी कहाँ नहीं है? [संसारे] संसार से रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में कोई भी स्थायी नहीं है । संसार का स्वरूप कहते हैं? [संसारो पुण किरिया] और संसार क्रिया है । क्रिया रहित विकल्प रहित शुद्धात्मा की परिणति से विपरीत मनुष्यादि विभाव पर्याय परिणतिरूप क्रिया संसार का स्वरूप है । और वह क्रिया किसके होती है? [संसरमाणस्स जीवस्स] विशुद्ध - ज्ञान-दर्शन स्वभावी मुक्तात्मा से विपरीत घूमते हुये संसारीजीव के वह क्रिया होती है ।
इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्यादिपर्यायस्वरूप संसार ही नश्वरता-विनाशीपना में कारण है ॥१३०॥
[आदा] निर्दोषी परमात्मा निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी होने पर भी व्यवहार से अनादि कर्म बंध के वश [कम्ममलिमसो] कर्म से मलिन है । कर्म से मलिन होने पर वह क्या करता है? [परिणामं लहदि] परिणाम को प्राप्त करता है । कैसे परिणाम को प्राप्त करता है? [कम्मसंजुत्तं] कर्म रहित परमात्मा से विपरीत कर्म सहित मिथ्यात्व रागादि विभाव परिणाम को प्राप्त करता है । [तत्तो सिलिसदि कम्मं] उस परिणाम से बँधते हैं । उस परिणाम से क्या बैंधते हैं? उससे कर्म बँधते हैं । और यदि निर्मल भेदज्ञान ज्योति रूप परिणाम से परिणमन करता है, तब कर्म छूट जाते हैं । क्योंकि रागादि परिणाम से कर्म बँधते हैं इसलिये रागादि विकल्प रूप भावकर्म के स्थानीय सराग परिणाम ही कर्म के कारण होने से उपचार से कर्म कहलाते हैं ।
इससे निश्चित हुआ कि रागादि परिणाम कर्म-बंध के कारण हैं ॥१३१॥
[परिणामो सयमादा] परिणाम स्वयं आत्मा है, आत्मा का परिणाम आत्मा ही है । आत्मा का परिणाम आत्मा क्यों है? परिणाम और परिणामी (द्रव्य) के तन्मयता (उस रूपता) होने से आत्मा का परिणाम आत्मा है । [सा पुण किरिय त्ति होदि] और वह परिणाम क्रिया-परिणति है । वह क्रिया कैसी है? [जीवमया] जीव से रचित होने के कारण जीवमयी है । [किरिया कम्म त्ति मदा] स्वतंत्र स्वाधीन शुद्धाशुद्ध उपादान कारणभूत जीव द्वारा प्राप्य होने से वह क्रिया कर्म है-ऐसा स्वीकार किया गया है । कर्म शब्द से यहाँ जो चैतन्यरूप जीव से अभिन्न भावकर्म नामक निश्चय कर्म है, वही ग्रहण करना चाहिये । जीव उसका ही कर्ता है । [तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता] इसलिये द्रव्य कर्म का कर्ता नहीं है ।
यहाँ यह निश्चय हुआ - यद्यपि कथंचित् परिणामी होने से जीव का कर्तापन सिद्ध है, तथापि निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है, पुद्गल कर्मों का कर्ता व्यवहार से है । वहाँ जब शुद्ध उपादानकारण रूप शुद्धोपयोग से परिणत होता है, तब मोक्ष को सिद्ध करता है-प्राप्त करता है और जब अशुद्ध उपादानकारण रूप से परिणमित होता है, तब बंध को प्राप्त करता है । पुद्गल भी जीव के समान निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है व्यवहार से जीव परिणामों का कर्ता है ॥१३२॥
[परिणमदि चेदणाए आदा] चेतनारूप साधन से परिणमित होता है । चेतनारूप से वह कौन परिणमित होता है? आत्मा उस रूप से परिणमित होता है । आत्मा का जो कोई भी शुद्धाशुद्ध परिणाम है, वह सभी चेतना को नही छोड़ता है- ऐसा अभिप्राय है । [पुण चेदणा तिधाभिमदा सा] और वह चेतना तीन प्रकार की स्वीकार की गई है । तीन प्रकार की वह किस-किस रूप में स्वीकार की गई है? [णाणे] ज्ञान के विषय में, [कम्मे] कर्म के विषय में, [फलम्मि वा] तथा फल में स्वीकार की गई है । किसके फल में स्वीकार की गई है? [कम्मणो] कर्म के फल में स्वीकार की गई है । [भणिदा] - ऐसा कहा गया है ।
ज्ञानरूप परिणति ज्ञान चेतना है, उसे आगे कहेंगे, कर्मरूप परिणति कर्म चेतना और कर्म के फलरूप परिणति कर्म फल चेतना है- यह भाव है ॥१३३॥
[णाणं अट्ठवियप्पं] ज्ञान मति आदि के भेद से आठ प्रकार का है । अथवा दूसरा पाठ [णाणं अट्ठवियप्पो] ज्ञान अर्थ विकल्प है । वह इसप्रकार- अर्थ अर्थात् परमात्मा आदि पदार्थ अनन्त ज्ञान-सुखादि रूप मैं हूँ, रागादि आस्रव भिन्न हैं- इसप्रकार निज और पर के स्वरूप की जानकारी रूप से,दर्पण के समान पदार्थों को जानने में समर्थ (ज्ञान) विकल्प है- यह विकल्प का लक्षण कहा गया है । वही ज्ञान ज्ञानचेतना है ।
[कम्मं जीवेण जं समारद्धं] जीव द्वारा जो किया जा रहा है, वह कर्म है । बुद्धिपूर्वक मन-वचन-काय के व्यापार (की क्रिया)? रूप से जीव द्वारा जो अच्छी तरह करने के लिये प्रारम्भ किया जाता है, वह कर्म कहलाता है । वही कर्मचेतना है । [तमणेगविधं भणिदं] और वह कर्म शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोग के भेद से अनेक प्रकार का- तीन प्रकार का कहा गया है ।
अब, फल चेतना (कर्मफल चेतना) कहते हैं- [फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा] फल सुख अथवा दुःख है । विषयानुराग रूप जो अशुभोपयोग लक्षण कर्म है, उसका फल आकुलता को उत्पन्न करनेवाला नारक आदि दुःख, और जो धर्मानुरागरूप शुभोपयोग लक्षण कर्म है, उसका फल चक्रवर्ती आदि पंचेन्द्रिय- भोगों के अनुभवरूप है और वह अशुद्ध निश्चय नय से सुख कहलाने पर भी आकुलता को उत्पन्न करनेवाला होने से शुद्ध निश्चय से दुःख ही है । और जो रागादि विकल्प रहित शुद्धोपयोग परिणतिरूप कर्म है, उसका फल अनाकुलता को उत्पन्न करनेवाला होने से उत्कृष्ट आनन्द एकरूप सुखामृत है ।
इसप्रकार ज्ञान चेतना, कर्म चेतना और कर्मफल चेतना का स्वरूप जानना चाहिये ॥१३४॥
[अप्पा परिणामप्पा] आत्मा है । आत्मा कैसा है? आत्मा परिणाम-स्वभावी है । आत्मा परिणाम-स्वभावी क्यों है? [परिणामो सयमादा] परिणाम स्वयं आत्मा है, ऐसा पहले (गाथा नं. १३२ में) स्वयं ही कहा गया होने से आत्मा परिणाम-स्वभावी है । परिणाम कहा जाता है -- [परिणामो णाणकम्मफलभावी] परिणाम है । परिणाम किस विशेषता वाला है?
- ज्ञानभावी
- कर्मभावी और
- कर्मफलभावी
- [णाणं] पहले (गाथा नं १३४ में) कही हुई ज्ञान चेतना है ।
- [कम्मं] वहाँ ही कहे गये लक्षणवाली कर्म चेतना है ।
- [फलं च] और पहले (वहीं) कहे हुये लक्षण वाली कर्मफल चेतना है ।
इससे क्या कहा गया है? तीन प्रकार के चेतना परिणाम से परिणमित होता हुआ आत्मा क्या करता है? परिणामी आत्मा निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग से मोक्ष को तथा शुभ-अशुभ परिणाम से बन्ध को साधता है- प्राप्त करता है ॥१३५॥
[कत्ता] स्वतन्त्र-स्वाधीन-कर्ता-साधना करने वाला-निष्पन्न करने वाला हूँ-होता हूँ । ऐसा करनेवाला वह कौन है? [अप्प त्ति] ऐसा करने वाला आत्मा ही है । आत्मा-इसका क्या अर्थ है? मैं ऐसा करने वाला हूँ- यह आत्मा का अर्थ है । मैं कैसा हूँ? मैं एक हूँ । मैं किसका साधक हूँ? मैं निर्मल आत्मानुभूति का साधक हूँ । साधना करने वाला मैं किस विशेषता वाला हूँ? विकार रहित परम चैतन्य परिणाम से परिणत होता हुआ मैं निर्मल आत्मानुभूति की साधना करनेवाला हूँ । [करणं] अतिशयरूप से-नियमरूप से साधक-साधकतम करण-उपकरण अर्थात् साधन, नियामक साधनरूप करण कारक मैं एक ही हूँ - होता हूँ । मैं ही करण-कारकरूप से किसका साधक हूँ? करण-कारकरूप से मैं सहज शुद्ध परमात्मा की अनुभूति का साधक हूँ । किसके द्वारा उसका साधक हूँ? रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञानरूप परिणति के बल से उस अनुभूति का साधक हूँ । [कम्मं] शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा द्वारा प्राप्त करने योग्य-व्याप्त होने योग्य मैं एक ही कर्म कारक हूँ । [फलं च] - और शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी परमात्मा का सिद्ध करने योग्य, रचने योग्य, स्वशुद्धात्मा की रुचि-जानकारी-निश्चल अनुभूति अर्थात् सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप अभेद रत्नत्रय स्वरूप परम समाधि -पूर्णस्वरूप लीनता से उत्पन्न सुखरूपी अमृतरस के आस्वादमयी परिणतिरूप मैं एक ही फल हूँ । [णिच्छिदो] इसप्रकार कही गई पद्धति से निश्चितमति- दृढ़ निश्चयी होता हुआ [समणो] सुख-दुःख, जीवन-मरण, शत्रु-मित्र आदि में समभावरूप से परिणत श्रमण-महामुनि [परिणमदि णेव अण्णं जदि] यदि अन्य रागादि परिणामरूप परिणमित नहीं होते हैं, [अप्पाणं लहदि सुद्धं] तो भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित होने के कारण शुद्ध-शुद्धबुद्ध एक-स्वभावी आत्मा को प्राप्त करते हैं - ऐसा भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव का अभिप्राय है ॥१३६॥
इसप्रकार एक गाथा द्वारा पाँचवा स्थल पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार 'सामान्य ज्ञेयाधिकार' के बीच पाँच स्थलों द्वारा (ग्यारह गाथाओं में निबद्ध) "सामान्य भेद-भावना" नामक दूसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार कहे गये प्रकार से तम्हा तस्स णमाइं इत्यादि ३५ गाथाओं द्वारा 'सामान्य-ज्ञेयाधिकार' नामक प्रथम अधिकार का व्याख्यान पूर्ण हुआ ।
इससे आगे १९ गाथाओं द्वारा जीव-अजीव द्रव्यादि विवरणरूप से विशेष-ज्ञेय-व्याख्यान करते हैं । वहाँ ८ स्थल हैं --
- वहाँ
- सबसे पहले जीव-अजीवत्व के कथनरूप पहली गाथा,
- लोक-अलोकत्व के कथनरूप दूसरी,
- सक्रिय-नि:क्रियत्व के कथनरूप तीसरी-
- उसके बाद ज्ञानादि विशेष गुणों के स्वरूप कथनरूप से लिंगेहिं जेहिं इत्यादि दो गाथाओं द्वारा दूसरा स्थल है।
- तदनन्तर अपने-अपने विशेष गुणों से उपलक्षित द्रव्यों के निर्णय के लिये 'वण्णरस' इत्यादि तीन गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल है।
- तत्पश्चात् पाँच अस्तिकायों के कथन की मुख्यता से जीवा पोग्गलकाया इत्यादि दो गाथाओं द्वारा चौथा स्थल है ।
- तदुपरान्त
- 'द्रव्यों का आधार लोकाकाश है' -- इस कथनरूप से पहली;
- जो आकाश द्रव्य का प्रदेशलक्षण है, वही शेष द्रव्यों का है इस कथनरूप से दूसरी
- उसके बाद
- काल द्रव्य के अप्रदेशत्व की स्थापना रूप से पहली,
- समयरूप पर्यायकाल, कालाणुरूप द्रव्यकाल-इस कथन रूप से दूसरी
- तदनन्तर
- प्रदेशलक्षण कथनरूप से पहली,
- तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचय के स्वरूप कथनरूप से दूसरी
- तत्पश्चात् कालाणुरूप द्रव्यकाल की स्थापनारूप से उप्पादो पद्धंसो इत्यादि तीन गाथाओं द्वारा आठवां स्थल है
विशेष-ज्ञेयादिकार संज्ञक द्वितीयाधिकार का स्थल विभाजन | |||
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स्थल क्रम | प्रतिपादित विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ | कुल गाथाएँ |
प्रथम | जीवाजीवादि, लोकालोकत्व,सक्रिय-निष्क्रियत्व द्रव्य विवरण | 137 से 139 | 3 |
द्वितीय | ज्ञानादि विशेष गुणों का स्वरूप कथन | 140 से 141 | 2 |
तृतीय | विशेष गुणों द्वारा द्रव्यों का निर्णय | 142 से 144 | 3 |
चतुर्थ | पंचास्तिकाय | 145 से 146 | 2 |
पंचम | द्रव्यों का आधार लोकाकाश, आकाश का प्रदेश लक्षण | 147 से 148 | 2 |
षष्टम | काल द्रव्य का अप्रदेशत्व तथा पर्याय काल, द्रव्यकाल | 149 से 150 | 2 |
सप्तम | प्रदेशलक्षण, तिर्यक्प्रचय-ऊर्ध्वप्रचय लक्षण | 151 से 152 | 2 |
अष्टम | कालाणु रूप द्रव्य-काल व्याख्यान | 153 से 155 | 3 |
कुल 8 स्थल | कुल 19 गाथाएँ |
[दव्वं जीवमजीवं] द्रव्य जीव और अजीव लक्षण वाला है । [जीवो पुण चेदणो] उनमें से जीव चेतन है- स्वयंसिद्ध (अपने आप से ही सिद्ध-अस्तित्ववाले), बाह्य कारणों की अपेक्षा के बिना बाहर और अन्दर प्रकाशमान, स्थायी, निश्चय से परमशुद्ध चेतना के साथ और व्यवहार से अशुद्ध चेतना के साथ सम्बद्ध होने से चेतन है । जीव और किस विशेषता वाला है? [उवजोगमओ] उपयोगमय है- निश्चय नय से अखण्ड एक प्रतिभासमय (ज्ञानस्वरूप), परिपूर्ण शुद्ध केवलज्ञान-केवलदर्शन लक्षण से पदार्थों को जानने की क्रियारूप- ऐसे शुद्धोपयोग से और व्यवहार से मतिज्ञान आदि अशुद्धोपयोग से निर्वृत्त होने के कारण- निष्पन्न-रचित होने के कारण वह उपयोगमय है । [पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि य अजीवं] पुद्गल द्रव्य प्रमुख अचेतन अजीव द्रव्य हैं पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामक पाँच द्रव्य पहले कहे हुये लक्षण वाले चेतना और उपयोग का अभाव होने से अजीव-अचेतन है-यह अर्थ है ॥१३७॥
[पोग्गलजीवणिबद्धो] अणु व स्कन्ध के भेद से भेद वाले पुद्गल और उसीप्रकार अमूर्तत्व, अतीन्द्रियज्ञानमयत्व, विकाररहित उत्कृष्ट आनन्द एक सुखमयत्व आदि लक्षण वाले जीव-इसप्रकार जीव और पुद्गलों से निबद्ध-सम्बद्ध-भरा हुआ होने से पुद्गल-जीव- निबद्ध है । [धम्मा] धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल-धर्माधर्मास्तिकाय-काल उनसे आढ्य-भरा हुआ होने से धर्माधर्मास्तिकायकालाढ्य है । [जो] जो इन पाँच का ऐसा समुदाय-राशि-समूह [वट्टदि] वर्तता है- रहता है । वह समूह किसमें रहता है? [आगासे] अनन्तानन्त आकाश द्रव्य के मध्य में स्थित लोकाकाश में वह समूह रहता है । [सो लोगो] वह पहले कहा हुआ पाँचों का समूह और उसका आधारभूत लोकाकाश- इसप्रकार छह द्रव्यों का समूह लोक [भवति] है । छह द्रव्यों का समूह लोक कहाँ-कब है? [सव्व काले दु] सभी कालों में-हमेशा छह द्रव्यों का समूह लोक है ।
उससे बाहर अनन्तानन्त आकाश-अलोक है- ऐसा अभिप्राय है ॥१३८॥
[जायन्ते] उत्पन्न होते हैं । कर्तारूप कौन उत्पन्न होते हैं? अथवा उत्पन्न होने की क्रिया को करनेवाला कौन है? [उप्पादट्ठिदिभंगा] उत्पत्ति, स्थिति और विनाश उत्पन्न होते हैं । ये तीनों किसके हैं? [लोगस्स] ये तीनों लोक के हैं । वे किस विशेषता वाले लोक के हैं? [पोग्गलजीवप्पगस्स] वे पुद्गल-जीवात्मक लोक के हैं, यहाँ पुद्गल और जीव उपलक्षण (संकेत) हैं इससे षडद्रव्यात्मक-छह द्रव्य स्वरूप लोक के वे है । उस लोक के वे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कैसे होते हैं? [परिणामादो] परिणाम से, एक-एक समय-प्रति समयवर्ती अर्थपर्याय से, [संघादादो व भेदादो] जीव पुद्गलों के उत्पाद आदि मात्र अर्थ पर्याय से ही नहीं होते हैं वरन् संघात से, भेद से अर्थात् व्यंजनपर्याय से भी होते हैं ।
वह इसप्रकार- धर्म, अधर्म, आकाश और काल के मुख्यरूप से एक-एक समयवर्ती अर्थ पर्यायें ही होती हैं; तथा जीव और पुद्गलों के अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय दोनों होती हैं । उनके दोनों कैसे होती हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते है- प्रतिसमय परिणमनरूप अर्थपर्यायें कहलाती हैं । जब जीव इस शरीर को भेदकर-त्यागकर दूसरे भव में शरीर के साथ संघात करता है- शरीर के ग्रहण करता है, तब विभाव व्यंजनपर्याय होती है, उसकारण ही दूसरे भव में संक्रमण होने से-परिवर्तन होने से सक्रियत्व -क्रिया (स्थान से स्थानान्तररूप क्रिया) सहितपना कहते है । उसी प्रकार पुद्गलों की, विवक्षित स्कन्ध के विघटन से- खण्डित होने से सक्रियता होने के कारण दूसरे स्कन्ध के साथ संयोग होने पर विभाव व्यंजनपर्याय होती है । परन्तु मुक्तजीवों के निश्चय रत्नत्रय लक्षण परम कारण-समयसार नामक निश्चय मोक्षमार्ग के बल से अयोगी (चौदहवे गुणस्थान) के अंतिम समय में नख और केश (नाखून और बाल) को छोड़कर परमौदारिक शरीर के विलीयमानरूप से (कपूर के समान उड़ जानेरूप से) नष्ट हो जाने पर केवलज्ञानादि अनंत-चतुष्टय की (अव्याबाध-सुख की मुख्यता से) प्रगटता लक्षण परम कार्यसमयसाररूप स्वभाव व्यंजनपर्याय रूप से जो वह उत्पाद है, वह भेद से ही होता है, संघात से नही । वह स्वभाव-व्यंजन-पर्याय उनके संघात से क्यों नही होती है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं - दूसरे शरीर के साथ सम्बन्ध का अभाव होने से उनके वह भेद से ही उत्पन्न होती है, संघात से नही -- ऐसा भाव है ॥१३९॥
[लिंगेहिं जेहिं] जिन सहज शुद्ध परम चैतन्य विलासरूप अथवा उसीप्रकार अचेतन जड़ रूप लिंगों-चिन्हों-विशेष गुणों रूप साधनों से जीवरूपी कर्ता द्वारा [हवदि विण्णादं] विशेषरूप से ज्ञात होता है । इस गाथा में कर्मपने को प्राप्त कौन है? कौन ज्ञात होता है? [दव्वं] द्रव्य ज्ञात होता है । कैसा द्रव्य ज्ञात होता है? [जीवमजीवं च] जीव और अजीव द्रव्य ज्ञात होता है । [ते मुत्तामुत्तागुणा णेया] उन पहले कहे हुये चेतन-अचेतन (द्रव्यों के) चिन्ह मूर्त-अमूर्त गुण जानना चाहिये । वे गुण कैसे हैं? [अतब्भावविसिट्ठा] वे अतद्भाव विशिष्ट हैं (द्रव्य से अतद्भावरूप भिन्न है) ।
वह इसप्रकार- शुद्ध जीव द्रव्य में जो केवलज्ञानादि गुण हैं, उनका शुद्ध जीव के प्रदेशों के साथ जो एकत्व, अभिन्नत्व, तन्मयत्व, एकरूपत्व है, वह भाव कहलाता है । उन ही गुणों का उन प्रदेशों के साथ जब संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि भेद किया जाता है, तब फिर अतद्भाव कहलाता है; इस संज्ञादि भेदरूप अतद्भाव द्वारा (वे) अपने-अपने द्रव्य के साथ विशिष्ट-कथंचित् भिन्न हैं ।
अथवा दूसरे व्याख्यान से अपने द्रव्य के साथ तद्भाव-तन्मयता के कारण अन्य द्रव्य से विशिष्ट-भिन्न है - ऐसा अभिप्राय है । इसप्रकार गुणभेद से द्रव्य का भेद जानना चाहिये ॥१४०॥
[मुत्ता इंदियगेज्छा] मूर्त गुण इन्द्रियग्राह्य-इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य होते हैं और अमूर्त गुण इन्द्रियों के विषय नहीं होते है- इसप्रकार मूर्त- अमूर्त गुणों का इन्द्रिय और अनिन्द्रिय विषयतारूप लक्षण कहा । अब मूर्तगुण किस सम्बन्धी-किसके होते हैं- इसप्रकार सम्बन्ध कहते हैं । [पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा] मूर्त गुण पुद्गल द्रव्य स्वरूप अनेक प्रकार के होते हैं, पुद्गल द्रव्य सम्बन्धी-पुद्गल द्रव्य के है- ऐसा अर्थ है ।
अमूर्त गुणों का सम्बन्ध बताते हैं- [दव्वाणममुत्ताणं] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी जो परमात्मद्रव्य तत्प्रभृति अमूर्त द्रव्यों सम्बन्धी- अमूर्त द्रव्यों के हैं । अमूर्त द्रव्यों के कौन हैं? [गुणा अमुत्ता (मुणेदव्वा)] वे अमूर्त गुण-केवलज्ञानादि गुण अमूर्त द्रव्यों के हैं- ऐसा जानना चाहिये: यह अर्थ है । इसप्रकार मूर्त और अमूर्त गुणों के लक्षण और सम्बन्ध जानना चाहिये ॥१४१॥
[वण्णरसगंधफासा विज्जंते पोग्गलस्स] वर्ण, रस, गंध, स्पर्श विद्यमान हैं । ये किसके विद्यमान हैं? ये पुद्गल के विद्यमान हैं । ये कैसे पुद्गल के विद्यमान हैं? [सुहुमादो पुढवीपरियंतस्स य] पुद्गल द्रव्य को जिनेन्द्रदेव ने पृथ्वी, जल, छाया (नेत्र को छोड़कर) चार इन्द्रियों के विषय, कर्म और परमाणु- इसप्रकार छह भेद वाला कहा है । इस गाथा में कहे हुये क्रम से परमाणु लक्षण सूक्ष्म स्वरूप से पृथ्वी स्कन्ध लक्षण स्थूल स्वरूप वाले पुद्गल के विद्यमान है |
वह इसप्रकार- जैसे विशेषणभूत अनन्तज्ञानादि चतुष्टय यथासंभव सभी जीवों में साधारण हैं उसी-प्रकार विशेष लक्षणभूत वर्णादि चतुष्टय यथासंभव सभी पुद्गलों में साधारण हैं । और जैसे मुक्त जीव में अनन्तज्ञानादि चतुष्टय, अतीन्द्रिय-ज्ञान के विषय तथा अनुमानगम्य और आगमगम्य हैं उसीप्रकार शुद्ध परमाणु द्रव्य में वर्णादि चतुष्टय भी अतीन्द्रिय-ज्ञान के विषय तथा अनुमानगम्य और आगमगम्य हैं । जैसे संसारी जीव में रागादि स्नेह (स्निग्ध-चिकनाई) के निमित्त से, कर्मबन्ध के वश अनन्त चतुष्टय के अशुद्धता होती है, उसीप्रकार वर्णादि चतुष्टय के भी द्वयणुक आदि बंध की अवस्था में स्निग्ध-रूक्ष गुण के निमित्त से अशुद्धता होती है । तथा जैसे रागादि स्नेह रहित शुद्धात्मा के ध्यान से अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय के शुद्धता होती है, उसी प्रकार (बँधने योग्य) स्निग्ध गुण के अभाव में बन्धन नहीं होने पर, पुद्गल की परमाणु अवस्था में वर्णादि चतुष्टय के भी शुद्धता होती है । [सद्दो सो पोग्गलो] और जो शब्द है, वह पुद्गल है । जैसे जीव की मनुष्य नारक आदि विभाव पर्यायें हैं; उसीप्रकार यह शब्द पुद्गल की विभाव पर्याय है, गुण नहीं है । वह क्यों नहीं है? गुणों के अविनश्वरता-नित्यता-नष्ट नहीं होने से शब्द गुण नहीं है, यह नश्वर है-नष्ट होता है ।
नैयायिक मत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है- यह शब्द आकाश का गुण है । आचार्य उसका निराकरण करते हैं- आकाश का गुण होने पर वह अमूर्त (सिद्ध) होता है । और अमूर्त कर्णेन्द्रिय का विषय नहीं होता, परन्तु उसके कर्णेन्द्रिय की विषयता देखी जाती है ।
प्रश्न - वह शेष इन्द्रियों का विषय किस कारण-क्यों नहीं होता है ?
उत्तर - वस्तु के स्वभाव से ही रसादि विषयों के समान, किसी अन्य इन्द्रिय का विषय दूसरी अन्य इन्द्रिय का विषय नहीं होता है ।
वह शब्द भी कैसा है? [चित्तो] विविधप्रकार का- भाषात्मक, अभाषात्मक रूप से, कृत्रिम तथा स्वाभाविक रूप से अनेक प्रकार का है । और वह "शब्द स्कन्ध से उत्पन्न है- इत्यादि गाथा में 'पंचास्तिकाय' में कहा गया है; इसप्रकार यहाँ इस अतिप्रसंग से बस हो ॥१४२॥
[आगासस्सवगाहो] आकाश का अवगाहहेतुता (जगह देने में निमित्त होना) [धम्म-दव्वस्स गमणहेदुत्तं] धर्म द्रव्य का गमनहेतुता (चलने में निमित्त होना) [धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणोठाणकारणदा] और धर्मेतर द्रव्य का- अधर्म द्रव्य का स्थानकारणता (ठहरने में निमित्त होना) गुण है- इसप्रकार पहली (१४३ वी) गाथा पूर्ण हुई ।
[कालस्स वट्टणा से] काल का वर्तना गुण है । [गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो] ज्ञान-दर्शन दोनों उपयोग आत्मा के गुण कहे गये हैं । [णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं] इसप्रकार संक्षेप से अमूर्त द्रव्यों के गुण जानना चाहिये ।
वह इसप्रकार-
- अन्य द्रव्यों के असम्भव-नहीं पाये जाने वाले सभी द्रव्यों को साधारण-समान रूप से, अवगाह-हेतुत्वरूप विशेषगुण से ही विद्यमान आकाश का निश्चय किया जाता है ।
- अन्य द्रव्यों के असम्भव, गति रूप परिणत सम्पूर्ण जीव-पुद्गलों के एक समय में समानरूप से गमन में हेतुरूप विशेष गुण से ही विद्यमान धर्म द्रव्य का निश्चय किया जाता है । और उसी प्रकार
- अन्य द्रव्यों के असम्भव स्थिति रूप परिणत सम्पूर्ण जीव-पुद्गलों की एक समय में समान रूप से स्थिति में हेतु रूप विशेष गुण से ही विद्यमान अधर्म द्रव्य का निश्चय किया जाता है ।
- अन्य द्रव्यों के असम्भव, सभी द्रव्यों को एक साथ पर्याय रूप परिणमन में हेतु रूप विशेष गुण से ही विद्यमान काल द्रव्य का निश्चय किया जाता है ।
- अन्य अचेतन पाँचों द्रव्यों के असम्भव, सभी जीवों में पाये जाने वाले परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान-केवलदर्शन (मात्र ज्ञान-दर्शन) दो विशेष गुणों से ही विद्यमान शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी परमात्मद्रव्य का निश्चय किया जाता है ।
[जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगासं] जीव, पुद्गलकाय, धर्म अधर्म, और आकाश । ये पाँच अस्तिकाय किस विशेषता वाले हैं? [सपदेसेहिं असंखा] अपने प्रदेशों से असंख्यात हैं । यहाँ 'असंख्यात प्रदेश' शब्द से बहुप्रदेशता ग्रहण करना चाहिये । और वह यथासंभव लगाना चाहिये । उनमें से
- जीव के संसार अवस्था मे दीपक के प्रकाश के समान प्रदेशों का संकोच-विस्तार होने पर भी हीनाधिकता का अभाव होने के कारण व्यवहार से शरीर के बराबर आकारवाला होने पर भी, निश्चय से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशता है ।
- धर्म और अधर्म द्रव्य के अवस्थित-स्थायीरूप से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशता है ।
- स्कन्ध के आकार परिणत पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशता है । परन्तु पुद्गल के कथन में प्रदेश शब्द के द्वारा परमाणु ग्रहण करना चाहिये, क्षेत्ररूप प्रदेश नहीं । क्षेत्ररूप प्रदेश क्यों ग्रहण नहीं करना चाहिये? पुद्गलों का अनन्त प्रदेश क्षेत्र में निवास का अभाव होने से प्रदेश शब्द से क्षेत्ररूप प्रदेश ग्रहण न कर परमाणु ग्रहण करना चाहिये । परमाणुके प्रगटरूप से एक प्रदेशता और शक्तिरूप से, उपचार से बहुप्रदेशता है ।
- आकाश के अनन्त प्रदेशता है ।
- [णत्थि पदेस त्ति कालस्स] काल के प्रदेश (बहुप्रदेश) नहीं हैं ।
[एदाणि पंचदव्वाणि] ये पहले (१४५वीं) गाथा में कहे हुये जीवादि छह द्रव्य ही [उज्झिय-कालं तु] काल द्रव्य को छोड़कर [अत्थिकाय त्ति भण्णति] अस्तिकाय-पाँच-अस्तिकाय कहे जाते हैं । [काया पुण] - काय-और काय शब्द से क्या कहा गया है? [बहुप्पदेसाण पचयत्तं] बहुप्रदेशों का प्रचयपना-समूह काय शब्द से कहा गया है ।
यहाँ पाँच अस्तिकायों में जीवास्तिकाय उपादेय है, वहाँ भी पंच परमेष्ठीरूप पर्याय दशा उपादेय है, उसमें भी अरहन्त और सिद्ध दशा उपादेय है, उसमें भी सिद्ध दशा उपादेय है । वास्तव में तो रागादि सम्पूर्ण विकल्प समूहों के निषेध के समय सिद्ध जीव के समान अपना शुद्धात्म स्वरूप ही उपादेय है - ऐसा भाव है ॥१४६॥
[लोगालोगेसु णभो] आधारभूत लोक और अलोक में आकाश है । [धम्माधम्मेहिं आददो लोगो] लोक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से व्याप्त-भरा हुआ है । लोक क्या करने वाले उनसे भरा हुआ है । [सेसे पडुच्च] शेष जीव और पुद्गल का आश्रय लेकर रहने वाले धर्म और अधर्म से यह लोक भरा हुआ है । यहाँ अर्थ यह है कि जीव और पुद्गल लोक में रहते हैं उन दोनों की गति-स्थिति में कारणभूत धर्म और अधर्म भी लोक में रहते हैं । [कालो] काल भी शेष-जीव-पुद्गलों का आश्रय लेकर लोक में रहता है । वह जीव-पुद्गलों का आश्रय क्यों लेता है? नवीन और पुरानी पर्याय रूप से परिणमित जीव-पुद्गलों के द्वारा व्यक्त होने वाली समय, घटिका (घड़ी) आदि पर्याय रूप होने के कारण वह शेष जीव-पुद्गलों का आश्रय लेकर लोक में रहता है । शेष शब्द से क्या कहा गया है? [जीवा पुण पुग्गला सेसा] जीव और पुद्गल शेष (शब्द से) कहे गये हैं ।
यहाँ भाव यह है- जैसे सिद्ध भगवान यद्यपि निश्चय से लोकाकाश प्रमाण अपने शुद्ध असंख्यात प्रदेशों में, केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत अपने-अपने भावों में रहते हैं, तथापि व्यवहार से मोक्षशिला (सिद्धशिला) में रहते है- ऐसा कहते हैं । उसीप्रकार सभी पदार्थ यद्यपि निश्चय से अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं तथापि व्यवहार से लोकाकाश में रहते हैं । यहाँ यद्यपि अनन्तजीव द्रव्यों से अनन्तगुणे पुद्गल हैं फिर भी एक दीपक के प्रकाश में अनेक दीपकों के प्रकाश के समान विशिष्ट अवगाहनशक्ति के योग से असंख्यातप्रदेशी लोक में भी (इन सभी का) अवस्थान विरोध को प्राप्त नहीं होता है ॥१४७॥
[जध ते णभप्पदेसा] जैसे वे प्रसिद्ध परमाणु से व्याप्त क्षेत्र के बराबर आकाश के प्रदेश हैं [तधप्पदेसा हवंति सेसाणं] उसी आकाश के प्रदेश के प्रमाण से प्रदेश हैं । आकाश प्रदेश के प्रमाण से किनके प्रदेश हैं? शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव जो परमात्मद्रव्य तत्प्रभृति शेष द्रव्यों के प्रदेश हैं । [अपदेसो परमाणु] अप्रदेश-दूसरे आदि प्रदेशों से रहित जो वह पुद्गल परमाणु है, [तेण पदेसुब्भवो भणिदो] उस परमाणु द्वारा प्रदेशों की उत्पत्ति कही गई है । परमाणु से व्याप्त क्षेत्र प्रदेश है । वह आगे (१५१वीं गाथा में) विस्तार से कहा जायेगा, यहाँ तो सूचना मात्र दी है ॥१४८॥
[समओ] समय पर्याय का उपादान कारण होने से समय-कालाणु-कालद्रव्य [दु] और । वह काल द्रव्य कैसा है? [अप्पदेसो] अप्रदेश-दूसरे आदि प्रदेशों से रहित है । वह अप्रदेशी काल द्रव्य क्या करता है? [सो वट्टदि] वह पूर्वोक्त कालाणु परमाणु के गतिरूप परिणमन के निमित्त से वर्तता है-परिणमन करता है । जो गति परिणत है, वह परमाणु किस सम्बन्धी है- गतिपरिणत वह परमाणु किसका है? [पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स] प्रदेशमात्र-एक प्रदेशी पुद्गल जातिरूप परमाणु द्रव्य का वह गति परिणत परमाणु है । क्या करते हुये परमाणु के माध्यम से काल द्रव्य परिणमित होता है? [वदिवददो] मन्दगति से जाते हुये परमाणु के माध्यम से वह परिणमित होता है । वह परमाणु किसकी ओर मन्दगति से जाता है? [पदेसं] वह कालाणु से व्याप्त एक प्रदेश की ओर जाता है । वह प्रदेश किसका है? [आगासदव्वस्स] वह प्रदेश आकाश द्रव्य का है ।
वह इसप्रकार- कालाणु अप्रदेशी (एक प्रदेशी) है । वह अप्रदेशी कैसे है? द्रव्य की अपेक्षा एक प्रदेशी होने के कारण वह अप्रदेशी है । अथवा जैसे स्नेह गुण (स्निग्ध गुण-चिकनाई) द्वारा पुद्गलों का परस्पर बन्ध होता है, उसप्रकार के बन्ध का अभाव होने से पर्याय अपेक्षा भी वह अप्रदेशी है ।
यहाँ अर्थ यह है कि जिस कारण पुद्गल परमाणु के एक प्रदेश पर्यन्त गमन में सहकार्य करता है-निमित्त होता है, अधिक में नहीं; इससे ज्ञात होता है कि काल द्रव्य भी एक प्रदेशी ही है ॥१४९॥
[वदिवददो] उस पहले (१४९वीं) गाथा में कहे हुये पुद्गल परमाणु के व्यतिपात से-मंद गति से जाते हुये । इस गाथा में कर्मता को प्राप्त कौन है- कर्म कारक में कौन है- मंद गति से कहाँ जाते हुये? [तं देसं] पहले गाथा मे कहे हुये कालाणु से व्याप्त उस आकाशप्रदेश को जाते हुये । [तस्सम] कालाणु से व्याप्त एक प्रदेशी पुद्गल परमाणु के मन्दगति से जाते हुये के समान-सदृश अर्थात उसके समान [समओ] कालाणु द्रव्य का सूक्ष्म पर्यायभूत समय व्यवहार काल है- इसप्रकार पर्याय का कथन पूर्ण हुआ ।
[तदो पुरो पुव्वो] उस पहले कही हुई समयरूप काल पर्याय से पर- भविष्य काल में और पूर्व-भूतकाल में [जो अत्थो] जो भूत और भावि पर्यायों में अन्वयरूप से रहने वाला पदार्थ- द्रव्य है, [सो कालो] वह काल नामक पदार्थ है- इसप्रकार द्रव्य का कथन हुआ । [समओ उप्पण्णपद्धंसी] वह पहले कही हुई समय - पर्याय यद्यपि भूत- भावि समय-पर्यायों की परम्परा अपेक्षा संख्यात, असंख्यात और अनन्त समय वाली है; तथापि वर्तमान समय की अपेक्षा उत्पन्न और नष्ट होने वाली है और जो पहले कहा हुआ द्रव्य काल है, वह तीनों कालों में स्थायी होने से नित्य है ।
इसप्रकार काल का द्रव्य -स्वरूप और पर्याय-स्वरूप जानना चाहिये ।
अथवा इन दो गाथाओं द्वारा समय- व्यवहारकाल का विशेष कथन किया गया है । निश्चय काल का विशेष कथन तो [उप्पादो पद्धंसो] इत्यादि तीन गाथाओं द्वारा आगे करेंगे ।
वह इसप्रकार-[समओ] निश्चय काल का पर्यायभूत समय । [अवप्पदेसो] अपगत प्रदेश-दूसरे आदि प्रदेशों से रहित अर्थात् निरंश- ऐसा अर्थ है । वह निरंश कैसे है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं- [पदेसमेत्तस्स दवियजादस्स] प्रदेश मात्र पुद्गल द्रव्य सम्बन्धी जो वह परमाणु है, [वदिवादादो वट्टदि] व्यतिपात से-मंद गति से गमन करने के कारण वह परमाणु उस गमनरूप से वर्तता है- परिणमन करता है । वह किसके प्रति गमनरूप से वर्तता है? [पदेसमागासदवियस्स] वह विवक्षित एक आकाश प्रदेश के प्रति गमनरूप से वर्तता है ।
[वदिवददो तं देसं स] वह परमाणु उस आकाश प्रदेश का जब व्यतिपात-अतिक्रान्त-उल्लंघन करता है, [तस्सम समओ] मन्दगति से गमन करने वाले उस पुद्गल परमाणु के सम-समान समय है-इसप्रकार वह समय निरंश है ।
इसप्रकार वर्तमान समय का विशेष कथन किया ।
अब, भूत और भावि समय कहते हैं- [तदो परो पुव्वो] उस पहले कहे हुये वर्तमान समय से आगे दूसरे भावरूप कोई भी समय होगा और पहले भी कोई समय था, [अत्थो जो] इसप्रकार जो तीन समय रूप अर्थ है [सो कालो] वह भूत, भविष्यत्, वर्तमान रूप से तीन प्रकार का व्यवहार काल कहलाता है ।
[समओ उप्पण्णपद्धंसी] उन तीनों के बीच में जो वह वर्तमान समय है, वह उत्पन्न और नष्ट स्वरूप है; और भूत और भावी काल तो संख्यात, असंख्यात और अनन्त समयों का है- ऐसा अर्थ है ।
इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले काल के विद्यमान होने पर भी, क्योंकि परमात्मतत्व को प्राप्त नहीं करता हुआ यह जीव, भूतकालीन अनन्तकाल से संसार-सागर में घूम रहा है इस कारण वही निज परमात्म-तत्त्व सभी प्रकार से उपादेयरूप श्रद्धा करने योग्य है; स्वसंवेदन ज्ञानरूप से जानने योग्य है; तथा आहार, भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञाओं के स्वरूप से लेकर सम्पूर्ण रागादि विभावों के त्यागरूप से वही ध्यान करने योग्य है- ऐसा तात्पर्य है ॥१५०॥
[आगासमणुणिविट्ठं] -अणु से निविष्ट-पुद्गल से व्याप्त- घिरा हुआ आकाश । [आगासपदेससण्णया भणिदं] - आकाश प्रदेश के नाम से कहा गया है । [सव्वेसिं च अणुणं] - सभी परमाणुओं को और चकार शब्द से सूक्ष्म स्कन्धों को [सक्कदि तं देहुमवगासं] - वह आकाश-प्रदेश अवकाश (स्थान) देने में समर्थ है । उस आकाश-प्रदेश के, यदि इसप्रकार की स्थान देने की सामर्थ्य नहीं होती, तो अनन्तानन्त जीव राशि और उससे भी अनंतगुणी पुद्गल राशी असंख्यात प्रदेशी लोक में कैसे अवकाश (स्थान) प्राप्त करती? (नहीं कर सकती है) और उसे पहले विस्तार से कहा ही है ।
अब प्रश्न है कि- अखण्ड आकाश-द्रव्य के प्रदेशों का विभाग कैसे घटित होता है?
उसका उत्तर कहते हैं -- ज्ञानानन्द एक स्वभावी स्व-आत्मतत्व में परम एकाग्रता लक्षण-पूर्ण लीनतारूप समाधि से उत्पन्न विकार रहित आह्लाद एकरूप सुखसुधारस (सुखरूपी अमृतरस) के आस्वाद से तृप्त दो मुनिराजों के बैठने का स्थान क्या एक है अथवा अनेक है? यदि एक है, तो दोनों मुनिराजों के एकता प्राप्त होती - दोनों मिलकर एक हो जायेंगे । परन्तु वैसा तो है नहीं । और यदि उन दोनों मुनिराजों के बैठने का स्थान पृथक-पृथक् है, तो अखण्ड आकाश द्रव्य के प्रदेशों का विभाग विरुद्ध नहीं है -- ऐसा अर्थ है ॥१५१॥
[एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य] - एक, दो, अनेक अथवा संख्यातीत- असंख्यात और अनन्त । [दव्वाणं च पदेसा संति हि] - वास्तव में काल द्रव्य को छोड़कर सम्बन्धित पाँच द्रव्यों के यथासम्भव ये प्रदेश हैं । [समय त्ति कालस्स] - और काल के पहले कही हुई संख्या से सहित समय हैं |
वह इसप्रकार- एकाकार परम समरसी भाव से परिणत परमानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृत से भरितावस्थ, केवलज्ञानादि की प्रगटता रूप अनन्त गुणों के आधारभूत लोकाकाश प्रमाण शुद्ध (मात्र) असंख्यात प्रदेशों का सिद्ध भगवानरूप आत्मपदार्थ में जो वह प्रचय, समूह, समुदाय, राशि है; वह क्या-क्या कहलाती है? वह असंख्यात प्रदेशों की राशि तिर्यक् प्रचय, तिर्यक् सामान्य, विस्तार सामान्य और अक्रम- अनेकान्त कहलाती है ।
और वह प्रदेशों का समूह लक्षण तिर्यक् प्रचय, जैसे सिद्ध भगवानरूप आत्मपदार्थ में कहा गया है; उसी- प्रकार काल को छोड़कर अपने-अपने प्रदेशों की संख्या के अनुसार वह शेष द्रव्यों के होता है- इसप्रकार तिर्यक् प्रचय का व्याख्यान किया ।
मुक्ताफल की माला (मोतियों के हार) के समान प्रत्येक समयवर्ती पहले और आगे की पर्यायों की परम्परारूप ऊर्ध्वप्रचय है । इसे ऊर्ध्व सामान्य, आयत सामान्य और क्रम-अनेकान्त कहते हैं । और वह सभी द्रव्यों के होता है । परन्तु पाँच द्रव्यों से सम्बन्धित पहले और आगे की परम्परारूप जो वह ऊर्ध्वता प्रचय है, उसका अपना-अपना द्रव्य उपादान-कारण है; काल के प्रत्येक समय सहकारी-कारण (निमित्त-कारण) हैं । परन्तु जो काल द्रव्य के समय की परम्परारूप ऊर्ध्व प्रचय है, उसका काल ही उपादान-कारण और काल ही सहकारी-कारण-निमित्त-कारण है ।
काल सम्बन्धी ऊर्ध्वताप्रचय के दोनों ही कारण काल क्यों है ? काल के भिन्न समय का अभाव होने से पर्यायें ही समय हैं अत: दोनों कारण काल ही है -- ऐसा अभिप्राय है ॥१५२॥
[उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि] - यदि उत्पाद और व्यय विद्यमान हैं । उत्पाद-व्यय किसके विद्यमान हैं? [जस्स] - जिसके-कालाणु के उत्पाद-व्यय विद्यमान हैं । उसके वे कहाँ विद्यमान हैं? [एगसमयम्हि] - एक समय में- वर्तमान समय में विद्यमान हैं-पाये जाते हैं । [समयस्स] - समय का उत्पादक होने से समय कालाणु है, उस कालाणु के पाये जाते हैं । [सो वि समओ] - वह भी कालाणु [सभावसमवट्ठिदो हवदि] - स्वभाव में समवस्थित है । पहले कहे हुये उत्पाद और व्यय- उन दोनों का आधारभूत कालाणु द्रव्यरूप ध्रौव्य है- इसप्रकार उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य तीन रूप स्वभाव वाला सत्त्व-अस्तित्व है । उसमें अच्छी तरह से स्थित रहता है-स्वभाव में समवस्थित है ।
वह इसप्रकार- जैसे अंगुली द्रव्य में जिस वर्तमान समय में वक्र (टेढ़ी) पर्याय का उत्पाद है, उसी समय उसी अंगुली द्रव्य की पूर्ववर्ती सीधी पर्याय का व्यय है और उन दोनों की आधारभूत अंगुली द्रव्यरूप से ध्रौव्य है- इसप्रकार द्रव्य की सिद्धि हुई ।
अथवा अपने स्वभावरूप सुख से उत्पाद, उसी समय उसी आत्मद्रव्य के पहले अनुभव किये गये आकुलतामयी दुःखरूप से विनाश और उन दोनों के आधारभूत परमात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य- इसप्रकार द्रव्य की सिद्धि हुई ।
अथवा मोक्ष पर्यायरूप से उत्पाद, उसीसमय रत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग पर्यायरूप से विनाश और उन दोनों के आधारभूत परमात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य- इसप्रकार द्रव्य की सिद्धि हुई ।
उसीप्रकार वर्तमान समयरूप पर्याय से उत्पाद, उसीसमय उसी कालाणु द्रव्य का पहले समय की समय पर्यायरूप से विनाश और दोनों के आधारभूत अंगुली द्रव्य के स्थानीय कालाणु द्रव्य से ध्रौव्य- इसप्रकार काल द्रव्य सिद्ध हुआ -- ऐसा अर्थ है ॥१५३॥
[एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा] एक समय में पाये जाते हैं । एक समय में कौन पाये जाते हैं? उत्पाद- ध्रौव्य और व्यय नामक अर्थ- धर्म-स्वभाव एक समय में पाये जाते हैं । ये उत्पादादि स्वभाव किसके हैं? [समयस्स] समयरूप पर्याय को उत्पन्न करने वाला होने से समय अर्थात् कालाणु,उसके ये उत्पादादि हैं । [सव्वकालं] यदि एक वर्तमान समय में उत्पादादि रूप हैं, तो उसीप्रकार हमेशा ही उन रूप हैं । [एस हि कालाणुसब्भावो] यह प्रत्यक्षीभूत वास्तव में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप कालाणु का सद्भाव है ।
वह इसप्रकार -- जैसे पहले एक समय सम्बन्धी उत्पाद-व्यय के आधार रूप अंगुली द्रव्य आदि उदाहरण द्वारा, वर्तमान समय में काल द्रव्य का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप स्थापित किया था, उसी प्रकार सभी समयों में जानना चाहिये ।
यहाँ यद्यपि भूतकालीन अनन्त समयों में दुर्लभ, सभी प्रकार से उपादेयभूत सिद्ध गति का काललब्धि रूप से काल बहिरंग सहकारी है; तथापि निश्चयनय से स्वशुद्धात्मतत्त्व के सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान स्वरूप पर द्रव्यों की इच्छा के निरोध लक्षण तपश्चरण रूप जो चार प्रकार की निश्चय आराधना, वही वहाँ (सिद्धदशा की प्राप्ति मे) उपादान कारण है; काल उपादान कारण नहीं है, इस कारण वह हेय है- ऐसा भाव है ॥१५४॥
[जस्स ण संति] जिस पदार्थ के नहीं हैं- पाये नही जाते हैं । क्या नहीं पाये जाते हैं? [पदेसा] जिसके प्रदेश नहीं पाये जाते हैं । [पदेसमेत्तं तु] प्रदेशमात्र अथवा एकप्रदेश प्रमाण भी (जिसके नहीं पाया जाता है) तो फिर वह वस्तु [तच्चदो णादुं] परमार्थ से वास्तव में ज्ञात होने के लिये समर्थ हो सकती है? (अर्थात् नहीं हो सकती है।) [सुण्णं जाणं तमत्थं] - जिसके एक भी प्रदेश नहीं हैं उस पदार्थ को हे शिष्य! शून्य जानो । उसे शून्य क्यों जाने? यदि यह प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं -- [अत्थंतरभूदं] जिसकारण एक प्रदेश का अभाव होने पर अर्थान्तरभूत-भिन्न है, इसलिये उसे शून्य जानो । वह किससे भिन्न है? [अत्थिदो] - वह उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यमय सत्ता से भिन्न है ।
वह इसप्रकार- पहले (१५४ वी) गाथा में कहे अनुसार, काल पदार्थ के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप अस्तित्व पाया जाता है, और वह अस्तित्व प्रदेश के बिना घटित नहीं हो सकता है । और जो प्रदेशवान है, वह काल पदार्थ है ।
(यहाँ कोई कहता है कि) काल द्रव्य के अभाव में भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य घटित होते हैं यदि ऐसा माना जाये तो? (आचार्य कहते है) ऐसा नहीं माना जा सकता । अंगुली द्रव्य के अभाव में वर्तमान वक्र (टेढ़ी) पर्याय का उत्पाद पहले की ऋजु (सीधी) पर्याय का व्यय और उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य किसका होगा? किसी का भी नहीं होगा । उसीप्रकार काल द्रव्य के अभाव में, वर्तमान समयरूप उत्पाद भूत समयरूप विनाश और उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य किसका होगा? किसी का भी नहीं होगा ।
ऐसा होने पर यह सिद्ध हुआ कि अन्य का व्यय, अन्य का उत्पाद और अन्य का ध्रौव्य - इसप्रकार मानने पर सम्पूर्ण-स्वरूप का विप्लव (विनाश) होता है । इसलिये वस्तु-विनाश के भय से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का भी एक आधार भूत है -- ऐसा स्वीकार करना चाहिये । और वह एक प्रदेशरूप कालाणु पदार्थ ही है ।
यहाँ भूतकालीन अनन्तकाल में जो सिद्ध सुख के पात्र हुये हैं और भविष्य में 'अपने आत्मरूप उपादान से सिद्ध, स्वयं सातिशय' इत्यादि विशेषणों विशिष्ट सिद्ध सुख के पात्र होंगे, वे सभी काललब्धि के वश से ही हुये हैं; तथापि निज परमात्मा ही उपादेय है ऐसी रुचि रूप वीतराग चारित्र का अविनाभावी जो निश्चय-सम्यक्त्व है, उसकी ही मुख्यता है; काल की नहीं जिस कारण वह हेय है । वैसा ही कहा है-
अधिक कहने से क्या? जो श्रेष्ठ पुरुष भूतकाल में सिद्ध हुये हैं और जो भविष्यकाल में सिद्ध होंगे, वह सम्यक्त्व का ही माहात्म्य जानो ॥१५५॥
इसप्रकार निश्चय काल के व्याख्यान की मुख्यता से आठवें स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।
इसप्रकार पहले कहे अनुसार 'दव्वं जीवमजीवं' इत्यादि १९ गाथाओं द्वारा आठ स्थलरूप से 'विशेष ज्ञेयाधिकार' समाप्त हुआ ।
अब, इसके बाद शुद्ध जीव का द्रव्य-भाव प्राणों के साथ भेद में निमित्त [सपदेसेहिं समरयो] इत्यादि यथाक्रम से आठ गाथा पर्यन्त 'सामान्य भेद भावना'(नामक तीसरे अधिकार) का विशेष कथन करते हैं--
वह इसप्रकार --
अब, ज्ञान और ज्ञेय के ज्ञापन के लिये (ज्ञान करने के लिये) अथवा उसीप्रकार आत्मा की चार प्राणों के साथ भेदरूप भावना के लिये इस गाथा का प्रतिपादन करते हैं --
[लोगो] लोक है । लोक कैसा है? [णिट्ठिदो] निष्ठित, समाप्ति को प्राप्त अथवा भरा हुआ है । किन कर्ताओं से भरा हुआ है? [अट्ठेहिं] सहज शुद्धबुद्ध एक स्वभावी जो वह परमात्मपदार्थ, तत्प्रभृति जो पदार्थ, उनसे भरा हुआ है । वह लोक और किन विशेषताओं वाला है? [सपदेसेहिं समग्गो] अपने प्रदेशों द्वारा समग्र (परिपूर्ण) है । अथवा पदार्थों से परिपूर्ण है । कैसे पदार्थों से परिपूर्ण है? सप्रदेशी- प्रदेश सहित पदार्थों से परिपूर्ण है । लोक और किस विशेषता वाला है? [णिच्चो] द्रव्यार्थिकनय से नित्य है अथवा लोकाकाश की अपेक्षा नित्य है । अथवा किसी पुरुष-विशेष द्वारा किया गया नहीं है, अत: नित्य है । [जो तं जाणदि] जो कर्ता उस ज्ञेयभूत लोक को जानता है, [जीवो] वह जीव पदार्थ है ।
इससे क्या कहा गया है? जो वह विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी जीव है वह ज्ञान और ज्ञेय कहा गया है; परन्तु शेष पदार्थ तो ज्ञेय ही हैं -- इसप्रकार ज्ञाता और ज्ञेय का विभाग (भेद) है ।
जीव और किस विशेषता वाला है? [णाणचदुक्केण संबद्धो] - यद्यपि निश्चय से जीव स्वत: सिद्ध परम चैतन्य स्वभाव रूप निश्चय प्राण से जीता है, तथापि व्यवहार से अनादि कर्म बन्धन वश आयु आदि अशुद्ध चार प्राणों द्वारा सम्बद्ध (सहित) होता हुआ जीता है । और वह शुद्धनय से जीव का स्वरूप नहीं है- इसप्रकार भेदरूप भावना जाननी चाहिये -- ऐसा अभिप्राय है ॥१५६॥
- अतीन्द्रिय- अनन्त सुख स्वभावी आत्मा से विलक्षण इन्द्रिय-प्राण,
- मन, वचन और शरीर के व्यापार से रहित परमात्मद्रव्य से विसदृश (भिन्न) बल प्राण;
- अनादि-अनन्त स्वभावी परमात्म-पदार्थ से विपरीत सादि-सान्त आयु-प्राण और
- उच्छ्वास-निश्वास--स्वासोच्छवास से उत्पन्न खेद से रहित शुद्धात्मतत्त्व से विरुद्ध आनपान-स्वासोच्छवास प्राण
पाँच प्रकार के इन्द्रिय प्राण, तीन प्रकार के बल प्राण और एक स्वासोच्छ्वास और एक आयु प्राण- इस प्रकार भेद से दस प्राण हैं; वे भी निश्चय से ज्ञानानन्द एक स्वभावी परमात्मा से भिन्न जानना चाहिये - ऐसा अभिप्राय है ॥१५८॥
[पाणेहिं चदुहिं जीवदि] यद्यपि निश्चय से सत्ता, चैतन्य, सुख, बोध आदि शुद्ध भाव-प्राणों से जीता है तथापि व्यवहार से वर्तमान समय में द्रव्य-भाव रूप चार अशुद्ध प्राणों से जीता है, [जीविस्सदि] भविष्य काल में उनसे जियेगा, [जो हि जीविदो] जो वास्तव में जीवित था [पुव्वं] पहले भूतकाल में । [सो जीवो] वह जीव है । [ते पाणा] वे पहले कहे हुए प्राण [पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता] उदय में आये हुये पुद्गल कर्मों से रचित हैं । इस कारण ही पुद्गल-द्रव्य से विपरीत अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त-गुण-स्वभाव-रूप परमात्म-तत्त्व से (प्राणों की) भिन्न भावना करना चाहिये -- ऐसा भाव है ॥१५९॥
[जीवो णाणणिबद्धो] जीव रूप कर्ता चार प्राणों से निबद्ध-सम्बद्ध-सहित है । वह कैसा होता हुआ प्राणों से सहित है? [बद्धो] शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप लक्षण मोक्ष से विलक्षण बँधा हुआ उनसे सहित है । मोक्ष से विलक्षण किनसे बँधा है? [मोहादियेहिं कम्मेहिं] वह मोहनीय आदि कर्मों से बँधा है, इससे ज्ञात होता है कि मोहादि कर्मों से बँधा जीव प्राणों से निबद्ध होता है (कर्मों के बन्धन से रहित जीव प्राणों से निबद्ध नही होता है) इससे ही ज्ञात होता है कि प्राण पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न है । इसप्रकार का (कर्म-बद्ध प्राणनिबद्ध) होता हुआ वह क्या करता है? [उवभुंजदि कम्मफलं] परम समाधि (उत्कृष्ट स्वरूपलीनता) से उत्पन्न नित्यानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृत-भोजन को नहीं प्राप्त करता हुआ, कड़वे विष के समान कर्मफल को ही भोगता है । [बज्झदि अण्णेहिं कम्मेहिं] उन कर्म के फल को भोगता हुआ यह जीव, कर्म से रहित आत्मा से विपरीत, अन्य नवीन कर्मों से बँधता है । जिस कारण कर्मफल को भोगता हुआ नवीन कर्मों से बँधता है, उससे ज्ञात होता है कि प्राण नवीन पुद्गल कर्मों के कारणभूत हैं ॥१६०॥
[पाणाबाधं] - आयु आदि प्राणों की बाधा-पीड़ा-कष्ट को [कुणदि] - करता है । प्राणों की बाधा करनेवाला वह कौन है? [जीवो] - जीव प्राणों को बाधित करता है । वह किनके द्वारा उसे करता है? [मोहपदेसेहिं] - परिपूर्ण निर्मल केवल-ज्ञान-रूपी महान दीपक द्वारा मोहरूपी अंधकार को नष्ट करने वाले परमात्मा से विपरीत, मोह और द्वेष से उसे करता है । वह मोह-द्वेष से किनके प्राणों को बाधित करता है? [जीवाणं] - वह इनसे एकेन्द्रिय प्रमुख जीवों के प्राणों को बाधित करता है । [जदि] - यदि वह ऐसा करता है, [सो हवदि बंधो] - तब निज परमात्मा की प्राप्ति-रूप मोक्ष से विपरीत मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद से अनेक भेद वाला परमागम में प्रसिद्ध वह बंध [हि] - वास्तव में होता है । वह प्रसिद्ध बंध किनसे होता है? [णाणावरणादि कम्मेहिं] - ज्ञानावरणादि कर्मों से वह बन्ध होता है ।
इससे ज्ञात होता है कि प्राण पुद्गल कर्मबंध के कारण हैं ।
यहाँ अर्थ यह है - जैसे तपे हुये लोहे के गोले से दूसरे को मारने का इच्छुक होता हुआ कोई भी पहले स्वयं को ही मारता है, बाद में दूसरे के घात का नियम नहीं है (हो भी, न भी हो); उसीप्रकार तपे हुये लोहे के गोले के समान मोहादिरूप परिणमित होता हुआ यह अज्ञानी जीव भी, पहले विकार रहित स्व-संवेदन ज्ञान स्वरूप अपने शुद्ध प्राणों का घात करता है, पश्चात दूसरे के प्राणों के घात का नियम नहीं है (हो भी, नहीं भी हो) ॥१६१॥
[आदा कम्ममलिमसो] - यह आत्मा स्वभाव से भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म रूपी कर्ममल से रहित होने के कारण अत्यन्त निर्मल होने पर भी व्यवहार से अनादि (से चले आये) कर्मों के बन्ध-वश मलिन होता है । वैसा होता हुआ (मलिन होता हुआ) आत्मा क्या करता है? [धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे] - बारम्बार दूसरे-दूसरे नवीन प्राणों को धारण करता है । जब तक क्या नहीं करता है? [ ण चयदि जाव ममत्तं] - स्नेह से रहित, चैतन्य चमत्कार परिणति से विपरीत, ममता (मेरेपन) को जितने समय तक (जब तक) नहीं छोड़ता है । वह किन विषयों में ममता को जब तक नहीं छोड़ता है? [देहपधाणेसु विसयेसु] - शरीर और विषयों से रहित उकृष्ट चैतन्य प्रकाशरूप परिणति से विपरीत, शरीर है प्रधान जिसमें ऐसे पाँचों इन्द्रियों के विषयों में जब तक ममता को नहीं छोड़ता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि शरीरादि में ममता ही इन्द्रिय आदि प्राणों की उत्पत्ति का अन्तरंग कारण है ॥१६२॥
[जो इंदियादिविजई भवीय] - जो कर्ता, अतीन्द्रिय आत्मा से उत्पन्न सुखरूपी अमृत में सन्तोष के माध्यम से जितेन्द्रिय होने के कारण कषाय रहित निर्मल अनुभूति के बल से और कषायों को जीतने से, पंच इन्द्रियों आदि पर विजय प्राप्त कर [उवओगमप्पगं झादि] - केवलज्ञान, केवलदर्शन उपयोगमयी निज आत्मा का ध्यान करता है, [कम्मेहिं सो ण रज्जदि] - कर्मों से - वह चैतन्य चमत्कारी आत्मा के प्रतिबन्धक--आत्मा को बाँधनेवाले ज्ञानावरणादि कर्मों से रँगता नहीं, बँधता नहीं है । [किह तं पाणा अणुचरंति] - कर्मों के बंध का अभाव होने पर, उस पुरुष का प्राणरूपी कर्ता अनुचरण कैसे करेंगे, आश्रय कैसे करेंगे? किसी भी प्रकार से उसका अनुचरण नहीं कर सकते ।
इससे ज्ञात होता है कि कषाय और इन्द्रियों पर विजय ही पाँच इन्द्रियों आदि प्राणों के विनाश का कारण है ॥१६३॥
इसप्रकार [सपदेसेहिं समग्गो] - इत्यादि आठ गाथाओं द्वारा 'सामान्य भेद भावना' अधिकार (नामक तीसरा अधिकार) समाप्त हुआ ।
अब इसके बाद ५१ गाथा पर्यन्त विशेष भेदभावनाधिकार (नामक चौथा अधिकार) कहते हैं । वहाँ चार विशेष अन्तराधिकार हैं । उन चारों के बीच शुभ आदि तीन उपयोगों की मुख्यता से ग्यारह गाथा पर्यन्त पहला विशेष अन्तराधिकार प्रारम्भ होता है ।
उसमें चार स्थल हैं । उसमें
- सबसे पहले मनुष्यादि पर्यायों के साथ शुद्धात्म-स्वरूप की पृथकता के परिज्ञान के लिए [अत्थित्तणिच्छिदस्स हि] - इत्यादि यथाक्रम से तीन गाथायें प्रथम स्थल में हैं ।
- उसके बाद उनके संयोग के कारणरूप [अप्पा उवओगप्पा] - इत्यादि दो गाथायें दूसरे स्थल में हैं ।
- उसके बाद शुभ, अशुभ और शुद्धोपयोग - इन तीन उपयोगों की सूचना की मुख्यता से [जो जाणादि जिणिंदे] - इत्यादि तीन गाथायें तीसरे स्थल में हैं ।
- तत्पश्चात् शरीर-वचन और मन का शुद्धात्मा के साथ भेद कथनरूप से [णाहं देहो] - इत्यादि तीन गाथायें चौथे स्थल में हैं ।
प्रथम विशेषान्तराधिकार का स्थल विभाजन | |||
---|---|---|---|
स्थल क्रम | प्रतिपादित विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ | कुल गाथाएँ |
प्रथम स्थल | मनुष्य पर्यायों के साथ शुद्धात्म-स्वरूप की भिन्नता | 164 से 166 | 3 |
द्वितीय स्थल | उनके संयोग कारणों का प्रतिपादन | 167 से 168 | 2 |
तृतीय स्थल | शुभादि उपयोगत्रय सूचन मुख्यता | 169 से 171 | 3 |
चतुर्थ स्थल | शरीर-मन-वाकन के साथ शुद्धात्म-स्वरूप की भिन्नता | 172 से 174 | 3 |
कुल 4 स्थल | कुल 11 गाथाएँ |
[अत्थित्तणिच्छिदस्स हि] - वास्तव में ज्ञानानन्द एक लक्षण स्वरूपास्तित्व द्वारा निश्चित - ज्ञात का । इस स्वरूपवाले किसका? [अत्थस्स] - इस स्वरूपवाले परमात्म-पदार्थ का [अत्थंतरम्मि] - शुद्धात्म-पदार्थ से अन्य - भिन्न ज्ञानावरणादि कर्मरूप अर्थान्तर में [संभूदो] - संजात-उत्पन्न [अत्थो] - जो मनुष्य नारक आदि रूप अर्थ - पदार्थ है, [पज्जाओ सो] - जीव की वह इसप्रकार की पर्याय विकार रहित शुद्धात्मा की अनुभूति लक्षण स्वभाव व्यंजन पर्याय से भिन्न के समान होती हुई विभाव व्यंजन पर्याय होती है । वह किनसे सहित उत्पन्न होती है? [संठाणादिप्पभेदेहिं] - संस्थान-आकार आदि से रहित परमात्म-द्रव्य से विलक्षण, संस्थान-संहनन शरीर आदि प्रभेदों से सहित उत्पन्न होती है ॥१६४॥
[णरणारयतिरियसुरा] - मनुष्य, नारक, तिर्यंच, देव रूप अवस्था-विशेष [संठाणादीहिं अण्णहा जादा] - संस्थानादि द्वारा दूसरे प्रकार की होती हैं; मनुष्य-भव में जो संस्थान और औदारिक शरीर आदि हैं उनकी अपेक्षा दूसरे भव में, उनसे भिन्न दूसरे सन्स्थानादिक हैं । उस कारण वे मनुष्य, नारक आदि पर्यायें [अन्यथा जाता] भिन्न-भिन्न कही गई हैं; शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभावी परमात्म-द्रव्यत्व की अपेक्षा भिन्न नहीं हैं । शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्म-द्रव्यत्व की अपेक्षा वे भिन्न क्यों नहीं हैं? तृण, लकड़ी, पत्ते के आकार आदि भेद से भिन्न (होने पर भी उन सब में व्याप्त एक) अग्नि के समान उन सभी का वह एक ही स्वरूप होने से वे उसकी अपेक्षा भिन्न नहीं हैं । [पज्जाया जीवाणं ते च] - मनुष्य, नारक आदि जीवों की विभाव व्यंजन-पर्यायें कहलाती हैं । वे पर्यायें किनके द्वारा की जाती हैं? [उदयादिहिं णामकम्मस्स] - नामकर्म के उदय आदि द्वारा, दोषरहित परमात्मा शब्द से कहने योग्य नामरहित, गोत्ररहित आदि लक्षणवाले शुद्धात्मद्रव्य से भिन्न, नामकर्म जनित बन्ध उदय उदीरणा आदि द्वारा की जाती हैं ।
जिसकारण वे कर्म के उदय से उत्पन्न हैं, उससे ही ज्ञात होता है कि वे शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं हैं ॥१६५॥
[जाणदि] - जानता है । [जो] - जो - कर्ता । जो किसे जानता है? [तं] - उस पहले कहे हुये [दव्वसहावं] - परमात्म-द्रव्य के स्वभाव को जानता है । वह परमात्म-द्रव्य किस विशेषता वाला है? [सब्भाववणिबद्धं] - स्वभाव अर्थात् स्वरूप-सत्ता उसमें निबद्ध - उसके आधीन - उसमें ही तन्मयरूप सद्भाव-निबद्ध है । वह और भी किस विशेषतावाला है? [तिहा समक्खादं] - वह तीन प्रकार से कहा गया है । केवलज्ञानादि गुण, सिद्धत्व आदि विशुद्ध पर्यायें, और उन दोनों के आधारभूत परमात्म-द्रव्यत्व - इस प्रकार कहे गये लक्षण वाले तीन स्वरूप, और वैसे ही शुद्ध उत्पाद-व्यय-धौव्य - तीन स्वरूप सहित जो पहले कहा हुआ स्वरूपास्तित्व; उसके द्वारा अच्छी तरह से आख्यात है - कहा गया है - प्रतिपादित किया गया है । और वह आत्मा का स्वभाव कैसा है? [सवियप्पं] - सविकल्प - पहले कहे गये द्रव्य-गुण-पर्याय रूप से भेद सहित है ।
जो इसप्रकार आत्मा के स्वभाव को जानता है, [ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि] - वह अन्य द्रव्य में मोहित नहीं होता है; वह भेदज्ञानी विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी आत्म-तत्त्व को छोड़कर शरीर, रागादि परद्रव्य में मोह को प्राप्त नहीं होता है - ऐसा अर्थ है ॥१६६॥
इस प्रकार मनुष्य-नारक आदि पर्यायों के साथ परमात्मा के विशेष-भेद कथन रूप से पहले स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।
[अप्पा] - आत्मा है । आत्मा कैसा है? [उवओगप्पा]- चैतन्य का अनुसरण करनेवाला जो वह उपयोग, उससे रचा हुआ होने से उपयोगात्मा - उपयोगस्वरूप है । [उवओगो णाणदंसणं भणिदो] - और वह उपयोग सविकल्प-ज्ञान, निर्विकल्प-दर्शन - ऐसा कहा है । [सो वि सुहो] - वह ज्ञान-दर्शन उपयोग भी धर्मानुरागरूप शुभ, [असुहो] - विषयानुरागरूप और द्वेष, मोह रूप अशुभ । [वा] - वा शब्द से शुभ-अशुभ अनुराग रहित होने के कारण शुद्धरूप है । [उवओगो अप्पणो हवदि] - इस प्रकार आत्मा का तीन लक्षण (वाला) उपयोग है - ऐसा अर्थ है ॥१६७॥
[उवओगो जदि हि सुहो] - यदि उपयोग वास्तव में शुभ है, तो [पुण्णं जीवस्स संचयं जादि]- उस समय जीव का द्रव्य-पुण्य-रूप कर्ता संचय - उपचय - वृद्धि को प्राप्त होता है अर्थात् द्रव्य-पुण्य बँधता है - ऐसा अर्थ है । [असुहो वा तह पावं] - तथा यदि अशुभोपयोग है, तो उसी प्रकार पुण्य के समान द्रव्य-पाप संचय से प्राप्त होता है - बँधता है । [तेसिमभावे ण चयमत्थि] - उन दोनों के अभाव में चय-बंधन नहीं होता है । दोष-रहित निजपरमात्मा की भावनारूप शुद्धोपयोग के बल से जब उन दोनों शुभ-अशुभ उपयोग का अभाव किया जाता है, तब उन दोनों ही प्रकार का संचय - कर्मों का बंधन नहीं होता है - ऐसा अर्थ है ॥१६८॥
इसप्रकार शुभ-अशुभ-शुद्ध - तीनों उपयोगों के सामान्य कथनरूप से दूसरे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।
[जो जाणादि जिणिन्दे] - कर्तारूप जो जानता है । किन्हें जानता है? अनन्तज्ञान आदि चतुष्टय सहित और क्षुधा (भूख) आदि अठारह दोषों से रहित जिनेन्द्र भगवन्तों को जानता है । [पेच्छदि सिद्धे] - श्रद्धान करता है । किनका श्रद्धान करता है? ज्ञानावरणादि आठ कर्म रहित और सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में गर्भित अनन्तगुण सहित सिद्धों का श्रद्धान करता है । [तहेव अणगारे] - उसी प्रकार अनागारों-मुनिराजों का श्रद्धान करता है । अनागार शब्द से वाच्य - कहे जाने वाले निश्चय-व्यवहार पाँच आचार आदि यथोक्त लक्षण वाले आचार्य-उपाध्याय-साधुओं का श्रद्धान करता है । [जीवेसु साणुकम्पो] - त्रस और स्थावर जीवों में सानुकम्प-दया से सहित है । [उवओगो सो सुहो] - वह इस प्रकार का उपयोग शुभ कहलाता है । और वह शुभ उपयोग किसके होता है? [तस्य] - उस पहले कहे हुये लक्षण वाले जीव के होता है - ऐसा अभिप्राय है ॥१६९॥
- [विसयकसाओगाढो] विषय-कषायों में अवगाढ़--आसक्त,
- [दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्टगोट्ठिजुदो] दु:श्रुति--बुरा सुनने या पढने, दुश्चित्त--बुरामन--बुरा सोचने, दुष्ट-गोष्ठी--बुरी संगति से सहित,
- [उग्गो] उग्र,
- [उम्मग्गपरो] उन्मार्ग--विपरीत मार्ग में तत्पर
वह इसप्रकार --
- विषय-कषाय रहित शुद्ध चैतन्य-परिणति से विपरीत विषय-कषाय में अवगाढ़ अर्थात् विषय-कषाय रूप से परिणत ।
- शुद्धात्मतत्त्व की प्रतिपादक श्रुति--जिनवाणी--आगम सुश्रुति है, उससे विपरीत दु:श्रुति अथवा मिथ्या-शास्त्र-रूप श्रुति दु:श्रुति है ।
- चिंता रहित होकर आत्मध्यान परिणत, आत्मा में लीन मन सुचित्त है, उस आत्मलीनता का विनाश करनेवाला मन दुश्चित्त है अथवा स्व और पर के लिये काम-भोग की चिन्ता-रूप परिणत रागादि अपध्यान-बुरे ध्यान दुश्चित्त है ।
- परम-चैतन्य-परिणति को नष्ट करने वाली दुष्ट गोष्ठी है, अथवा उस परम-चैतन्य-परिणति के विरोधी कुशील पुरुष आदि की गोष्ठी--दुष्ट गोष्ठी--बुरी संगति है ।
- परम उपशम-भावरूप परिणत परम-चैतन्य-स्वभाव के प्रतिकूल उग्र है ।
- वीतराग-सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग से विरुद्ध उन्मार्ग में तत्पर है ।
[असुहोवओगरहिदो] अशुभोपयोग से रहित होता हूँ । अशुभोपयोग से रहित वह कौन है ? [अहं] कर्तारूप मैं अशुभोपयोग से रहित हूँ । और भी मैं कैसा होता हूँ ? [सुहोवजुत्तो ण] शुभोपयोग में युक्त--शुभोपयोगरूप से परिणत नहीं होता हूँ । किसमें परिणत नहीं होता हूँ ? उस शुभोपयोगरूप विषय में परिणत नहीं होता हूँ । [अण्णदवियम्हि] निज परमात्म-द्रव्य से भिन्न अन्य द्रव्य में (परिणत नहीं होता हूँ) । तो मैं कैसा होता हूँ ? [होज्जं मज्झत्थो] जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, निन्दा- प्रशंसा आदि विषय में मध्यस्थ होता हूँ । ऐसा होता हुआ क्या करता हूँ ? [णाणप्पगमप्पगं झाए] ज्ञानात्मक आत्मा का ध्यान करता हूँ । ज्ञान से रचित ज्ञानात्मक--ज्ञानस्वरूप--केवलज्ञान में गर्भित अनन्तगुण स्वरूपी निजात्मा का शुद्ध ध्यान के विरोधी सम्पूर्ण इच्छारूपी चिन्ताओं के जाल (समूह) के त्याग पूर्वक ध्यान करता हूँ--इसप्रकार शुद्धोपयोग का लक्षण जानना चाहिये ॥१७१॥
[णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी] मैं शरीर नहीं हूँ, मन नहीं हूँ और वाणी नहीं ही हूँ । मन, वचन, शरीर के व्यापार से रहित परमात्म-द्रव्य से भिन्न जो मन, वचन, शरीर -- वे तीनों निश्चयनय से मैं नहीं हूँ । इस प्रकार उनके प्रति पक्षपात को छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । [ण कारण तेसिं] उनका मैं कारण नहीं हूँ । विकार रहित परमाह्लाद एक लक्षण सुखरूप अमृतमयी परिणति का जो उपादान कारणभूत आत्म-द्रव्य है, उससे विलक्षण मन, वचन काय के उपादान कारण-भूत पुद्गल पिण्ड-रूप मैं नहीं हूँ । इस कारण उनके प्रति पक्षपात को छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । [कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं] कर्ता नहीं हूँ, कारयिता (करानेवाला) नहीं हूँ, करनेवाले का अनुमोदक (अनुमोदना करने वाला) नहीं ही हूँ । निज शुद्धात्मा की भावना के विषय में जो कृत-कारित-अनुमोदना का स्वरूप है, उससे विलक्षण जो मन-वचन-शरीर के विषय में कृत-कारित-अनुमोदना का स्वरूप है, उन रूप मैं नहीं हूँ । इसकारण उनके प्रति पक्षपात को छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ -- ऐसा तात्पर्य है ॥१७२॥
[देहो य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिद्दिट्ठा] शरीर और मन, वाणी -- तीनों ही पुद्गल-द्रव्य-स्वरूप हैं -- ऐसा कहा गया है । वे पुद्गल-द्रव्य-स्वरूप क्यों हैं ? व्यवहार से जीव के साथ एकत्व होने पर भी, निश्चय से चैतन्य-प्रकाश-परिणति से भिन्नता होने के कारण, वे पुद्गल-द्रव्य स्वरूप हैं । पुद्गल-द्रव्य क्या कहलाता है? [पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदव्वाणं] और पुद्गल-द्रव्य वास्तव में पिण्ड (समूह) है । किनका समूह है ? वह परमाणु-द्रव्यों का समूह है -- ऐसा अर्थ है ॥१७३॥
[णाहं पोग्गलमइओ] मैं पुद्गलमय नहीं हूँ । [ण ते मया पोग्गला कया पिंडा] और वे पुद्गल-पिण्ड मेरे द्वारा नहीं किये गये हैं । [तम्हा हि ण देहोऽहं] इसलिये मैं शरीर नहीं हूँ । वास्तव में [कत्ता वा तस्य देहस्य] तथा उस देह का कर्ता नहीं हूँ ।
यहाँ अर्थ यह है - मैं देह नहीं हूँ । मैं देह--शरीर क्यों नहीं हूँ ? शरीर रहित सहज शुद्ध चैतन्य-रूप से परिणत होने के कारण, मेरा देहत्व-रूप से विरोध होने के कारण, मै देह नहीं हूँ । तथा उस देह का मैं कर्ता नहीं हूँ । मैं उस शरीर का कर्ता भी क्यों नहीं हूँ ? क्रिया-रहित परम-चैतन्य-ज्योतिरूप से परिणत होने के कारण, मेरा शरीर के कर्तृत्व-रूप से विरोध होने के कारण, मैं शरीर का कर्ता भी नहीं हूँ ॥१७४॥
इस प्रकार पहले कही हुई पद्धति से '[अत्थित्तणिच्छिदस्स हि]' इत्यादि ग्यारह गाथाओं द्वारा चार स्थल-रूप से पहला विशेषान्ताराधिकार समाप्त हुआ ।
अब मात्र पुद्गलबन्ध की मुख्यता से ९ गाथा पर्यन्त विशेष कथन करते हैं । वहाँ दो स्थल हैं । परमाणुओं के परस्पर बन्ध के कथन के लिये '[अपदेसो परमाणू]' इत्यादि चार गाथायें पहले स्थल में हैं । उसके बाद स्कन्धों के बन्ध की मुख्यता से '[दुपदेसादि खंधा]' इत्यादि पाँच गाथायें दूसरे स्थल में हैं ।
इसप्रकार दूसरे विशेषान्तराधिकार में सामूहिक पातनिका पूर्ण हुई ।
द्वितीय विशेषान्तराधिकार का स्थल विभाजन | |||
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स्थल क्रम | प्रतिपादित विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ | कुल गाथाएँ |
प्रथम स्थल | परमाणुओं का परस्पर बंध कथन | 175 से 178 | 4 |
द्वितीय स्थल | स्कंधों का परस्पर बंध कथन | 179 से 183 | 5 |
कुल 2 स्थल | कुल 9 गाथाएँ |
[अपदेसो] अप्रदेशी-बहुप्रदेश रहित है । प्रदेश रहित वह कौन है? [परमाणू] पुद्गल परमाणु प्रदेश रहित है । वह पुद्गल परमाणु और कैसा है? [पदेसमेत्तो य] और दूसरे आदि प्रदेशों का अभाव होने से प्रदेशमात्र है । और वह कैसा है? [सयमसद्दो य] स्वयं प्रकट-रूप से अशब्द है । इन तीन विशेषणों से सहित होता हुआ [णिद्धो वा लुक्खो वा] जिसकारण स्निग्ध अथवा रूक्ष रूप से सम्भव होता है - परिणमित होता है, उस कारण [दुपदेसादित्तमणुभवदि] दो प्रदेश आदि रूप बन्ध का अनुभव करता है ।
वह इसप्रकार - जैसे शुद्ध-बुद्ध स्वभाव द्वारा यह आत्मा बन्ध रहित होने पर भी, पश्चात् अशुद्धनय से स्निग्ध के स्थानीय रागभाव तथा रूक्ष के स्थानीय द्वेष-भावरूप से जब परिणमित होता है, तब परमागम में कही गयी विधि से बन्ध का अनुभव करता है; उसीप्रकार परमाणु भी स्वभाव से बन्ध रहित होने पर भी, जब बन्ध के कारण-भूत स्निग्ध-रूक्ष गुण-रूप से परिणमित होता है, तब दूसरे पुद्गल के साथ विभाव पर्याय-रूप बन्ध का अनुभव करता है - ऐसा अर्थ है ॥१७५॥
[एगुत्तरमेगादी] एक (अविभागी-प्रतिच्छेद) से प्रारम्भ कर एक-एक आगे (बढ़ते हुये) । एक से प्रारम्भ कर बढ़ती हुई किस वस्तु को ? [णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं] कर्मता को प्राप्त (कर्म-कारक या कर्म-स्वरूप को प्राप्त) एक से प्रारम्भ कर बढ़ती हुई स्निग्धता-रूक्षता को । [भणिदं] कहा गया है । कहाँ तक बढ़ती हुई स्निग्धता-रूक्षता को कहा गया है ? [जाव अणंतत्तमणुभवदि] जब तक अनन्तता का अनुभव करता है, अनन्त पर्यन्त (वृद्धि) को प्राप्त करता है । अनन्तता का अनुभव कैसे करता है ? [परिणामादो] परिणति विशेष से (परिणामी होने से) अनन्तता का अनुभव करता है -- ऐसा अर्थ है । किसके परिणामी होने से वे अनन्तता का अनुभव करते हैं ? [अणुस्स] अणु (पुद्गल परमाणु) के परिणामी होने से वे उसका अनुभव करते हैं ।
वह इसप्रकार -- जल, बकरी के दूध में, गाय के दूध में, भैंस के दूध में स्नेह-चिकनाई की वृद्धि के समान, जैसे जीव में बन्ध के कारण-भूत स्नेह के स्थानीय-रागपना तथा रूक्ष के स्थानीय-द्वेषपना, जघन्य विशुद्धि- संक्लेश स्थान से प्रारम्भ कर परमागम में कहे गये क्रम से उत्कृष्ट विशुद्धि-संक्लेश पर्यन्त बढ़ते हैं; उसीप्रकार पुद्गल परमाणु द्रव्य में भी बन्ध के कारणभूत स्निग्धता और रूक्षता, पहले कहे गये जलादि की तारतम्य (क्रम से बढ़ती हुई) शक्ति के उदाहरण से, एक गुण नामक जघन्य शक्ति से प्रारम्भ कर गुण नामक अविभागी प्रतिच्छेद-रूप दूसरे आदि शक्ति विशेष से बढ़ते हैं । इस प्रकार वे कहाँ तक बढ़ते हैं ? जब तक अनन्त संख्या को प्राप्त नहीं हो जाते तब तक बढ़ते हैं । वे अनन्त संख्या पर्यन्त क्यों बढ़ते हैं ? पुद्गल द्रव्य के परिणामी होने के कारण तथा वस्तु स्वभाव से ही (परिणामी होने के कारण) परिणाम का निषेध किया जाना अशक्य होने से, वे अनन्त पर्यन्त बढ़ते हैं ॥१७६॥
[बज्झन्ति हि] वास्तव में बँधते हैं । कौन बँधते हैं ? कर्मता को प्राप्त [अणुपरिणामा] अणु-परिणाम बँधते हैं । अणु-परिणाम शब्द से यहाँ परिणाम (पर्याय) रूप से परिणत अणु ग्रहण किये गये हैं । वे अणु परिणाम कैसे हैं ? [णिद्धा वा लुक्खा वा] वे स्निग्ध परिणाम-रूप से परिणमित अथवा रूक्ष परिणाम-रूप परिणत हैं । वे और किस विशेषता वाले हैं ? [समा व विसमा वा] दो शक्ति, चार शक्ति, छह शक्ति आदि रूप परिणत अणुओं की सम संज्ञा है; तथा तीन शक्ति पाँच शक्ति सात शक्ति आदि रूप से परिणत अणुओं की विषम संज्ञा है (संज्ञा अर्थात् नाम) । और वे किस स्वरूप वाले हैं ? [समदो दुराधिगा जदि] सम से -- यदि समसंख्या से दो गुणों से अधिक हैं तो । दो गुणों की अधिकता कैसे है - यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर कहते हैं) -- एक दो गुणवाला है, दूसरा भी दो गुणवाला है -- इसप्रकार दो समान संख्या -वाले परमाणु हैं एक विवक्षित दो गुण-वाले के दो गुणों की अधिकता होने पर वह चार गुण-वाला होता है -- चार शक्तियों-रूप परिणत होता है । उस चार गुणवाले का पहले कहे हुये दो गुणवाले के साथ बन्ध होता है । उसीप्रकार कोई दो परमाणु तीन शक्ति-वाले हैं वहाँ भी एक तीन गुण शब्द से कहे जानेवाले तीन शक्ति से युक्त परमाणु के दो शक्तियों का मिलाप (दो गुणों की अधिकता) होने पर पाँच गुणवाला होता है । उस पाँच गुणवाले के साथ पहले कहे हुये तीन गुणवाले का बन्ध होता है ।
इसप्रकार दो-दो स्निग्ध का दो-दो रूक्ष का, दो-दो स्निग्धरूक्ष का अथवा सम का और विषम का दो गुण अधिक होने पर बन्ध होता है -- ऐसा अर्थ है; परन्तु विशेषता यह है - [आदिपरिहीणा] आदि शब्द से जल के स्थानीय जघन्य स्निग्धत्व और रेत के स्थानीय जघन्य रूक्षत्व कहा जाता है; उनसे रहित अर्थात् आदि परिहीणा बँधते हैं (एक अविभागी-प्रतिच्छेद वाला परमाणु बन्ध योग्य नहीं है) ।
विशेष यह है कि -- परम चैतन्य परिणति लक्षण परमात्मतत्त्व की भावनारूप-धर्मध्यान, शुक्लध्यान के बल से जैसे जघन्य स्निग्ध शक्ति के स्थानीय राग के क्षीण होने पर और जघन्य रूक्ष शक्ति के स्थानीय द्वेष के क्षीण होने पर जल और रेत के समान जीव का बन्ध नहीं होता है; उसी प्रकार पुद्गल परमाणु के भी जघन्य
स्निग्ध और रूक्ष शक्ति का प्रसंग होने पर बन्ध नहीं होता है - ऐसा अभिप्राय है ॥१७७॥
'गुण' शब्द से कही जाने वाली दो शक्ति से सहित स्निग्ध परमाणु का चार गुणवाले सम शब्द नाम-रूप स्निग्ध अथवा रूक्ष के साथ उसीप्रकार तीन शक्ति से सहित रूक्ष का पाँच गुणवाले विषम नाम-रूप रूक्ष अथवा स्निग्ध गुण के साथ, दो गुणों की अधिकता होने पर बन्ध होता है -- ऐसा जानना चाहिये ।
विशेष यह है कि -- परमानन्द एक लक्षण स्वसंवेदन-ज्ञान के बल से राग-द्वेष के हीन होते जाने पर पहले कहे हुऐ जल और रेत के उदाहरण द्वारा जैसे जीवों के बन्ध नहीं होता है; उसी प्रकार स्निग्ध और रूक्ष गुण के जघन्य होने पर परमाणुओं का बन्ध नहीं होता है ।
वैसा ही कहा है-
जघन्य को छोड़कर स्निग्ध का दो अधिक स्निग्ध के साध रूक्ष का दो अधिक रूक्ष के साथ स्निग्ध का रूक्ष के साथ विसम अथवा सम दशा में बंध होता है । ॥१७८॥
इसप्रकार पहले कहे अनुसार स्निग्ध और रूक्ष परिणत परमाणु के स्वरूप-कथनरूप से पहली गाथा, स्निग्ध और रूक्ष के विवरणरूप से दूसरी, स्निग्ध और रूक्ष गुणों की अपेक्षा दो अधिक होने पर बन्ध कथनरूप से तीसरी और उसे ही दृढ़ करने के लिये चौथी -- इसप्रकार परमाणुओं के परस्पर बन्ध-व्याख्यान की मुख्यता से पहले स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।
[जायंते] उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होनेरूप क्रिया के कर्ता कौन हैं ? [दुपदेसादी खंधा] दो प्रदेशों से आरम्भ कर अनन्त अणु-परमाणु पर्यन्त स्कन्ध उत्पन्न होने रूप क्रिया के कर्ता हैं । कौन उत्पन्न होते हैं ? [पुढविजलतेउवाऊ] पृथ्वी, जल, तेज और वायु उत्पन्न होते हैं । वे कैसे उत्पन्न होते हैं ? [सुहुमा वा बादरा] वे सूक्ष्म अथवा बादर रूप उत्पन्न होते हैं । और भी वे कैसे हैं ? [ससंठाणा] यथा-संभव गोल, चौकोर आदि अपने-अपने संस्थान-आकार से सहित हैं । वे किनसे उत्पन्न होते हैं ? [सगपरिणामेहिं] अपने-अपने स्निग्ध-रूक्ष परिणाम से उत्पन्न होते हैं ।
अब इसका विस्तार करते हैं -- जीव वास्तव में टंकोत्कीर्ण (टाँकी से उकेरे हुये के समान स्थिर) ज्ञायक एक रूप से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव ही हैं, पश्चात व्यवहार से अनादि कर्म-बन्ध की उपाधि के वश शुद्धात्म- स्वभाव को प्राप्त नहीं करते हुये पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), वायुकायिक (शरीरों) में उत्पन्न होते हैं; तथापि अपनी अंतरंग सुख-दु:खादि रूप परिणति (दशाओं) के ही अशुद्ध उपादानकारण हैं पृथ्वी आदि शरीरों के आकार रूप परिणति के उपादान कारण नहीं हैं । पृथ्वी आदि शरीरों के उपादान कारण क्यों नही हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं -- वहाँ स्कन्धों की ही उपादान कारणता होने से, जीव उनके उपादान कारण नहीं हैं ।
इससे ज्ञात होता है कि जीव पुद्गल पिण्डों का कर्ता नहीं है ॥१७९॥
[ओगाढगाढणिचिदो] अवगाहन--अवगाहन कर अन्तर के बिना परिपूर्ण भरा हुआ है । परिपूर्ण भरा हुआ वह कौन है ? [लोगो] लोक परिपूर्ण भरा हुआ है । वह कैसा भरा हुआ है ? [सव्व्दो] सर्व ओर से सभी प्रदेशों में भरा हुआ है । वह कर्ताभूत किनसे भरा हुआ है ? [पुग्गलकायेहिं] वह पुद्गलकायों--स्कन्धों से भरा है । किन विशेषता-वाले पुद्गल-कायों से भरा है ? [सुहुमेहि बादरेहि य] इन्द्रियों से ग्रहण करने के अयोग्य सूक्ष्म और उनसे ग्रहण करने योग्य बादर पुद्गल-कायों से भरा है । और कैसे पुद्गल-कायों से भरा है ? [अप्पाओग्गेहिं] अति-सूक्ष्म अथवा अति-स्थूलता के कारण कर्म-वर्गणा सम्बन्धी योग्यता से रहित पुद्गलों से भरा है । और किन विशेषता-वाले पुद्गलों से भरा है ? [जोग्गेहिं] अति-सूक्ष्मता और स्थूलता का अभाव होने से कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गलकायों से भरा है ।
यहाँ अर्थ यह है -- निश्चय से शुद्ध स्वरूप होने पर भी, व्यवहार से कर्म उदय के आधीन होने से पृथ्वी आदि पाँच सूक्ष्म-स्थावरत्व को प्राप्त जीवों से, जैसे लोक निरन्तर भरा रहता है, उसी प्रकार पुद्गलों से भी भरा रहता है । इससे ज्ञात होता है कि जिस शरीर अवगाढ़ क्षेत्र में जीव रहता है, वहीं बन्ध के योग्य पुद्गल भी रहते हैं जीव उन्हें बाह्य भाग से नहीं लाता है ॥१८०॥
[कम्मत्तणपाओग्गा खंधा] कर्म-पने को प्राप्त करने योग्य स्कन्ध-रूपी कर्ता, [जीवस्स परिणइं पप्पा] जीव की परिणति को प्राप्त कर -- निर्दोषी परमात्मा की भावना से उत्पन्न सहजानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृतमयी परिणति -- पर्याय से विपरीत, जीव सम्बन्धी मिथ्यात्व रागादि परिणति -- पर्याय को प्राप्त-कर [गच्छंति कम्मभावं] जाते हैं -- परिणमन करते हैं । किसरूप परिणमन करते हैं ? कर्म-भाव-रूप -- ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म पर्यायरूप परिणमन करते हैं । [ण हि ते जीवेण परिणमिदा] वे कर्म-स्कन्ध जीव-रूप उपादानकर्ता से परिणमित नहीं हैं -- परिणमन को प्राप्त नहीं किये जाते हैं ।
इस विशेष कथन से यह कहा गया है कि कर्म स्कन्धों का कर्ता निश्चय से जीव नहीं है ॥१८१॥
[ते ते कम्मत्तगदा] वे-वे पहले (१८१ वीं) गाथा में कहे गये कर्मत्व को प्राप्त अर्थात् द्रव्य-कर्म पर्याय-रूप परिणमित [पोग्गलकाया] पुद्गल-स्कन्ध [पुणो वि जीवस्स] फिर से भी -- दूसरे भव में भी जीव के [संजायंते देहा] अच्छी तरह से देह--शरीर को उत्पन्न करते हैं । क्या करके शरीर उत्पन्न करते हैं ? [देहंतरसंकमं पप्पा] देहान्तर संक्रम -- दूसरे भव को प्राप्तकर शरीर उत्पन्न करते हैं ।
इससे क्या कहा गया है -- इस सब कथन का निष्कर्ष क्या है ? औदारिक आदि शरीर नाम-कर्म से रहित परमात्मा को प्राप्त नहीं करनेवाले जीव द्वारा जो उपार्जित किये गये -- बाँधे गये औदारिक आदि शरीर -नाम-कर्म -- वे दूसरे भव की प्राप्ति होने पर उदय को प्राप्त होते हैं; उनका उदय होने पर, नोकर्म पुद्गल औदारिक आदि शरीर के आकररूप, स्वयं ही परिणमित होते हैं । इस कारण औदारिक आदि शरीरों का जीव कर्ता नहीं है -- ऐसा निष्कर्ष है ॥१८२॥
[ओरालिओ य देहो] और औदारिक शरीर, [देहो वेउव्विओ य] वैक्रियक शरीर और [तेजसिओ] तैजसिक, [आहारय कम्मइओ] आहारक और कार्मण शरीर [पोग्गलदव्वप्पगा सव्वे] ये पाँचों शरीर पुद्गल-द्रव्य-स्वरूप हैं; सभी मेरे स्वरूप नहीं हैं । ये मेरे स्वरूप क्यों नहीं हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर कहते हैं) -- शरीर रहित चैतन्य-चमत्कार-परिणति होने के कारण मेरा, हमेशा ही अचेतन शरीरत्व के साथ विरोध होने से, ये मेरे नहीं हैं ॥१८३॥
इस प्रकार पुद्गल-स्कन्धों के सम्बन्धी विशेष कथन की मुख्यता से दूसरे स्थल में पांच गाथायें पूर्ण हुईं ।
इसप्रकार [अपदेसो परमाणू] इत्यादि ९ गाथाओं द्वारा परमाणु और स्कन्ध के भेद से भेदित पुद्गलों के पिण्ड की उत्पत्ति सम्बन्धी विशेष कथन की मुख्यता से (दो स्थलों में विभक्त) दूसरा विशेषान्तराधिकार समाप्त हुआ ।
अब १९ गाथा पर्यन्त जीव का पुद्गल के साथ बन्ध की मुख्यता से विशेष कथन करते हैं; वहां छह स्थल हैं । उनमें
- सबसे पहले '[अरसमरूवं]' इत्यादि कथनरूप एक गाथा, '[मुत्तो रुवादि]' इत्यादि पूर्वपक्ष के निराकरण की मुख्यता से दो गाथायें -- इसप्रकार पहले स्थल में तीन गाथायें हैं ।
- इसके बाद भावबन्ध की मुख्यता से '[उवओगमओ ]' इत्यादि दूसरे स्थल में दो गाथायें हैं ।
- अब, परस्पर दो पुद्गलों का बन्ध, जीव का रागादि परिणाम के साथ बन्ध और जीव-पुद्गल का बन्ध -- इस प्रकार तीन प्रकार के बन्ध की मुख्यता से '[फासेही पुग्गालाण]' इत्यादि तीसरे स्थल में दो गाथायें हैं ।
- उससे आगे निश्चय से द्रव्य-बन्ध का कारण होने से रागादि-परिणाम ही बन्ध है -- इस कथन की मुख्यता से '[रत्तो बन्धदि]' इत्यादि चौथे स्थल में तीन गाथायें हैं ।
- तदनन्तर भेद-भावना की मुख्यता से '[... पुढवी]' इत्यादि पाँचवें स्थल मे दो गाथायें हैं ।
- तत्पश्चात् जीव रागादि परिणामों का करता है और द्रव्य-कर्मों का नहीं है -- इस कथन की मुख्यता से '[कुव्वं सहावमादा]' इत्यादि छठवें स्थल में सात गाथायें हैं ।
इसप्रकर १९ गाथाओं द्वारा तीसरे विशेषान्तराधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।
तृतीय विशेषान्तराधिकार स्थल विभाजन | |||
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स्थल क्रम | प्रतिपादित विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ | कुल गाथाएँ |
प्रथम | शुद्ध जीव स्वरूप तथा पूर्वपक्ष परिहार | 184 से 186 | 3 |
द्वितीय | भावबंध की मुख्यता प्रतिपादक | 187 व 188 | 2 |
तृतीय | त्रिविध बंध प्रतिपादक | 189 व 190 | 2 |
चतुर्थ | रागादि परिणाम ही वास्तविक बंध प्रतिपादक | 191 से 193 | 3 |
पंचम | भेद-भावना परक | 194 व 195 | 2 |
षष्टम | जीव रागादि का ही करता, द्रव्य-कर्मों का नहीं | 196 से 202 | 7 |
कुल 6 स्थल | कुल 19 गाथाएँ |
[अरसमरूवमगंधं] रस-रूप-गंध रहित होने के कारण और उसी प्रकार विविध-रूप से ग्रहण करने योग्य नहीं होने से तथा गाथा में जिसका ग्रहण नहीं हो पाया है ऐसा अस्पर्श-रूप होने से [अव्वत्तं] अव्यक्त होने से, [असद्दं] अशब्द होने से, [अलिंग्गहणं] अलिंग-ग्रहण होने से, [अणिद्दिट्ठसंठाणं] और अनिर्दिष्ट-संस्थान वाला होने से [जाण जीवं] जीव को जानो । हे शिष्य ! जीवद्रव्य को अरस, अरूप, अगन्ध, अस्पर्श, अव्यक्त, अशब्द, अलिंग-ग्रहण और अनिर्दिष्ट-संस्थान लक्षण-वाला जानो । और वह जीव कैसा है ? [चेदणागुणम] सम्पूर्ण पुद्गलादि अचेतन द्रव्यों से भिन्न, सम्पूर्ण अन्य द्रव्यों से असाधारण और अपनी अनन्त जीव-जाति में साधारण चेतना-गुण है जिसका, उस चेतना गुण-वाले जीव को जानो, तथा '[अलिंगग्राह्य]' ऐसा कहने योग्य होने पर भी जो '[अलिंगग्रहण]' ऐसा कहा गया है, वह किसलिये कहा गया है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर कहते हैं) अनेक अर्थों का ज्ञान कराने के लिये अलिंगग्राह्य के स्थान पर अलिंगग्रहण कहा गया है ।
वह इसप्रकार -- लिंग अर्थात् इन्द्रिय, उसके द्वारा पदार्थों का ग्रहण अर्थात् ज्ञान नहीं करता है, उससे अलिंगग्रहण है । वह इन्द्रियों द्वारा पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं करता है ? स्वयं ही अतीन्द्रिय अखण्ड-ज्ञान सहित होने के कारण, वह उनके द्वारा पदार्थों का ज्ञान नहीं करता है । उसी लिंग शब्द द्वारा कहने योग्य नेत्र आदि इन्द्रियों से अन्य जीवों के जिसका ग्रहण -- ज्ञान करने को नहीं आता है -- जिसका जानना संभव नहीं है, उससे अलिंगग्रहण कहा है । अन्य जीव इसे नेत्रादि इन्द्रियों द्वारा क्यों नहीं जान सकते हैं ? विकार रहित अतीन्द्रिय स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष ज्ञान दारा गम्य होने से, वे उसे उनके द्वारा नहीं जान सकते हैं ।
लिंग अर्थात् धूम (धुँआ) आदि कारण--साधन, उस धूम-लिंग से उत्पन्न अनुमान के द्वारा (ज्ञात हुई) अग्नि के समान अनुमेय-भूत (अनुमान द्वारा जानने योग्य) पर-पदार्थों का ग्रहण -- ज्ञान नहीं करता है, उससे अलिंगग्रहण है । वह लिंग द्वारा पर-पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं करता है ? स्वयं ही अलिंग--लिंग के बिना उत्पन्न अतीन्द्रिय-ज्ञान से सहित होने के कारण, वह लिंग द्वारा उनका ज्ञान नहीं करता है । उसी लिंग से उत्पन्न अनुमान द्वारा अग्नि के ज्ञान के समान, दूसरे पुरुषों को जिस आत्मा का ग्रहण -- ज्ञान करने को नहीं आता है -- जानना संभव नहीं है, उससे अलिंगग्रहण है । लिंग द्वारा अन्य पुरुष इसे क्यों नहीं जान सकते हैं ? लिंग के बिना उत्पन्न अतीन्द्रिय-ज्ञान से गम्य -- ज्ञात होने के कारण, वे लिंग द्वारा उसे नहीं जान सकते हैं ।
अथवा लिंग अर्थात् चिन्ह--लांछन--निशान; शिखा--चोटी, जटाधारण आदि, उनसे पदार्थों का ग्रहण--ज्ञान नहीं करता है, उससे अलिंगग्रहण है । वह, शिखा आदि चिन्हों द्वारा पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं करता है? चिन्हों के बिना उत्पन्न स्वाभाविक अतीन्द्रिय-ज्ञान से सहित होने के कारण, वह इनके द्वारा उनका ज्ञान नहीं करता है । उसी चिन्ह से उत्पन्न ज्ञान द्वारा, दूसरे पुरुषों को जिस आत्मा का ग्रहण--ज्ञान करने को नहीं आता है--जानना संभव नहीं है, उससे अलिंगग्रहण है । चिन्ह से उत्पन्न ज्ञान द्वारा पुरुष इसे क्यों नहीं जान सकते हैं? उपराग (रागादि मलिनता) रहित स्वसंवेदन-ज्ञान द्वारा गम्य होने से इसके द्वारा उसे नहीं जान सकते हैं ।
इसप्रकार अलिंगग्रहण शब्द के विशेष कथन क्रम से शुद्ध जीव का स्वरूप जानना चाहिये -- ऐसा अभिप्राय है ॥१८४॥
मूर्त रूप, रस, गन्ध, स्पर्श होने से पुद्गल द्रव्य के गुण [बज्झदि] परस्पर संश्लेष-रूप से बंधते हैं -- बन्ध का अनुभव करते हैं, वहाँ दोष नहीं है । वे किनसे बंधते हैं ? [फासेहिं अण्णमण्णेहिं] वे स्निग्ध-रुक्ष गुण लक्षण स्पर्श के संयोग से बंधते हैं । किन विशेषताओं वाले स्पर्शों से वे बंधते हैं ? परस्पर में निमित्त-रूप स्पर्शों से वे बँधते हैं ।
[तव्विवरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं] परन्तु उससे विपरीत आत्मा, पुद्गल-कर्म को कैसे बाँधता है ? यह परमात्मा विकार-रहित परम-चैतन्य-चमत्कार परिणति-वाला होने से बन्ध के कारणभूत स्निग्ध-रूक्ष गुण के स्थानीय राग-द्वेष आदि विभाव परिणाम से रहित होने के कारण और अमूर्त होने के कारण पुद्गल-कर्म को कैसे बाँधता है ? किसी भी प्रकार से नही बाँध सकता है - ऐसा पूर्वपक्ष है ॥१८५॥
[रूवादिएहिं रहिदो] प्रथम तो अमूर्त परम-चैतन्य-ज्योतिरूप से परिणत होने के कारण यह आत्मा रूपादि रहित है । वैसा होता हुआ वह क्या करता है ? [पेच्छदि जाणादि] सिद्ध अवस्था में यद्यपि एक साथ जानकारीरूप सामान्य-विशेष को ग्रहण करने वाले केवलदर्शन-केवलज्ञान उपयोग के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं है, तथापि ग्रहण करने योग्य -- जानने योग्य और ग्रहण करनेवाले -- जाननेवाले अर्थात् ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण सम्बन्ध-रूप से देखते और जानते हैं । कर्मता को प्राप्त इस गाथा मे कर्म-कारक में प्रयुक्त किन्हे वे जीव देखते-जानते हैं ? [रूवमादीणि दव्वाणि] वे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श सहित द्रव्यों को देखते-जानते हैं । न केवल द्रव्यों को देखते-जानते हैं, वरन् [गुणे य जधा] और जैसे उनके गुणों को देखते-जानते हैं ।
अथवा, कोई संसारी जीव, विशेष भेद-ज्ञान से रहित होता हुआ काठ, पत्थर आदि की अचेतन जिन- प्रतिमा को देखकर, ये मेरे आराध्य हैं -- ऐसा मानता है । यद्यपि वहाँ सत्ता को देखनेवाले दर्शन के साथ प्रतिमा का तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं है, तथापि ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण सम्बन्ध है । अथवा, जैसे विशेष भेद-ज्ञानी समवसरण में प्रत्यक्ष जिनेन्द्र भगवान को देखकर मे मेरे आराध्य हैं -- ऐसा मानता है । वहाँ भी यद्यपि अवलोकन ज्ञान का, जिनेश्वर के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं है, तथापि आराध्य-आराधक सम्बन्ध है । [तह बंधो तेण जाणीहि] उसी-प्रकार से बन्ध उसी दृष्टान्त द्वारा जानो ।
यहाँ अर्थ यह है -- यद्यपि यह आत्मा निश्चय से अमूर्त है, तथापि अनादि कर्मबन्ध के वश व्यवहार से मूर्त होता हुआ, द्रव्य-बन्ध के निमित्त-भूत रागादि विकल्प-रूप भाव-बन्ध-मय उपयोग को करता है । वैसा होने पर, यद्यपि मूर्त द्रव्य-कर्मों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, तथापि पहले कहे हुये उदाहरण से संश्लेष सम्बन्ध है -- इसमें दोष नहीं है ।
इस प्रकार शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी जीव के कथन की मुख्यता से पहली गाथा; मूर्ति रहित -- अमूर्त जीव का, मूर्त कर्मों के साथ कैसे बन्ध होता है -- इसप्रकार पूर्व पक्ष (प्रश्न) रूप से दूसरी, तथा उसके परिहार (उत्तर) रूप से तीसरी -- इसप्रकार तीन गाथाओं द्वारा पहला स्थल समाप्त हुआ ।
[उवओयमओ जीवो] उपयोगमय जीव, प्रथम तो यह जीव निश्चय-नय से विशुद्ध ज्ञान- दर्शन उपयोगमय है, ऐसा होने पर भी अनादि बन्ध के वश उपाधि (डांक) सहित स्फटिक के समान पर उपाधि (रागादि-मलिनता) रूप भाव से परिणत होता हुआ । ऐसा होता हुआ क्या करता है ? [मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि] मोह करता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है । पहले क्या करके मोहादि करता है ? [पप्पा] प्राप्त कर मोहादि करता है । किन्हें प्राप्त कर मोहादि करता है ? [विविधे विसये] विषय रहित परमात्म- स्वरूप की भावना से विपरीत, अनेक प्रकार के पंचेन्द्रिय विषयों को प्राप्तकर, मोहादि करता है । [जो हि पुणो] और जो इसप्रकार का जीव है, वह वास्तव में [तेहिं सो बन्धो] उनके द्वारा बंधता है, उन पहले कहे हुये कर्ताभूत राग-द्वेष-मोह द्वारा, मोह-राग-द्वेष से रहित जीव के शुद्ध परिणाम लक्षण परमधर्म को प्राप्त नहीं करता हुआ, वह जीव बद्ध होता है ।
यहाँ जो वह राग-द्वेष-मोह परिणाम है, वही भाव-बन्ध है -- ऐसा अर्थ है ।
[भावेण जेण] जिस भाव--परिणाम से [जीवो] जीव-रूपी कर्ता [पेच्छदि जाणादि] निर्विकल्प दर्शनरूप पर्याय से देखता है और सविकल्प ज्ञानरूप पर्याय से जानता है । कर्मता को प्राप्त किसे जानता है ? [आगदं विसये] आये हुये -- प्राप्त हुये कुछ भी इष्ट-अनिष्ट वस्तु -- पंचेंद्रिय विषयों को देखता व जानता है, उन पंचेंद्रिय विषयों में । [रज्जदि तेणेव पुणो] उसी से फिर राग करता है, आदि-मध्य-अन्त से रहित रागादि दोष रहित, चैतन्य-ज्योति-स्वरूप, निज आत्म-द्रव्य की रुचि नहीं करता हुआ तथा उसे ही नहीं जानता हुआ और सम्पूर्ण रागादि विकल्पों के त्याग-पूर्वक उसकी ही भावना नहीं करता हुआ, पहले कहे गये ज्ञान-दर्शन उपयोग द्वारा राग करता है -- इसप्रकार भाव बन्ध की युक्ति है । [बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो] उस भाव-बन्ध से नवीन द्रव्य-कर्म बंधता है -- ऐसा द्रव्य बन्ध का स्वरूप है -- ऐसा उपदेश है ॥१८८॥
इसप्रकर भाव-बन्ध कथन की मुख्यता से दो गाथाओं द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ।
[फासेहिं पोग्गलाणं बंधो] स्पर्शों से पुद्गलों का बन्ध । पहले के और नवीन पुद्गल द्रव्य-कर्मों का, जीवगत रागादि भावों के निमित्त से और अपने स्निग्ध और रूक्षरूप उपादान कारण से परस्पर- स्पर्श के संयोग द्वारा जो वह बन्ध है, वह पुद्गलबन्ध है । [जीवस्स रागमादीहिं] जीव का रागादि से । उपराग (मलिनता) रहित परम-चैतन्यरूप-निजात्मतत्त्व की भावना से च्युत जीव का, जो रागादि के साथ परिणमन है, वह जीवबन्ध है । [अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो] परस्पर का अवगाह पुद्गल-जीवात्मक कहा गया है । विकार रहित-स्वसंवेदन ज्ञान से रहित होने के कारण, स्निग्ध-रूक्ष के स्थानीय राग-द्वेष रूप परिणत जीव का और बन्ध योग्य स्निग्ध-रूक्ष परिणाम परिणत पुद्गल का, जो वह परस्पर अवगाह लक्षण बन्ध है, वह इसप्रकार का बंध जीव्-पुद्गल-बन्ध -- उभय-बंध कहलाता है -- इसप्रकार तीन प्रकार के बन्धों का लक्षण जानना चाहिये ॥१८९॥
[सपदेसो सो अप्पा] प्रथम तो वह प्रसिद्ध आत्मा लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी होने से सप्रदेश है । [तेसु पदेसेसु पोग्गला काया] उन प्रदेशों में कर्म वर्गणा के योग्य पुद्गल समूह-रूप कर्ता [ पविसंति] प्रवेश करते हैं । उनमें कैसे प्रवेश करते हैं ? [जहाजोग्गं] मन-वचन-काय वर्गणा के अवलम्बन तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द लक्षण योग के अनुसार, यथायोग्य प्रवेश करते हैं । मात्र प्रवेश नहीं करते, वरन् [चिट्ठंति हि] प्रवेश के बाद वास्तव में अपनी स्थिति के समय तक रहते हैं । मात्र रहते नहीं हैं ? अपितु [जन्ति] अपने उदयकाल को प्राप्तकर फल देकर चले जाते हैं । [बज्झंति] तथा केवल-ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय की प्रगटता-रूप मोक्ष से विपरीत बंध के कारण रागादिक को प्राप्त-कर पुन: द्रव्य-बन्ध-रूप से बँधते हैं ।
इससे यह निश्चय हुआ, कि रागादि परिणाम ही द्रव्यबन्ध के कारण हैं ।
अथवा दूसरा विशेष कथन -- प्रवेश करते हैं अर्थात् प्रदेश बंध, ठहरते हैं अर्थात् स्थिति बंध, फल देकर चले जाते हैं अर्थात् अनुभाग बन्ध और बँधते हैं अर्थात् प्रकृति बंध -- इसप्रकार बंध के चार भेद इन चार शब्दों दारा कहे गये हैं ॥१९०॥
इसप्रकार तीन प्रकार के बन्ध की मुख्यता से दो गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।
[रत्ते बंधदि कम्मं] रक्त (रागादि से रँगा हुआ) कर्म बाँधता है । रक्त ही कर्म बांधता है और वैराग्य परिणत कर्म नहीं बांधता है । [मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा] राग-रहित आत्मा कर्मों से छूटता है । राग रहित आत्मा शुभाशुभ कर्मों से छूटता ही है, बँधता नहीं है । [एसो बंधसमासो] प्रत्यक्षीभूत बन्ध का यह संक्षेप है । [जीवाणं] जीवों सम्बन्धी । [जाण णिच्छयदो] हे शिष्य! तुम जानो, निश्चय से -- निश्चयनय के अभिप्राय से ।
इसप्रकार राग परिणाम ही बन्ध का कारण है - ऐसा जानकर सम्पूर्ण रागादि विकल्प समूहों के त्याग- पूर्वक विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी निजात्म-तत्त्व में निरन्तर भावना करना चाहिये ॥१९१॥
[परिणामादो बंधो] परिणाम से बन्ध होता है । और वह परिणाम किस विशेषता वाला है ? [परिणामो रागदोसमोहजुदो] वीतराग परमात्मा से विलक्षण होने के कारण परिणाम राग-द्वेष-मोह तीन रूप उपाधि (संयोग) से सहित है । [असुहो मोहपदेसो] मोह और द्वेष अशुभरूप हैं । पर की उपाधि से उत्पन्न तीनों परिणामों में से मोह और द्वेष -- दोनों अशुभ हैं । [सुहो व असुहो हवदि रागो] राग शुभ तथा अशुभ होता है । पंच परमेष्ठी की भक्ति आदि रूप राग शुभ-राग तथा विषय-कषाय रूप राग अशुभ-राग कहलाता है ।
यह सभी परिणाम सोपाधि (संयोग सहित) होने से बन्ध के कारण हैं -- ऐसा जानकर बन्ध के प्रकरण में शुभ-अशुभ सम्पूर्ण राग-द्वेष को नष्ट करने के लिये सम्पूर्ण रागादि उपाधि रहित सहजानन्द एक लक्षण सुख रूपी अमृत स्वभावी निजात्मद्रव्य में भावना करना चाहिये -- ऐसा तात्पर्य है ॥१९२॥
अब द्रव्यरूप पुण्य और पाप के बन्ध का कारण होने से, शुभ और अशुभ परिणामों का पुण्य और पाप नाम तथा शुभ और अशुभ से रहित शुद्धोपयोग परिणाम के मोक्ष की कारणता को कहते हैं --
[सुहपरिणामो पुण्णं] द्रव्य-पुण्यबन्ध का कारण होने से शुभ परिणाम पुण्य कहलाता है । [असुहो पावं ति भणियं] द्रव्य-पापबन्ध का कारण होने से अशुभ परिणाम पाप कहलाता है । जो ये शुभ-अशुभ परिणाम हैं, वे किन विषयों में गये हुये पुण्य-पाप रूप कहे हैं ? [अण्णेसु] निज शुद्धात्मा से भिन्न, दूसरे शुभ-अशुभ बाह्य द्रव्यों में गये हुये पुण्य-पाप रूप कहे गये हैं । [परिणामो णण्णगदो] परिणाम दूसरे में गये हुये नहीं हैं अर्थात् अनन्यगत -- अपने स्वरूप में स्थित हैं -- ऐसा अर्थ है । वह इसप्रकार का शुद्धोपयोग लक्षण परिणाम [दुक्खक्खयकारणं] दुःखक्षय का कारण -- दुःखों का विनाश नामक मोक्ष का कारण [ भणिदो] कहा गया है । वह मोक्ष का कारण कहाँ कहा गया है ? [समये] परमागम में वह मोक्ष का कारण कहा गया है । अथवा वह मोक्ष का कारण कब कहा गया है ? वह काललब्धि में -- समय की प्राप्ति होने पर मोक्ष का कारण कहा गया है ।
विशेष यह है --
- मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र -- इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य (हानिगत) रूप से अशुभ परिणाम होता है -- ऐसा पहले (९वी गाथा की टीका में) कहा था और
- अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत नामक तीन गुणस्थानों में तारतम्य (वृद्धिंगत) रूप से शुभ परिणाम कहा था, तथा
- अप्रमत्तादि क्षीणकषाय (सातवें से बारहवें) पर्यन्त गुणस्थानों में तारतम्य (वृद्धिंगत) रूप शुद्धोपयोग भी कहा था ।
वहाँ अशुद्ध-निश्चयनय के बीच शुद्धोपयोग कैसे प्राप्त होता है? ऐसा शिष्य द्वारा पूर्वपक्ष (प्रश्न) किये जाने पर उसके प्रति उत्तर देते हैं - प्रथम तो वस्तु की एकदेश परीक्षा नय का लक्षण है और शुभ-अशुभ अथवा शुद्ध द्रव्य का अवलम्बन उपयोग का लक्षण है; इसप्रकार अशुद्ध-निश्चय के बीच में शुद्धात्मा का अवलम्बन होने से, शुद्ध ध्येय होने से और शुद्ध का साधक होने से, शुद्धोपयोग परिणाम प्राप्त होता है -- ऐसा नय का और उपयोग का लक्षण यथा संभव सब जगह जानना चाहिये ।
यहाँ जो यह रागादि विकल्पों की उपाधि रहित समाधि लक्षण शुद्धोपयोग मुक्ति का कारण कहा गया है, वह शुद्धात्मद्रव्य का लक्षण होने से, ध्येयभूत शुद्ध पारिणामिक भाव से अभेद-प्रधान-द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा अभिन्न होने पर भी, भेद-प्रधान-पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा भिन्न है । यह भिन्न क्यों है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर देते हैं) -- यह शुद्धोपयोग एक देश आवरण रहित होने से, क्षायोपशमिक खण्डज्ञान की प्रगटतारूप है और वह पारिणामिक भाव सम्पूर्ण आवरणों से रहित होने के कारण अखण्डज्ञान की प्रगटता रूप है, यह सादि-सान्त होने से नश्वर है और वह अनादि-अनन्त होने से अविनश्वर है । और यदि एकान्त से अभेद होता, तो घड़े की उत्पत्ति में मिट्टी-पिण्ड के विनाश के समान ध्यान पर्याय के विनाश में मोक्ष उत्पन्न होने पर ध्येरयरूप पारिणामिक का भी विनाश हो जाता -- एसा अर्थ है । इससे ही ज्ञात होता है कि शुद्ध-पारिणामिक भाव ध्येयरूप है, ध्यान भावनारूप नहीं है । वह ध्यान भावनारूप क्यों नहीं है ? ध्यान के विनाशशील होने से वह ध्यान भावनारूप नहीं है ।
इसप्रकार द्रव्य-बन्ध का कारण होने से मिथ्यात्व-रागादि विकल्प-रूप भाव-बन्ध ही, निश्चय से बन्ध है -- ऐसे कथन की मुख्यता से, तीन गाथाओं द्वारा चौथा स्थल पूर्ण हुआ ।
[भणिदा पुढविप्पमुहा] परमागम में पृथ्वी प्रमुख कहे गये हैं । पृथ्वी आदि वे कौन हैं ? [जीवणिकाया] पृथ्वी आदि वे जीव-निकाय हैं -- जीव-समूह हैं । [अध] अब, वे पृथ्वी आदि कैसे हैं ? [थावरा य तसा] वे स्थावर और त्रस रूप हैं । और वे किस विशेषतावाले हैं ? [अण्णा ते] वे अन्य-भिन्न हैं । वे किससे भिन्न हैं ? [जीवादो] वे शुद्ध-बुद्ध एक जीव स्वभाव से भिन्न हैं । [जीवो वि य तेहिंदो अण्णो] और जीव भी उनसे भिन्न है ।
वह इसप्रकार -- टाँकी से उकेरे हुये के समान, ज्ञायक एक स्वभाव परमात्म-तत्त्व की भावना से रहित जीव द्वारा उपार्जित किये गये -- बाँधे गये जो त्रस-स्थावर नाम-कर्म उनके उदय से उत्पन्न होने के कारण और अचेतन होने के कारण त्रस-स्थावर जीव-निकाय, शुद्ध चैतन्य स्वभावी जीव से भिन्न हैं । और जीव भी उनसे विलक्षण होने के कारण भिन्न है । यहाँ इस प्रकार भेद-विज्ञान उत्पन्न हो जाने पर, मोक्षार्थी जीव स्व-द्रव्य में प्रवृत्ति और पर-द्रव्य-निवृत्ति करता है -- यह भावार्थ है ॥१९४॥
[जो णवि जाणदि एवं] जो कर्ता ऐसा पहले (१९४वीं गाथा में) कहे गये अनुसार जानता ही नहीं है । वह किसे नहीं जानता है ? [परं] छह जीव-निकाय (समूह) आदि पर द्रव्य को, [अप्पाणं] दोष-रहित परमात्म-द्रव्यरूप निज आत्मा को, जो नहीं जानता है । वह उन्हें क्या करके नहीं जानता है ? [सहावमासेज्ज] शुद्धोपयोग लक्षण निज शुद्ध स्वभाव का आश्रय लेकर, जो उन्हें नहीं जानता है । [कीरदि अज्झवसाणं] वह पुरुष अध्यवसान-रूप परिणाम करता है । वह ऐसा किसरूप से करता है ? [अहं ममेदं ति] यह मैं, यह मेरा -- इसप्रकार वह अध्यवसान परिणाम करता है । ममकार-अहंकार आदि रहित परमात्म-भावना से च्युत होकर, रागादि परद्रव्य मैं हूँ, शरीरादिक पर द्रव्य मेरे हैं -- इसप्रकार अध्यवसान करता है । वह ऐसा अध्यवसान क्यों करता है? [मोहादो] मोह के अधीन होने से, वह ऐसा अध्यवसान करता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि स्व-पर भेद-विज्ञान के बल से स्व-संवेदन ज्ञानी जीव, स्व-द्रव्य में रति-प्रवृत्ति और परद्रव्य में निवृत्ति करता है ॥१९५॥
इसप्रकार भेदभावना के कथन की मुख्यता से दो गाथाओं द्वारा पांचवां स्थल पूर्ण हुआ ।
[कुव्वं सभावं] स्वभाव को करता हुआ । यहाँ स्वभाव शब्द से, शुद्ध निश्चयनय से, यद्यपि शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव कहा गया है; तथापि कर्मबन्ध के प्रसंग में, अशुद्ध-निश्चय से, रागादि परिणाम भी स्वभाव कहलाता है । उस स्वभाव को करता हुआ । उस स्वभाव को करता हुआ, वह कौन है ? [आदा] उस स्वभाव को करता हुआ आत्मा है । [हवदि हि कत्त्ता] अपने स्वभाव को करता हुआ आत्मा, वास्तव में कर्ता है । वह किसका कर्ता है ? [सगस्स भावस्स] अपने चैतन्यरूप स्वभाव--रागादि परिणाम का कर्ता है । निश्चय से वही उसका रागादि परिणामरूप भावकर्म कहलाता है । रागादि परिणाम उसके भाव-कर्म क्यों हैं? तपे हुये लोह-पिण्ड के सामान, उस आत्मा द्वारा प्राप्य--प्राप्त होने योग्य तथा व्याप्य--व्याप्त होने योग्य होने से, वे रागादि परिणाम आत्मा के भावकर्म हैं । [पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्त्ता सव्वभावाणं] परन्तु वह चैतन्य-रूप आत्मा से विलक्षण, ज्ञानावरणादि-द्रव्य-कर्म-पर्याय-रूप पुद्गल-द्रव्यमयी सभी भावों का कर्ता नहीं है ।
इससे ज्ञात होता है कि रागादि निज परिणाम ही जीव के कर्म हैं, उसका ही वह कर्ता है ॥१९६॥
[गेण्हदि णेव ण मुंचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि जीवो] जैसे विकल्प रहित समाधि में लीन परम-मुनि, परभाव को ग्रहण नहीं करते हैं, छोड़ते नहीं हैं और उपादान-रूप से करते नहीं है अथवा जैसे लोहपिण्ड अग्नि को ग्रहण नहीं करता, छोड़ता नहीं है और उपादानरूप से करता नहीं है; उसीप्रकार यह आत्मा पुद्गल कर्मों को न ग्रहण करता है, न छोड़ता है और न उपादानरूप से करता है । क्या करता हुआ भी आत्मा, यह सब नहीं करता है ? [पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु] दूध और पानी के हमेशा एक साथ रहने-रूप न्याय से सभी कालों में -- हमेशा पुद्गलों के बीच रहने पर भी, पुद्गल कर्मों का ग्रहण आदि नहीं करता है ।
इससे क्या कहा गया है ? अथवा इस सब कथन का क्या प्रयोजन है ? जैसे सिद्ध भगवान, पुद्गलों के बीच रहते हुये भी पर-द्रव्य को ग्रहण करने, छोड़ने और करने से रहित हैं, उसीप्रकार शुद्ध-निश्चय-नय की अपेक्षा, शक्ति-रूप से संसारी जीव भी इन सबसे रहित हैं -- ऐसा प्रयोजन है ॥१९७॥
अब, यदि यह आत्मा पुद्गल कर्म को नहीं करता है और न छोड़ता है, तो बन्ध कैसे होता है और मोक्ष भी कैसे होता है ? ऐसा प्रश्न होने पर उसके प्रति उत्तर देते हैं--
तब (यदि आत्मा पुद्गलों को कर्मरूप परिणमित नहीं करता तो फिर) आत्मा किस प्रकार पुद्गल कर्मों के द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है? इसका अब निरूपण करते हैं -
[स इदाणिं कत्त्ता सं] वह अब कर्ता होता हुआ । वह पहले कहे गये लक्षण-वाला आत्मा , 'इदानीं अर्थात् अब' का क्या अर्थ है ? इसप्रकार पहले (१९६ वीं गाथा मे) कहे गये नय-विभाग से कर्ता होता हुआ यह 'अब' का अर्थ है । किसका कर्ता होता हुआ ? [सगपरिणामस्स] विकार रहित हमेशा आनन्द एक लक्षण परमसुखरूपी अमृत की प्रगटतारूप कार्य-समयसार को साधनेवाले निश्चय रत्नत्रय स्वरूप कारण समयसार से विलक्षण, मिथ्यात्व-रागादि विभावरूप अपने परिणामों का कर्ता होता हुआ । और भी किस विशेषता वाला है? [दव्वजादस्स] अपने आत्मद्रव्य के उपादान-कारण से उत्पन्न परिणामों का कर्ता होता हुआ । [आदीयदे कदाई कम्मधूलीहिं] बँधता है । किनसे बँधता है ? कर्ताभूत (कर्म-वाच्य की अपेक्षा कर्ता-कारक में प्रयुक्त) कर्म-रजों से बंधता है, कदाचित्- पहले कहे गये विभाव परिणामों के समय बंधता है । न केवल बंधता है, [विमुच्चदे] विशेषरूप से छूटता है, उन कर्म-रजों से कदाचित् पहले कहे गये कारण समयसार- रूप परिणति के समय छूटता है ।
इससे क्या कहा गया है? अथवा इस सब कथन का क्या प्रयोजन है? अशुद्ध परिणामों से जीव बँधता है, शुद्ध परिणाम से छूटता है -- यह ज्ञान कराना इस कथन का प्रयोजन है ॥१९८॥
[परिणमदि जदा अप्पा] जब आत्मा परिणमित होता है । सम्पूर्ण शुभ-अशुभ परद्रव्यों के विषयों में परम उपेक्षा लक्षण शुद्धोपयोगरूप परिणाम को छोड़कर जब यह आत्मा परिणमित होता है । यह आत्मा किसमें परिणमित होता है ? [सुहम्मि असुहम्हि] शुभ अथवा अशुभ परिणाम में परिणमित होता है । कैसा होता हुआ उनमें परिणमित होता है ? [रागदोसजुदो] राग-द्वेष से सहित अर्थात् राग-द्वेष-रूप परिणत होता हुआ, उनमें परिणमित होता है -- ऐसा अर्थ है । [तं पविसदि कम्मरयं] तब उस समय वह प्रसिद्ध कर्मरज, प्रवेश करती है । वह किसरूप में प्रवेश करती है ? [णाणावरणादिभावेहिं] जैसे भूमि से बादलों के जल का संयोग होने पर, अन्य पुद्गल स्वयं ही हरे पत्ते आदि भावों से परिणमित होते हैं उसीप्रकार स्वयं ही मूल-उत्तर प्रकृति-रूप अनेक भेद परिणत ज्ञानावरणादि भावों--पर्यायों-रूप से प्रवेश करती है ।
इससे ज्ञात होता है कि जैसे ज्ञानावरणादि कर्मों की उत्पत्ति स्वयंकृत है (कार्मण-वर्गणाओं का स्वयं ज्ञानावरणादि-रूप परिणमन हुआ है); उसीप्रकार मूल-उत्तर प्रकृतिरूप विचित्रता भी स्वयंकृत है; जीव द्वारा की गई नहीं है ॥१९९॥
[अणुभागो] अनुभाग -- फल देने सम्बन्धी शक्ति विशेष होती है -- ऐसा क्रिया का अध्याहार -- ग्रहण किया गया है । वह शक्ति विशेष कैसी होती है ? [तिव्वो] यह तीव्र प्रकृष्ट--परम अमृत समान होती है । इस-रूप वह किनकी होती है ? [सुहपयडीणं] साता वेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों की शक्ति इस-रूप होती है । वह किस कारण इस-रूप होती है ? [विसोही] तीव्र धर्मानुराग-रूप विशुद्धि द्वारा साता-वेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों की, परम अमृत समान फलदान शक्ति होती है । [असुहाण संकिलेसम्मि] असाता वेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों का मिथ्यात्वादि-रूप तीव्र संक्लेश होने पर तीव्र हालाहल विष के समान अनुभाग होता है । [विवरीदो दु जहण्णो] उससे विपरीत जघन्य भाग बन्ध गुड़ और नीम रूप होता है । जघन्य विशुद्धि और जघन्य संक्लेश से तथा मध्यम विशुद्धि और मध्यम संक्लेश से क्रमश: शुभ-अशुभ प्रकृतियों का खण्ड (खांड) और शक्कर-रूप तथा कांजीर और विषरूप (अनुभाग) होता है । इस- प्रकार का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-रूप अनुभाग किनका होता है ? [सव्वपयडीणं] मूल-उत्तर प्रकृतियों से रहित, निज परमानन्द एक स्वभाव लक्षण सभी प्रकार से उपादेयभूत परमात्म-द्रव्य से भिन्न, हेयभूत मूल-उत्तर प्रकृतियों का जघन्यादि-रूप अनुभाग है । इसप्रकार कर्मों की शक्तियों का स्वरूप जानना चाहिये ॥२००॥
[सपदेसो] लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश होने से प्रथम तो सप्रदेश है [सो अप्पा] वह पहले (१९६ वीं गाथा में) कहे गये लक्षणवाला आत्मा । और किस विशेषता वाला है? [कसायिदो] कषाय से परिणत--रंजित--रँगा हुआ है । वह किनके द्वारा कषाय से रँगा हुआ है? [मोहरागदोसेहीं] मोहरहित स्व-शुद्धात्मतत्त्व की भावना के प्रतिबन्धक (रोकनेवाले) मोह-राग-द्वेष द्वारा वह कषाय से रँगा हुआ है । वह और किस स्वरूप है? [कम्मरजेहिं सिलिट्ठो] कर्म-रज द्वारा श्लिष्ट अर्थात कर्म-वर्गणा के योग्य पुद्गल-रज द्वारा संश्लिष्ट--बँधा हुआ है । [बंधो त्ति परूविदो] अभेदनय से आत्मा ही बंध है -- ऐसा कहा गया है । अभेदनय से आत्मा ही बन्ध है - ऐसा कहाँ कहा गया है? [समये] परमागम में ऐसा कहा गया है ।
यहाँ यह कहा गया है कि जैसे -- लोंध्र (लोंध) आदि द्रव्यों द्वारा कषायला-रूप से रँगा हुआ वस्त्र, मंजीष्ठ (मंजीठा) रंग-वाले द्रव्य से रंजित होता हुआ अभेदनय से 'लाल' ऐसा कहा जाता है; उसी-प्रकार वस्त्र स्थानीय आत्मा, लोध्र आदि द्रव्यों के स्थानीय मोह-राग-द्वेष द्वारा कषाय-रूप से रँगा हुआ -- उसरूप परिणत (आत्मा) मंजीष्ठ स्थानीय कर्म-पुद्गलों के साथ सश्लिष्ट--सम्बद्ध-बंधा हुआ, भेद होने पर भी अभेदोपचार लक्षण असदभूत-व्यवहार से 'बन्ध' ऐसा कहा जाता है । वह 'बन्ध' क्यों कहा जाता है? अशुद्ध द्रव्य के विशेष -कथन के लिए असद्भूत व्यवहारनय का विषय होने से, वह बन्ध कहा जाता है ।
[एसो बंधसमासो] यह बन्ध का संक्षेप है । यह पहले कहे हुए अनेक प्रकार की रागादि परिणति-रूप बन्ध का संक्षेप है । यह परिणति-रूप बन्ध का संक्षेप किनका है? [जीवाणं] यह जीवों के बन्ध का संक्षेप है । [णिच्छयेण णिद्दिट्ठो] निश्चय नय से ऐसा कहा गया है । यह, कर्ता-भूत किनके द्वारा कहा गया है? [अरहंतेहिं] अरहन्त निर्दोषी-परमात्मा द्वारा कहा गया है । उनके द्वारा, किनके लिए कहा गया है ? [जदीणं] जितेन्द्रिय होने से शुद्धात्म-स्वरूप में प्रयत्नशील गणधर-देव आदि यतियों (आचार्य, उपाध्याय, साधुओं) के लिये कहा गया है । [ववहारो] द्रव्य-कर्म-रूप व्यवहार बन्ध [अण्णहा भणिदो] निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार नय से अन्य प्रकार कहा गया है ।
दूसरी बात यह है कि आत्मा रागादि को ही करता है और उसे ही भोगता है -- ऐसा यह निश्चयनय का लक्षण है । और यह निश्चयनय द्रव्य-कर्मबन्ध के प्रतिपादक असद्भूत-व्यवहारनय की अपेक्षा शुद्ध-द्रव्य का निरूपण करने के स्वभाव-वाला विवक्षित निश्चयनय और उसीप्रकार अशुद्ध-निश्चय कहलाता है । आत्मा, द्रव्यकर्म को करता है और भोगता है -- ऐसे अशुद्ध-द्रव्य का निरूपण करने वाला असद्भूत-व्यवहारनय कहलाता है । इस- प्रकार यह दो नय हैं । परन्तु यहाँ निश्चयनय उपादेय है, असद्भूत व्यवहारनय उपादेय नही है ।
यहाँ प्रश्न है कि रागादि को, आत्मा करता है और भोगता है -- ऐसे लक्षणवाला निश्चय नय कहा; वह उपादेय कैसे है? इसका उत्तर कहते हैं -- रागादि को ही आत्मा करता है और द्रव्य-कर्म को नहीं करता है, रागादि ही बन्ध के कारण हैं -- ऐसा जब जीव जानता है, तब राग-द्वेष आदि विकल्प-जाल को छोड़कर रागादि के विनाश के लिये निज शुद्धात्मा की भावना करता है । और उससे रागादि का विनाश होता है, और रागादि का विनाश होने पर आत्मा शुद्ध होता है । इसलिये परम्परा से शुद्धात्मा का साधक होने के कारण यह अशुद्धनय भी उपचार से शुद्धनय कहलाता है, निश्चयनय कहलाता है, उसीप्रकार उपादेय कहलाता है -- ऐसा अभिप्राय है ॥२०२॥
इसप्रकार आत्मा अपने परिणामों का ही कर्ता है, द्रव्यकर्मों का नहीं है -- इस कथन की मुख्यता से सात गाथाओं द्वारा छठवाँ स्थल पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार '[अरसमरूवं...]' इत्यादि तीन गाथाओं द्वारा शुद्धात्मा का व्याख्यान किये जाने पर, अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्मों के साथ बन्ध कैसे होता है -- ऐसा जो शिष्य द्वारा कहा गया था, उसके परिहार के लिये नय- विभाग द्वारा बन्ध समर्थन की मुख्यता से ११ गाथाओं द्वारा ६ स्थलों में तीसरा विशेषान्तराधिकार समाप्त हुआ ।
अब, इससे आगे १२ गाथाओं तक चार स्थलों द्वारा शुद्धात्मानुभूति लक्षण अविशेष भेद-भावना रूप चूलिका का व्याख्यान करते हैं । वहीं शुद्धात्म-भावना की प्रधानता होने से '[ण चयदि जो दु ममत्तीं]' इत्यादि पाठक्रम से पहले स्थल में चार गाथायें हैं । उसके बाद शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप भावना के फल से दर्शन-मोह रूपी ग्रन्थि (गाँठ) का विनाश तथा चारित्र-मोहरूप ग्रन्थि का विनाश -- क्रम से उन दोनों का विनाश होता है -- इस कथन की मुख्यता से '[जो एवं जाणित्ता]' इत्यादि दूसरे स्थल में तीन गाथायें हैं । तत्पश्चात केवली के ध्यान का उपचार कथन-रूप से '[णिहदघणधादिकम्मो]' इत्यादि तीसरे स्थल में दो गाथायें हैं । तदनन्तर दर्शनाधिकार के उपसंहार की प्रधानता से 'एवं जिणा जिणिन्दा]' इत्यादि चौथे स्थल में दो गाथायें हैं । और तदुपरान्त '[दंसणसंसुद्धाणं]' इत्यादि एक नमस्कार गाथा है; इसप्रकार बारह गाथाओं द्वारा चार स्थल-रूप विशेषान्तराधिकार में सामूहिक पातनिका पूर्ण हुई ।
चतुर्थ विशेष-अंतराधिकार स्थल विभाजन | |||
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स्थल क्रम | प्रतिपादित विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ | कुल गाथाएँ |
प्रथम | शुद्धात्म-भावना की प्रधानता | 203 से 206 | 4 |
द्वितीय | शुद्धात्मोपलब्धि फल कथन | 207 से 209 | 3 |
तृतीय | केवली-भगवान के द्वारा ध्यान उपचार से | 210 व 211 | 2 |
चतुर्थ | दर्शनाधिकार के उपसंहार की प्रधानता | 212 व 213 | 2 |
कुल 4 स्थल | कुल 12 गाथाएँ |
[ण चयदि जो दु ममत्तिं] जो ममता को नहीं छोड़ता है । ममकार-अहंकार आदि सम्पूर्ण विभावों से रहित, परिपूर्ण निर्मल केवल-ज्ञान आदि अनन्त गुण स्वरूप अपने आत्म-पदार्थ की निश्चल अनुभूति लक्षण निश्चयनय से रहित होने के कारण, व्यवहार से हृदय को मोहित करता हुआ जो ममता--ममत्वभाव (आसक्ति भाव) को नहीं छोड़ता है । किस रूपवाले--कैसे ममत्व भाव को नहीं छोड़ता है -- किन विषयों में ऐसे ममत्व भाव को नहीं छोड़ता है? [देहदविणेसु] देह द्रव्यों में, शरीर में -- शरीर मैं हूँ -- इसप्रकार से और पर द्रव्यों में -- ये मेरे हैं -- इसप्रकार से, शरीर और पर द्रव्यों में ममत्व को नहीं छोड़ता है । [सो सामण्णं चत्त पडिवण्णो होदि उम्मग्गं] वह श्रामण्य को छोड़कर उन्मार्ग को प्राप्त होता है । वह पुरुष जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, निंदा-प्रशंसा आदि में परम मध्यस्थता--समताभाव लक्षण श्रामण्य- यतित्व-मुनिपना-चारित्र को दूर से (ही) छोड़कर उससे विपरीत उन्मार्ग -- मिथ्यामार्ग -- उल्टे मार्ग को प्राप्त होता है । और उन्मार्ग से संसार में घूमता है ।
इससे निश्चित हुआ कि अशुद्ध नय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ॥२०३॥
[णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति] मैं पर का नहीं हूँ और पर मेरा नहीं है -- इसप्रकार सम्पूर्ण चेतन-अचेतन पर द्रव्यों में, मन-वचन-शरीर और कृत-कारित-अनुमोदना द्वारा अपने आत्मा की अनुभूति लक्षण निश्चयनय के बल से, पहले स्व-स्वामी सम्बन्ध (ममत्व-परिणाम) को छोड़कर -- उसका निराकरण कर । पहले स्व-स्वामी सम्बन्ध छोड़कर बाद में क्या करता है ? [णाणमहमेक्को] मैं एक ज्ञान हूँ, 'परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान ही मैं हूँ और भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित होने के कारण मैं एक हूँ । [इदि जो झायदि] इसप्रकार से जो वह ध्यान करता है, चिन्तन करता है, भावना करता है । ऐसा ध्यान आदि वह कहाँ करता है? [झाणे] ऐसा वह, निज शुद्धात्मा के ध्यान में करता है, निज शुद्धात्मा के ध्यान में स्थित [सो अप्पाणं हवदि झादा] वह आत्मा का ध्याता होता है । वह, ज्ञानानन्द एक-स्वभावी परमात्मा का ध्यान करने वाला होता है । और इसलिये परमात्मा के ध्यान से उसके ही समान परमात्म दशा को प्राप्त करता है । उसके ध्यान से, वह वैसी दशा को क्यों प्राप्त करता है? 'उपादान कारण के समान कार्य होता है' -- ऐसा वचन होने से -- वह, उसके ध्यान से वैसी दशा को प्राप्त करता है ।
इससे ज्ञात होता है कि शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है ॥२०४॥
अब ध्रुवरूप होने से मैं शुद्धात्मा की ही भावना करता हूँ ऐसा विचार करते हैं -
'[मण्णे]' इत्यादि पद-खण्डना-रूप से व्याख्यान करते हैं -- [मण्णे] मानता हूँ, ध्याता हूँ, सभी प्रकार से उपादेय-रूप से भावना करता हूँ । ऐसा करने वाला वह कौन है ? [अहं] कर्ता-रूप मैं ऐसा करता हूँ । कर्मता को प्राप्त किसे मानता हूँ? [अप्पगं] सहज परमाह्लाद एक-लक्षण निजात्मा को मानता हूँ । वह आत्मा किस विशेषता वाला है? [सुद्धं] रागादि सम्पूर्ण विभावों से रहित शुद्ध है । वह और किस विशेषता वाला है ? [धुवं] टाँकी से उकेरे हुये के समान ज्ञायक एक स्वभाव-रूप होने से ध्रुव--अविनश्वर है । और भी वह कैसा है? [एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं] इसप्रकार पहले कहे हुये अनेक प्रकार से अखण्ड एक ज्ञान दर्शन स्वरूप है । और किस स्वरूपवाला? [अदिंदियं] अतीन्द्रिय है, मूर्त विनश्वर अनेक इन्द्रियों से रहित होने के कारण अमूर्त अविनश्वर एक अतीन्द्रिय स्वभाववाला है । और कैसा है? [महत्थं] मोक्ष लक्षण (नामक) महा-पुरुषार्थ का साधक होने से महार्थ है । और भी किस स्वभाव-वाला है? [अचलं] अतिचपल--चंचल मन-वचन-काय के व्यापार से रहित होने के कारण स्व-स्वरूप में निश्चल--स्थिर है । और भी किस विशेषता-वाला है? [अणालंबं] स्वाधीन द्रव्य-रूप होने से आलम्बन सहित भरित--अवस्थ रूप होने पर भी सम्पूर्ण पराधीन--परद्रव्यों के आलम्बन से रहित होने के कारण निरालम्बन स्वरूप है -- ऐसा अर्थ है ।
[ण संति धुवा] ध्रुव-अविनश्वर-नित्य नहीं हैं । किसके ध्रुव नहीं हैं? [जीवस्स] जीव के ध्रुव नहीं हैं । वे कौन धुव नहीं हैं? [देहा वा दविणा वा] शरीर अथवा द्रव्य आदि; सभी प्रकार से शुचिभूत-पवित्र, शरीर-रहित परमात्मा से विलक्षण, औदारिक आदि पाँच शरीर और उसी प्रकार पंचेन्द्रिय भोगोपभोग के साधक पर-द्रव्य ध्रुव नहीं है । शरीर आदि ही मात्र ध्रुव नहीं हैं -- ऐसा नहीं है, वरन् [सुहदुक्खा] विकार रहित परमानन्द एक लक्षण निजात्मा से उत्पन्न सुखरूपी अमृत से विलक्षण सांसारिक सुख-दुःख भी ध्रुव नहीं हैं । [अध] अहो । हे भव्यों ! [सततुमितजणा] शत्रु-मित्र आदि भाव से रहित आत्मा से भिन्न शत्रु और मित्र आदि जन भी ध्रुव नहीं हैं । यदि ये सब अध्रुव हैं तो ध्रुव क्या है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं -- [धुवो] ध्रुव-शाश्वत है । वह कौन ध्रुव है? [अप्पा] अपना आत्मा ध्रुव है । वह अपना आत्मा किस विशेषता वाला है? [उवओगप्पगो] तीन लोक-रूप उदर (पेट) के विवर (छिद्र) में स्थित सम्पूर्ण द्रव्य-गुण- पर्याय-रूप तीन काल के विषयों को एक साथ जानने में समर्थ ? केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन उगयोग स्वरूप है ।
इसप्रकार शरीर आदि सभी की अध्रुवता--अनित्यता जानकर ध्रुव-स्वभावी स्वात्मा की भावना करना चाहिये -- ऐसा तात्पर्य है ॥२०६॥
इसप्रकार अशुद्धनय से अशुद्धात्मा की प्राप्ति होती है -- इस कथनरूप से पहली गाथा शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है -- इस कथनरूप से दूसरी गाथा, ध्रुवता-नित्यता के कारण,आत्मा ही भावना करने योग्य है -- इस कथन रूप से तीसरी गाथा और आत्मा से भिन्न अध्रुव (संयोगादि) भावना करने योग्य नहीं हैं -- इस कथन रूप से चौथी -- इस प्रकार शुद्धात्मा के विशेष कथन की मुख्यता से पहले स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुई ।
[झादि] ध्यान करता है [जो] कर्तारूप जो । किसका ध्यान करता है? [अप्पगं] निजात्मा का ध्यान करता है । कैसे निजात्मा का ध्यान करता है? [परं] परम, अनन्त-ज्ञानादि गुणों का आधार होने से परम-उत्कृष्ट निजात्मा का ध्यान करता है । पहले क्या करके उसका ध्यान करता है? [एवं जाणित्ता] इस- प्रकार पहले (२०३ से २०६ गाथा पर्यन्त) कही गई पद्धति-रूप निजात्मा की प्राप्ति लक्षण स्व-संवदेन ज्ञान से निजात्मा को जानकर फिर उसका ध्यान करता है । वह कैसा होता हुआ उसका ध्यान करता है? [विशुद्धप्पा] ख्याति, पूजा, लाभ आदि सम्पूर्ण इच्छा समूहों से रहित होने के कारण विशुद्धात्मा होता हुआ उसका ध्यान करता है । और भी कैसा है? [सागारोऽणगारो] सागार-अनागार है । अथवा साकार-अनाकार है । जो आकार अर्थात् विकल्प के साथ वर्तता है वह साकार-आकार सहित ज्ञानोपयोग है, अनाकार-विकल्प रहित दर्शनोपयोग -- उन दोनों से सहित साकार-अनाकार है । अथवा साकार अर्थात् सविकल्प गृहस्थ, अनाकार अर्थात् निर्विकल्प मुनिराज । अथवा साकार अर्थात् लिंग--चिन्हरूप से जो वर्तते हैं वे आकार सहित--साकार यति-मुनि हैं और अनाकार अर्थात् चिन्ह रहित गृहस्थ हैं । [खवेदि सो मोहदुग्गंठि] जो इन गुणों से सहित है, वह मोहरूपी दुर्ग्रंथि--बुरी गाँठ का क्षय करता है । मोह ही दुर्ग्रंथि-मोह दुर्ग्रंथि (इसप्रकार कर्मधारय समास किया) शुद्धात्मा की रुचि का प्रतिबन्धक (रोकने वाला) दर्शनमोह, उसे नष्ट करता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि मोह-रूपी ग्रन्थि का विनाश ही, आत्मोपलब्धि का फल है ॥२०७॥
[जो णिहदमोहगंठी] जो पहले (२०७वीं) गाथा में कही हुई पद्धति से दर्शन-मोह रूपी ग्रन्थि से रहित होकर [रागपदोसे खवीय] निज-शुद्धात्मा में निश्चल अनुभूति लक्षण वीतराग-चरित्र को रोकने वाले चारित्र-मोह नामक राग-द्वेष का क्षयकर । कहाँ राग-द्वेष का क्षय कर? [सामण्णे] स्व-स्वभाव (की प्रगटता) लक्षण श्रामण्य में उनका क्षय-कर । और भी क्या करके? [होज्जं] होकर । किस विशेषता वाला होकर? [समसुहदुक्खो] स्व-शुद्धात्मा के संवेदन से उत्पन्न, रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित, परम सुखरूपी अमृत के अनुभव से, सांसारिक सुख-दुःख से उत्पन्न हर्ष-विषाद रहित होने के कारण सुख-दुख में समता-भाव वाला होता है । [सो सोक्खं अक्खयं लहदि] वह इन गुणों से विशिष्ट भेद-ज्ञानी, अक्षय-सौख्य को प्राप्त करता है ।
इससे ज्ञात होता है कि दर्शनमोह के क्षय के पश्चात चारित्र-मोहरूप राग-द्वेष का विनाश होता है और उससे सुख-दुःख आदि में माध्यस्थ्य लक्षण श्रामण्य-मुनिपने में अवस्थान होता है उससे अक्षय-सुख की प्राप्ति होती है ॥२०८॥
[जो खविदमोहकलुसो] जो मोह-कलुषता के क्षय से सहित है, मोह अर्थात दर्शन-मोह, कलुष अर्थात चारित्र-मोह पहले (२०७ और २०८ वीं) गाथा में कहे गये क्रम से, जिसके द्वारा मोह और कलुषता का क्षय किया गया है, वह मोह और कलुष का क्षय करने वाला है । वह और किस विशेषता वाला है? [विसयविरत्ते] मोह और कलुष रहित अपने आत्मा की अनुभूति से, अच्छी तरह उत्पन्न सुखरूपी अमृत-रस के आस्वाद के बल से कलुष और मोह के उदय से उत्पन्न विषय-सुख की आकांक्षा से रहित होने के कारण, विषयों से विरक्त है । और कैसा है? [समवट्ठिदो] अच्छी तरह अवस्थित है । अच्छी तरह कहाँ अवस्थित है? [सहावे] अपने परमात्म-द्रव्यरूप स्वभाव में अवस्थित है । पहले क्या करके स्वभाव में अवस्थित है? [मणो णिरुंभित्त] विषय-कषाय से उत्पन्न विकल्प-समूह रूप मन को रोककर--निश्चलकर स्वभाव में अवस्थित है । [सो अप्पाणं हवदि झादा] वह इन गुणों से सहित पुरुष अपने आत्मा को ध्याता है । उसी शुद्धात्मा के ध्यान से आत्यन्तिकी (हमेशा-हमेशा के लिये परिपूर्ण) मुक्ति लक्षण शुद्धि को प्राप्त होता है ।
इससे निश्चित हुआ कि शुद्धात्मा के ध्यान से जीव विशुद्ध होता है ।
दूसरी बात यह है कि ध्यान से वास्तव में आत्मा शुद्ध होता है इस (ध्यान के) विषय में चार प्रकार से विशेष कथन करते हैं । वह इसप्रकार --
ध्यान, ध्यान-सन्तान, उसीप्रकार ध्यान-चिन्ता और ध्यान का अन्वयसूचन । वहाँ एकाग्र चिन्ता निरोध -- एक अग्र-विषय में चिन्ता का रुक जाना ध्यान है, और वह ध्यान शुद्ध-अशुद्ध रूप से दो प्रकार का होता है ।
अब ध्यान सन्तान कहते हैं -- जहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ध्यान है फिर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तत्व की चिंता--तत्त्व-चिन्तन है, फिर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ध्यान और फिर तत्व-चिन्तन -- इसप्रकार प्रमत्त-अप्रमत्त (छठवें-सातवें) गुणस्थान के समान अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने पर जो परिवर्तन है, वह ध्यान-सन्तान -- ध्यान की परम्परा कही जाती है । और वह धर्म्य-ध्यान सम्बन्धी है । शुक्लध्यान तो उपशमश्रेणी या क्षपक-श्रेणी के आरोहण--पर- चढ़ने पर होता है । वहाँ समय कम होने से परिवर्तन रूप ध्यान-सन्तान घटित नहीं होती है ।
अब ध्यान-चिन्ता कही जाती है -- जहाँ ध्यान सन्तान के समान ध्यान का परिवर्तन नहीं है, ध्यान सम्बन्धी चिंता--चिन्तन है, वहाँ यद्यपि किसी समय ध्यान करता है, तथापि वह ध्यान-चिन्ता कहलाती है ।
अब ध्यानान्वयसूचन कहा जाता है -- जहाँ ध्यान की सामग्री-भूत बारह-अनुप्रेक्षा अथवा ध्यान सम्बन्धी अन्य संवेग-वैराग्य रूप वचन अथवा विशेष कथन है, वह ध्यानान्वयसूचन है ।
अथवा और दूसरे चार प्रकार से ध्यान का व्याख्यान होता है -- ध्याता, ध्यान, ध्यान का फल और ध्येय । अथवा आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल भेद से चार प्रकार रूप ध्यान का विशेष कथन किया जाता है, वह दूसरी जगह कहा गया है ॥२०९॥
इसप्रकार
- आत्मा के परिज्ञान से दर्शनमोह का क्षय होता है -- इस कथनरूप पहली गाथा
- दर्शन-मोह के क्षय से चारित्र-मोह का क्षय होता है -- इस कथन-रूप दूसरी गाथा और
- उन दोनों के क्षय से मोक्ष होता है -- इस प्रतिपादन-रूप तीसरी
[णिहदघणघादिकम्मो] पहले (२०९ वीं) गाथा में कहे गये निश्चल निज परमात्म-तत्त्व में परिणति-रूप शुद्ध ध्यान द्वारा घनरूप घाति कर्मों को नष्ट करने वाले । [पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू] जैसे प्रत्यक्ष होता है, वैसे सभी पदार्थों तत्त्वों को जानने वाले--सभी पदार्थों को पूर्ण-रूप से जानने के स्वरूप-वाले । [ णेयंतगदो] ज्ञेयों के अन्त को प्राप्त--जानने की अपेक्षा ज्ञेय-भूत पदार्थों के पार को प्राप्त (सभी को जानने वाले) । इसप्रकार तीन विशेषणों से सहित [समणो] जीवन-मरण आदि में समभाव-रूप से परिणत आत्म- स्वरूप श्रमण--महाश्रमण--सर्वज्ञ--केवली भगवान [झादि कमट्ठं] किस पदार्थ का ध्यान करते हैं ? ऐसा प्रश्न है । अथवा किस पदार्थ का ध्यान करते हैं ? किसी भी पदार्थ का ध्यान नहीं करते -- ऐसा आक्षेप है । वे सर्वज्ञ कैसे होते हुए किसी का भी ध्यान नहीं करते ? [असंदेहो] वे सन्देह रहित--संशय आदि दोषों से रहित होते हुए किसी का भी ध्यान नहीं करते हैं ।
यहाँ अर्थ यह है -- जैसे कोई भी देवदत्त, विषय-सुख की प्राप्ति के लिये, विद्या की आराधना-रूप ध्यान करता है; जब विद्या सिद्ध हो जाती है और उसके फल-स्वरूप विषय-सुख प्राप्त हो जाता है, तब उसकी आराधना-रूप ध्यान नहीं करता है; उसी प्रकार ये भगवान भी केवलज्ञान-रूपी विद्या की प्राप्ति के लिये और उसके फल-स्वरूप अनन्त-सुख की प्राप्ति के लिये पहले छद्मस्थ दशा में शुद्धात्मा की भावना (तद्रूप परिणमन) रूप ध्यान करते थे, अब उस ध्यान से केवलज्ञान रूपी विद्या सिद्ध हो गई है, तथा उसके फल-स्वरूप अनन्त-सुख भी प्रगट हो गया है, तब वे किसलिये अथवा किस पदार्थ का ध्यान करते हैं ? ऐसा प्रश्न अथवा आक्षेप है ।
इस प्रश्न अथवा आक्षेप का दूसरा कारण भी है -- पदार्थ के परोक्ष होने पर ध्यान होता है, केवली-भगवान के सभी पदार्थ प्रत्यक्ष हैं तब ध्यान कैसे करते हैं?
इस प्रकार पूर्व-पक्ष की अपेक्षा एक गाथा पूर्ण हुई ॥२१०॥
[झादि] ध्यान करते हैं -- एकाकार समरसी भाव से परिणमन करते हैं - अनुभव करते हैं । ध्यान करने रूप क्रिया के कर्ता वे कौन हैं ? वे भगवान ध्यान करने रूप क्रिया के कर्ता हैं । वे किसका ध्यान करते हैं ? [सौक्खं] वे सौख्य का ध्यान करते हैं । वह सौख्य किस विशेषता वाला है ? [परं] वह सौख्य उत्कृष्ट सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों में आह्लाद को उत्पन्न करने वाला परम अनन्त सुख-रूप है । ऐसे सुख का ध्यान वे किस प्रसंग में -- किस समय करते हैं ? जिस ही क्षण में [भूदो] अच्छी तरह से उत्पन्न हुए हैं तब से ही वे उस सुख का ध्यान करते हैं । वे किस विशेषता रूप से उत्पन्न हुए हैं ? [अक्खातीदो] अक्षातीत--इन्द्रिय रहित हुए हैं । मात्र स्वयं ही इन्द्रिय रहित हैं इतना ही नहीं वरन दूसरों को भी [अणक्खो] अनक्ष--इन्द्रियों के विषय नहीं हैं -- ऐसा अर्थ है । और भी किस विशेषता वाले हुए हैं ? [सव्वाबाधविजुत्ते] इस शब्द में प्राकृत भाषा के लक्षण (व्याकरण) के माध्यम से 'बाधा' शब्द का हस्व 'बाध' शब्द बना है, मूल शब्द '[सर्वबाधावियुक्त:]' है । आ-समन्तात सभी ओर से बाधा-पीड़ा आबाधा है, सम्पूर्ण और वे आबाधा सर्वाबाधा (इसप्रकार कर्मधारय समास किया है), उनसे रहित सर्वबाधा-वियुक्त (इसप्रकार तृतीया तत्पुरुष- समास किया) अर्थात् वे सम्पूर्ण बाधाओं से रहित हुए हैं । और वे किस रूप हुए हैं ? [समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो] समन्तत:--पूर्णरूप से स्पर्शन आदि सभी इन्द्रियों सम्बन्धी सौख्य और ज्ञान से समृद्ध हैं । अथवा समन्तत:--सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों से स्पर्शनादि सभी इन्द्रियों सम्बन्धी जो ज्ञान और सौख्य दोनों--उनसे आढ्य--परिपूर्ण हैं -- ऐसा अर्थ है ।
वह इस प्रकार -- ये भगवान निश्चय रत्न-त्रय स्वरूप कारण-समयसार के बल से, एकदेश प्रकट सांसारिक ज्ञान और सुख की कारणभूत तथा सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों से उत्पन्न स्वाभाविक अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख से नष्ट करनेवाली, उन इन्द्रियों का अतिक्रमण करते हैं -- विनाश करते हैं, तब उसी समय सम्पूर्ण बाधाओं से रहित होते हुए अतीन्द्रिय अनन्त आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सुख का ध्यान करते हैं -- अनुभव करते हैं -- उसरूप परिणमन करते हैं ।
इससे ज्ञात होता है कि केवली के, अन्य विषय में चिन्ता का निरोध लक्षण ध्यान नहीं है, किन्तु इस ही परमसुख के अनुभव को अथवा ध्यान के कार्यभूत कर्मों की निर्जरा को देखकर, ध्यान शब्द से उपचरित किये जाते हैं । और जो सयोग केवली के तीसरा शुक्ल-ध्यान तथा अयोग-केवली के चौथा शुक्ल-ध्यान होता है -- ऐसा कथन है वह उपचार से जानना चाहिये ऐसा गाथा का अभिप्राय है ॥२११॥
इसप्रकार केवली भगवान किसका ध्यान करते हैं -- इस प्रश्न की मुख्यता से पहली गाथा तथा परम- सुख का ध्यान-अनुभव करते हैं -- इसप्रकार परिहार की मुख्यता से दूसरी गाथा इसप्रकार ध्यान सम्बन्धी पूर्वपक्ष और परिहार की अपेक्षा तीसरे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।
[जादा] हुए हैं । कैसे हुए हैं ? [सिद्धा] सिद्ध-परमेष्ठी--मुक्तात्मा--मुक्तावस्था-रूप हुए हैं -- ऐसा अर्थ है । कर्ता-रूप कौन सिद्ध हुए हैं ? [जीणा] जिन--अनागार केवली सिद्ध हुए हैं । [जिणिंदा] मात्र केवली जिन ही सिद्ध नहीं हुये हैं, वरन् जिनेन्द्र--तीर्थंकर परमदेव भी सिद्ध हुए हैं । ये सभी कैसे होते हुए सिद्ध हुये हैं ? [मग्गं समुट्टिदा] अपने परमात्म-तत्त्व की अनुभूति मोक्षमार्ग में आरूढ़--मोक्षमार्ग का आश्रय लेते हुए सिद्ध हुए हैं । कैसे मोक्षमार्ग का आश्रय लेते सिद्ध हुए हैं ? पहले अनेक प्रकार से कहे मोक्षमार्ग का, आश्रय लेते हुए सिद्ध हैं । मात्र केवली और तीर्थंकर ही इस मार्ग से सिद्ध नहीं हुए हैं वरन्, [समणा] सुख-दुःख आदि में समता-भाव से परिणत आत्म-तत्त्व लक्षण-युक्त शेष अचरम शरीरी श्रमण -- उसी भव से मुक्त नहीं होने वाले अन्य मुनिराज भी (बाद मे) इसी मार्ग से सिद्ध हुए हैं ।
अचरम शरीरियों को -- उसी भव में मोक्ष नहीं जाने वालों को सिद्धपना कैसे संभव है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं --
'तप से सिद्ध, नय से सिद्ध, संयम से सिद्ध, चारित्र से सिद्ध, ज्ञान-दर्शन से सिद्ध हुए सिद्ध भगवंतों को मैं मस्तक झुका-कर नमस्कार करता हूँ ।'
इसप्रकार गाथा में कहे गये क्रम से एक-देश सिद्धता, अचरम शरीरी जीवों के भी मानी गई है ।
[णमोत्थु तेसिं] उन्हें नमस्कार हो । उन्हें मेरा अनन्त-ज्ञानादि सिद्ध-गुणों के स्मरण-रूप भाव नमस्कार हो, [तस्स य णिव्वाणमग्गस्स] तथा विकार रहित, स्व-सम्वित्ति -- अपने आत्म-स्वरूप में लीनता लक्षण निश्चय-रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग को मेरा नमस्कार हो ।
इससे यह निश्चित हुआ कि यही मोक्षमार्ग है; दूसरा कोई मोक्षमार्ग नहीं है ॥२१२॥
अब 'उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती मैं साम्य का आश्रय ग्रहण करता हूँ जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है' -- इत्यादि पहले की गई प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए, स्वयं भी मोक्ष-मार्ग रूप परिणति को स्वीकार करते हैं, ऐसा प्रतिपादन करते हैं --
[तम्हा] यत: पहले कहे हुये शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण मोक्षमार्ग से सामान्य-केवली, तीर्थंकर-केवली और मुनिराज सिद्ध हुये हैं ? इसलिये मैं भी [तह] वैसे ही उसी-प्रकार [जाणित्ता] जानकर । उसीप्रकार किसे जानकर ? [अप्पाणं] निज परमात्मा को उसीप्रकार जानकर । किस विशेषता वाले निज परमात्मा को जानकर ? [जाणगं] ज्ञायक--केवल-ज्ञान आदि अनन्त-गुण स्वभाव-वाले निज-परमात्मा को जानकर । उसे किसके द्वारा जानकर ? [सभावेण] सम्पूर्ण रागादि विभावों से रहित, शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव द्वारा ज्ञायक स्वभावी अपने परमात्मा को जानकर । जानने के बाद मैं क्या करता हूँ ? [परिवज्जामि] परि-समन्तात्--सब तरह से पूर्णरूप से, मैं छोड़ता हूँ । पूर्ण-रूप से किसे छोड़ता हूँ ? [ममत्तिं] सम्पूर्ण चेतन, अचेतन और मिश्र-रूप पर-द्रव्य सम्बन्धी ममता को, छोड़ता हूँ । कैसा होता हुआ मैं उसे छोड़ता हूँ ? [उवट्ठिदो] उपस्थित-- परिणमित होता हुआ, मैं उसे छोड़ता हूँ । कहाँ उपस्थित होता हुआ मैं उसे छोड़ता हूँ ? [णिम्ममत्तम्हि] सम्पूर्ण पर-द्रव्य सम्बन्धी ममकार-अहंकर से रहित होने के कारण, निर्ममत्व लक्षण परम-साम्य नामक वीतराग- चारित्र में अथवा उस वीतराग-चारित्र रूप परिणत निज शुद्धात्म स्वरूप में उपस्थित होता हुआ, मैं उसे छोड़ता हूँ ।
वह इसप्रकार, प्रथम तो मैं केवल-ज्ञान-दर्शन स्वभाव-रूप होने से, ज्ञायक एक टंकोत्कीर्ण स्वभाव हूँ । ऐसा होते हुए मेरा पर-द्रव्यों के साथ स्व-स्वामी आदि सम्बन्ध नहीं है, इतना मात्र ही नहीं है अपितु, निश्चय से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी नहीं है । इस कारण मैं सम्पूर्ण पर-द्रव्यों के प्रति ममत्व रहित होकर, परम-साम्य लक्षण अपने शुद्धात्मा में स्थित रहता हूँ ।
विशेष यह है कि 'उवसंपयामि सम्मं मैं साम्य का आश्रय ग्रहण करता हूँ' इत्यादि अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए स्वयं भी मोक्षमार्ग परिणति को स्वीकार करते हैं, ऐसा जो गाथा की पातनिका के प्रारम्भ में कहा था, उससे क्या कहा गया है ? (इस कथन का तात्पर्य यह है कि) जो उस प्रतिज्ञा को ग्रहण कर सिद्ध-मुक्तावस्था को प्राप्त हुए हैं, उनके द्वारा ही वह प्रतिज्ञा वस्तु-वृत्ति से -- वास्तव में पूर्ण की गई है । तथा 'कुंद-कुंद-आचार्य-देव' द्वारा ज्ञानाधिकर और दर्शनाधिकार -- इन दो अधिकार-रूप ग्रन्थ की समाप्ति रूप से वह समाप्त की गई है, और शिवकुमार महाराज द्वारा तो उस ग्रन्थ को सुनने रूप से, यह प्रतिज्ञा पूर्ण की गई है । इन रूपों में इनकी प्रतिज्ञा क्यों हुई है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो 'आचार्य' उत्तर देते हैं कि जो सिद्ध हुये हैं उनकी ये प्रतिज्ञा पूर्ण हुई, परन्तु उन 'कुंद-कुंद-आचार्य-देव' और 'शिवकुमार' महाराज की प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं हुई है । उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण क्यों नहीं हुई? चरम देहपने का -- उसी भव से मोक्ष जाने का अभाव होने से, उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं हुई है ॥२१३॥
इसप्रकर ज्ञानाधिकार और दर्शनाधिकार की पूर्णता-रूप से अन्तिम चौथे-स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुईं ।
इसप्रकार स्व-शुद्धात्मा की भावना-रूप मोक्षमार्ग द्वारा जो सिद्धि को प्राप्त हुए हैं और जो उसके आराधक हैं, उन्हें दर्शनाधिकार की अपेक्षा अन्तिम मंगल के लिए तथा ग्रन्थ की अपेक्षा मध्य मंगल के लिये, उस पद के अभिलाषी होकर नमस्कार करते हैं --
[णमो णमो] नमस्कार हो-नमस्कार हो । बारम्बार नमस्कार करता हूँ -- इसप्रकार भक्ति की अधिकता दिखाई है । किन्हें नमस्कार हो ? [सिद्धसाहूणं] सिद्ध, साधुओं को नमस्कार हो । सिद्ध शब्द से वाच्य अपने आत्मा की उपलब्धि लक्षण अरहन्त और सिद्धों को तथा साधु शब्द से वाच्य सिद्ध दशा को साधने वाले आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कर हो । और भी किस विशेषता वालों को नमस्कार हो ? [दंसणसंसुद्धाणं] तीन मूढ़ता आदि २५ दोषों से रहित, सम्यग्दर्शन से संशुद्ध जीवों को नमस्कार हो । और भी किस विशेषता वालों को नमस्कार हो ? [सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं] संशय आदि दोषों से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, उसका उपयोग सम्यग्ज्ञानोपयोग है, योग अर्थात् विकल्प-रहित समाधि स्वरूप-लीनता-रूप वीतराग-चारित्र ऐसा अर्थ है, उनसे सहित सम्यग्ज्ञानोपयोग से सहित, उनके लिये (इसप्रकार षष्ठी तत्पुरुष, तृतीया तत्पुरुष तथा चतुर्थी तत्पुरुष समास द्वारा विश्लेषण किया गया है) उन्हें नमस्कर हो । और भी किस स्वरूप-वालों को नमस्कर हो? [अव्वाबाधरदाणं] सम्यग्ज्ञान आदि रूप भावना से उत्पन्न अव्याबाध-बाधा-रहित और अनन्त सुख में लीन जीवों को नमस्कर हो ।
इसप्रकार नमस्कार गाथा सहित चार स्थलों द्वारा चौथा विशेषान्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार 'अत्थित्तणिच्छिदस्स हि' इत्यादि ग्यारह गाथाओं तक शुभोपयोग, अशुभोपयोग, शुद्धोपयोग इन तीन की मुख्यता से पहला विशेषान्तराधिकार, उसके बाद 'अपदेसो परमाणु पदेसमेत्तो य' इत्यादि नौ गाथाओं तक पुद्गलों के परस्पर बन्ध की मुख्यता से दूसरा विशेषान्तराधिकार तदुपरान्त 'अरसमरूवं' इत्यादि ११ गाथाओं तक पुद्गल कर्म के साथ जीव के बन्ध की मुख्यता से तीसरा विशेषान्तराधिकार और तत्पश्चात् 'ण चयदि जो ममत्ति' इत्यादि बारह गाथाओं तक विशेष भेद-भावना चूलिका व्याख्यान-रूप चौथा विशेषान्तराधिकार -- इसप्रकार ५१ गाथाओं द्वारा चार विशेषान्तराधिकार रूप से विशेष भेद-भावना नामक चौथा अधिकार पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार 'श्री जयसेनाचार्य' कृत 'तात्पर्यवृत्ति' में 'तम्हा तस्स णमाइं' इत्यादि ३५ गाथाओं तक सामान्य ज्ञेय व्याख्यान, तदुपरान्त 'दव्यं जीवं' इत्यादि ११ गाथाओं तक जीव्-पुद्गल-धर्मादि भेद से विशेष ज्ञेय-व्याख्यान, तत्पश्चात् 'सपदेसेहिं समग्गो' इत्यादि आठ गाथाओं तक सामान्य भेद-भावना अधिकार और उसके बाद 'अत्थित्तणिच्छिदस्स हि' इत्यादि ५१ गाथाओं तक विशेष भेद-भावना-अधिकार -- इसप्रकार चार अधिकारों से ११३ गाथाओं द्वारा 'सम्यग्दर्शन अधिकार' अपर नाम 'ज्ञेयाधिकार' नामक दूसरा महाधिकार पूर्ण हुआ ।
कार्य की अपेक्षा यहाँ (२१४ वीं गाथा की पूर्णता पर) ही ग्रन्थ पूरा हो गया है -- ऐसा जानना चाहिये । ऐसा क्यों जानना चाहिये? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- 'उवसंपयामि सम्मं' साम्य का आश्रय ग्रहण करता हूँ -- इस प्रतिज्ञा की पूर्णता हो जाने से, यहाँ ही ग्रन्थ की पूर्णता जानना चाहिये ।
इससे आगे यथाक्रम से ९७ गाथांओं तक चूलिकारूप से चारित्राधिकार का व्याख्यान प्रारम्भ होता है । वहाँ सबसे पहले उत्सर्गरूप से चारित्र का संक्षिप्त व्याख्यान है। उसके बाद अपवादरूप से उस चारित्र का विस्तृत व्याख्यान है। तत्पश्चात् श्रामण्य अपरनाम मोक्षमार्ग का व्याख्यान है । तथा तदुपरान्त शुभोपयोग का व्याख्यान है -- इसप्रकार चार अन्तराधिकार हैं ।
चारित्राधिकार अपरनाम चरणानुयोग सूचक चूलिका का अन्तराधिकार विभाजन | |||
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अंतराधिकार क्रम | प्रतिपादित विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ | कुल गाथाएँ |
प्रथम | उत्सर्ग रूप से चारित्र का संक्षिप्त व्याख्यान | 215 से 235 | 21 |
द्वितीय | अपवादरूप से चारित्र का विस्तृत व्याख्यान | 236 से 265 | 30 |
तृतीय | मोक्षमार्ग का व्याख्यान | 266 से 279 | 14 |
चतुर्थ | शुभोपयोग व्याख्यान | 280 से 311 | 32 |
कुल 4 अंतराधिकार | कुल 97 गाथाएँ |
उनमें से भी पहले अन्तराधिकार में पाँच स्थल हैं ।
- एवं पणमिय सिद्धे - इत्यादि सात गाथाओं द्वारा दीक्षा के सम्मुख पुरुष सम्बन्धी दीक्षा की पद्धति कथन की मुख्यता से पहला स्थल है।
- तत्पश्चात् वदसमिरदिंदिय - इत्यादि मूलगुणों के कथनरूप से दूसरे स्थल में दो गाथायें हैं ।
- इसके बाद गुरु सम्बन्धी व्यवस्था बताने के लिये लिंगग्गहणे इत्यादि एक गाथा, वैसे ही प्रायश्चित्त सम्बन्धी कथन की मुख्यता से पयदम्हि - इत्यादि दो गाथायें - इसप्रकार सामूहिकरूप से तीसरे स्थल में तीन गाथायें हैं ।
- उसके बाद आचार आदि शास्त्रों (चरणनुयोग के ग्रन्थों) में कहे गये क्रम से मुनिराज का संक्षेप में समाचार कथन के लिये अधिवासे व-- इत्यादि चौथे स्थल में तीन गाथायें हैं ।
- तथा तदुपरान्त भावहिंसा-द्रव्यहिंसा के निराकरण के लिए अपयत्ता वा चरिया -- इत्यादि पाँचवे स्थल में छह गाथायें हैं। इसप्रकार 21 गथाओं द्वारा पाँच स्थलरूप से पहले अन्तराधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।
चारित्राधिकार के प्रथम अन्तराधिकार का स्थल विभाजन स्थल क्रम प्रतिपादित विषय कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ कुल गाथाएँ प्रथम दीक्षाभिमुख पुरुष का दीक्षा विधान कथन 215 से 221 7 द्वितीय मूलगुण कथन 222 व 223 2 तृतीय गुरु व्यवस्था एवं प्रायश्चित्त कथन 224 से 226 3 चतुर्थ मुनिराज संबंधी संक्षिप्त समाचार कथन 227 से 229 3 पंचम भावहिंसा-द्रव्यहिंसा निराकरण 230 से 235 6 कुल 5 स्थल कुल 21 गाथाएँ अब, आसन्न-भव्य जीवों को चारित्र में प्रेरित करते हैं --
[पडिवज्जदु]स्वीकार करें - ग्रहण करें । किसे ग्रहण करें । [सामण्णं] श्रामण्य- चारित्र को ग्रहण करें । यदि क्या चाहते हैं तो ग्रहण करें । [इच्छदि जदिदुक्खपरिमोक्खं] यदि दुःख से पूर्ण मुक्ति चाहते हैं तो उसे स्वीकार करें । स्वीकार करने रूप कर्ता वह कौन है? दूसरों के आत्मा उसे स्वीकार करें । वे उसे कैसे स्वीकार करें? [एवं ] इसप्रकार पहले कहे गये अनुसार ['एस सुरासुरमणुसिंद'] इत्यादि पाँच गाथाओं द्वारा पंच परमेष्ठियों को नमस्कार कर, दुख से छूटने के इच्छुक मैने स्वयं अथवा पहले कहे गये अन्य भव्यों ने, जैसे उस चारित्र को स्वीकार किया है, वैसा स्वीकार करें । वे पहले क्या करके उसे स्वीकार करें? [पणमिय] वे प्रणाम कर उसे स्वीकार करें । किन्हें प्रणाम कर उसे स्वीकार करें? [सिद्धे] अञ्जन पादुका आदि की सिद्धि से विलक्षण अपने आत्मा की पूर्ण उपलब्धि रूप सिद्धि से सहित सिद्धों को, [जिणवरवसहे ] सासादन गुणस्थान से प्रारम्भकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त (के जीव) एकदेश जिन कहलाते हैं और शेष अनागार केवली जिनवर कहलाते हैं तथा तीर्थंकर परमदेव जिनवरवृषभ हैं, उन जिनवरवृषभों को प्रणाम कर । मात्र सिद्धों और जिनवरवृषभों को ही प्रणाम कर नहीं, अपितु [पुणो पुणो समणे] चैतन्य चमत्कार मात्र अपने आत्मा सम्बन्धी सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आचरण के प्रतिपादन में और साधने में प्रयत्नशील श्रमण शब्द से वाव्य आचार्य-उपाध्याय और साधुओं को बारम्बार प्रणाम कर स्वीकार करें ।
विशेष यह है कि पहले ग्रंथ प्रारंभ करते समय 'साम्य का आश्रय लेता हूं - इसप्रकार शिवकुमार महाराज प्रतिज्ञा करते हैं' एसा कहा था और अब मेरी आत्मा चारित्र को प्राप्त करती है (एसा कहा); वह पहले और अभी के कथन में विरोध है । आचार्य उसका निराकरण करते हुए कहते हैं - ग्रन्थ प्रारम्भ करने के पहले से ही दीक्षा ग्रहण करनेवाले जीव की अपेक्षा, मैं साम्य का आश्रय हूँ - ऐसा कहा था; किंतु यहाँ ग्रन्थ करने के माध्यम से (चारित्र रूप) भावना परिणत किसी भी आत्मा को दिखाते है अर्थात किसी भी शिवकुमार महाराज को अथवा दूसरे किसी भी भव्य जीव को चारित्र स्वीकार करते हुये दिखाते हैं । इसकारण इस ग्रन्थ में पुरुष का नियम नहीं है, काल का नियम नहीं है - ऐसा अभिप्राय है ।
[आपिच्छ] पूछकर । किसे पूछकर ? [बंधुवग्गं] बंधु समूह को - गोत्र वालों को पूछकर । उसके बाद कैसा होता है ? [विमोचिदो] विमोचित - त्यक्त होता है - छूटता है । किन कर्ताओं से छूटता है ? [गुरुकलत्तपुत्तेहिं] पिता, माता, स्त्री, पुत्रों से छूटता है । और भी क्या करके श्रमण होगा ? [असिज्ज] आश्रयकर श्रमण होगा । किसका आश्रयकर श्रमण होगा ? [णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं] ज्ञानाचार , दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार का आश्रय लेकर श्रमण होगा ।
अब इसका विस्तार करते हैं - अहो! बन्धु समूह, पिता, माता, स्त्री, पुत्र - यह मेरा आत्मा, अब प्रगट उत्कृष्ट भेदज्ञान ज्योतिवाला होता हुआ, निश्चयनय से अनादि बन्धु वर्ग पिता-माता, स्त्री, पुत्र रूप अपने ज्ञानानन्द एक स्वभावी परमात्मा का ही आश्रय लेता है, इस कारण तुम सब मुझे छोड़ो इसप्रकार क्षमाभाव करता है । उसके बाद और क्या करता है ? उत्कृष्ट चैतन्यमात्र अपने आत्मतत्त्व को सभी प्रकार से उपादेय रूप - ग्रहण करनेवाली (माननेवाली) रुचि, उसकी ही जानकारी और उसकी ही निश्चल अनुभूतिरूप दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, परद्रव्यों सम्बन्धी इच्छाओं से निवृत्ति लक्षण तपश्चरण - तपाचार और अपनी शक्ति को नहीं छिपाना - वीर्याचार इस रूप निश्चय पंचाचार तथा आचार आदि चरणानुयोग के ग्रन्थों में कहे गये उन निश्चय पंचाचार के साधक व्यवहार पंचाचार का आश्रय करता है - ऐसा अर्थ है ।
यहाँ जो गोत्र आदि के साथ क्षमाभाव का व्याख्यान किया है, वह अतिप्रसंग - अमर्यादा के निषेध के लिये किया है । वहाँ (क्षमाभाव का) नियम नहीं है । क्षमाभाव का नियम क्यों नहीं है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है - प्राचीन काल में अधिकतर भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि राजा जिन-दीक्षा ही ग्रहण करते हैं उनके परिवार में जब कोई भी मिथ्यादृष्टि होता है तब धर्म पर उपसर्ग करता है । और यदि कोई ऐसा मानता है कि गोत्र को प्रसन्नकर बाद में तपश्चरण करता हूँ, तो अधिकतर उसका यह तपश्चरण ही नहीं है; किसी भी प्रकार तपश्चरण ग्रहण करने पर भी, यदि गोत्र आदि में ममकार करता है, तो वह तपोधन (मुनि) ही नहीं है । वैसा ही कहा है - 'जो पहले सम्पूर्ण नगर व राज्य को छोड़कर बाद में ममत्व करता है, वह लिंगधारी (मुनि) विशेषरूप से संयम के सार से निस्सार (रहित) है ।'
[समणं] निन्दा प्रशंसा आदि में समान हृदयी-समता भाववाले होने से पहले (२१६ वी) गाथा में कहे गये निश्चय पंचाचार और व्यवहार पंचाचार का आचरण करने और कराने में प्रवीण-चतुर होने के कारण श्रमण हैं । [गुणड्ढं] चौरासी लाख गुणों और अठारह हजार शीलों के सहकारी कारणभूत, उत्तम अपने शुद्धात्मा की अनुभूति रूपी गुण से आढ्य - भरे हुए - परिपूर्ण होने के कारण गुणाढ्य हैं । [कुलरूववयोविसिट्ठं] लोक सम्बन्धी दुगुंच्छा - घृणा - निन्दा से रहित होने के कारण जिन-दीक्षा के योग्य को कुल कहते हैं । अन्दर में शुद्धात्मा की अनुभूति को बतानेवाले, परिग्रहरहित (गाँठ रहित), विकार रहित वेष को रूप कहते हैं । शुद्धात्मा की अनुभूति को नष्ट करनेवाली वृद्धावस्था, बालावस्था, और यौवनावस्था सम्बन्धी उद्रेक से उत्पन्न बुद्धि की विकलता से रहित वय है । उन कुल-रूप और वय से विशिष्ट होने के कारण कुल-रूप-वय विशिष्ट हैं । [इट्ठदरं] इष्टतर-सम्मत-स्वीकृत हैं । किनसे स्वीकृत हैं? [समणेहिं] अपने परमात्म तत्त्व की भावना से सहित, समचित्त-समभाव परिणत श्रमणों-अन्य आचार्यों से स्वीकृत है । [गणिं] इसप्रकार के गुणों से विशिष्ट, परमात्मभावना के साधक, दीक्षा देनेवाले आचार्य के आश्रित होता है । [तं पि पणदो] न केवल उन आचार्य के आश्रित होता है, वरन् प्रणत-नम्रीभूत-नमन करनेवाला भी होता है । किस रूप में प्रणत होता है? [पडिच्छ मं] हे भगवन्! अनन्त ज्ञान आदि अपने गुणों रूपी सम्पत्ति की प्रगटता की कारणभूत, अनादि काल में अत्यन्त दुर्लभ, भाव सहित जिनदीक्षा को प्रदान करनेरूप प्रसाद से, मुझे स्वीकार करें - इसप्रकार प्रणत होता है । [चेदि अणुगहिदो] न केवल प्रणत होता है, अपितु उन आचार्य द्वारा अनुग्रहीत-स्वीकार भी किया जाता है । हे भव्य! सार रहित संसार में दुर्लभ बोधि-रत्नत्रय को प्राप्तकर, शुद्धात्मा की भावनारूप निश्चय चार प्रकार की आराधना से मनुष्य जन्म को सफल करो - इसप्रकार अनुगृहीत होता है - ऐसा अर्थ है ।
[णाहं होमि परेसिं] मैं पर का नहीं हूं । अपने शुद्धात्मा से भिन्न दूसरे द्रव्यों का मैं सम्बन्धी नहीं हूँ । [ण मे परे] पर द्रव्य मेरे सम्बन्धी नहीं हैं । [णत्थि मज्झमिह किंचि] यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है ! इस लोक में अपने शुद्धात्मा से भिन्न कुछ भी पर द्रव्य मेरा नहीं है । [इदि णिच्छिदो] इसप्रसर निश्चित बुद्धिवाला । [जिदिंदो जादो] तथा इन्द्रिय और मन से उत्पन्न विकल्प समूहों से रहित, अनन्त ज्ञानादि गुण स्वरूप अपने परमात्मद्रव्य से विपरीत, इन्द्रिय और मन को जीतने से जितेन्द्रिय होता हुआ [जधजादरूवधरो] यथाजातरूपधर व्यवहार से नग्नता यथाजातरूप है तथा निश्चय से अपना आत्मरूप यथाजातरूप है, वह इसप्रकार यथाजातरूप को धारण करता है - इसप्रकार यथाजातरूपधर निर्ग्रंन्थ अर्थात् आरम्भ-परिग्रह से रहित नग्न दिगम्बर होता है - ऐसा अर्थ है ॥२१८॥
अब अनादिकाल से दुर्लभ पहले (२१८ वीं) गाथा में कहे गए, अपने आत्मा की पूर्ण प्रगट प्राप्ति लक्षण सिद्धि के कारणभूत, निर्ग्रन्थ यथाजातरूपधर के गमक चिन्ह-पहिचान के चिन्ह स्वरूप बाह्य और अन्तरंग दोनों चिन्हों को कहते हैं-
[जधजादरूवजादं] पहले (२१८ वीं) गाथा में कहे गये लक्षणवाले यथाजातरूप से निर्ग्रन्थ होने के कारण, यथाजातरूप से उत्पन्न है । [उप्पाडिदकेसमंसुगं] केश (सिर के बाल) और श्मश्रु (दाढ़ी-मूँछों सम्बन्धी बालों) के संस्कार (सजावट) से उत्पन्न रागादि दोषों के निराकरण के लिए केश और श्मश्रु को उखाड़ने वाला होने से, उत्पाटित केश श्मश्रु है । [सुद्धं] निरवद्य पाप रहित चैतन्य चमत्कार से विपरीत, सम्पूर्ण सावद्य योग से रहित होने के कारण, शुद्ध है । [रहिदं हिंसादीदो] शुद्ध चैतन्यरूप निश्चय प्राण हिंसा की कारणभूत, रागादि परिणति लक्षण निश्चय हिंसा का अभाव होने से, हिंसादि रहित है । [अप्पडिकम्मं हवदि] परम उपेक्षा संयम से, बल से शरीर सम्बन्धी प्रतिकार से रहित होने के कारण अप्रतिकर्म है । इन सब रूप क्या है? [लिंगं] इसप्रकार पाँच विशेषणों से विशिष्ट द्रव्यलिंग है- ऐसा जानना चाहिये- इसप्रकार प्रथम (२१९ वीं) गाथा पूर्ण हुई ।
[मुच्छार्म्भविमुक्कं] परद्रव्य सम्बन्धी चाह से रहित, मोह रहित परमात्म-ज्योति से विलक्षण, बाह्य (अन्य) द्रव्य में ममत्वबुद्धि मुर्च्छा कहलाती है । मन-वचन और शरीर के व्यापार से रहित, चैतन्य-चमत्कार से विरुद्ध, आरंभ अर्थात व्यापार है, उन मुर्च्छा और आरंभ से विमुक्त-रहित मुर्च्छा-आरंभ विमुक्त है । [जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं] विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण उपयोग है और विकल्प रहित समाधि योग है, उन दोनों उपयोग और योग की शुद्धि उपयोग-योग शुद्धि है-उस शुद्धि से सहित है । [ण परावेक्खं] निर्मल अनुभूतिरूप परिणति का परद्रव्य की अपेक्षा से रहित होना -- परापेक्षारहित (पर-निरपेक्ष) है ।
अब, इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर, पहले भावि-नैगमनय से कहे गए पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर, उसके आधार से उपस्थित - स्वस्थ - स्वरूप-लीन होकर वह श्रमण होता है, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं --
[आदय तं पि लिंगं] उन पहले (२१९ व २२० गाथा में) कहे गये दोनों लिंगों को भी ग्रहण कर । कैसे दोनों लिंगो को ग्रहणकर ? [दत्तं] यह क्रिया अध्याहार है (प्रकरणानुसार ले लेना चाहिये) अर्थात् दिये गये दोनों लिंगों को ग्रहणकर । किसके द्वारा दिये गये उनको ग्रहणकर ? [गुरुणा परमेण] दिव्यध्वनि के समय परमागम के उपदेशरूप से अरहन्त भट्टारक-भगवान द्वारा तथा दीक्षा के समय दीक्षा गुरु द्वारा दिये गये उन लिंगों को ग्रहणकर । लिंग ग्रहण करने के बाद [तं णमंसित्ता] उन गुरु को नमस्कार कर [सोच्चा] उसके बाद सुनकर । किसे सुनकर? [किरियं] क्रिया अर्थात वृहत्-प्रतिक्रमण को सुनकर । किससे सहित उसे सुनकर ? [सवदं] सव्रत-व्रतारोपण सहित व्रहत प्रतिक्रमणरूप क्रिया को सुनकर । [उवट्ठिदो] और उसके बाद उपस्थित-स्वस्थ-अपने में लीन होता हुआ [होदि सो समणो] वह पहले कहा हुआ तपोधन-मुनि, अब श्रमण होता है ।
यहाँ उसका विस्तार करते हैं -
- पहले (२१९- २२० वीं गाथा में) कहे गये दोनों लिंगों को, ग्रहण करने के बाद
- पहले (२१६ वीं) गाथा में कहे गये पंचाचार का आश्रय लेते हैं,
- तदुपरान्त अनन्तज्ञानादि गुण-स्मरणरूप भावनमस्कार द्वारा और वैसे ही उन गुणों के प्रतिपादक वचनरूप द्रव्य नमस्कार द्वारा, गुरु को नमस्कार करते हैं ।
- उसके बाद सम्पूर्ण शुभ-अशुभ परिणामों से निवृत्ति रूप अपने स्वरूप में निश्चल अवस्थानमयी, परम सामायिक व्रत पर आरोहण करते हैं (परम सामायिक व्रत को स्वीकार करते हैं) ।
- मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा तीन-लोक और तीन-काल में भी, सम्पूर्ण शुभ-अशुभ कर्मों, से भिन्न अपने शुद्धात्मारूप परिणति लक्षण जो क्रिया, वह निश्चय से वृहत् प्रतिक्रमण कहलाती है; व्रतारोपण के बाद उसे सुनते हैं ।
- तत्पश्चात् निर्विकल्प-समाधि के बल से शरीर का त्यागकर- शरीर के प्रति मोह का त्याग कर, उपस्थित- स्वरूप लीन होते हैं ।
इसप्रकार दीक्षा के सम्मुख पुरुष के दीक्षा-विधान कथन की मुख्यता से पहले स्थल में सात गाथायें पूर्ण हुई ।
[वदसमदिंदियरोधो] व्रत और समितियाँ और इन्द्रियनिरोध (इसप्रकार द्वन्दसमास से) 'व्रत समितीन्द्रियरोध' शब्द बना । [लोचावस्सयं] लोच और आवश्यक इसप्रकार 'लोचावश्यक' शब्द बना, 'समाहारस्यैकवचनम्- समाहार-द्वन्दसमास में अन्तिम पद एकवचन होता है'- इस सूत्र के अनुसार 'लोचावस्सयं' का 'वस्सयं' पद एकवचन में प्रयुक्त हुआ । [अचेलमण्हाणं खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च] अचेलक (निर्वस्त्र), अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े होकर भोजन और एक बार भोजन । [एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्ण्त्ता] वास्तव म्रें श्रमणों के ये २८ मूलगुण, जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं । [तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि] उन मूलगुणों में जब प्रमत्त होते है - उनसे च्युत होते हैं । उनमें प्रमत्त वे कौन होते हैं? श्रमण-तपोधन-मुनिराज जब प्रमत्त होते हैं, तब वे उस समय छेदोपस्थापक होते हैं । छेद अर्थात् व्रत के खण्डन होने पर भी, फिर से उसमें ही उपस्थित होनेवाले छेदोपस्थापक हैं ।
वह इसप्रकार- निश्चय से मूल आत्मा है, उसके केवलज्ञानादि अनन्तगुण मूलगुण हैं और वे विकल्प रहित समाधिरूप परम सामायिक नामक निश्चय एक व्रतरूप, मोक्ष के बीजभूत होने से, मोक्ष होने पर सभी प्रगट होते हैं । इस कारण वही सामायिक, मूलगुणों को प्रगट करने का कारणरूप होने से, निश्चय मूलगुण है और जब यह जीव विकल्प रहित समाधि में समर्थ नहीं होता है, तब जैसे कोई भी सुवर्ण का इच्छुक पुरुष, सुवर्ण को प्राप्त नहीं करता हुआ, उसकी कुण्डल आदि पर्यायों को भी ग्रहण करता है, सर्वथा उन्हें छोड़ नहीं देता है; उसी प्रकार यह जीव भी, निश्चय मूलगुण नामक परम समाधि के अभाव में, छेदोपस्थापन चारित्र ग्रहण करता है । छेद- व्रत खण्डन होने पर फिर से उसमें ही उपस्थित होना, छेदोपस्थापन है । अथवा छेद अर्थात् व्रतों के भेद में, उपस्थित होना छेदोपस्थापन है । और वह संक्षेप में पाँच महाव्रतरूप है । और उन व्रतों की रक्षा के लिये, पाँच समिति आदि भेद से, पुन: अट्ठाईस मूलगुण भेद होते हैं । और उन मूलगुणों की रक्षा के लिये बाईस परीषहजय, बारह प्रकार के तपों के भेद से, चौंतीस उत्तरगुण होते हैं । और उनकी रक्षा के लिये देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत, और अचेतनकृत चार प्रकार के उपसर्गों को जीतने के लिये बारह अनुप्रेक्षा-भावना आदि हैं - ऐसा अभिप्राय है ।
[लिंगग्यहणे तेसिं] लिंग मुनिवेश के ग्रहण में, उन मुनिराजों के [गुरु त्ति होदि] गुरु होते हैं । वे कौन उनके गुरु होते हैं [पव्वज्जदायगो] विकल्प रहित समाधिरूप परम सामायिक का प्रतिपादन करने वाले, जो वे प्रवज्या-दीक्षा देनेवाले हैं, वे ही दीक्षा गुरु हैं । [छेदेसु अ वट्टवगा] और छेद होने पर, उसका निराकरण कर, पुन: व्रत में, स्थापन करनेवाले जो हैं, [सेसा णिज्जावगा समणा] वे शेष श्रमण-मुनि निर्यापक हैं और शिक्षा गुरु हैं ।
यहाँ अर्थ यह है -- विकल्प रहित समाधिरूप सामायिक की, एकदेश च्युति एकदेश छेद है तथा सर्वथा पूर्णरूप च्युति सकल छेद है - इसप्रकार देश और सकल के भेद से छेद दो प्रकार का है । जो उन दोनों छेदों में प्रायश्चित्त देकर, सम्वेग और वैराग्य को उत्पन्न करनेवाले परमागम के वचनों द्वारा, सम्वरण करते हैं, वे निर्यापक, शिक्षागुरु और श्रुतगुरु कहलाते हैं । दीक्षा देनेवाले दीक्षागुरु है -- ऐसा अभिप्राय है ॥२२४॥
[पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स काय्चेट्ठ्म्हि जायदि जदि] प्रयत्नपूर्वक प्रारम्भ की जानेवाली शारीरिक चेष्टाओं में, यदि श्रमण के छेद होता है तो । अब विस्तार करते हैं- यदि छेद होता है तो । स्वस्थभाव- अपने आप में स्थिति-लीनतारूप परिणाम से च्युति-छूटना लक्षण छेद होता है । किसमें छेद होता है? शरीर सम्बन्धी चेष्टा में छेद होता है । कैसी शारीरिक चेष्टा में छेद होता है? प्रयत्नपूर्व? अपने आप में लीनता लक्षण प्रयत्नपूर्वक प्रारब्ध-अशन-भोजन, शयन-निद्रा, स्थान-बैठना आदि प्रारम्भ की गई शारीरिक क्रियाओं में यदि छेद होता है तो । [तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया] उसके फिर आलोचना पूर्वक क्रिया होती है । उस समय, अपने आप में लीन उन मुनिराज के, बाह्य सहकारी कारणभूत प्रतिक्रमण स्वरूप आलोचना क्रिया ही, उसका प्रायश्चित्त अर्थात् प्रतिकार है और अधिक नहीं । इतना मात्र ही उसका प्रायश्चित्त क्यों? अंतरंग में अपने आप में लीनतारूप परिणाम से विचलित होने का अभाव होने के कारण इतने मात्र से ही उसका प्रायश्चित्त हो जाता है- इसप्रकार पहली (२२५ वीं) गाथा पूर्ण हुई ।
[छेदपउत्तो समणो] छेद में प्रयुक्त श्रमण, यदि श्रमण, विकार रहित आत्मानुभूतिरूप भावना से च्युति लक्षण छेद से प्रयुक्त-सहित होता है तो । [समणं ववहारिणं जिणमदम्हि] जिनमत में व्यवहार कुशल श्रमण को, तब जिनमत में व्यवहार को जाननेवाले प्रायश्चित्त में कुशल श्रमण-मुनि को [आसेज्ज] पाकर, न केवल पाकर अपितु, [आलोचित्ता] निष्प्रपंच भाव से-छलरहित-संक्षिप्तरूप से आलोचना कर, दोषों का निवेदन कर । [उवदिट्ठं तेण कायव्वं] उनके द्वारा कहा गया करना चाहिये । उन प्रायश्चित्त सम्बन्धी जानकारी से सहित आचार्य द्वारा, विकार रहित अपनी अनुभूति-भावना के अनुकूल जो कहा गया प्रायश्चित्त है, वह करना चाहिये- ऐसा गाथा का तात्पर्य है
इसप्रकार गुरु-व्यवस्था सम्बन्धी कथनरूप से पहली गाथा और इसी प्रकार प्रायश्चित्त सम्बन्धी कथन के लिये दो गाथायें- इस प्रकार समुदाय रूप से तीसरे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।
[विहरदु] विहार करें । वे कौन विहार करें? [समणो] शत्रु-मित्र आदि में समान चित्तवाले श्रमण, विहार करें । [णिच्चं] नित्य-सभी कालों में । क्या करते हुए वे, विहार करें? [परिहरमाणो] परिहार-निराकरण करते हुए वे विहार करें । किनका परिहार करते हुये वे विहार करें ? [णिबंधाणि] चेतन-अचेतन और मिश्र परद्रव्यों में अनुबन्ध-सम्बन्ध का परिहार करते हुये वे विहार करें । वे कहाँ विहार करें? [अधिवासे] अधिकृत गुरु-कुल वास में अथवा निश्चय में अपने शुद्धाआत्मारूपी वास में [विवासे] अथवा गुरु से भिन्न वास में विहार करें । क्या करके यहाँ विहार करें ? [सामण्णे] अपने शुद्धात्मा की अनुभूति स्वरूप निश्चल चारित्र में [छेदोविहूणो भवीय] छेद से रहित होकर रागादि रहित अपने शुद्धात्मा की अनुभूति लक्षण निश्चय चारित्र से च्युतिरूप छेद-रहित होकर यहाँ विहार करें ।
वह इसप्रकार- गुरु के पास जितने शास्त्र हों, उतने पढ़कर और उसके बाद गुरु से पूछकर समान, शीलवाले तपस्वियों के साथ, भेद-अभेद रत्नत्रय की भावना से, भव्यों को आनन्द उत्पन्न करते हुए, तप-श्रुत-सत्व-एकत्व-सन्तोष रूप पाँच भावनाओं को भाते हुए, तीर्थंकर-परमदेव, गणधरदेव आदि महापुरुषों के चरित्रों को स्वयं भाते हुए और दूसरों को बताते विहार करते हैं ।
[चरदि] आचरण करते हैं-वर्तते हैं । कैसे आचरण करते हैं ? [णिबद्धो] आधीन [णिच्चं] नित्य-सर्वकाल-हमेशा आचरण करते हैं । आचरण करनेवाले वे कौन हैं? [समणो] लाभ-अलाभ आदि में समान चित्तवाले श्रमण । वे कहाँ निबद्ध-लीन हैं ? [णाणम्मि] वीतराग-सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये, परमागम के ज्ञान में अथवा उसके फलभूत स्वसंवेदन ज्ञान में, [दंसणमुहम्मि] दर्शन-तत्त्वार्थ श्रद्धान अथवा उसके फलभूत अपना शुद्धात्मा ही उपादेय-ग्रहण करने योग्य है- ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व, इनकी मुख्यता सहित अनन्त सुखादि गुणों में निबद्ध हैं । [पयदो मूलगुणेसु य] और प्रयत-प्रयत्नपर-प्रयत्नशील हैं । किनमें प्रयत्नशील हैं? मूलगुणों में अथवा निश्चय मूलगुणों के आधारभूत परमात्मद्रव्य में प्रयत्नशील हैं । [जो सो पडिपुण्णसामण्णो] जो इन गुणों से विशिष्ट श्रमण हैं, वे परिपूर्ण श्रामण्य हैं ।
यहाँ अर्थ यह है कि अपने शुद्धात्मा की भावना में लीन के ही, परिपूर्ण श्रमणता होती है ।
[णेच्छदि] नहीं चाहते हैं । किसे नहीं चाहते हैं ? [णिबद्धं] निबद्ध-आसक्ति नहीं चाहते हैं । कहां आसक्ति नहीं चाहते हैं? [भत्ते वा]
- शुद्धात्मा की भावना के सहकारि शरीर की स्थिति का हेतु (कारण) होने से, ग्रहण किये गये भोजन-प्रासुक आहार में,
- [खमणे वा] इन्द्रियों के दर्प (प्रबलता) को नष्ट करने वाले कारण स्वरूप होने से, विकल्प रहित समाधि (स्वरूपलीनता) के कारणभूत क्षपण-अनशन-उपवास में,
- [आवसधे वा] परमात्मतत्व की उपलब्धि (पर्याय में प्रगटता) के सहकारभूत पर्वत अथवा गुफा आदि के निवास में,
- [पुणो विहारे वा] शुद्धात्मा की भावना के सहकारीभूत आहार-निहार के लिये, व्यवहार के लिये, व्यवहार में अथवा अन्य स्थान पर जाने के लिये होनेवाले विहार में,
- [उवधिम्हि] शुद्धोपयोगरूप भावना के सहकारीभूत शरीररूप परिग्रह में अथवा ज्ञान के उपकरण (साधन) आदि में,
- [समणम्हि] परमात्मपदार्थ का विचार करने में सहकारी कारणभूत (अन्य) मुनिराज में अथवा समानशील के समूह या सम-समता और शील समूह तपोधन-मुनिराज में,
- [विकधम्हि] और परमसमाधि-पूर्ण स्वरूप लीनता को नष्ट करनेवाली श्रंगार-वीर-रागादि कथा में
यहाँ अर्थ यह है- आगम से विरुद्ध आहार-विहार आदि में (ममत्व तो) पहले से ही निषिद्ध है, (यहाँ तो) योग्य आहार-विहार आदि में भी ममत्व नहीं करना चाहिये (ऐसा कहा है) ॥२२१॥
इसप्रकार संक्षेप से आचार-आराधनादिरूप से कहे गये मुनिराज के, विहार सम्बन्धी विशेष कथन की मुख्यता से चौथे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।
[मदा] मानी गई है-सम्मत की गई है-स्वीकृत की गई है । कौन मानी गई है? [हिंसा] शुद्धोपयोग लक्षण श्रामण्य (मुनिपना) में छेद की कारणभूत हिंसा मानी गई है । वह हिंसा कैसी है? [संततिय त्ति] वह हिंसा सतत-निरन्तर है । हिंसा क्या मानी गई है ? [चरिया] चर्या-चेष्टा हिंसा मानी गई है । यदि वह चर्या कैसी हो तो हिंसा मानी गई है? [अपयत्ता वा] प्रयत्न रहित अथवा कषाय रहित आत्मानुभूतिरूप प्रयत्न से रहित-संक्लेश से सहित चर्या हिंसा मानी गई है - ऐसा अर्थ है । किन विषयों में आत्मानुभूति रहित चर्या हिंसा है? [सयणासणठाणचंकमादीसु] सोने, बैठने, उठने, जाने, स्वाध्याय करने, तपश्चरण करने आदि में आत्मानुभूति रहित-अप्रयत चर्या सतत हिंसा है । यह हिंसा किसके है? [समणस्स] श्रमण- मुनिराज के यह हिंसा है । उन्हें यह हिंसा कब है ? [सव्वकाले] सभी काली में उन्हें यह हिंसा है ।
यहाँ अर्थ यह है- मुनिराजों द्वारा बाह्य व्यापार रूप शत्रु तो पहले ही छोड़ दिये गये थे; भोजन, शयन आदि व्यापार छोड़ना संभव नहीं है । इस कारण अंतरंग क्रोधादि शत्रुओं के निग्रह के लिए, वहां भी संक्लेश नहीं करना चाहिये ।
[मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा] जीव मरे अथवा जिये, प्रयत्न रहित के निश्चित हिंसा होती है; बाह्य में दूसरे जीव के मरण अथवा अमरण में भी, विकार रहित अपनी अनुभूति लक्षण प्रयत्न से रहित जीव के, निश्चय शुद्ध चैतन्य प्राणों के व्यपरोपण (घात) रूप निश्चय हिंसा होती है । [पयदस्स णत्थि बन्धो] बहिरंग और अंतरंग प्रयत्न में तत्पर जीव के बन्ध नहीं है । उन्हें किससे बन्ध नहीं है ? [हिंसामेत्तेण] द्रव्य हिंसा मात्र से उन्हें बन्ध नहीं है । कैसे पुरुष को बन्ध नहीं है? [समिदस्स] समित के-शुद्धात्मस्वरूप में अच्छी तरह गत-परिणत समित है, उस समित के और व्यवहार से ईर्या आदि पाँच समितियों से सहित समित के बंध नही है ।
यहाँ अर्थ यह है -- अपने आत्मा में लीनतारूप निश्चय प्राणों के विनाश की कारणभूत रागादि परिणति निश्चय हिंसा कहलाती है, रागादि कि उत्पत्ति से बाह्य में निमित्तभूत परजीवों का घात व्यवहार हिंसा है- इस प्रकार हिंसा दो प्रकार की जाननी चाहिये । किन्तु विशेष यह है कि बाह्य हिंसा हो अथवा नहीं हो स्वस्थभावना (आत्म-लीनता) रूप निश्चय प्राणों का घात होने पर, नियम से निश्चय हिंसा होती है । उस कारण वही मुख्य है ॥२३१॥
GP:प्रवचनसार - गाथा 217.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
GP:प्रवचनसार - गाथा 217.2 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
[अयदाचारो] मल-रहित निर्मल आत्मानुभूतिरूप भावना लक्षण प्रयत्न से रहित होने के कारण अयताचार अर्थात् प्रयत्न रहित हैं । वे कौन प्रयत्न रहित है? [समणो] मुनिराज प्रयत्न रहित हैं । [छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो] छहों ही कायों के वध करनेवाले माने गये हैं । अर्थात् छह काय के जीवों की, वे मुनिराज हिंसा करनेवाले हैं - ऐसा माना गया है - कहा गया है । [चरदि] आचरण करते हैं-वर्तते हैं । कैसे वर्तते हैं? जैसे होते हैं [जदं] यत्नपर-प्रयत्नशील, [जदि] यदि [णिच्चं] हमेशा- सभी कालों में तो [कमलं व जले णिरुवलेवो] जल में कमल के समान निरुपलेप होते हैं ।
इससे क्या कहा गया है अर्थात् इस सब कथन का तात्पर्य क्या है? शुद्ध आत्मा की अनुभूति लक्षण शुद्धोपयोग परिणत पुरुष के, छह काय के जीव समूहरूप लोक में विचरण करते हुए, यद्यपि मात्र बाह्य में द्रव्य हिंसा है, तथापि निश्चय हिंसा नहीं है (अत: वे निर्लेप-तत्संबन्धी कर्मबन्धन से रहित हैं ।); उस कारण शुद्ध परमात्मा की भावना के बल से निश्चय हिंसा ही सर्व तात्पर्य से छोड़ना चाहिये ।
[हवदि वा ण हवदि बंधे] बन्ध होता है अथवा नहीं होता है । क्या होने पर बन्ध होता है अथवा नहीं होता है? [मदम्हि जीवे] दूसरे जीव के मर जाने पर, बन्ध होता है अथवा नहीं होता है । [अध] अहो! कैसे मर जाने पर बन्ध होता है अथवा नहीं होता है? [कायचेट्ठम्हि] शरीर की चेष्टा से जीव मर जाने पर बन्ध होता है अथवा नहीं होता है । तो बन्ध कैसे होता है? [बन्धो धुवमुवधीदो] ध्रुव-निश्चित बन्ध होता है । किससे निश्चित ही बन्ध होता है? उपधि अर्थात् परिग्रह से बन्ध निश्चित ही होता है । [इदि] इस कारण- [समणा छड्डिया सव्वं] श्रमण अर्थात महाश्रमण सर्वज्ञ भगवान ने, पहले दीक्षा के समय शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी अपने आत्मा को सब ओर से ग्रहण कर, शेष सम्पूर्ण अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह, छर्दि (वमन) के समान छोड़ा है । ऐसा जानकर, शेष मुनिराजों को भी अपने परमात्मा को परिग्रहण कर-स्वीकार कर शेष सभी परिग्रह, मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना रूप से छोड़ देना चाहिये ।
यहाँ यह कहा गया है कि रागादि परिणामरूप निश्चय हिंसा से चैतन्यरूप निश्चय प्राणों का घात होने पर, नियम से बन्ध होता है । दूसरे जीव का घात होने पर होता भी है, नहीं भी होता, नियम नहीं है; परन्तु परद्रव्य में ममत्वरूप मूर्च्छा परिग्रह से तो नियम से बंध होता ही है ।
इसप्रकार भावहिंसा के व्याख्यान की मुख्यता से पाँचवे स्थल में छह गाथायें पूर्ण हुई । इसप्रकार पहले कहे गये क्रम से '[एवं पणमिय सिद्धे]' इत्यादि २१ गाथाओं द्वारा पाँचवे स्थलरूप से '[उत्सर्ग चारित्र व्याख्यान]' नामक पहला अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।
अब इसके बाद चारित्र के देश-काल की अपेक्षा अपहृत संयमरूप से अपवाद व्याख्यान के लिये पाठक्रम में ३० गाथाओं द्वारा दूसरा अन्तराधिकार प्रारम्भ होता है । वहीं चार स्थल हैं । उनमें
- प्रथम स्थल में निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग की स्थापना की मुख्यता से व '[ण हि णिरवेक्खो चागो]' इत्यादि पाँच गाथायें हैं । यहाँ टीका में (तत्त्वप्रदीपिका टीका में) तीन गाथायें नहीं हैं ।
- उसके बाद दूसरे स्थल में, सम्पूर्ण सावद्य (पाप क्रियाओं) का त्याग लक्षण सामायिक संयम में असमर्थ मुनिराजों के संयम, शौच और ज्ञान के उपकरण निमित्त अपवाद व्याख्यान की मुख्यता से '[छेदो जेण ण विज्जदि]' इत्यादि तीन गाथायें हैं ।
- उसके बाद तीसरे स्थल में, स्त्री- मुक्ति के निराकरण की प्रधानता से '[पेच्छदि ण हि इह लोगं]' इत्यादि ग्यारह गाथायें हैं । और वे गाथायें '[आचार्य अमृतचन्द्र]' कृत टीका में नहीं हैं ।
- तदुपरान्त चौथे स्थल में परिपूर्ण उपेक्षा संयम में असमर्थ मुनिराजों के, देशकाल की अपेक्षा किंचित् संयम के साधक शरीर के लिये निर्दोष आहार आदि सहकारी कारण ग्रहण करने योग्य हैं
इस प्रकार गाथाओं के अभिप्राय से ३० गाथाओं द्वारा और (त.प्र.) टीका की अपेक्षा बारह गाथाओं द्वारा दूसरे में सामूहिक पातनिका है ।
चारित्राधिकार के द्वितीय अन्तराधिकार का स्थल विभाजन | |||
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स्थल क्रम | प्रतिपादित विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ | कुल गाथाएँ |
प्रथम | निर्ग्रंथ मोक्षमार्ग की स्थापना | 236 से 240 | 5 |
द्वितीय | अपवाद व्याख्यान | 241 से 243 | 3 |
तृतीय | स्त्री मुक्ति निराकरण | 244 से 254 | 11 |
चतुर्थ | अपवाद विशेष व्याख्यान | 255 से 265 | 11 |
कुल 4 स्थल | कुल 30 गाथाएँ |
वह इसप्रकार -
अब, भाव-शुद्धिपूर्वक बहिरंग परिग्रह का त्याग किये जाने पर अन्तरंग परिग्रह का त्याग किया गया ही होता है, एसा निर्देश करते हैं -
[ण हि णिरवेक्खो चागो] निरपेक्ष त्याग यदि नहीं हो तो-परिग्रह का त्याग सर्वथा निरपेक्ष नहीं होता है, किन्तु कुछ भी कपड़े-बर्तन आदि ग्रहण करने योग्य है-यदि आप ऐसा कहते हैं, तो हे शिष्य! [ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी] मुनि के आशय की विशुद्धि नहीं होती है, तब सापेक्ष परिणाम होने पर मुनिराज के चित्त की शुद्धि नहीं होती । [अविसुद्धस्स हि चित्ते] शुद्धात्मा की भावनारूप शुद्धि से रहित, मुनिराज के मन में वास्तव में [कहं तु कम्मक्खओ विहिओ] कर्मों का क्षय उचित कैसे होगा?
इससे यह कहा गया है कि जैसे बाह्य में तुष (छिलका) का सद्भाव होने पर चावल के अन्दर की शुद्धि करना संभव नहीं है, उसीप्रकार बाह्य परिग्रह की इच्छा विद्यमान होने पर, निर्मल शुद्धात्मा की अनुभूतिरूप मन की शुद्धि करना संभव नहीं है और यदि विशिष्ट वैराग्यपूर्वक परिग्रह का त्याग होता है, तो चित्त की शुद्धि होती ही है; परन्तु प्रसिद्धि पूजा-प्रतिष्ठा-लाभ के निमित्त त्याग करने पर नहीं होती है ।
GP:प्रवचनसार - गाथा 220.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
GP:प्रवचनसार - गाथा 220.2 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
GP:प्रवचनसार - गाथा 220.3 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
अब परिग्रह सहित के नियम से चित्त की शुद्धि नष्ट होती है, ऐसा विस्तार से प्रसिद्ध करते हैं -
- [किध तम्हि णात्थि मुच्छा] परद्रव्यों के प्रति ममत्व रहित चैतन्य चमत्कार परिणति से विरुद्ध ममत्व कैसे नहीं है? वरन् है ही । किसमें ममत्व है ही? उस परिग्रह की इच्छा रखने वाले पुरुष में ममत्व है ही ।
- [आरंभो वा] अथवा मन, वचन, काय की क्रिया से रहित परम चैतन्य का प्रतिबन्धक (रोकनेवाला) आरम्भ कैसे नहीं है? अपितु है ही;
- [असंजमो तस्स] अथवा उस परिग्रह सहित के शुद्धात्मा की अनुभूति से विलक्षण, असंयम कैसे नहीं है? वरन् है ही ।
इसप्रकार श्वेताम्बर मत का अनुसरण करनेवाले शिष्य के संबोधन के लिये, निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग-स्थापना की मुख्यता से पहले स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब अपवाद व्याख्यान परक तीन गाथाओं वाला दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब काल की अपेक्षा परम उपेक्षा-संयमरूप शक्ति के अभाव होने पर आहार, संयम, शौच, ज्ञान आदि के उपकरण भी ग्राह्य हैं (ग्रहण कर सकते है); ऐसे अपवाद का उपदेश देते हैं -
[छेदो जेणे ण विज्जदि] जिससे छेद नहीं होता है । जिस उपकरण से, शुद्धोपयोग लक्षण संयम का छेद अर्थात् विनाश नहीं होता है । क्या करने पर छेद नहीं होता है? [गहणविसग्गेसु] जिन्हें ग्रहण करने और छोड़ने पर, जिससे छेद नहीं होता है । जिस उपकरण अथवा दूसरी वस्तु के ग्रहण-स्वीकार करने में अथवा विसर्जन-त्याग करने में छेद नहीं होता है । क्या करनेवाले मुनिराज के छेद नहीं होता है ? [सेवमाणस्स] उस उपकरण का सेवन करनेवाले मुनिराज के छेद नहीं होता हैं । [समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता] मुनिराज उस उपकरण के साथ लोक में वर्तें । उसके साथ यहां वे क्या करके वर्तें ? काल और क्षेत्र को जानकर उसके साथ वे यहाँ वर्तें ।
यहाँ भाव यह है- काल पंचमकाल अथवा शीत-उष्ण (ठंड-गर्मी) आदि काल को, तथा क्षेत्र- भरतक्षेत्र अथवा मनुष्य सम्बन्धी क्षेत्र या जंगल सम्बन्धी क्षेत्र को जानकर जिस उपकरण द्वारा आत्मानुभूति लक्षण भाव-संयम अथवा बाह्य द्रव्य-संयम का छेद नहीं होता है उसके साथ वर्तें ।
अब पहले (२४१ वीं) गाथा में कहे गये उपकरण का स्वरूप दिखाते हैं -
[अप्पडिकुट्ठं उवधिं] निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग के सहकारी कारणरूप से अनिषिद्ध उपधि-उपकरणरूप उपधि को, [अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं] अप्रार्थनीय-विकार रहित आत्मा की प्रगटता लक्षण भावसंयम से रहित असंयमी मनुष्यों द्वारा इच्छा नहीं करने योग्य, [मुच्छादिजणरहिदं] परमात्मद्रव्य से विलक्षण बाह्यद्रव्य में ममत्वरूप मूर्च्छा-रक्षण-अर्जन (रक्षा करना, इकट्ठा करना), संस्कार (साज-संवार) आदि दोषों को उत्पन्न करने से रहित, [गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं] मुनिराज जो भी ऊपर कहे गये थोड़े उपकरण-उपधि को ग्रहण करें, यद्यपि वह अल्प हो, तथापि पहले (ऊपर) कहे गये उचित लक्षण-वान को ही ग्रहण करना चाहिये, उससे विपरीत अथवा अधिक को ग्रहण नहीं करना चाहिये -- ऐसा अभिप्राय है ॥२४२॥
अब सभी परिग्रहों का त्याग ही श्रेष्ठ है, शेष (आगे २५५ वीं गाथा में वर्णित उपकरण) अशक्य अनुष्ठान हैं, ऐसा निरूपित करते हैं -
[किं किंचण त्ति तक्कं] क्या किंचन है - ऐसा तर्क, क्या किंचन-कुछ परिग्रह है- ऐसा तर्क विचार करते हैं उससे पहले । किसके सम्बन्ध में क्या परिग्रह है- ऐसा विचार करते हैं? [अपुणब्भव कामिणो] अपुनर्भवकामी के अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय स्वरूप मोक्ष के इच्छक जीव के क्या परिग्रह है ? ऐसा विचार करते हैं; उससे पहले । [अध] अहो! अरे- [देहो वि] शरीर भी [संग त्ति] संग-परिग्रह है- इस कारण [जिणवरिंदा] जिनवरों के इन्द्र-तीर्थंकर रूप कर्ता ने [णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा] निष्प्रति-कर्मत्व कहा है । शुद्धोपयोग लक्षण परम उपेक्षा संयम के बल से, शरीर में भी निष्प्रति-कारित्व (साज-श्रंगार, आसक्ति से रहितपना) कहा है ।
इससे ज्ञात होता है कि मोक्ष-सुख के इच्छुक जीवों को, निश्चय से शरीर आदि सभी परिग्रहों का त्याग ही उचित है अन्य तो उपचार ही है ॥२४३॥
इसप्रकार अपवाद व्याख्यानरूप से दूसरे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब, स्त्रीमुक्ति निराकरण परक तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब, ग्यारह गाथाओं तक, स्त्री पर्याय से मुक्ति के निराकरण की मुख्यता से व्याख्यान करते हैं । वह इसप्रकार -
श्वेतांबर मत का अनुसरण करनेवाला शिष्य पूर्वपक्ष (प्रश्न) करता है --
[पेच्छदि ण हि इह लोगं] उपराग (रागादि मलिनता) रहित अपने चैतन्य की हमेशा प्रगटतारूप भावना को नष्ट करनेवाले प्रसिद्धि पूजा, प्रतिष्ठा, लाभरूप इस लोक को वास्तव में नही देखता है नही चाहता है । मात्र इस लोक को ही नही, [परं च] और अपने आत्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष को छोड़कर स्वर्गों सम्बन्धी भोगों की प्राप्तिरूप पर--परलोक को भी नही चाहता है । ये सब कौन नही चाहता है ? [समणिंददेसिदो धम्मो] श्रमणेंद्रों द्वारा कहा गया धर्म-जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया धर्म, ये सब कुछ नही चाहता है -- ऐसा अर्थ है । [धम्मम्हि तम्हि कम्हा] (तब) उस धर्म में कैसे [वियप्पियं] विकल्पित किया गया है- निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) लिंग से, वस्त्राच्छादन द्वारा भिन्न किया गया है । इससे किसे भिन्न किया गया है ? [लिंगं] इससे आवरण सहित चिह्न को भिन्न किया गया है । किन सम्बन्धी सावरण चिन्ह को भिन्न किया गया है [इत्थीणं] स्त्रियों के सावरण चिन्ह को भिन्न किया गया है- इसप्रकार पूर्वपक्ष परक (प्रश्न परक) गाथा हुई ॥२४४॥
अब, स्त्रियों के मोक्ष के रोकनेवाली (उनकी) प्रमाद की बहुलता को दिखाते हैं -
[णिच्छयदो ड़त्थीणं सिद्धी ण हि तेण जम्मणा दिट्ठा] निश्चय से स्त्रियों के नरकादि गतियों से विलक्षण अनन्त सुखादि गुण स्वभावरूप सिद्धि उसी जन्म-पर्याय से नहीं देखी गई है - नहीं कही गई है । [तम्हा तप्पडिरूवं] उस कारण उसके प्रतियोग्य सावरण- वस्त्र सहित रूप, [वियप्पियं लिंगमि-त्थीणं] निर्ग्रन्थलिंग से पृथक् होने के कारण, वस्त्र सहित चिन्ह भिन्न कहा गया है । वस्त्र सहित चिह्न किनका कहा गया है ? स्त्रियों का वस्त्र सहित चिन्ह कहा गया है ॥२४५॥
[पइडीपमादमइया] प्रकृति अर्थात् स्वभाव से प्रमाद से रची हुई प्रमादमयी है । कौन करने वाली प्रमादमयी है? [एदासिं वित्ति] इन स्त्रियों की वृत्ति-परिणति प्रमादमयी है । [भासिया पमदा] इसलिये नाममाला में प्रमदा-प्रमदा नाम स्त्रियों का कहा गया है । [तम्हा ताओ पमदा] इसलिये ही उन स्त्रियों की प्रमाद संज्ञा है, इस कारण से ही वे [पमादबहुला त्ति णिद्दिट्ठा] प्रमाद रहित परमात्मतत्व की भावना को नष्ट करनेवाली प्रमाद बहुला कही गई हैं ॥२४६॥
अब उनके मोहादि की बहुलता को दिखाते हैं -
[संति धुवं पमदाणं] प्रमदाओं-स्त्रियों के ध्रुव-निश्चित हैं । स्त्रियों के वे क्या निश्चित हैं ? [मोह पदोसा भयं दुगुंछा य] मोह आदि से रहित अनन्त सुख आदि गुण स्वरूप मोक्ष के कारणों को रोकनेवाले मोह, प्रद्वेष, भय दुगुंछा-ग्लानिरूप परिणाम स्त्रियों के निश्चित हैं । [चित्ते चित्ता माया] कुटिलता-वक्रता आदि से रहित परमज्ञान-केवलज्ञान आदि रूप परिणति से विपरीत चित्त में- मन में चित्र- अनेक प्रकार की माया होती है, [तम्हा तासिं ण णिव्वाणं] इसलिये उनके, बाधाओं से रहित सुख आदि अनन्त गुणों का आधारभूत मोक्ष नहीं है- ऐसा अभिप्राय है ॥२४७॥
अब इसे ही दृढ़ करते हैं -
[ण विणा वट्टदि णारी] स्त्री उनके बिना नहीं है, [एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि] उन दोषों रहित परमात्मा के ध्यान को नष्ट करनेवाले, पहले ( २४७ वीं गाथा में) कहे गये दोषों में से एक भी दोष को छोड़कर वह जीवलोक में नहीं है, [ण हि संउडं च गत्तं] वास्तव में उसका शरीर भी संवृत (ढंका हुआ) नहीं है, [तम्हा तासिं च संवरणं] और इसलिये उनका संवरण-वस्त्रावरण किया जाता है- उन्हें वस्त्रों से ढंका जाता है ॥२४८॥
अब और भी निर्वाण को रोकनेवाले दोषों को दिखाते हैं -
[विज्जदि] पाया जाता है, [तासु अ] और उन स्त्रियों में । उन स्त्रियों में क्या पाया जाता है ? [चित्तस्सावि] चित्त का प्रवाह, काम वासना से रहित आत्मतत्त्व की अनुभूति को नष्ट करनेवाले मन का काम के उद्रेक (तीवता) से स्रव होना- राग से आर्द्र होना-चंचल होना उन स्त्रियों में पाया जाता है, [तासिं] उन स्त्रियों के [सित्थिल्लं] शिथिल का भाव- शिथिलता- उसी भव में मोक्ष जाने योग्य परिणामों के विषय में, मन की दृढ़ता का अभाव-सत्वहीन-कमजोर परिणाम होते है- ऐसा अर्थ है, [अत्तवं च पक्खलणं] ऋतु में होने वाले आर्तव का प्रस्खलन-रक्त का बहना, सहसा- जल्दी- प्रत्येक महिने में तीन दिन मन की शुद्धि को नष्ट करने वाला रक्त प्रवाह उनके होता है- ऐसा अर्थ है, [उप्पादो सुहममणुआणं] सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों की उत्पत्ति होती है ॥२४९॥
अब (उन लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की) उत्पत्ति के स्थान कहते हैं -
[लिंगम्हि य ड़त्थीणं थणंतरे णाहिकक्खपदेसेसु] स्त्रियों के लिंग अर्थात् योनिप्रदेश में, स्तनों के मध्य भाग में, नाभि प्रदेश में और कक्ष (काँख) प्रदेश में, [भणिदो सुहुमुप्पादो] इन स्थानों में सूक्ष्म मनुष्यादि जीवों की उत्पत्ति कही गई है ।
ये पहले (२४७,२५० वीं गाथा मे) कहे गए मोहादि, जीवोत्पत्ति आदि दोष क्या पुरुषों के नहीं होते हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है- ऐसा नहीं कहना चाहिये, (पुरुषों में होते हैं परन्तु) स्त्रियों के बहुलता से होते हैं । होने मात्र से समानता नहीं होती है । एक के विष की कणिका मात्र है और दूसरे के विष के पर्वत हैं दोनों में क्या समानता है? बल्कि पुरुषों के प्रथम (वज्रवृषभनाराच) सहंनन के बल से दोषों को नष्ट करनेवाला, मुक्ति के योग्य, विशेष संयम है । [तासिं कह संजमो होदि] (उपर्युक्त दोषों के कारण) उनके (स्त्रियों के) संयम कैसे हो सकता है ॥२५०॥
अब स्त्रियों के उसी भव से मोक्ष जाने योग्य सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा का निषेध करते हैं -
[जदि दंसणेण सुद्धा] यद्यपि दर्शन से-सम्यक्त्व से शुद्ध है, [सुत्तज्झ्यणेण चावि संजुत्ता] ग्यारह अंग रूप सूत्र- आगम के अध्ययन से भी संयुक्त है, [घोरं चरदि व चरियं] घोर पक्षोपवास (१५ दिन के उपवास) अथवा मासोपवास (एक महिने के उपवास) आदि चारित्र का आचरण करती है, [इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा- फिर भी स्त्री के, उसी भव से कर्मों के क्षय योग्य सम्पूर्ण निर्जरा नहीं कही गई है- ऐसा भाव है ।
दूसरी बात यह है कि जैसे प्रथम संहनन का अभाव होने से, स्त्री सातवें नरक नहीं जाती है उसी प्रकार मोक्ष भी नहीं जाती है ।
"जो पुरुष, भाव पुरुष वेद का वेदन करते हुये अथवा शेष के उदय से भाव स्त्री या नपुंसक वेद का वेदन करते हुये क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होते हैं वे ध्यान में लीन मुनि सिद्ध होते हैं ।
इसप्रकार गाथा में कहे गये अर्थ के अभिप्राय से भाव स्त्रियों के मोक्ष कैसे होता है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं- उन भाव स्त्रियों के प्रथम संहनन होता है तथा द्रव्य स्त्रीवेद का अभाव होने से, उसी भव से मोक्ष जानेवाले परिणामों को रोकनेवाला तीव कामोद्रेक भी नहीं होता है (अत: उन्हें मोक्ष हो जाता है) ।
द्रव्य स्त्रियों के पहला संहनन नहीं है - ऐसा किस आगम में कहा गया है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो वहाँ उदाहरण गाथा कहते हैं-
कर्मभूमि महिलाओं के नियम से अन्त के तीन संहनन होते हैं आदि के तीन संहनन उनके नहीं होते हैं- ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।"
यहाँ प्रश्न यह है कि यदि स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता है, तो आपके मत में आर्यिकाओं के महाव्रत का आरोपण किसलिये किया गया है? आचार्य उत्तर देते हैं कि कुल-व्यवस्था के निमित्त वह उपचार किया गया है । और उपचार साक्षात् होने के योग्य नहीं होता है; 'यह देवदत्त अग्नि के समान क्रूर है' इत्यादि के समान ।
वैसा ही कहा भी है-
मुख्य का अभाव होने पर प्रयोजन और निमित्त में उपचार प्रवृत्त होता है ।
किन्तु यदि स्त्री के उस भव में मोक्ष होता, तो सौ वर्ष पहले दीक्षित आर्यिका द्वारा, आज के ही दिन दीक्षित साधु पूज्य कैसे होता है? वे आर्यिका ही, उन साधु द्वारा पहले से पूज्य क्यों नहीं होती हैं ?
किन्तु आपके मत में 'मल्लि तीर्थकर स्त्री हैं' ऐसा कहते हैं वह भी उचित नहीं है । क्योंकि पहले भव में सम्यग्दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनायें भाकर बाद में तीर्थंकर होते हैं । सम्यग्दृष्टि के स्त्रीवेद कर्म का बन्ध ही नहीं होता है, तब वे स्त्री कैसे हो गये? दूसरी बात यह है कि यदि मल्लि तीर्थंकर अथवा दूसरा कोई भी स्त्री होकर मोक्ष गया है, तो आपके द्वारा स्त्री रूप प्रतिमा की आराधना क्यों नहीं की जाती है ।
पहले (२४७ वीं गाथा आदि मे) कहे गये दोष स्त्रियों के होते हैं; तो सीता, रुक्मणि, कुन्ती, द्रोपदी, सुभद्रा आदि स्त्रियाँ जिनदीक्षा ग्रहणकर तपश्चरणकर सोलहवें स्वर्ग में कैसे गई हैं? यदि आपका ऐसा प्रश्न हो तो उसका उत्तर देते है - वहाँ दोष नहीं है, उस स्वर्ग से आकर, आगे पुरुषवेद द्वारा मोक्ष जायेंगी । उसी भव से मोक्ष नहीं है, अन्य भव में हो कोई दोष नहीं है ।
यहाँ तात्पर्य यह है- स्वयं वस्तु-स्वरूप ही जानना चाहिए, दूसरों से विवाद नहीं करना चाहिये । दूसरों से विवाद क्यों नहीं करना चाहिये? विवाद में रागद्वेष की उत्पत्ति होती है, और उससे शुद्धात्मा की भावना नष्ट होती है; इसलिये दूसरों से विवाद नहीं करना चाहिये ॥२५१॥
अब, उपसंहाररूप से स्थित पक्ष को दिखाते हैं -
[तम्हा] जिस कारण उसी भव से मोक्ष नहीं होता, उस कारण [तं पडिरूवं लिंगं तासिं जिणेहिं णिद्दिट्ठं] उनके प्रतिरूप वस्त्र-प्रावरण सहित लिंग-चिन्ह-लांछन उन स्त्रियों का, सर्वज्ञ-जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है । [कुलरूववयोजुत्ता समणीओ] लोक में निन्दा-घृणा से रहित होने के कारण जिन दीक्षा के याग्य कुल-कुल कहलाता है । अंतरंग की विकार रहित मन की शुद्धि को बतानेवाला, बाहर में विकार रहित वेष - रूप कहलाता है; भंग रहित- अंगोपांग हीनता रहित शरीर अथवा अधिक बालपना या वृद्धपना से सम्बन्धित बुद्धि की विकलता (अस्थिरता) से रहित उम्र - वय कहलाती है; उन कुल, रूप, वय से सहित कुल-रूप-वय सहित होती हैं (इसप्रकार तृतीया तत्पुरुष समास किया) । कुल, रूप, वय से सहित कौन होती हैं? श्रमणी-अर्जिका-आर्यिका कुल, रूप, वय से सहित होती हैं । और भी वे किस विशेषता वाली हैं? [तस्समाचारा] उन स्त्रियों के योग्य-तद्योग्य- आचार-शास्त्र में कहा गया समाचार-आचार-आचरण है जिनका, वे उस समाचार सम्पन्न आर्यिकायें हैं ॥२५२॥
अब, इस समय पुरुषों के दीक्षाग्रहण में वर्ण व्यवस्था कहते हैं -
[वण्णेसु तीसु एक्को] तीन वर्णों में से एक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों में से कोई एक वर्ण । [कल्लाणंगो] कल्याणांग-निरोग शरीर । [तवोसहो वयसा] तप: सह-तप को सहने में समर्थ । किसके द्वारा तप को सहने में समर्थ हो? अधिक वृद्धता और अधिक बालता से रहित वय द्वारा तप को सहनेवाला । [सुमुहो] विकार रहित अंतरंग में परम चैतन्य परिणतिरूप विशुद्धि को बतानेवाला; गमक (ज्ञान करानेवाला), बाहर में विकार रहित है मुख जिसका अथवा जो मुख के अवयवों के भंग से रहित है, वह सुमुख है । [कुच्छारहिदो] लोक में दुराचार आदि अपवादों से रहित । [लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो] इन गुणों से विशिष्ट पुरुष जिन-दीक्षा ग्रहण करने के योग्य है । यथा योग्य सत् शूद्र आदि भी जिन-दीक्षा ग्रहण के योग्य हैं ॥२५३॥
अब, निश्चयनय का अभिप्राय कहते हैं -
[जो रयणत्तयणासो सो भंगो जिणवरेहिं णिद्दिट्ठो] जो रत्नत्रय का नाश है, वह जिनेन्द्र भगवान द्वारा भंग कहा गया है । विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावरूप अपने परमात्मतत्त्व की सम्यक् श्रद्धा उसका ही सम्यग्ज्ञान और उसमें ही सम्यक् अनुष्ठान (लीनता आचरण) रूप जो वह निश्चय रत्नत्रयरूप अपना भाव है, उसका नष्ट होना; वही निश्चय से नाश-भंग, जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है । [सेसं भंगेण पुणो] तथा शेष भंग द्वारा- शेष शरीर के किसी अंग के टूट जाने पर, मुण्ड हो जाने पर, वायु रोग हो जाने पर, वृषण (अण्डकोष) आदि के भंग हो जाने पर, [ण होदि सल्लेहणा अरिहो] सल्लेखना के योग्य नहीं होता है- लोक निन्दा के भय से निर्ग्रन्थरूप धारण करने योग्य नहीं है । कौपीन ग्रहण द्वारा उसकी भावना करने योग्य है- ऐसा अभिप्राय है ॥२५४॥
इसप्रकार स्त्री-मुक्ति-निराकरण के व्याख्यान की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल समाप्त हुआ ।
(अब अपवाद मार्ग के विशेष व्याख्यान परक ग्यारह गाथाओं में निबद्ध अन्तिम चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब पहले (२४२वीं गाथा में) कहे गये उपकरण रूप अपवाद व्याख्यान का विशेष कथन करते हैं -
[इदि भणिदं] ऐसा कहा गया है । क्या कहा गया है? [उवयरणं] उपकरण कहा गया है । उपकरण कहां कहा गया है? [जिणमग्गे] जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये मोक्षमार्ग में, उपकरण कहा गया है । वहां, उपकरण किसे कहा गया है? [लिंगं] शरीर के आकार पुद्गल पिण्डरूप द्रव्यलिंग को, वहाँ उपकरण कहा गया है । वह द्रव्यलिंग किस विशेषता वाला है? [जहजादरूवं] यथाजातरूप-यथाजातरूप शब्द के द्वारा यहाँ, व्यवहार से परिग्रह के परित्याग सहित नग्नरूप और निश्चय से अन्दर में शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव परमात्म-स्वरूप विवक्षित है । [गुरुवयणं पि य] गुरु के वचन भी -विकार रहित उत्कृष्ट चैतन्य ज्योतिस्वरूप परमात्मतत्व का ज्ञान करानेवाले, सारभूत सिद्ध (सफल) उपदेशरूप गुरु के उपदेशरूप वचन । गुरु के उपदेशरूप वचन मात्र ही नहीं, वरन् [सुत्तज्झयणं च] और आदि-मध्य-अन्त से रहित, जन्म-जरा (बुढ़ापा)-मरण से रहित अपने आत्मद्रव्य को प्रकाशित करनेवाले- बतानेवाले सूत्रों का अध्ययन-परमागम का वाचन- ऐसा अर्थ है । [णिद्दिट्ठं] उपकरणरूप कहे गये हैं । [विणओ] अपने निश्चयरत्नत्रय की शुद्धि निश्चय-विनय है और उसके आधारभूत पुरुषों में भक्ति का परिणाम व्यवहार-विनय है । दोनों ही प्रकार के विनय परिणाम उपकरण हैं -- ऐसा कहा गया है ।
इससे क्या कहा गया है? निश्चय से चार ही उपकरण हैं और दूसरे तो व्यवहार उपकरण हैं ॥२५५॥
अब, युक्त (उचित) आहार-विहार लक्षण मुनिराज का स्वरूप प्रसिद्ध करते हैं -
[इह लोगणिरावेक्खो] इस लोक से निरपेक्ष, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावी अपने आत्मा की अनुभूति को नष्ट करनेवाली, प्रसिद्धि, पूजा, लाभरूप इस लोक सम्बन्धी इच्छाओं से रहित; [अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि] परलोक में अप्रतिबद्ध, तपश्चरण करने पर दिव्य देव-स्त्री-परिवार आदि भोग प्राप्त होते है- इसप्रकार परलोक के विषय में प्रतिबद्ध (विषयाकांक्षारूप बंधन) नहीं हैं; [जुत्ताहारविहारो हवे] युक्ताहार-विहारी हों । कौन युक्ताहार-विहारी हों? [समणो] श्रमण युक्ताहार-विहारी हों । वे श्रमण किस विशेषतावाले हैं? [रहिदकसाओ] और कषाय रहित स्वरूप की अनुभूतिरूप अवलम्बन के बल से वे कषाय रहित हैं ।
यहाँ भावार्थ यह है- जो वे, इस लोक और परलोक से निरपेक्ष तथा कषाय रहित होने के कारण दीपक के स्थानीय शरीर में, तेल के स्थानीय ग्रास मात्र देकर घड़े-कपड़े आदि प्रकाशित होने योग्य पदार्थों के स्थानीय अपने परमात्म-पदार्थ का ही निरीक्षण करते हैं; वे ही युक्ताहार-विहारी हैं; शरीर की पुष्टि में लगे हुये और दूसरे नहीं ॥२५६॥
अब, पन्द्रह प्रमादों द्वारा मुनिराज प्रमत्त होते हैं ऐसा प्रतिपादन करते है -
[हवदि] क्रोधादि पन्द्रह प्रमादों से रहित चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मतत्त्व की भावना से च्युत रहते हुये होते हैं । कर्तारूप वे कौन होते हैं? [समणो] सुख-दुःख आदि में समान मनवाले मुनिराज होते हैं । वे मुनिराज किस विशेषतावाले होते हैं? [पमत्तो] वे मुनिराज प्रमत्त-प्रमादी होते हैं । वे किनसे प्रमादी होते हैं? [कोहादिएहिं चउहिं वि] चारों प्रकार के क्रोधादि द्वारा, [विकहाहिं] स्त्री कथा, भक्त कथा, चोर कथा, राजकथा रूप विकथाओं द्वारा, [तहिंदियाणमत्थेहिं] उसीप्रकार पाँच इन्द्रियों के अर्थों-स्पर्श आदि विषयों द्वारा प्रमादी होते हैं । और भी वे किसरूप हैं? [उवजुत्तो] उपयुक्त अर्थात् परिणत हैं । किन रूपों से परिणत हैं? [णेहणिद्दाहिं] स्नेह और निद्रारूप से परिणत हैं ॥२५७॥
अब, युक्ताहार-विहारी मुनिराज के स्वरूप का उपदेश देते हैं -
[जस्स] जिन मुनि सम्बन्धी [अप्पा] आत्मा । वे किस विशेषतावाले हैं? [अणेसणं] अपने शुद्धात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आहार से तृप्त होने के कारण, जिन्हे एषण-आहार की आकांक्षा-इच्छा नहीं है, वे अनेषण हैं, [तं पि तवो] उनके निश्चय से वही; आहार रहित आत्मा की भावनारूप उपवास लक्षण तप है, [तप्पडिच्छगा समणा] उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील श्रमण, उस निश्चय उपवास लक्षण तप को (जो) चाहते हैं, (वे) उसके प्रत्येषक श्रमण हैं । और भी जिनके क्या है ? [अण्णं] अपने परमात्मतत्व से दूसरे भिन्न हेय हैं । वे दूसरे क्या हैं? [अणेसणं] अन्न की-आहार की-भोजन की एषणा-वांछा-इच्छा -अन्नेषण, दूसरी-भिन्न है । वह भोजन की इच्छा कैसी है? [भिक्खं] भिक्षा के समय होनेवाली-भिक्ष्य-भिक्षारूप है । [अध] अब, अहो! ऐसा होने पर भी [ते समणा अणाहारा] वे अनशन आदि गुणों से विशिष्ट श्रमणआहार ग्रहण करते हुये भी अनाहारी हैं ।
और उसीप्रकार जो निष्क्रिय परमात्मा की भावना करते हैं और पाँच समिति सहित विहार करते हैं वे विहार करते हुये भी अविहारी है- ऐसा अर्थ है ॥२५८॥
अब उसी अनाहारकता को प्रकारान्तर से-दूसरे रूप में कहते हैं -
[केवलदेहो] मात्र शरीर इसके सिवाय अन्य परिग्रह से रहित हैं । कर्तारूप वे कौन अन्य परिग्रह से रहित हैं? [समणो] निन्दा-प्रशंसा आदि में समान मनवाले श्रमण अन्य परिग्रह से रहित हैं । तब फिर क्या उनका शरीर मे ममत्व होता होगा? ऐसा नहीं है । [देहे वि ममत्तरहिदपरिकम्मो] शरीर में भी ममत्व रहित परिकर्म है ।
मैं ममत्व का त्याग करता हूँ निर्ममत्व में उपस्थित होता हूँ । आत्मा ही मेरा आलम्बन है, शेष सभी को मैं छोड़ता हूँ ।"
इसप्रकार गाथा में कहे गये क्रम से शरीर में भी ममत्व रहित हैं । [आजुत्तो तं तवसा] उस शरीर को तप के साथ जोड़ते हैं । क्या करके उस शरीर को तप के साथ जोड़ते हैं? [अणिगूहिय] नहीं छिपाकर उसे जोड़ते हैं । किसे नहीं छिपाकर जोड़ते हैं? [अप्पणो सत्तिं] अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर उसे जोड़ते हैं ।
इससे क्या कहा गया है? - जो कोई भी शरीर से भिन्न शेष परिग्रह को छोड़कर, शरीर में भी ममत्व रहित है, उसीप्रकार उस शरीर को तप के साथ जोड़ता है, वह नियम से युक्ताहार-विहार है ॥२५९॥
अब, युक्ताहारत्व को विस्तार से प्रसिद्ध करते हैं -
- [एक्कं खलु तं भत्तं] वास्तव में एक काल ही भोजन-एक बार ही किया गया आहार युक्ताहार है । एक बार ही किया गया आहार युक्ताहार क्यों है? एक बार किये गये आहार से ही, विकल्प रहित समाधि - स्वरूप-लीनता के सहकारी कारणभूत शरीर की स्थिति संभव होने से, एक बार ही किया गया आहार युक्ताहार है । और वह आहार कैसा है?
- [अप्पडिपुण्णोदरं] शक्ति के अनुसार भूख से कम ऊनोदर रूप है । [जहालद्धं] जैसा मिल जाय वैसा है, अपनी इच्छा से प्राप्त नहीं है ।
- [चरणं भिक्खेण] भिक्षाचरण से ही प्राप्त है, अपने द्वारा पकाया गया नहीं है ।
- [दिवा] दिन में ही किया गया है, रात में नहीं किया गया है ।
- [ण रसावेक्खं] उसमें रसों की अपेक्षा नहीं है वरन् रस सहित अथवा रस रहित आहार में समान मन है ।
- [ण मधुमंसं] शहद-मांस से रहित है; मधु-मांस से रहित है-
इससे क्या कहा गया है? इसप्रकार इन विशिष्ट विशेषणों से सहित ही आहार मुनिराजों का युक्ताहार है । ऐसा आहार ही युक्ताहार क्यों है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं --
ज्ञानानन्द एक लक्षण निश्चय प्राणों की रक्षा स्वरूप, रागादि विकल्पों की उपाधि (संयोग) से रहित जो निश्चय नय से अहिंसा है और उसकी साधकरूप बाह्य में दूसरे जीवों के प्राणों के घात के त्यागरूप द्रव्य अहिंसा है; वह दोनों प्रकार की अहिंसा इस युक्ताहार में ही संभव है; अत: ऐसा आहार ही युक्ताहार है । इससे विपरीत जो आहार है, वह युक्ताहार नहीं है । इससे विपरीत आहार युक्ताहार क्यों नही? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है - इससे विरुद्ध आहार में द्रव्य- भावरूप हिंसा का सद्भाव होने से वह युक्ताहार नहीं है ॥२६०॥
GP:प्रवचनसार - गाथा 229.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
GP:प्रवचनसार - गाथा 229.2 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
अब, हाथ में आया हुआ प्रासुक आहार भी दूसरों को नहीं देना चाहिये, ऐसा उपदेश देते हैं --
[अप्पडिकुट्ठं पिंडं पाणिगयं णेव देयमण्णस्स] आगम से अविरुद्ध-निर्दोष, हाथ में आया हुआ आहार, देने योग्य नहीं है- दूसरों को नहीं देना चाहिये । [दत्ता भोत्तुम्जोग्गं] देने के बाद भोजन के लिये अयोग्य है; [भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठो] अथवा कथंचित् भुक्त है, (मानकर) भोजन करता है तो प्रतिकृष्ट है- प्रायश्चित्त के योग्य है ।
यहाँ भाव यह है -- जो वह हाथ में आया हुआ आहार दूसरों को नहीं देता है, उससे मोह रहित आत्मतत्त्व की भावनारूप मोह रहितता-वीतरागता ज्ञात होती है ॥२६३॥
अब, निश्चय व्यवहार नामक उत्सर्ग और अपवाद में कथंचित् परस्पर सापेक्षभाव को स्थापित करते हुये, चारित्र की रक्षा को दिखाते हैं - -
[चरदु] चलें-आचरण करें । क्या (किसका) आचरण करें? [चरियं] चारित्र, अनुष्ठान का आचरण करें । कैसे चारित्र का आचरण करें? [सजोग्गं] अपने योग्य अपनी अवस्था के योग्य चारित्र का आचरण करें । कैसा जैसे होता है (जिसप्रकार क्या नहीं हो) ? [मलच्छेदो जधा ण हवदि] मूल का छेद जैसे न हो, वैसे अपने योग्य चारित्र का आचरण करें । कर्तारूप वे कौन आचरण करें? [बालो वा वुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा] बालक अथवा वृद्ध अथवा श्रम से पीड़ित-श्रम-पीड़ित (इस प्रकार तृतीया तत्पुरुष समास किया है) अथवा ग्लान-व्याधि में स्थित-बीमार-रोगी ऐसा आचरण करें ।
वह इसप्रकार- सबसे पहले उत्सर्ग और अपवाद का लक्षण कहते हैं- अपने शुद्धात्मा से भिन्न बहिरंग-अन्तरंग रूप सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग उत्सर्ग है । उत्सर्ग, निश्चयनय, सभी का पूर्णता त्याग, परम उपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र, शुद्धोपयोग-ये सभी एकार्थ हैं- एक ही भाव के द्योतक हैं । उसमें असमर्थ पुरुष शुद्धात्मा की भावना के सहकारी- कुछ प्रासुक आहार ज्ञान के उपकरण आदि ग्रहण करता है- वह अपवाद है; अपवाद, व्यवहारनय, एकदेश परित्याग और उसीप्रकार अपहृत संयम सरागचारित्र शुभोपयोग- ये सभी एकार्थ हैं ।
वहाँ शुद्धात्मा की भावना के निमित्त समूर्ण त्याग लक्षण उत्सर्गरूप दुर्धर अनुष्ठान में प्रवृत्ति करने वाले मुनिराज, शुद्धात्मतत्त्व का साधक होने से मूलभूत संयम का अथवा संयम का साधक होने से मूलभूत शरीर का जैसे छेद विनाश नहीं होता है, वैसे कुछ प्रासुक आहार आदि को ग्रहण करते है- इसप्रकार अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग कहा गया है । और जब अपवाद लक्षण अपहृत संयम में प्रवृत्त होते हैं तब भी शुद्धात्मतत्त्व का साधक होने से संयम का अथवा संयम का साधक होने से मूलभूत शरीर का उच्छेद-विनाश नहीं होता है, वैसे उत्सर्ग की सापेक्षता से प्रवृत्ति करते हैं । वैसी प्रवृत्ति करते हैं- इसका क्या अर्थ है? जिसप्रकार संयम की विराधना नहीं होती है वैसी प्रवृत्ति करते है- यह इसका अर्थ है; इसप्रकार उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद है- ऐसा अभिप्राय है ॥२६४॥
अब, अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग और उसीप्रकार उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद का निषेध करते हुये चारित्र की रक्षा के लिये व्यतिरेक द्वार से (नास्तिपरक शैली में), उसी अर्थ को दृढ़ करते हैं --
[वट्टदि] वर्तते हैं- प्रवृत्त होते हैं । वे कर्तारूप कौन वर्तते हैं? [समणो] शत्रु-मित्र आदि में समान मनवाले श्रमण-मुनिराज वर्तते हैं । यदि वे वर्तते हैं तो क्या होता है? [जदि अप्पलेवी सो] यदि वर्तते हैं तो अल्पलेपी-थोड़ा पाप होता है । किन विषयों में वर्तते हैं? [आहारे व विहारे] मुनिराज के योग्य आहार व विहार में वर्तते हैं । पहले क्या करके वर्तते हैं? [जाणित्ता] पहले जानकर वर्तते हैं । किन्हें जानकर वर्तते हैं? [ते] उन कर्मता को प्राप्त (कर्मकारक में प्रयुक्त) [देसं कालं समं खमं उवधिं] देश, काल, मार्ग आदि सम्बन्धी श्रम-क्षमता, उपवास आदि के विषय में शक्ति को, उपधि-बालक- वृद्ध-थके हुये-रोगी के शरीर मात्र उपधि-परिग्रह को- इसप्रकार मुनिराज के आचरण के सहकारीभूत, देश आदि पाँचों को जानकर आहार-विहार में वर्तते हैं ।
वह इसप्रकार- पहले (२६४ वीं गाथा में) कहे गये क्रम से, पहले दुर्धर अनुष्ठानरूप उत्सर्ग में वर्तते हैं और वहाँ प्रासुक आहार आदि ग्रहण करने के निमित्त से अल्पलेप- बन्ध देखकर यदि उनमें नहीं वर्तते हैं तो आर्तध्यानरूप संक्लेश द्वारा शरीर का त्याग करके पहले किये गये पुण्य से देवलोक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ संयम का अभाव होने से, महान लेप (अधिक बन्ध) होता है । इस कारण अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग छोड़ देते हैं और शुद्धात्मा की भावना का साधक थोड़ा लेप बहुत लाभरूप अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग स्वीकार करते हैं ।
और उसीप्रकर पहले (२६४ वीं) गाथा में कहे गये क्रम से अपह्रत संयम शब्द से कहने योग्य अपवाद में प्रवृत्त होते हैं और वहाँ प्रवर्तते हुये, यदि कथंचित् औषध-पथ्य आदि सावद्य पाप के भय से रोग सम्बन्धी कष्ट का प्रतिकार-निराकरण नहीं करके शुद्धात्मतत्त्व की भावना नहीं करते हैं तो महान लेप होता है, अथवा यदि प्रतिकार में प्रवृत्त होते हुये भी, हरीत की (हरड़) के ब्याज से-बहाने गुड़ खाने के समान इन्द्रिय की लम्पटता-आसक्ति से संयम की विराधना करते हैं, तो भी महान लेप होता है । इस कारण उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद छोड़कर, शुरद्धात्मा की भावनारूप अथवा शुभोपयोगरूप संयम की विराधना नहीं करते हुए, औषध- पथ्य आदि के कारण उत्पन्न अल्प पाप होते हुये भी, बहुगुण राशिरूप उत्सर्ग की सापेक्षतावाला अपवाद स्वीकर करते हैं- ऐसा अभिप्राय है ॥२६५॥
इसप्रकार उवयरणं जिणमग्गे इत्यादि ग्यारह गाथाओं द्वारा अपवाद के विशेष कथनरूप से चौथे स्थल का व्याख्यान पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार पहले कहे गये क्रम से ण हि णिरवेक्खो चागो- इत्यादि तीस गाथाओं द्वारा चार स्थलरूप से अपवाद नामक दूसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।
इसके आगे चौदह गाथाओं तक, श्रामण्य दूसरा नाम मोक्षमार्ग नामक तीसरा अन्तराधिकार कहते हैं । वहाँ चार स्थल हैं । उनमें सबसे पहले आगम-अभ्यास की मुख्यता से एयग्गगदो समणो इत्यादि यथाक्रम से पहले स्थल में चार गाथायें हैं । तदुपरान्त भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप ही मोक्षमार्ग है- इस व्याख्यानरूप से आगमपुव्वा दिट्ठी इत्यादि स्थल में चार गाथायें हैं । तदुपरान्त द्रव्य-भाव संयम कथनरूप से चागो य अणारंभो इत्यादि तीसरे स्थल में चार गाथायें है । तत्पश्चात् निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग के उपसंहार की मुख्यता से मुज्झदि वा इत्यादि चौथे स्थल में, दो गाथायें हैं ।
इसप्रकार चार स्थलों द्वारा तीसरे अन्तराधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।
तृतीय अन्तराथिकार का स्थल विभाजन (गाथा २६६ से २७९ पर्यन्त)
(अब मोक्षमार्ग नामक तीसरे अन्तराधिकार का चार गाथाओं में निबद्ध पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)
वह इसप्रकार-
अब श्रमण एकाग्रता को प्राप्त है । और वह एकाग्रता आगम के परिज्ञान से ही होती है, ऐसा प्रकाशित करते हैं --
[एयग्गगदो समणो] एकाग्रता को प्राप्त श्रमण हैं । यहाँ अर्थ यह है-तीन लोक-तीन कालवर्ती सम्पूर्ण द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक काल में जानने में समर्थ परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान लक्षण अपने परमात्मतत्त्व की सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप दशा एकाग्रता कहलाती है । उस दशा को प्राप्त अर्थात् तन्मयरूप से परिणत श्रमण--मुनिराज हैं । [एयग्गं णिच्छिदस्स] और एकाग्रता निश्चित के होती है । किनमें निश्चित के एकाग्रता होती है? [अत्थेसु] टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाव जो वह परमात्म-पदार्थ--तत्प्रभृति पदार्थों में निश्चित के--पदार्थों के सम्बन्ध में निश्चित बुद्धिवाले के एकाग्रता होती है । [णिच्छित्ति आगमदो] और वह पदार्थों में निश्चित बुद्धि आगम से होती है ।
वह इसप्रकार- जीव भेद, कर्म भेद का प्रतिपादन करनेवाले आगम के अभ्यास से होती है, मात्र आगम के अभ्यास से नहीं, वरन् उसी प्रकार आगमपद के सारभूत ज्ञानानन्द एक परमात्म-तत्त्व को प्रकाशित करनेवाला--बतानेवाला होने से अध्यात्म नामक परमागम से, पदार्थों की जानकारी होती है । [आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा] इस कारण ही कहे गये लक्षण वाले आगम और परमागम में चेष्टा, प्रवृत्ति ज्येष्ठ-श्रेष्ठ-प्रशस्य-श्रेयस्कर है -- ऐसा अर्थ है ॥२६६॥
अब आगम के परिज्ञान से हीन के कर्मों का क्षय नहीं होता है, ऐसा प्ररूपित करते हैं --
[आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि] आगमहीन श्रमण स्वयं को तथा पर को ही नहीं जानता है, [अविजाणंतो अट्ठे] अर्थों--परमात्मा आदि पदार्थों को नहीं जानता हुआ [खवेदि कम्माणि किध भिक्खु] भिक्षु कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है? किसी भी प्रकार नहीं कर सकता है ।
यहाँ इसका विस्तार करते हैं -- 'गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणायें और उपयोग, ये क्रम से बीस प्ररूपणायें कही गई हैं ।'
इसप्रकार गाथा में कहे गये -- इत्यादि आगम को नहीं जानता हुआ और उसीप्रकार --
'जिसके द्वारा अपने शरीर से भिन्न अपना परमार्थ-परम-पदार्थ--भगवान आत्मा नहीं जाना गया है, वह अंधा दूसरे अंधों को क्या मार्ग दिखायेगा ।'
इस प्रकार दोहक गाथा में कहे गये, आगमपद के सारभूत अध्यात्म-शास्त्र को नहीं जानता हुआ पुरुष रागादि दोष रहित अव्याबाध सुखादि गुणस्वरूप अपने आत्मद्रव्य का, 'भावकर्म' शब्द द्वारा कहे जानेवाले रागादि अनेक विकल्प-जाल-रूप कर्मों के साथ, निश्चय से भेद नहीं जानता है; उसीप्रकार कर्म-शत्रु को नष्ट करने वाले अपने परमात्म-तत्त्व का ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्मों के साथ भी पृथक्त्व नहीं जानता है और उसी प्रकार शरीर रहित लक्षण शुद्धात्म-पदार्थ का, शरीर आदि नोकर्मों के साथ अन्यत्व नहीं जानता है । इस प्रकार भेद-ज्ञान का अभाव होने से शरीर में ही स्थित अपने शुद्धात्मा की रुचि-श्रद्धा नहीं करता है और सम्पूर्ण रागादि के त्याग-रूप से, उसकी भावना नहीं करता है; इसलिये उसके कर्मों का क्षय कैसे हो सकता है? किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है । इस कारण मोक्षार्थियों को, परमागम का अभ्यास करना चाहिये -- ऐसा तात्पर्यार्थ है ॥२६७॥
[आगमचक्खू] शुद्धात्मा आदि पदार्थों का प्रतिपादन करनेवाले परमागमरूप नेत्रवाले हैं । परमागमरूप नेत्रवाले वे कौन हें? [साहू] निश्चय रत्नत्रय के आधार से अपने शुद्धात्मा की साधना करनेवाले साधु परमागमरूपी नेत्रवाले हैं । [ड़ंदियचक्खूणि] निश्चय से इन्द्रिय रहित, अमूर्त, केवलज्ञानादि गुण स्वरूप होने पर भी, व्यवहार से अनादि कर्मबन्ध के वश इन्द्रियाधीन होने के कारण, इन्द्रिय चक्षुवाले हैं । कर्तारूप कौन इन्द्रिय चक्षुवाले हैं? [सव्वभूदाणि] सभी प्राणी-सभी संसारी जीव इन्द्रिय चक्षुवाले हैं- ऐसा अर्थ है । [देवा य ओहिचक्खू] और देव भी सूक्ष्म, मूर्त, पुद्गल द्रव्य को विषय करनेवाले अवधिज्ञान रूप चक्षुवाले हैं । [सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू] और सिद्ध शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी जीव, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध (मात्र) असंख्यात प्रदेशों में सभी प्रदेशोंरूप चक्षुवाले हैं ।
इससे क्या कहा गया है? मोक्षार्थी जीव द्वारा सम्पूर्ण शुद्ध आत्मप्रदेशों में (ज्ञानरूपी) नेत्रों की उत्पत्ति के लिए प्ररमागम के उपदेश से उत्पन्न विकार रहित स्वसंवेदनज्ञान ही, भावना करने योग्य है ॥२६८॥
[सव्वे आगमसिद्धा] सभी आगम-सिद्ध-आगम से ज्ञात हैं । वे कौन आगम से ज्ञात हैं? [अत्था] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी जो वह परमात्मपदार्थ, तत्प्रभृति सभी पदार्थ आगम से ज्ञात हैं । वे पदार्थ आगम से कैसे ज्ञात हैं? [गुणपज्जयेहिं चित्तेहिं] वे पदार्थ, विचित्र गुण-पर्यायों के साथ ज्ञात हैं । [जाणंति] जानते हैं । किन्हें जानते हैं? [ते वि] उन पहले कहे गये अर्थ (द्रव्य) गुणपर्यायों को जानते हैं । पहले क्या करके जानते हैं? [पेच्छित्ता] पहले देखकर-जानकर जानते हैं । किससे देखकर जानते हैं? [अगमेण हि] आगम से ही देखकर जानते हैं । यहाँ अर्थ यह है- पहले आगम को पढ़कर, बाद में जानते हैं । [ते समणा] वे श्रमण हैं ।
यहाँ यह कहा गया है -- सभी द्रव्य-गुण-पर्याय परमागम से ज्ञात होते हैं । परमागम से क्यों ज्ञात होते हैं? परोक्षरूप से आगम केवलज्ञान के समान होने से, वे परमागम से जाने जाते हैं । बाद में आगम के आधार से स्वसंवेदनज्ञान होने पर और स्वसंवेदनज्ञान के बल से केवलज्ञान होने पर, प्रत्यक्ष भी होते हैं । इस कारण आगमरूपी नेत्र द्वारा परम्परा से सभी दिखाई देते हैं ॥२६९॥
इसप्रकार आगम-अभ्यास के कथनरूप से, पहले स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब, भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग के कथन परक, चार गाथाओं में निबद्ध द्वितीय स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब, आगम-परिज्ञान और तत्त्वार्थ-श्रद्धान -- इन दोनों पूर्वक संयतपना -- इन तीनों के मोक्षमार्गत्व का नियम करते हैं --
[आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह] इस लोक में, जिसके आगमपूर्वक दृष्टि-सम्यक्त्व नहीं है, [संजमो तस्स णत्थि] उसके संयम नहीं है, [इति भणदि] इसप्रकार कहता है । कर्तारूप कौन ऐसा कहता है? [सुत्तं] सूत्र आगम ऐसा कहता है । [असंजदो होदि किध समणो] असंयत होता हुआ श्रमण-मुनिराज कैसे हो सकता है? किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है । वह इसप्रकार- यदि दोष रहित अपना परमात्मा ही उपादेय है- ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व नहीं है, तो परमागम के बल से, स्पष्ट एक ज्ञानरूप आत्मा को जानता हुआ भी सम्यग्दृष्टि नहीं है और ज्ञानी नहीं है; इन दोनों का अभाव होने पर, पाँचों इन्द्रियों के विषयों की इच्छा और छहकय के जीवघात से व्यावृत्त-निवृत्त होने पर भी संयत नहीं है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि परमागम का ज्ञान तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतपना- तीन ही-तीनों का युगपद्पना ही मुक्ति का कारण है ॥२७०॥
[ण हि आगमेण सिच्झदि] आगम से उत्पन्न परमात्मज्ञान द्वारा सिद्धि नहीं होती है, [सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु] यदि परमात्मा आदि पदार्थों में-पदार्थों सम्बन्धी श्रद्धान नहीं है (तो), [सद्दहमाणो अत्थे] अथवा ज्ञानानन्द एक स्वभावी अपने परमात्मा आदि पदार्थों का श्रद्धान है, [असंजदो वा ण णिव्वादि] तो भी विषय-कषाय के आधीन होने से असंयत निर्वाण को प्राप्त नहीं करता है ।
वह इसप्रकार- जैसे दीपक सहित पुरुष का कूप (कुआँ) में गिरने के प्रसंग में, कुएं में गिरने से बचना मेरे लिए हितकर है- यदि ऐसा निश्चयरूप श्रद्धान नहीं है तो, उसका दीपक क्या कर सकता है? कुछ भी नहीं । उसीप्रकार जीव के भी परमागम के आधार से सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञेयाकारो के साथ मिश्रित-चित्र-विचित्र स्पष्ट एक ज्ञानरूप अपने आत्मा को जानता हुआ भी, मेरा आत्मा ही मुझे उपादेय है- इसप्रकार यदि निश्चयरूप श्रद्धान नहीं है, तो उसका दीपक के स्थानीय आगम क्या कर सकता है? कुछ भी नहीं ।
अथवा जैसे वही दीपक सहित पुरुष, अपने पौरुष के बल से-पुरुषार्थ से यदि कूप में गिरने से निवृत्त नहीं होता चेतता नहीं है तो उसका श्रद्धान, दीपक अथवा नेत्र क्या कर सकते हैं? कुछ भी नहीं । उसीप्रकार श्रद्धान-ज्ञान सहित यह जीव भी, यदि पौरुष के स्थानीय चारित्र--स्वरूप-स्थिरता के बल से, रागादि विकल्परूप असंयम से निवृत्त नहीं होता-हटता नहीं है तो उसका श्रद्धान अथवा ज्ञान क्या करे ? कुछ भी नहीं ।
इससे यह सिद्ध हुआ कि परमागम के ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व में से, दो या एक से मोक्ष नहीं होता, वरन् तीनों की एकता से मोक्ष होता है ॥२७१॥
अब परमागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतस्वरूप भेद-रत्नत्रय का युगपतपना होने पर भी, जो अभेद-रत्नत्रय स्वरूप विकल्प-रहित समाधि--स्वरूप-लीनता लक्षण आत्मज्ञान वही निश्चय से मुक्ति का कारण है; ऐसा प्रतिपादन करते हैं --
[जं अण्णाणी कम्मं खवेदि] विकल्प रहित समाधि रूप निश्चय रत्नत्रय स्वरूप विशिष्ट भेद-ज्ञान का अभाव होने से, अज्ञानी जीव जो कर्म नष्ट करता है । किन साधनों द्वारा वह कर्म नष्ट करता है? [भवसयसहस्सकोडीहिं] लाख करोड़ भवों द्वारा, वह जो कर्म नष्ट करता है । [तं णाणी तिहिं गुत्तो] वे कर्म ज्ञानी-जीव, तीन गुप्तियों से गुप्त होता हुआ [खवेदि उस्सासमेत्तेण] उच्छवास मात्र से नष्ट कर देता है ।
वह इसप्रकार- बाह्य विषय में परमागम के अभ्यास के बल से
- सम्यक् परिज्ञान,
- उसीप्रकार श्रद्धान और
- व्रतादि अनुष्ठान
- अपने शुद्धात्मा में जानकारी-रूप, सविकल्प ज्ञान,
- अपने शुद्धात्मा की उपादेयभूत रुचि के विकल्परूप सम्यग्दर्शन,
- उसी आत्मा में रागादि विकल्पों की निवृत्तिरूप सविकल्प चारित्र--
[परमाणु पमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो विज्जदि जदि] तथा शरीर आदि विषयों में जिस पुरुष के परमाणुमात्र (अत्यल्प) भी ममत्व यदि पाया जाता है, तो [सो सिद्धिं ण लहदि] वह मुक्ति प्राप्त नहीं करता है । परमाणु मात्र ममत्व वाला वह कैसा हो? [सव्वागमधरो वि] सम्पूर्ण आगम को धारण करने वाला (आगम-ज्ञानी) होने पर भी वह मुक्ति प्राप्त नहीं करता है ।
यहाँ अर्थ यह है- सम्पूर्ण आगमज्ञान तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता होने पर भी जिसके शरीरादि के सम्बन्ध में थोड़ा भी ममत्व (एकत्व-ममत्व आदि विपरीत भाव) पाया जाता है, उसके पहले (२७२ वीं) गाथा में कहा गया निर्विकल्प समाधि लक्षण निश्चय रत्नत्रय स्वरूप स्वसंवेदन ज्ञान नहीं है ॥२७३॥
इसप्रकार भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग के स्थापन की मुख्यता से, दूसरे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुई । विशेष यह है कि बहिरात्मदशा, अन्तरात्मदशा और परमात्मारूप मोक्ष दशा- ये तीन दशायें हैं । इन तीन दशाओं में, इनका अनुसरण करनेवाला- इनरूप आकार वाला द्रव्य रहता है । इसप्रकार परस्पर की अपेक्षा सहित, द्रव्य-पर्याय स्वरूप जीव पदार्थ है । उसमें मोक्ष के कारण का विचार करते हैं -
पहली मिथ्यात्व रागादिरूप बहिरात्मादशा अशुद्धदशा है, वह मोक्ष की कारण नहीं है । तथा मोक्षदशा शुद्ध फलभूत है, वह आगे प्रगट होती है । इन दोनों से भिन्न जो अन्तरात्मा दशा है, वह मिथ्यात्व-रागादि से रहित होने के कारण शुद्ध है । जैसे सूक्ष्म निगोत-निगोदिया जीव के ज्ञान में, शेष आवरण होने पर भी क्षयोपशम ज्ञानावरण (पर्याय ज्ञान नामक क्षयोपशम ज्ञानावरण) नहीं है, वैसे यहाँ भी केवलज्ञानावरण होने पर भी एक देश क्षयोपशम ज्ञान की अपेक्षा, आवरण नहीं है । जितने अंशों में आवरण रहित और रागादि से रहित होने के कारण शुद्ध है, उतने अंशों में मोक्ष का कारण है ।
वहाँ शुद्ध पारिणामिक भावरूप परमात्मद्रव्य ध्येय है, और वह उस अन्तरात्मारूप ध्यान दशा विशेष से कथंचित् भिन्न है । यदि वह एकान्त से उससे अभिन्न हो, तो मोक्ष में भी ध्यान प्राप्त होता है, अथवा इस ध्यान पर्याय का विनाश होने पर परम पारिणामिक भाव का भी विनाश प्राप्त होता है ।
इसप्रकार बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के कथनरूप से मोक्षमार्ग जानना चाहिये ॥२७३॥
(अब चार गाथाओं में निबद्ध द्रव्य-भाव संयम के कथनरूप तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
[चागो य] अपने शुद्धात्मा को सब ओर से ग्रहण कर बहिरंग-अन्तरंग परिग्रह की निवृत्ति त्याग है । [अणारंभो] क्रिया रहित अपने शुद्धात्मद्रव्य में ठहरकर मन-वचन-शरीर सम्बन्धी व्यापार (चेष्टा) से निवृत्ति अनारम्भ है । [विसयविरागो] विषयों से रहित अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न सुख में तृप्त होकर पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी सुख की इच्छा का त्याग विषय-विराग है । [खओ कसायाणं] कषाय रहित शुद्धात्मा की भावना के बल से, क्रोधादि कषायों का त्याग कषायक्षय है । [सो संजमो त्ति भणिदो] वह इन गुणों से विशिष्ट 'संयम' - ऐसा कहा गया है । [पव्वज्जाए विसेसेण] प्रथम सामान्य से भी यह संयम का लक्षण है, प्रव्रज्या अर्थात् तपश्चरणरूप दशा में, विशेषरूप से भी यही संयम का लक्षण है । यहाँ अन्दर में शुद्धात्मा की सम्वित्ति-स्वसंवेदन भाव संयम है और बाहर से निवृत्ति द्रव्य संयम है ॥२७४॥
अब, आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व- इन तीनों की जो सविकल्प युगपतता और उसी प्रकार विकल्प-रहित आत्मज्ञान है- इन दोनों की संभवता--एक साथ उपस्थिति दिखाते हैं --
- [पंचसमिदो] व्यवहार से पाँच समितियों द्वारा समित-संवृत-सम्यक् प्रवृत्ति करने वाले पंचसमित हैं और निश्चय से अपने स्वरूप में अच्छी तरह गत-परिणत-समित हैं ।
- [तिगुत्तो] व्यवहार से मन-वचन-काय तीन के निरोध से त्रिगुप्त हैं, निश्चय से अपने स्वरूप में गुप्त-परिणत-लीन-त्रिगुप्त हैं ।
- [पंचेदियसंवुडो] व्यवहार से पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी विषयों से छूटने के कारण संवृत पचेन्द्रिय-संवृत हैं, निश्चय से अतीन्द्रिय सुख के स्वाद में लीन (होने से) पंचेन्द्रिय-संवृत हैं ।
- [जिदकसाओ] व्यवहार से क्रोधादि कषायों को जीतने से जितकषाय हैं निश्चय से कषाय रहित आत्मा की भावना में लीन जितकषाय हैं ।
- [दंसणणाणसमग्गो] यहाँ दर्शन शब्द से अपने शुद्धात्मा का श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन, तथा ज्ञान शब्द से स्वसंवेदन ज्ञान ग्रहण करना चाहिये; उन दोनों से समग्र-परिपूर्ण-दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण हैं ।
इससे यह निश्चित हुआ- व्यवहार से जो बाह्य विषय में व्याख्यान किया उससे सविकल्प सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र- तीनों की युगपतता ग्रहण करना चाहिये, तथा अन्तरंग व्याख्यान से निर्विकल्प आत्मज्ञान ग्रहण करना चाहिये- इसप्रकार सविकल्प की युगपतता और निर्विकल्प आत्मज्ञान घटित होता है ॥२७५॥
अब विकल्परूप आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व- इन तीन लक्षणों की युगपतता तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान से सहित जो वे संयत हैं उनका क्या लक्षण है? ऐसा उपदेश देते हैं । ऐसा उपदेश देते हैं- इसका क्या अर्थ है? ऐसा प्रश्न पूछे जाने पर उत्तर देते हैं- यह इसका अर्थ है । इसप्रकार प्रश्नोत्तररूप पातनिका के प्रसंग में यथासंभव कहीं-कहीं 'इति' शब्द का ऐसा अर्थ जानना चाहिये -
वे श्रमण संयत-तपोधन हैं । जो किस विशेषता वाले हैं? शत्रु-बन्धु, सुख-दुःख, निन्दा- प्रशंसा, लोष्ट (मिट्टी का ढ़ेला)-स्वर्ण, जीवन-मरण में सम-समान मनवाले हैं ।
इससे यह निश्चित हुआ -- शत्रु-बंधु, सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, लोष्ट-स्वर्ण, जीवन-मरण, में समताभाव से परिणत अपने शुद्धात्मतत्त्व के सम्यकश्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप विकल्प सहित समाधि-स्वरूपलीनता से, अच्छी तरह उत्पन्न विकार-रहित उत्कृष्ट आह्लाद एक लक्षण सुखामृतरूप परिणति स्वरूप जो परम साम्य है; वही परमागम ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व की युगपतता और उसीप्रकार निर्विकल्प आत्मज्ञानरूप से परिणत मुनिराज का लक्षण जानना चाहिये ॥२७६॥
अब, संयत मुनिराज का जो यह साम्यलक्षण कहा है, वही श्रामण्य दूसरा नाम मोक्षमार्ग कहलाता है; ऐसा निरूपित करते हैं -
[दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु] जो कर्ता दर्शन-ज्ञान-चारित्र - तीनों में अच्छी तरह से उपस्थित-उद्यत हैं, [एयग्गगदो त्ति मदो] वे एकाग्रता को प्राप्त हैं- ऐसा माना गया है- स्वीकार किया गया है, [सामण्णं तस्स पडिपुण्णं] उनके श्रामण्य-चारित्र-यतिपना परिपूर्ण है ।
वह इसप्रकार- भावकर्म द्रव्यकर्म और नोकर्मों से तथा शेष पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों से भी भिन्न सहज-शुद्ध हूं हमेशा आनन्द एक स्वभावरूप मुझ सम्बन्धी जो आत्मद्रव्य है (मैं जो आत्मद्रव्य हूं), वही मुझे उपादेय है- ऐसी रुचिरूप सम्यग्दर्शन, उसकी ही विशेष जानकारीरूप सम्यग्ज्ञान और उसी स्वरूप में निश्चल अनुभूति लक्षण चारित्र- इसप्रकार कहे गये स्वरूपवाले जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों पानक (ठंडाई) के समान अनेक होने पर भी अभेदनय से एक हैं वे सविकल्प दशा में व्यवहार से एकाग्रता कहलाते हैं । वे ही विकल्परहित समाधि-स्वरूपलीनता के समय, निश्चय से एकाग्र कहलाते हैं । वही दूसरे नामों की अपेक्षा परम साम्य है । वही परम साम्य अन्य पर्याय नामों-दूसरे नामों की अपेक्षा शुद्धोपयोग लक्षण श्रामण्य, दूसरा नाम मोक्षमार्ग जानना चाहिये ।
उस मोक्षमार्ग का 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तीनों की एकरूपता मोक्षमार्ग है' -- इसप्रकार भेद स्वरूप होने से, पर्याय प्रधान व्यवहारनय से निर्णय होता है । 'एकाग्रता मोक्षमार्ग है' -- इसप्रकार अभेद स्वरूप होने से, द्रव्य प्रधान निश्चयनय से निर्णय होता है । समस्त वस्तु-समूह के ही भेदाभेदात्मक होने से निश्चय-व्यवहार- दोनों मोक्षमार्गों का प्रमाण से भी निश्चय होता है- ऐसा अर्थ है ॥२७७॥
इसप्रकार निश्चय-व्यवहार संयम के प्रतिपादन की मुख्यता से तीसरे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब मोक्षमार्ग के उपसंहार परक दो गाथाओं वाला चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब, जो अपने शुद्धात्मा में एकाग्र नहीं है, उसके मोक्ष का अभाव दिखाते हैं -
[मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज जदि] यदि मोह करता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है । ये सब क्या करके करता है? दूसरे द्रव्यों का आश्रय लेकर करता है । ऐसा वह कौन करता है? [समणो] श्रमण-तपोधन-मुनि ऐसा करता है तो । उस समय [अण्णाणी] वह अज्ञानी है । अज्ञानी होता हुआ [बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं] अनेक प्रकार के कर्मों से बँधता है ।
वह इसप्रकार -- जो विकार रहित स्व-संवदेन ज्ञान द्वारा एकाग्र होकर अपने आत्मा को नहीं जानता है, उसका चित्त बाह्य विषयों में जाता है । इसलिये ज्ञानानन्द एक अपने स्वभाव से च्युत होता है, और इसलिये राग-द्वेष-मोह रूप से परिणमता है । उन रूप परिणमन करता हुआ अनेक प्रकार के कर्मों से बँधता है । इस कारण मोक्षार्थियों को, एकाग्र रूप से अपने स्वरूप की भावना करना चाहिये -- ऐसा अर्थ है ॥२७८॥
[अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव] अर्थों--बाह्य पदार्थों में जो मोह नहीं करता है, राग नहीं करता, वास्तव में द्वेष को भी प्राप्त नहीं है [जदि] यदि, तो [सो समणो] वह मुनि [णियदं] निश्चित [खवेदि कम्माणि विविहाणि] विविध कर्मों का क्षय करता है ।
अब (इसका) विशेष कथन करते हैं -- जो वे देखे हुये, सुने हुये, भोगे हुये भोगों की इच्छारूप अपध्यान (बुरे ध्यान) के त्याग पूर्वक अपने स्वरूप की भावना है, उनका मन बाह्य पदार्थों में नहीं जाता है, और इसलिए बाह्य पदार्थों सम्बन्धी चिन्ता का अभाव होने से विकार रहित चैतन्य चमत्कार से च्युत नहीं होते हैं और उससे च्युत नहीं होने के कारण रागादि का अभाव होने से, विविध कर्म नष्ट हो जाते हैं । इसलिये मोक्षार्थी को निश्चल मन से, अपने आत्मा में भावना करना चाहिये ।
इसप्रकार के वीतराग चारित्र सम्बन्धी विशेष कथन को सुनकर कोई कहते हैं -- सयोगकेवलियों के भी एकदेश चारित्र है, परिपूर्ण चारित्र तो अयोगी के अन्तिम समय में होगा, इस कारण अभी हमारे सम्यक्त्व-भावना और भेदज्ञान-भावना ही पर्याप्त है, चारित्र बाद में होगा । (आचार्य कहते है) ऐसा नहीं कहना चाहिये । अभेदनय से ध्यान ही चारित्र है, और वह ध्यान केवलियों के उपचार से कहा गया है, इसीप्रकार चारित्र भी उपचार से कहा है । तथा जो सम्पूर्ण रागादि विकल्प जाल रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण सम्यग्दर्शन-ज्ञान पूर्वक छद्मस्थ का वीतराग चारित्र है, वही कार्यकारी है । वही कार्यकारी क्यों है? क्योंकि उससे ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है, अत: वही कार्यकारी है; इसलिये चारित्र में प्रयत्न करना चाहिये- ऐसा भाव है ।
दूसरी बात यह है कि उत्सर्ग व्याख्यान के समय श्रामण्य का व्याख्यान किया था, यहाँ फिर से किसलिए किया है? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर कहते है- वहाँ सम्पूर्ण (परिग्रहादि) का परित्याग लक्षण उत्सर्ग ही मुख्य रूप से मोक्षमार्ग है (यह कहा था); यहाँ श्रामण्य का व्याख्यान है, परन्तु श्रामण्य (मुनिपना) ही मोक्षमार्ग है (यह कहा गया है) - इसप्रकार (पृथक्-पृथक्) मुख्यता से दोनों में अन्तर है ॥२७९॥
इसप्रकार श्रामण्य दूसरा नाम मोक्षमार्ग के उपसंहार की मुख्यता से चौथे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।
इसप्रकार पहले कहे गये क्रम से '[एयग्गगदो]' इत्यादि चौदह गाथाओं द्वारा चार स्थल रूप से श्रामण्य अपरनाम मोक्षमार्ग नामक तीसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
अब, इसके बाद ३२ गाथाओं तक, पाँच स्थलों द्वारा शुभोपयोग अधिकार कहा जाता है । वहीं सबसे पहले लौकिक संसर्ग के निषेध की मुख्यता से, '[णिच्छिदसुत्तत्थ पदो]' इत्यादि पाठक्रम से पहले स्थल में पाँच गाथायें हैं । तदुपरान्त सराग-संयम दूसरा नाम शुभोपयोग के स्वरूप कथन की मुख्यता से, '[समणा सुद्धवजुत्ता]' इत्यादि दूसरे स्थल में आठ गाथायें हैं । तदनन्तर पात्र-अपात्र की परीक्षा के प्रतिपादनरूप से (तीसरे स्थल में), '[रागो पसत्थभूदो]' इत्यादि छह गाथायें हैं । तत्पश्चात् परम आचार आदि कहे गये क्रम से और भी संक्षेपरूप से (चौथे स्थल में), समाचार व्याख्यान की प्रधानतारूप '[दिट्ठा पगदं वत्थुं]' इत्यादि आठ गाथायें हैं । और उसके बाद पंच रत्न की मुख्यता से (पाँचवे स्थल मे) 'जे अजधागहिदत्था-' इत्यादि पाँच गाथायें हैं ।
इसप्रकार ३२ गाथाओं द्वारा प्राँच स्थलरूप से चौथे अन्तराधिकार में सामूहिक पातनिका है ।
चतुर्थ अन्तराधिकार का स्थलविभाजन (गाथा २८० से ३११ पर्यन्त)
स्थलक्रम | प्रतिपादित प्रधान विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथायें | कुल गाथायें |
---|---|---|---|
प्रथम स्थल | लौकिक संसर्ग के निषेध परक | २८० से २८४ | ५ |
द्वितीय स्थल | शुभोपयोग स्वरूप कथन | २८५ से २९२ | ८ |
तृतीय स्थल | पात्र-अपात्र की परीक्षा प्रतिपादक | २९३ से २९८ | ६ |
चतुर्थ स्थल | समाचार व्याख्यान प्रतिपादक | २९९ से ३०६ | ८ |
पंचम स्थल | पंचरत्न गाथायें | ३०७ से ३११ | ५ |
कुल पाँच स्थल | कुल ३२ गाथायें |
(अब चौथे अन्तराधिकार का पाँच गाथाओं वाला पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।) वह इसप्रकार -
[संति] हैं । कहाँ हैं? [समयम्हि] परमागम में हैं । कौन हैं परमागम में ? [समणा] मुनि परमागम में हैं । वे किस विशेषता वाले हैं ? [सुद्धवजुत्ता] वे शुद्धोपयोग से युक्त शुद्धोपयोगी हैं- ऐसा अर्थ है । [सुहोवजुत्ता य] न केवल शुद्धोपयोग युक्त हैं बल्कि शुभोपयोग युक्त भी हैं । यहाँ 'चकार'-'च' शब्द अन्वाचय अर्थ में अर्थात् गौण अर्थ में ग्रहण करना चाहिये । इस प्रसंग में दृष्टान्त देते है - जैसे निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी सिद्ध जीव ही जीव कहे जाते हैं और व्यवहार से चतुर्गति परिणत अशुद्ध जीव जीव हैं उसीप्रकार शुद्धोपयोगियों की मुख्यता तथा चकार द्वारा समुच्चय व्याख्यान होने से शुभोपयोगियों की गौणता है । गौणता कैसे उत्पन्न हुई? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं - [तेसु वि सुद्धवजुत्ता सासवा सेसा] उनमें से भी शुद्धोपयोग-युक्त अनास्रव हैं, शेष सास्रव हैं - इस कारण उनमें गौणता है ।
वह इसप्रकार -- अपने शुद्धात्मा के बल से, सम्पूर्ण शुभ-अशुभ सम्बन्धी संकल्प-विकल्प रहित होने के कारण, शुद्धोपयोगी निरास्रव ही हैं शेष शुभोपयोगी मिथ्यात्व, विषय-कषाय रूप अशुभ आस्रव का निरोध होने पर भी पुण्यास्रव सहित हैं -- ऐसा भाव है ॥२८५॥
[सा सुहजुत्ता भवे चरिया] वह चर्या शुभयुक्त हो । किसके वह चर्या शुभ युक्त हो ? मुनि के वह चर्या शुभ युक्त हो । कैसे मुनिराज के, वह ऐसी हो? सम्पूर्ण रागादि विकल्प रहित परम समाधि (स्वरूप-स्थिरता) में ठहरने के लिये असमर्थ मुनि के, वह ऐसी हो । यदि क्या है तो ऐसी शुभयुक्त चर्या हो ? [विज्जदि जदि] यदि पाई जाती है तो वह हो? कहाँ पायी जाती है, तो वह हो? [सामण्णे] श्रामण्य-चारित्र में यदि पाई जाती है, तो वह हो । उसमें क्या पायी जाती है? [अरहंतादिसु भत्ती] अनन्त ज्ञान आदि गुणों से सहित अरहन्त-सिद्धों में, गुणों के प्रति अनुराग सहित भक्ति पायी जाती है । [वच्छलदा] वत्सल का भाव वत्सलता-वात्सल्य है, विनय अनुकूल वृत्ति-प्रवृत्ति रूप वत्सलता पायी जाती है । किन विषयों में वत्सलता पायी जाती है? [पवयणाभिजुत्तेसु] प्रवचन में अभियुक्तों के प्रति । यहाँ प्रवचन शब्द से आगम अथवा संघ कहा गया है, उस प्रवचन से अभियुक्त, प्रवचनाभियुक्त है (इसप्रकार तृतीया तत्पुरुष समास किया) अर्थात् आगम में लीन- स्वाध्याय-रत या संघ में स्थित आचार्य, उपाध्याय, साधुओं के प्रति उसमें वत्सलता पायी जाती है ।
इससे यह कहा गया है- स्वयं शुद्धोपयोग लक्षण परम सामयिक में ठहरने के लिए असमर्थ मुनि के, शुद्धोपयोग के फलस्वरूप केवलज्ञान परिणत अन्य जीवों के प्रति और उसीप्रकार शुद्धोपयोग के आराधक जीवों के प्रति, जो वह भक्ति है, वह शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है ॥२८६॥
[ण णिंदिदा] निषिद्ध नहीं है । किसमें निषिद्ध नहीं हैं ? [रागचरियम्हि] शुभ राग चर्या में-सराग चारित्र अवस्था में निषिद्ध नहीं हैं । क्या निन्दित नहीं हैं ? [वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ति] वन्दन-नमस्कार के साथ अभ्युत्थान, अनुगमनरूप विनीत प्रवृति, निन्दित नहीं है । [समणेसु समावणओ] श्रमणों में श्रम को दूर करना-रत्नत्रयरूप भावना को नष्ट करनेवाले श्रम-खेद को नष्ट करना निन्दित नहीं है ।
इससे क्या कहा गया है- शुद्धोपयोग के साधक शुभोपयोग में स्थित मुनिराजों को रत्नत्रय की आराधना करनेवाले शेष पुरुषों के विषय में, इसप्रकार की शुभोपयोगरूप प्रवृत्तियाँ युक्त ही हैं-योग्य ही हैं ॥३०२॥
[दंसणणाणुवदेसो] दर्शन अर्थात् तीन मूढ़ता आदि से रहित सम्यक्त्व, ज्ञान अर्थात् परमागम का उपदेश - उन दोनों का उपदेश दर्शन-ज्ञान का उपदेश (इसप्रकार षष्ठी तत्पुरुष समास किया) [सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं] रत्नत्रय आराधना की शिक्षा लेनेवाले शिष्यों का ग्रहण- स्वीकार और उनका ही पोषण अर्थात् भोजन-शयन आदि की चिन्ता । [चरिया हि सरागाणं] इसप्रकार की चर्या- चारित्र-आचरण होता है, वास्तव में । ऐसा आचरण किनका होता है? धर्मानुरागरूप आचरण सहित सरागियों का ऐसा चारित्र-आचरण होता है । मात्र इसीप्रकार का चारित्र नहीं होता है (वरन्) [जिणिंदपूजोवदेसो य] और यथासंभव जिनेन्द्र पूजा आदि धर्मोपदेश देने सम्बन्धी आचरण सरागियों का होता है ।
यहाँ कोई शंका करता है कि शुभोपयोगियों के भी किसी समय शुद्धोपयोगरूप भावना दिखाई देती है, शुद्धोपयोगियो के भी किसी समय शुभोपयोग की भावना देखी जाती है, श्रावकों के भी सामायिक आदि के समय शुद्ध भावना देखी जाती है; तब उनका विशेष भेद कैसे ज्ञात होता है? आचार्य उसका समाधान करते हुये कहते हैं- आपका कहना उचित है; परन्तु जो अधिकतर शुभोपयोग रूप आचरण करते हैं वे यद्यपि किसी समय शुद्धोपयोगरूप भावना करते हैं तो भी शुभोपयोगी ही कहलाते हैं । तथा जो शुद्धोपयोगी हैं वे भी किसी समय शुभोपयोगरूप वर्तते हैं तो भी शुद्धोपयोगी ही हैं । दोनों रूप प्रवृत्ति होने पर भी ऐसा क्यों है? बहुपद की-बहुलता की प्रधानता होने के कारण आम व नीम वन आदि के समान, दोनों रूप प्रवृति होने पर भी अधिकता की अपेक्षा अन्तर है ॥२८७॥
[उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स] जो हमेशा उपकार करते हैं । किसका उपकार करते हैं? चार प्रकार के मुनिसंघ का उपकार करते हैं । यहाँ 'श्रमण' शब्द से 'श्रमण' शब्द द्वारा वाच्य ऋषि, मुनि, यति, अनगार ग्रहण करना चाहिये ।
- [देशप्रत्यक्षवित्] अवधिज्ञानी एवं मन:पर्ययज्ञानी, केवलभृद्-केवलज्ञानी- ये मुनि हैं,
- ऋद्धि प्राप्त साधु ऋषि हैं,
- दोनों श्रेणी रूप मार्ग पर आरूढ़ यति, तथा
- अन्य साधु समूह अनगार हैं ।
- विक्रिया और अक्षीण शक्ति प्राप्त,
- बुद्धि और औषध ऋद्धि के स्वामी,
- आकाश गमन ऋद्धि के धारी और
- केवलज्ञान-धारी
- ऋद्धि प्राप्त ऋषि हैं, वे राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, परमर्षि के भेद से चार प्रकार के हैं । वहाँ
- विक्रिया और अक्षीण ऋद्धि को प्राप्त राजर्षि हैं । और
- बुद्धि और औषध ऋद्धि से सहित ब्रह्मर्षि हैं ।
- आकाश गमन ऋद्धि सम्पन्न देवर्षि हैं । तथा
- केवली परमर्षि हैं ।
- अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनि हैं ।
- श्रेणी के आरोहक उपशमक और क्षपक यति हैं ।
- सामान्य साधु अनगार हैं ।
अथवा श्रमण धर्म के अनुकूल श्रावक आदि चातुर्वर्ण संघ है । इन सबका उपकार जैसा (बनता है वह) कैसे करते हैं? [काय विराधणरहिदं] अपने आप में लीनतारूप भावना स्वरूप, अपने शुद्ध चैतन्य लक्षण निश्चय प्राणों की रक्षा करते हुये, छहकाय के जीवों की विराधना से रहित, जैसा उपकार बनता है, वैसा करते हैं । [सो वि सरागप्पधाणो] वे इसप्रकार के मुनि भी धर्मानुराग रूप आचरण सहित मुनियों में प्रधान-श्रेष्ठ हैं- ऐसा अर्थ है ॥२८८॥
[जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो] यदि कायखेद अर्थात् छह काय जीवों की विराधना करता है । कैसा होता हुआ ऐसा करता है? वैयावृत्ति के लिये प्रयत्नशील होता हुआ ऐसा करता है । [समणो ण हवदि] तब वह मुनि नहीं है । मुनि नहीं तो क्या है ? [हवदि अगारी] वह अगारी अर्थात् ( गहस्थ) है । वह गृहस्थ क्यों है? [धम्मो सो सावयाणं से] छहकाय जीवों की विराधना कर वैयावृत्ति करने वाला जो वह धर्म है, वह श्रावकों का है, मुनियों का नहीं, अत: वह गृहस्थ है, मुनि नहीं है ।
यहाँ तात्पर्य यह है- जो वह अपने शरीर के पोषण के लिये अथवा शिष्य आदि के मोह से सावद्य (पाप) नहीं चाहता है, उसके लिये वह (काय विराधना कर वैयावृत्ति न करने सम्बन्धी) व्याख्यान शोभा देता है- उचित है, परन्तु यदि दूसरे कार्यों मे सावद्य करता है और वैयावृत्ति आदि अपनी अवस्था के योग्य धर्मकार्य में सावद्य नहीं चाहता है, तो उसके सम्यक्त्व ही नही है ॥२८९॥
[कुव्वदु] करो । कर्ता रूप वह कौन करो? शुभोपयोगी करो । क्या करो ? [अणुक्म्पयोवयार] अनुकंपा सहित उपकार-दया सहित धर्म वात्सल्य करो । यदि क्या हो तो करो ? [लेवो जदि वि अप्पो] "थोडा लेप हो और पुण्य समूह बहुत हो"- ऐसे दृष्टान्त से यद्यपि थोड़ा लेप-थोड़ा पाप होता है, तो करो । किनका करो ? [जोण्हाणं] निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग परिणत जैनों का करो । कैसे करो ? [णिरवेक्खं] निरपेक्ष-शुद्धात्मभावना को नष्ट करने वाली प्रसिद्धि, पूजा, लाभ की इच्छा से रहित जैसा होता है, वैसे करो । कैसे जैनों का करो ? [सागारणगारचरिय्जुत्ताणं] सागार और अनागार चर्या से सहित- श्रावक और मुनियों के आचरण युक्त जीवों का करो- ऐसा अर्थ है ॥२९०॥
[पडिवज्जदु] स्वीकार करें । कैसे स्वीकार करें? [आदसत्तीए] अपनी शक्ति अनुसार स्वीकार करें । कर्तारूप वे कौन स्वीकार करें? [साहू] रत्नत्रयरूप भावना से, जो अपने आत्मा की साधना करते हैं वे साधु हैं; वे स्वीकार करें । वे किसे स्वीकार करें? [समणं] जीवन-मरण आदि में समान परिणाम होने से वे श्रमण हैं उस श्रमण-मुनि को वे स्वीकार करें । [दिट्ठा] देखकर । कैसा देखकर स्वीकार करें ? [रूढं] व्याप्त-पीड़ित-दुःखित देखकर स्वीकार करें । किससे पीड़ित देखकर स्वीकार करें? [रोगेण वा] आकुलता से रहित लक्षण (वाले) परमात्मा से विलक्षण, आकुलता को उत्पन्न करनेवाले रोग से- बीमारी विशेष से, अथवा छुधाए- क्षुधा (भूख) से, [तण्हाए वा] अथवा तृषा (प्यास) से, [समेण वा] अथवा मार्ग-उपवास आदि श्रम (थकान) से पीड़ित को देखकर स्वीकार करें ।
यहां तात्पर्य यह है आत्मस्थिरतारूप भावना को नष्ट करनेवाले रोगादि का प्रसंग होने पर, वैयावृत्ति करते हैं शेष समय में अपना अनुष्ठान करते हैं ॥२९२॥
इसप्रकार शुभोपयोगी मुनियों के शुभ अनुष्ठानरूप कथन की मुख्यता से ८ गाथाओं द्वारा दूसरा स्थल समाप्त हुआ ।
(अब तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है)
इससे आगे छह गाथाओं तक पात्र-अपात्र परीक्षा की मुख्यता से व्याख्यान करते हैं -
अब, शुभोपयोगियों के लिये, मुनि की वैयावृत्ति के निमित्त लौकिक जनों से संभाषण के विषय में निषेध नहीं है; ऐसा उपदेश देते हैं -
[ण णिंदिदा] शुभोपयोगी श्रमणों के निन्दित नहीं है, निषिद्ध नहीं है । कर्मता को प्राप्त (कर्मकारक में प्रयुक्त) क्या निषिद्ध नही है? [लोगिगजणसंभासा] लौकिक जनों के साथ सम्भाषण-वचन प्रवृत्ति-बोलना निषिद्ध नहीं है । [सुहोवजुदा वा] अथवा वह बोलना भी शुभोपयोग युक्त कहा गया है । किस हेतु से बोलना निषिद्ध नहीं है? [वेज्जावच्चणिमित्तं] वैयावृत्ति के निमित्त बोलना निषिद्ध नहीं है । किनकी वैयावृत्ति के निमित्त बोलना निषिद्ध नहीं है । [गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं] रोगी, गुरु, बाल, वृद्ध मुनियों की वैयावृत्ति के निमित्त बोलना निषिद्ध नहीं है । यहाँ 'गुरु' शब्द से मोटे शरीर वाले अथवा पूज्य अथवा गुरु कहे गये हैं ।
वह इसप्रकार- जब कोई भी शुभोपयोग युक्त आचार्य, सरागचारित्र लक्षण शुभोपयोगियों की अथवा वीतरागचारित्र लक्षण शुद्धोपयोगियों की वैयावृत्ति करते हैं उस समय उस वैयावृत्ति के निमित्त, लौकिक जनों के साथ सम्भाषण करते हैं शेष समय में नहीं- ऐसा भाव है ॥२८३॥
अब यह वैयावृत्ति आदि लक्षण शुभोपयोग मुनियों को गौणरूप से और श्रावकों को मुख्यरूप से करना चाहिये; ऐसा प्रसिद्ध करते हैं --
[भणिदा] कही गई है । कर्मता को प्राप्त क्या कही गई है? [चरिया] चारित्र, अनुष्ठान- चर्या कही गई है । वह चर्या किस विशेषता वाली है? [एसा] यह प्रत्यक्षीभूत (विद्यमान) वह चर्या है । और वह किसरूप है ? [पसत्थभूदा] धर्मानुरागरूप है । वह चर्या किनकी है? [समणाणं वा] श्रमणों की वह चर्या है अथवा [पुणो घरत्थाणं] तथा गृहस्थों के तो यही चर्या [परेत्ति] सर्वोत्कृष्ट-मुख्य है । [ता एव परं लहदि सोक्खं] गृहस्थ उसी शुभोपयोग चर्या द्वारा परम्परा से मोक्षसुख प्राप्त करते हैं ।
वह इसप्रकार- मुनि अन्य मुनियों की वैयावृत्ति करते हुये शरीर से कुछ भी निर्दोष वैयावृत्ति करते हैं और वचन से धर्मोपदेश देते हैं । शेष औषध, अन्न-पान आदि गृहस्थों के अधीन है; इस कारण वैयावृत्ति रूप धर्म गृहस्थों के मुख्य है, मुनियों के गौण है ।
इस मुख्यता-गौणता का दूसरा कारण भी है- विकार रहित चैतन्य चमत्कार की भावना के प्रतिपक्षभूत विषयकषाय के निमित्त से उत्पन्न आर्त-रौद्र दो दुर्ध्यानों रूप परिणत गृहस्थों के निश्चय धर्म का अवकाश नहीं है, वैयावृत्ति आदि धर्म से दुर्ध्यान की वंचना होती है- खोटे ध्यान रुकते हैं, मुनियों के संसर्ग से निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग के उपदेश का लाभ मिलता है, और उससे वे परम्परा से मोक्षप्राप्त करते हैं- ऐसा अभिप्राय है ॥२८४॥
इसप्रकार पाँच गाथाओं द्वारा लौकिक व्याख्यान सम्बन्धी - पहला स्थल पूरा हुआ ।
(अब शुभोपयोग का स्वरूप प्रतिपादक आठ गाथाओं में निबद्ध दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
[फलदि- फलता है] फल देता है । वह कौन फल देता है? [रागो] राग फल देता है । कैसा राग फल देता है? [पसत्थभूदो] प्रशस्तभूत- दानपूजादिरूप राग फल देता है । वह क्या फल देता है? [विवरीदं] विपरीत- और दूसरे रूप भिन्नभिन्न फल देता है । किस करणभूत से-किस साधन से फल देता है? इस अर्थ में दृष्टान्त कहते हैं- [णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि] यहाँ अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुये बीज के, धान्य-उत्पत्ति काल के समान ।
यहाँ अर्थ यह है- जैसे जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, भूमि में, वे ही बीज, भिन्न-भिन्न फल देते हैं, उसी- प्रकार बीज के स्थानीय वही शुभोपयोग, भूमि के स्थानीय पात्रभूत वस्तु-विशेष से भिन्न-भिन्न फल देता है ।
उससे क्या सिद्ध हुआ- जब पहले गाथा में कहे गये न्याय से सम्यक्त्व पूर्वक शुभोपयोग होता है, तब मुख्यरूप से पुण्य बंध होता है तथा परम्परा से मोक्ष होता है । यदि वह वैसा (सम्यक्त्व के साथ) नहीं है, तो मात्र पुण्य बन्ध ही होता है ॥२९३॥
[ण लहदि] प्राप्त नहीं करता है । कर्ता रूप वह कौन प्राप्त नहीं करता है ? [वदणियमज्झयणझाणदाणरदो] व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान में लीन जीव, प्राप्त नहीं करता है । किनके विषय में जिन व्रतादि में लीन होने पर भी नहीं पाता है ? [छदुमत्थविहिदवत्थुसु] छद्मस्थ द्वारा विहित वस्तुओं में- अल्पज्ञानी पुरुष द्वारा व्यवस्थापित पात्रभूत वस्तुओं में व्रतादिरूप में लीन होने पर भी, जीव नहीं पाता है । ऐसा पुरुष क्या नहीं पाता है? [अपुणब्भावं] अपुनर्भव शब्द से वाच्य मोक्ष, ऐसा पुरुष नहीं पाता है । मोक्ष नहीं पाता तो क्या पाता है? [भाव सादप्पगं लहदि] सातात्मक भाव को पाता है । भाव शब्द से, यहाँ, सुदेव, सुमनुष्यत्व रूप पर्याय ग्रहण करनी चाहिये । वह पर्याय कैसी है? वह पर्याय सातात्मक - सतावेदनीय के उदय रूप है ।
वह इसप्रकार -- जो कोई निश्चय-व्यवहार रूप मोक्षमार्ग को नहीं जानते हैं, पुण्य को ही मुक्ति का कारण कहते हैं, यहाँ वे छ्द्मस्थ शब्द से ग्रहण किये गये हैं; गणधर देव आदि नहीं । उन शुद्धात्मा के उपेदश से रहित, छद्मस्थ अज्ञानियों से, जो दीक्षित हैं, वे छद्मस्थ-विहित (व्यवस्थापित) वस्तुयें कहलाती हैं । उन पात्रों के संसर्ग से जो व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान आदि करते हैं वे भी शुद्धात्मा की भावना के अनुकूल नहीं हैं उस कारण वे मोक्ष प्राप्त नहीं करते हैं । सुदेव सुमनुष्यत्व प्राप्त करते हैं- ऐसा अर्थ है ॥२९४॥
[फलदि] फलता है । किसरूप में फलता है? [कुदेवेसु मणुवेसु] कुत्सित देव-मनुष्यों के रूप में फलता है । क्या करना फलता है ? [जुट्ठं] सेवा करना, [कदं वा] कुछ भी वैयावृत्ति आदि करना, अथवा [दत्तं] कुछ भी आहार आदि देना कुदेवादि रूप में फलता है । ये सब किनके प्रति करने से, इस रूप फलते हैं ? [पुरिसेसु] ये सब पुरुषरूप पात्रों के प्रति करने से, ऐसे फलते हैं । किस विशेषता वाले पुरुष-पात्रों में करने से फलते हैं? [अविदिदपरमत्थेसु य] परमार्थ से अजानकार-परमात्मतत्त्व के श्रद्धान-ज्ञान से रहित पुरुषों में करने से फलते हैं । और किस स्वरूप वाले पुरुष में, करने से इस रूप में फलते हैं ? [विसयहसायाधिगेसु] विषय-कषायों में अधिक-विषय-कषायों के अधीन होने से, विषय-कषाय रहित शुद्धात्मस्वरूप की भावना से रहित पुरुषों में, ये सब करने से, वे कुदेवादि रूप में फलते हैं ॥२९५॥
[जदि ते विसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु] यदि वे विषय-कषाय पाप हैं- ऐसा शास्त्रों में कहा गया है तो [किह ते तप्पडिबद्धो पुरिसा णित्थारगा होंति] वे तत्प्रतिबद्ध-विषयकषाय में प्रतिबद्ध-आसक्त पुरुष, निस्तारक-दाताओं को संसार से पार उतारने वाले, कैसे हो सकते हैं? किसी प्रकार भी नहीं हो सकते हैं ।
इससे यह कहा गया है कि सर्वप्रथम तो विषय-कषाय पाप स्वरूप हैं उनसे सहित पुरुष भी पाप ही हैं और वे अपने भक्त दाताओं के पुण्य का विनाश करनेवाले ही हैं ॥२९६॥
पाप से रहित होने के कारण, सभी धार्मिकों को समता भाव से देखनेवाले होने के कारण और गुण-समूह का सेवन करनेवाले होने के कारण स्वयं को मोक्ष का कारण होने से और दूसरों के पुण्य का कारण होने से- इसप्रकार के गुणों सहित पुरुष सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप एकाग्रता लक्षण निश्चय मोक्षमार्ग के पात्र हैं ॥२९७॥
शुद्धोपयोग-शुभोपयोग परिणत पुरुष पात्र हैं । वह इसप्रकार- विकल्प रहित समाधि- स्वरूप-स्थिरता के बल से, शुभ-अशुभ दोनों उपयोगों से रहित समय में, कभी वीतराग-चारित्र लक्षण शुद्धोपयोग से सहित तथा कभी मोह-राग-द्वेष और अशुभराग से रहित समय मे सराग-चारित्र लक्षण शुभोपयोग से सहित होते हुये, भव्य जीवों, को तारते हैं और उनके प्रति भक्तिवाले भव्यवरपुण्डरीक, भव्यों में श्रेष्ठ भक्तजन, प्रशस्त फलभूत स्वर्ग प्राप्त करते हैं और परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं- ऐसा भाव है ॥२९८॥
इसप्रकार पात्र-अपात्र परीक्षा सम्बन्धी कथन की मुख्यता से छह गाथाओं द्वारा, तीसरा स्थल समाप्त हुआ ।
(अब आठ गाथाओं में निबद्ध चौथा स्थल प्रारम्भ होता है)
इससे आगे, आचारशास्त्र में कहे गये क्रम से पहले कहा गया होने पर भी, फिर से दृढ़ करने के लिये विशेषरूप से मुनि का समाचार (परस्पर में विनयादि व्यवहार) कहते हैं ।
[वट्टदु] वर्तें । वे कौन वर्तें ? यहाँ के आचार्य वर्तें । क्या करके वर्तें ? [दिट्ठा] वे देखकर वर्तें । किन्हें देखकर वर्तें? [वत्थुं] मुनिरूप पात्र वस्तु को देखकर वर्तें । किस विशेषता वाले मुनि को देखकर वर्तें? [पगदं] प्रकृत-अन्दर में वर्तने वाली उपराग (मलिनता) रहित शुद्धात्मा की भावना को बतानेवाले बाहर के निर्ग्रंन्थ, निर्विकार-विकार रहित दिगम्बर-रूप को देखकर वर्तें । किस रूप से वर्तें ? [अब्भुट्ठाणप्प्धाणकिरियाहिं] आये हुये मुनि के योग्य आचार-शास्त्र में कही गई अभ्युत्थान-सम्मानार्थ खडे होना-इत्यादि क्रियाओं रूप से वर्तें । [तदो गुणादो] फिर तीन दिन बाद गुणों से--गुणों की विशेषता से [विसेसिदव्वो] उन आचार्य को, उन मुनि के प्रति रत्नत्रयरूप भावना की वृद्धि की कारणभूत क्रियाओं द्वारा, विशेष करना चाहिये -- ऐसा सर्वज्ञ गणधरदेवादि का उपदेश है ॥२९९॥
[भणिदं] कहा गया है । [इह] इस ग्रन्थ में । यहाँ किनके सम्बन्ध में कहा गया है ? [गुणाधिगाणं हि] यहाँ वास्तव में गुणों में अधिक मुनियों के सम्बन्ध में कहा गया है । उनके सम्बन्ध में क्या कहा गया है? [अब्भुट्ठाणं ग्रहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं अंजलिकरणं पणमं] खड़े होना, ग्रहण, उपासन, पोषण, सत्कार, अंजलिकरण, प्रणाम आदि उनके सम्बन्ध में, करने को कहा गया है ।
- सामने जाना अभ्युत्थान है,
- स्वीकार करना ग्रहण है,
- शुद्धात्म- भावना के सहकारी कारण के हेतु से सेवा करना उपासन है,
- उसी के लिये भोजन-शयन आदि की चिन्ता करना पोषण है,
- भेदाभेद रत्नत्रयरूप गुण को प्रकाशित करना सत्कार है,
- अंजलि बाँधकर नमस्कार करना अंजलिकरण है,
- नमस्कार हो - ऐसा वचन बोलना प्रणाम है ॥३००॥
[अब्भुट्ठेया] यद्यपि चारित्र गुण से अधिक नहीं हैं या तप से अधिक नहीं हैं, तो भी सम्यग्ज्ञान गुण की अपेक्षा ज्येष्ठ- अधिक होने से श्रुत की विनय के लिये, वे अभ्युत्थेय-अभ्युत्थान के योग्य उठकर सम्मान आदि करने योग्य हैं । वे कौन उसके योग्य हैं ? [समणा] श्रमण-निर्ग्रंन्थ आचार्य उसके योग्य हैं । वे निर्ग्रन्थ आचार्य किस विशेषता वाले हैं ? [सुत्तत्थविसारदा] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी परमात्मतत्त्व प्रभृति अनेकान्तात्मक पदार्थों में वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से प्रमाण-नय-निक्षेपों द्वारा विचार करने में चतुर चित्तवाले, सूत्रार्थ विशारद हैं । वे केवल अभ्युत्थान के ही योग्य नहीं हैं, वरन् [उवासेया] परम चैतन्य ज्योति परमात्मपदार्थ के परिज्ञान के लिये उपासना करने योग्य हैं- परम भक्ति से सेवा करने योग्य हैं । [संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि] वास्तव में वे संयम-तप-ज्ञान से समृद्ध श्रमण वन्दना करने योग्य हैं ।
- बाह्य में इन्द्रिय-संयम और प्राणी-संयम के बल से, अन्दर अपने शुद्धात्मा में यत्नपरता संयम है ।
- बाह्य में अनशन आदि तप के बल से और अन्दर में परद्रव्य की इच्छा के निरोध से, अपने स्वरूप में प्रतपन-विजयन तप है ।
- बाह्य में परमागम के अभ्यास से, अन्दर में स्वसंवेदन ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ।
यहाँ तात्पर्य यह है जो बहु-श्रुत होने पर भी चारित्र में अधिक नहीं हैं वे भी परमागम का अभ्यास करने के हेतु से, यथायोग्य वन्दना के योग्य हैं । उनके प्रति वन्दना करने का और भी कारण है -- वे सम्यक्त्व और ज्ञान में पहले से ही दृढ़तर हैं परन्तु इन नवीन मुनियों के सम्यक्त्व और ज्ञान में दृढ़ता नहीं है । तब फिर थोड़े चारित्र वालों के प्रति आगम में वन्दना आदि का निषेध किसलिये किया गया है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं- अतिप्रसंग (सीमा के उल्लंघन) का निषेध करने के लिये आगम में इसका निषेध किया है ॥३०१॥
[ण हवदि समणो] वह श्रमण नहीं है, [त्ति मदो] ऐसा माना गया है- स्वीकार किया गया है । ऐसा कहाँ माना गया है? ऐसा आगम में माना गया है । कैसा होने पर भी वह मुनि नहीं है? [संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि] संयम तप, श्रुत से सहित होने पर भी वह मुनि नहीं है । [जदि सद्दहदि ण] यदि सम्यक्त्व के तीन मूढ़ता आदि पच्चीस मल-दोषों सहित होता हुआ श्रद्धान नही करता है, रुचि नही करता है, मानता नहीं है, तो वह मुनि नहीं है । किनका श्रद्धान नहीं करता है? [अत्थे] पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता है । कैसे पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता है? [आदपधाणे] दोष रहित परमात्मा प्रधान पदार्थों का श्रद्धान नही करता है । और कैसे पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता है? [जिणक्खादे] वीतराग-सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रसिद्ध किये गये, दिव्यध्वनि द्वारा कहे गये, गणधर देवों द्वारा ग्रन्थों में लिखे गये, आत्मा-प्रधान पदार्थों का श्रद्धान नही करता है, तो मुनि नहीं है -- ऐसा अर्थ है ॥३०३॥
[अववददि] बुरा बोलता है-दोष देता है-अपवाद करता है । वह कौन दोष देता है ? [जो हि] कर्ता रूप जो वास्तव में । किन्हें दोष देता है? [समणं] श्रमण-मुनि को दोष देता है । कैसे श्रमण को दोष देता है? [सासणत्थं] शासनस्थ-निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित श्रमण को दोष देता है । उन्हें क्यों दोष देता है? [पदोसदो] दोष रहित परमात्मा की भावना से विलक्षण, प्रद्वेष-कषाय से दोष देता है । पहले क्या कर दोष देता है? [दिट्ठा] उन्हें देखकर दोष देता है । मात्र दोष ही नहीं देता है, वरन् [णाणुमण्णदि] उन्हें स्वीकार भी नहीं करता है । किन विषयों में उन्हें स्वीकार नहीं करता है? [किरियासु] यथायोग्य वन्दना आदि क्रियाओं में उन्हें स्वीकार नहीं करता है । [हवदि हि सो] वह स्पष्ट रूप से होता है । वह किस विशेषतावाला होता है? [ण्ट्ठचारित्तो] कथंचित् अति प्रसंग से, नष्टचारित्र होता है (अपने चारित्र को नष्ट करता है) ।
वह इसप्रकार- रत्नत्रयरूप मार्ग में स्थित मुनि को देखकर, यदि कथंचित् मात्सर्यवश (ईर्ष्यावश) दोष ग्रहण करता है, तो स्पष्ट चारित्र से भ्रष्ट होता है, बाद में आत्मनिन्दा करके यदि निवृत्त हो जाता है- ईर्ष्यावश अपवाद करना छोड़ देता है, तो दोष नहीं है; यदि कुछ समय बाद छोड़ता है, तो भी दोष नहीं है । तथा यदि वहाँ ही अनुबन्ध कर, तीव्र कषाय के कारण अतिप्रसंग करता है (बार-बार वही करता है), तो चारित्र से भ्रष्ट होता है ।
यहाँ भाव यह है- बहुश्रुतों को, अल्पश्रुत मुनियों का दोष-ग्रहण नहीं करना चाहिये, उन मुनियों को भी कुछ भी पाठ मात्र ग्रहण कर, उनका दोष-ग्रहण नहीं करना चाहिये, किन्तु कुछ भी सारपद ग्रहण कर अपनी भावना ही करना चाहिये । परस्पर दोष-ग्रहण क्यों नहीं करना चाहिये । राग-द्वेष की उत्पत्ति होने पर बहुश्रुतों को श्रुत का फल नहीं है, तथा तपस्वियों को तप का फल नहीं है; अत: परस्पर दोष -ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥३०४॥
[सो होदि अणंतसंसारी] वह कथंचित् अनन्त संसारी होता है । जो क्या करता है ? [पडिच्छगो जो दु] जो चाहने वाला है, अभिलाषक है-अपेक्षक है । क्या चाहने वाला है ? [विणयं] वन्दना आदि विनय चाहने वाला है । किससे विनय चाहने वाला है ? [गुणदोधिगस्स] बहिरंग-अन्तरंग-रत्नत्रयरूप गुणों से अधिक दूसरे मुनि से विनय चाहता है । किस कारण वह अपनी विनय कराना चाहता है ? [होमि समणो त्ति] मै भी मुनि हूँ- इस अभिमान-गर्व से विनय चाहता है । यदि कैसा है, तो भी विनय चाहता है ? [होज्जं गुणाधरो जदि] यदि स्वयं निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप गुणों से हीन है, तो भी उनसे विनय चाहता है, तो अनन्त संसारी होता है ।
यहाँ अर्थ यह है -- यदि पहले अभिमान के कारण, अधिक गुणवालों से विनय की इच्छा करता है, परन्तु बाद मे विवेक बल से आत्म-निन्दा करता है, तो अनन्त संसारी नहीं होता है । परन्तु वहाँ ही मिथ्या अभिमान से प्रसिद्धि पूजा-लाभ के लिये दुराग्रह करता है, तो वैसा (अनन्त संसरी) होता है । अथवा यदि कुछ समय बाद भी आत्मनिंदा करता है, तो भी वैसा (अनन्त संसारी) नहीं होता है ॥३०५॥
[वट्टंति] वर्तते हैं - प्रवृत्ति करते हैं, [जदि] यदि तो । कहाँ प्रवृत्ति करते हैं? [किरियासु] वन्दना आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करते हैं । किनके साथ इन क्रियाओं प्रवृत्ति में करते हैं? [गुणाधरेहिं] गुणों में नीचे-गुणों से रहित के साथ करते हैं । स्वयं कैसे होते हुए, इनके साथ प्रवृत्ति करते हैं? [अधिगगुणा] स्वयं अधिक गुणी होते हुये भी, इनके साथ प्रवृत्ति करते हैं । वे किसमें अधिक गुणी हैं? [सामण्णे] चारित्र में वे अधिक गुणी हैं । [ते मिच्छत्तपउत्ता हवंति] वे कथंचित् अतिप्रसंग से, मिथ्यात्व सहित होते हैं । मात्र मिथ्यात्व ही नहीं होते, वरन् [पब्भ्ट्ठचरित्ता] चारित्र-भ्रष्ट होते हैं ।
वह इसप्रकार - स्वयं चारित्र गुण में अधिक भी, यदि ज्ञानादि गुणों वृद्धि के लिये, बहुश्रुतों के पास वन्दना आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, तो दोष नहीं है? । परन्तु यदि, मात्र प्रसिद्धि, पूजा, लाभ के लिये उनमें प्रवृत्ति करते हैं; तो अतिप्रसंग से दोष होता है ।
यहाँ तात्पर्य यह है - वन्दनादि क्रियाओं में या तत्वविचार आदि में जहाँ राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, वहाँ सब जगह दोष ही है ।
यहाँ कोई कहता है- यह आपकी कल्पना है, आगम में वैसा नहीं है । आचार्य कहते हैं- ऐसा नहीं है, सभी आगम राग-द्वेष को दूर करने के लिये ही हैं; किन्तु जो कोई उत्सर्ग-अपवाद रूप से आगम सम्बन्धी नय-विभाग को नहीं जानते हैं वे ही रागद्वेष करते हैं; और दूसरे नहीं ॥३०६॥
यहाँ शिष्य कहता है- अपवाद व्याख्यान के प्रसंग में शुभोपयोग का व्याख्यान किया था यहाँ फिर से किसलिये व्याख्यान किया है? आचार्य निराकरण करते हुए कहते हैं- आपका यह वचन उचित है; किन्तु वहाँ सम्पूर्ण त्याग लक्षण उत्सर्ग व्याख्यान किये जाने पर, उसमें असमर्थ मुनियों को समय की अपेक्षा कुछ ज्ञान, संयम, शौच के उपकरण आदि ग्रहण करना उचित हैं- इसप्रकार अपवाद व्याख्यान ही मुख्य है । यहां तो, जैसे भेदनय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपश्चरण-रूप चार प्रकार की आराधनायें हैं वे ही अभेदनय से सम्यक्त्व और चारित्ररूप से दो प्रकार की हैं उनमें भी अभेद विवक्षा से पुन: एक ही वीतराग चारित्र आराधना है, उसीप्रकार भेदनय से सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यस्कचारित्ररूप तीन प्रकार का मोक्षमार्ग है वही अभेदनय से, श्रामण्य अपर नाम मोक्षमार्ग रूप से एक ही है, और वह अभेदरूप मुख्यवृत्ति से 'एयागगदो समणो -' इत्यादि चौदह गाथाओं द्वारा पहले ही विशेषरूप से कहा गया है । तथा यह भेदरूप मुख्य-वृत्ति द्वारा शुभोपयोगरूप से अब कहा गया है; अत: पुनरुक्ति दोष नहीं है ।
इसप्रकार समाचार (पारस्परिक विनयादि आचार) के विशेष कथनरूप से चौथे स्थल में आठ गाथायें पूर्ण हुईं ॥
अब आगे पाँचवे स्थल में संक्षेप से संसारस्वरूप और मोक्षस्वरूप की प्रतीति के लिये, पाँच रत्नरूप पाँच गाथाओं द्वारा व्याख्यान करते हैं -
वह इसप्रकार -
अब लौकिक संसर्ग का निषेध करते है -
[णिच्छिदसुत्त्त्थपदो] जिसके द्वारा अनेकान्त स्वभावी अपने शुद्धात्मा आदि पदार्थों का प्रतिपादन करनेवाले सूत्र-अर्थ-पद निश्चितरूप से जाने गये है- निर्णय किये गये हैं वे निश्चित सूत्रार्थपद हैं [समिदकसाओ] दूसरे विषय में क्रोधादि के त्याग से अन्तरंग में उपशम भाव से परिणत अपने शुद्धात्मा की भावना के बल से कषायों का शमन करनेवाले हैं, [तवोधिगो चावि] अनशन आदि बाह्य तप के बल से और उसीप्रकार अन्तरंग में शुद्धात्म-तत्व की भावना के विषय में प्रतपन और विजयन से, जो तप में अधिक होते हुये भी स्वयं मुनि रूप कर्ता [लोगिगजणसंग्गं ण चयदि जदि] लौकिक अर्थात् स्वेच्छाचारी उनका संसर्ग-लौकिक संसर्ग है (षष्ठी तत्पुरुष समास किया), उसे यदि नहीं छोड़ता है, [संजदो ण हवदि] तब (वह) संयत-मुनि नहीं है ।
यहाँ अर्थ यह है- स्वयं आत्मा की भावना करनेवाला होने पर भी, यदि असंवृत-असंयमी जनों का संसर्ग नहीं छोड़ता है, तो अग्नि की संगति में रहनेवाले जल के समान, अतिपरिचय से विकृति भाव (रागादि भाव) को प्राप्त होता है ॥२८०॥
अब, लौकिक का लक्षण कहते हैं -
[णिग्गंथो पव्वइदो] वस्त्रादि परिग्रह से रहित होने के कारण निर्ग्रन्थ होने पर भी, दीक्षा ग्रहण करने से प्रव्रजित-दीक्षित-साधु होने पर भी, [वट्टदि जदि] यदि वर्तता है तो । किनके साथ वर्तता है, [एहिगेहिं कम्मेहिं] ऐहिक कर्मों के साथ- भेदाभेद रत्नत्रय परिणाम को नष्ट करनेवाले प्रसिद्धि, पूजा, लाभ के निमित्तभूत ज्योतिष, मन्त्रवाद, वैदक (वैद्य सम्बन्धी) आदि इस लोक सम्बन्धी जीवन के उपायभूत कर्मों के साथ वर्तता है । [सो लोगिगो त्ति भाणिदो] वह लौकिक-व्यावहारिक है- ऐसा कहा गया है । किस विशेषतावाला होने पर भी वह लौकिक कहा गया है? [संजमतवसंजुदो चावि] द्रव्यरूप संयम-तप से संयुक्त होने पर भी वह लौकिक कहा गया है ॥२८१॥
अब, उत्तम संसर्ग करना चाहिये; ऐसा उपदेश देते हैं --
[तम्हा] जिस कारण हीन संसर्ग से गुणों की हानि होती है, उस कारण अधिवसदु-निवास करें-रहें । कर्तारूप वे कौन रहें? [समणो] मुनिराज रहें । वे कहां रहें? [तम्हि] उस आधारभूत में वे रहें । [ण्च्चिं] हमेशा-सभी कालों में रहें । उस आधारभूत किसमें रहें? [समणं] मुनिसंघ में रहें । यहाँ लक्षण- व्याकरण नियम के कारण, अधिकरण के अर्थ में कर्म कारक का प्रयोग हुआ है । वे कैसे श्रमण संघ में रहें? [समं] वे समान श्रमण संघ में रहें । किस में समान संघ में रहें? [गुणादो] बहिरंग और अन्तरंग रत्नत्रय लक्षण गुणों से समान संघ में रहें । और वे कैसे संघ में रहें? [अहियं वा] अथवा अपने से अधिक में रहें । किनसे अधिक में रहें? [गुणेहिं] मूलोत्तर गुणों द्वारा अपने से अधिक गुणवाले साधु-संघ में रहें । यदि क्या तो इन में रहें? [इच्छदि जदि] यदि चाहते हैं तो इन में रहें । क्या चाहते ? [दुक्खपरिमोक्खं] अपने आत्मा से उत्पन्न सुख से विलक्षण नारक आदि दुःखों से पूर्णत: मोक्ष-दु:ख परिमोक्ष चाहते हैं तो इनमें रहें ।
अब यहाँ विस्तार करते हैं -- जैसे अग्नि के संयोग से, जल का शीतलगुण नष्ट होता है, व्यावहारिक मनुष्यों के संसर्ग से, मुनिराज का संयम गुण नष्ट होता है - ऐसा जानकर मुनिराज रूप कर्ता, समान गुण अथवा अधिक गुण सम्पन्न मुनिराज का आश्रय लेते हैं; तब, जैसे ठंडे बर्तन सहित (में रखे हुये) ठंडे जल के ठंडे गुण की रक्षा होती है, उसीप्रकार समान गुणों के संसर्ग से, उन मुनि के गुणों की रक्षा होती है । और जैसे कपूर, शक्कर आदि ठंडे द्रव्य डालने से उस जल के ठंडे गुण में वृद्धि होती है; उसीप्रकार निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप गुणों में अधिक के संसर्ग से उनके गुणों में वृद्धि होती है- ऐसा गाथा का अर्थ है ॥२८२॥
[जे अजधागहिदत्था] वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत, निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप भाव की जानकारी का अभाव होने से, जो पदार्थों को अन्यथा ग्रहण करनेवाले - विपरीत ग्रहण करनेवाले हैं । और जो कैसे हैं? [एदे तच्च त्ति णिच्छिदा] ये तत्व हैं -ऐसा निश्चय करनेवाले हैं ये जो मेरे द्वारा कल्पित पदार्थ हैं वे ही तत्त्व हैं - ऐसा निश्चय करनेवाले हैं । कहाँ स्थित होकर ऐसा निश्चित करनेवाले हैं? [समये] निर्ग्रन्थ रूप द्रव्यसमय में स्थित होकर ऐसा निश्चय करने वाले हैं । [अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं काल] वे अत्यन्त फलसमृद्ध हो, अनन्त काल तक घूमते हैं । द्रव्य- क्षेत्र- काल- भव- भाव रूप पाँच प्रकार के संसार परिभमण से रहित शुद्धात्मस्वरूप की भावना से च्युत - भ्रष्ट होते हुये घूमते हैं । कब तक घूमते हैं ? परकाल- अनन्तकाल तक घूमते हैं । कैसे घूमते हैं? नारक आदि दुःखरूप अत्यन्त फलसमृद्ध होते हुये, घूमते हैं । और कैसे (कब तक) घूमते हैं? इस वर्तमानकाल से आगे भविष्य तक घूमते हैं ।
यहाँ अर्थ यह है- इसप्रकार संसार परिभ्रमणरूप परिणत पुरुष ही, अभेदरूप से संसारस्वरूप जानना चाहिये ॥३०७॥
[अजधाचारविजुत्तो] निश्चय-व्यवहार पंचाचार रूप भावना से परिणत होने के कारण, अयथाचारवियुक्त-विपरीत आचार से रहित हैं- ऐसा अर्थ है; [जधत्थपदणिच्छिदो] सहज आनन्द एक स्वभावी अपने परमात्मा आदि पदार्थों के परिज्ञान से सहित होने के कारण, यथार्थ पदों के निश्चय से सहित हैं; [पसंतप्पा] विशिष्टरूप से उत्कृष्ट उपशम भावरूप परिणत अपने आत्मद्रव्य की भावना से सहित होने के कारण, प्रशान्तात्मा हैं; जो- कर्तारूप [जो सो संपुण्णसामण्णो] वे सम्पूर्ण श्रामण्य होते हुये [चिरं ण जीवदि] चिर-बहुत कालतक नहीं जीते हैं-नहीं रहते हैं । कहाँ नहीं रहते हैं? [अफले इह] शुद्धात्मा के संवेदन से उत्पन्न सुखरूपी अमृतरस के आस्वाद से रहित होने के कारण अफल-फल रहित यहाँ- इस संसार में नहीं रहते हैं, अपितु शीघ्र मोक्ष जाते हैं ।
यहाँ भाव यह है- इसप्रकार मोक्षतत्त्व परिणत पुरुष ही अभेदनय से मोक्षस्वरूप जानना चाहिये ॥३०८॥
[सम्मं विदिदपदत्था] संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित, अनन्त ज्ञानादि स्वभाव (वाले) अपने परमात्मपदार्थ प्रभृति सम्पूर्ण वस्तुओं का विचार करने में चतुर चित्त की चतुरता से, प्रकाशमान अतिशय सहित उत्कृष्ट विवेक ज्योति द्वारा, अच्छी तरह से पदार्थों को जानने वाले हैं । और वे किस रूप हैं ? [विसयेसु णावसत्ता] पंचेन्द्रिय विषयों की अधीनता से रहित होने के कारण, अपने आत्म तत्त्व की भावना रूप परम समाधि (स्वरूपलीनता) से उत्पन्न, परमानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृत रस के आस्वाद रूप अनुभव के बल से, विषयों में किंचित मात्र भी आसक्त नहीं हैं । क्या करके आसक्त नहीं हैं ? पहले अपने स्वरूप को परिग्रह-स्वीकार कर फिर चत्ता- छोड़कर आसक्त नहीं हैं । किसे छोड़कर वैसे नहीं हैं ? [उवहिं] परिग्रह छोड़कर वैसे नहीं है । किस विशेषता वाले परिग्रह को छोड़कर वैसे नहीं हैं? [बहित्थमज्झत्थं] बाहर स्थित खेत, मकान आदि अनेक प्रकार के और अपने अन्दर स्थित मिथ्यात्व आदि चौदह प्रकार से भेदरूप परिग्रह छोड़कर आसक्त नहीं हैं । [जे] इन गुणों से विशिष्ट जो महात्मा हैं, [ते सुद्धा त्ति णिद्दिट्ठा] वे शुद्ध-शुद्धोपयोगी हैं - ऐसा कहा है ।
इस विशेष कथन से क्या कहा गया है? इसप्रकार के परमयोगी ही, अभेदरूप से मोक्षमार्ग हैं- ऐसा जानना चाहिये ॥३०९॥
[भणियं] कहा है । क्या कहा है? [सामण्णं] सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - एकाग्रता लक्षण, शत्रु-मित्र आदि में समभाव परिणतिरूप, साक्षात् मोक्ष का कारण जो श्रामण्य कहा है । वह किसके होता है? [सुद्धस्स य] और शुद्ध के- शुद्धोपयोगी के ही होता है । [सुद्धस्स दंसणं णाणं] तीन लोक के उदररूपी छिद्र में स्थित, तीन काल सम्बन्धी विषयों-सम्पूर्ण वस्तुओं में पाये जाने वाले अनन्त धर्मों को, एक समय में सामान्य-विशेष रूप से देखने जानने में समर्थ जो दर्शन-ज्ञान, दोनों उन शुद्ध के ही होते हैं ।
[सुद्धस्स य णिव्वाणं] अव्याबाध अनन्त सुख आदि गुणों के आधारभूत, पराधीनता से रहित होने के कारण अपने अधीन जो निर्वाण-मोक्ष- वह शुद्ध के ही होता है । [सो च्चिय सिद्धो] जो लौकिक माया, अंजन रस, दिग्विजय, मन्त्र, यन्त्र आदि सिद्धियों से विलक्षण, अपने शुद्धात्मा की पूर्ण प्राप्ति लक्षण टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावी, ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों से रहित होने के कारण सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में गर्भित अनन्त गुण सहित सिद्ध भगवान हैं, वे भी शुद्ध ही हैं । [णमो तस्स] उन्हें ही अपने दोष रहित परमात्मा में आराध्य-आराधक सम्बन्ध लक्षण भाव नमस्कार हो ।
यहाँ यह कहा गया है -- इस मोक्ष के कारणभूत शुद्धोपयोग के माध्यम से, सम्पूर्ण इष्ट मनोहर प्राप्त होते हैं - ऐसा मानकर, शेष मनोरथों को छोड़, उसमें ही भावना करना चाहिये ॥३१०॥
[पप्पोदि] प्राप्त करता है । [सो] वह कर्तारूप शिष्यजन प्राप्त करता है । वह किसे प्राप्त करता है ? [पवयणसारं] प्रवचनसार शब्द से वाच्य, अपने आत्मा को प्राप्त करता है । कैसे (कब) प्राप्त करता है ? [लहुणा कालेण] थोड़े समय में प्राप्त करता है । जो क्या करता है, तो प्राप्त करता है? [जो बुज्झदि] जो शिष्यजन जानता है, तो प्राप्त करता है । क्या जानता है? [सासणमेयं] इस शास्त्र को जानता है । इसका क्या नाम है ? [पवयणसारं] प्रवचनसार-
- सम्यग्ज्ञान का, उस सम्यग्ज्ञान के ही ज्ञेयभूत परमात्मा आदि पदार्थों का और उनके द्वारा साध्य विकार रहित स्वसंवेदनज्ञान का;
- उसीप्रकार तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण सम्यग्दर्शन का, उसके विषयभूत अनेकान्तात्मक परमात्मा आदि द्रव्यों का और उस व्यवहार-सम्यक्त्व से साध्य अपने शुद्धात्मा की रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व का; और
- उसीप्रकार व्रत-समिति-गुप्ति आदि अनुष्ठान रूप सराग-चारित्र का और उससे ही साध्य अपने शुद्धात्मा में निश्चल अनुभूतिरूप वीतरागचारित्र
इसप्रकार पाँच गाथाओं द्वारा 'पंच रत्न' नामक पाँचवे स्थल का व्याख्यान हुआ ।
इसप्रकार 'णिच्छिदसुत्तत्थपदो-' इत्यादि ३२ गाथाओं द्वारा पाँच स्थलरूप से 'शुभोपयोग' नामक चौथा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।
इसप्रकार 'श्री जयसेनाचार्य' कृत 'तात्पर्त्यवृत्ति' में पहले कहे गये क्रम से ['एवं पणमिय सिद्धे'] इत्यादि २१ गाथाओं रूप से 'उत्सर्ग अधिकार' है । तदुपरान्त ['ण हि णिरवेक्खो'] इत्यादि ३० गाथाओं रूप सें 'अपवाद अधिकार' है । तत्पश्चात् ['एयग्गगदो समणो'] इत्यादि १४ गाथाओं रूप से 'श्रामण्य अपर नाम मोक्षमार्ग अधिकार' है । तथा तदनन्तर ['णिच्छिदसुत्तत्थपदो'] इत्यादि ३२ गाथाओं रूप से 'शुभोपयोग अधिकार' है- इसप्रकार चार अन्तराधिकारों द्वारा, ९७ गाथाओं रूप से, 'चरणानुयोग-चूलिका' नामक 'तीसरा महाधिकार' समाप्त हुआ ।
यहाँ शिष्य कहता है- यद्यपि परमात्म-द्रव्य का पहले अनेक प्रकार से व्याख्यान किया है, तथापि संक्षेप से और भी कहियेगा ।
भगवान (आचार्य) कहते हैं -- जो केवल-ज्ञान आदि अनन्त-गुणों का आधारभूत है, वह आत्म-द्रव्य कहा गया है । तथा उसकी नयों और प्रमाण से परीक्षा की जाती है ।
वह इसप्रकार -- यह जो शुद्ध-निश्चय-नय से उपाधि (संयोग) रहित स्फटिक के समान, सम्पूर्ण रागादि विकल्पों रूप उपाधि से रहित है; वही अशुद्ध-निश्चय-नय से, उपाधि सहित स्फटिक के समान, सम्पूर्ण रागादि विकल्पों रूप उपाधि से सहित है ।
शुद्ध-सद्भूत-व्यवहार-नय से, जो शुद्ध स्पर्श-रस-गंध-वर्ण के आधार-भूत पुद्गल-परमाणु के समान केवल-ज्ञानादि शुद्ध-गुणों का आधारभूत है, वही अशुद्ध-सद्भूत-व्यवहार-नय से, अशुद्ध स्पर्श-रस-गंध-वर्ण के आधार-भूत द्वय्णुक आदि स्कंध समान, मतिज्ञान आदि विभाव-गुणों (पर्यायों) का आधार-भूत है ।
अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहार-नय से, द्वय्णुक आदि स्कंधों में संश्लेष बंधरूप स्थित पुद्गल-परमाणु के समान अथवा परमौदारिक शरीर में स्थित वीतराग-सर्वज्ञ के समान विवक्षित एक शरीर में स्थित है । उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से काष्ठ की आसन आदि पर बैठे हुये देवदत्त के समान अथवा समवशरण में स्थित वीतराग-सर्वज्ञ के समान विवक्षित एक ग्राम एक घर आदि में स्थित है ।
इत्यादि परस्पर सापेक्ष अनेक नयों द्वारा जाना गया--व्यवहार किया गया (जीव-द्रव्य) क्रम से अमेचक स्वभाव-वाले विवक्षित एक धर्म में व्यापक होने से, एक-स्वभाव-रूप है । वही जीव-द्रव्य प्रमाण द्वारा जानने पर मेचक स्वभाव-वाले अनेक धर्मों में एक साथ व्यापक होने से, चित्रपट के समान, अनेक स्वभावरूप है ।
इसप्रकार नय-प्रमाण द्वारा तत्त्व-विचार के समय, जो वह, परमात्म-द्रव्य को जानता है, वह विकल्प-रहित समाधि के प्रसंग में, विकार-रहित स्व-संवेदन-ज्ञान से भी, उसे जानता है ।
शिष्य फिर कहता है -- हे भगवान! आत्मद्रव्य तो ज्ञात हुआ अब उसकी प्राप्ति का उपाय कहियेगा ।
भगवान (आचार्य) कहते हैं - परिपूर्ण निर्मल केवल-ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाले अपने परमात्म-तत्त्व के, सम्यक-श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप अभेद-रत्नत्रय विकल्प-रहित समाधि (स्वरूप-लीनता) से उत्पन्न, रागादि उपाधि रहित उत्कृष्ट आनन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृतरस सम्बन्धी स्वाद के अनुभव को, न पाता हुआ यह जीव, पूर्णिमा के दिन जल-लहरों से क्षुब्ध (चंचल) समुद्र के समान, राग-द्वेष-मोहरूपी लहरों द्वारा जब तक अपने स्वरूप में स्थिर न होने से क्षुब्ध (आकुलित) रहता है, तब तक अपने शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है । वही, वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत उपदेश से एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त, मनुष्य उत्तम देश, उत्तम कुल, रूप इन्द्रिय-पटुता (कार्य करने में समर्थ इन्द्रियाँ), निरोगता, पर्याप्त आयु, श्रेष्ठ बुद्धि, सत्यधर्म का श्रवण-ग्रहण-धारण-श्रद्धान, संयम, विषयसुख से विरक्ति, क्रोधादि कषायों का विनाश- इत्यादि उत्तरोत्तर दुर्लभ दशाओं को भी कथंचित् 'काकतालीय न्याय' (सहज पुण्योदय) से प्राप्तकर, परिपूर्ण निर्मल केवल-ज्ञान-दर्शन स्वभावी अपने आत्म-तत्त्व के, सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुचरणरूप अभेदरत्नत्रय स्वरूप विकल्परहित समाधि (स्वरूप-लीनता) से उत्पन्न, रागादि उपाधिरहित, उत्कृष्ट आनन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृतरस सम्बन्धी स्वाद के अनुभव की प्राप्ति होने पर अमावस्या के दिन जल-लहरों के क्षोभ से रहित समुद्र के समान, राग-द्विष-मोहरूपी लहरों के क्षोभ से रहित प्रसंग में, जब अपने शुद्धात्म-स्वरूप में स्थिर होता है; तब वही जीव, अपने शुद्धात्मस्वरूप को प्राप्त होता है ॥
इसप्रकार श्री 'जयसेनाचार्य' कृत 'तात्पर्त्यवृत्ति' में इसप्रकार पहले कहे गये क्रम से ['एस सुरासुर'] इत्यादि १०१ गाथाओं पर्यन्त 'सम्यग्ज्ञान अधिकार', तदुपरान्त ['तम्हा तत्स णमाइं'] इत्यादि ११३ गाथाओं पर्यन्त 'ज्ञेयाधिकार अपरनाम सम्यक्त्व अधिकार' और तत्पश्चात् ['एवं पणमिय सिद्धे'] इत्यादि ९७ गाथाओं पर्यन्त 'चारित्राधिकार' -- इसप्रकार तीन महाधिकारों द्वारा, ३११ गाथाओं रूप से प्रवचनसार-प्राभृत पूर्ण हुआ ।
प्रवचनसार की यह तात्पर्यवृत्ति पूर्ण हुई ॥
((अज्ञानतमसा लिप्तो मार्गो रत्नत्रयात्मकः ।
तत्प्रकाशसमर्थाय नमोऽस्तु कुमुदेन्दवे ॥1॥))
अज्ञानरूपी अन्धकार से यह रत्नत्रयमय मोक्षामार्ग लिप्त हो रहा है उसके प्रकाश करने को समर्थ श्री कुमुदचन्द्र या पद्मचन्द्र मुनि को नमस्कार हो ॥1॥
((सूरिः श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेऽपि सत्तपाः ।
नैर्ग्रन्थ्यपदवीं भेजे जातरूपधरोऽपि यः ॥2॥))
इस मूलसंघ में भी, परम तपस्वी श्री वीरसेन नामक आचार्य हुए हैं, जो निर्ग्रन्थ पदवी के धारी जातरूपधर -- दिगंबर भी थे ।
((ततः श्री सोमसेनोऽभूद्गणी गुणगणाश्रयः ।
तद्विनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभृते ॥3॥))
उनके शिष्य अनेक गुणों के धारी आचार्य श्री सोमसेन हुए। उनका शिष्य यह जयसेन तपस्वी हुआ।
((शीघ्रं बभूव मालु साधुः सदा धर्मरतो वदान्यः ।
सूनुस्ततः साधुमहीपतिर्यस्तस्मादयं चारुभटस्तनूजः ॥4॥
यः संततं सर्वविदा: सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति ।
स श्रेयसे प्राभृतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्तिविलोपभीरुः ॥5॥))
सदा धर्म में रत प्रसिद्ध मालु साधु नाम के हुए हैं । उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है, उससे यह चारुभट नाम का पुत्र उपजा है, जो सर्वज्ञान प्राप्त कर सदा आचार्यों के चरणों की आराधना पूर्वक सेवा करता है, उस चारुभट अर्थात जयसेनाचार्य ने जो अपने पिता को भक्ति के विलोप करने से भयभीत था इस प्रवचन-प्राभृत नाम ग्रन्थ की टीका की है।
((श्रीमन्त्रिभुवनचंद्रं निजमतवाराशितायना चन्द्रम् ।
प्रणमामि कामनामप्रबलमहापर्वतैकशतधारम् ॥6॥))
श्रीमान् त्रिभुवनचन्द्र गुरु को नमस्कार करता हूँ, जो आत्मा के भावरूपी जल को बढ़ाने के लिये चन्द्रमा के तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वत के सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं।
((जगत्समस्तसंसारिजीवाकारणबन्धवे ।
सिंधवे गुणरत्नानां नमत्रिभुवनेन्दवे ॥7॥))
मैं श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जो जगत् के सब संसारी जीवों के निष्कारण बन्धु हैं और गुण रूपी रत्नों के समुद्र हैं ।
((त्रिभुवनचंद्रं चंद्रं नौमि महासंयमोत्तमं शिरसा ।
यस्योदयेन जगतां स्वान्ततमोराशिकृन्तनं कुरुते ॥8॥))
फिर मैं महासंयम के पालने में श्रेष्ठ चन्द्रमा-तुल्य श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जिसके उदय से जगत के प्राणियों के अन्तरंग का अन्धकार समूह नष्ट हो जाता है।
((॥इति प्रशस्ति॥))