ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 10
From जैनकोष
सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं ।
णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ॥१०॥
स्वपरा जङ्गमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् ।
निर्ग्रन्थवीतरागा जिनमार्गे ईदृशी प्रतिमा ॥१०॥
(३) आगे जिनप्रतिमा का निरूपण करते हैं -
अर्थ - जिनका चारित्र दर्शन ज्ञान से शुद्ध निर्मल है, उनकी स्व-परा अर्थात् अपनी और पर की चलती हुई देह है वह जिनमार्ग में ‘जंगम प्रतिमा है’ अथवा स्वपरा अर्थात् आत्मा से ‘पर’ यानी भिन्न है - ऐसी देह है । वह कैसी है ? जिसका निर्ग्रन्थ स्वरूप है, कुछ भी परिग्रह का लेश भी नहीं है, ऐसी दिगम्बरमुद्रा है । जिसका वीतराग स्वरूप है, किसी वस्तु से राग-द्वेष-मोह नहीं है, जिनमार्ग में ऐसी ‘प्रतिमा’ कही है । जिनके दर्शन-ज्ञान से निर्मल चारित्र पाया जाता है, इसप्रकार मुनियों की गुरु-शिष्य अपेक्षा अपनी तथा पर की चलती हुई देह निर्ग्रन्थ वीतरागमुद्रा स्वरूप है, वह जिनमार्ग में ‘प्रतिमा’ है, अन्य कल्पित है और धातु-पाषाण आदि से बनाये हुए दिगम्बरमुद्रा स्वरूप को ‘प्रतिमा’ कहते हैं, जो व्यवहार है । वह भी बाह्य आकृति तो वैसी ही हो वह व्यवहार में मान्य है ॥१०॥