ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 101-102
From जैनकोष
वेरग्गपरो साह परदव्वपरम्मुहो य जो होदि।
संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो॥१०१॥
गुणगणविहसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साह।
झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं॥१०२॥
वैराग्यपर: साधु: परद्रव्यपराङ्मुखश्च य: भवति।
संसारसुखविरक्त: स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्त:॥१०१॥
गुणगणविभूषिताङ्ग: हेयोपादेयनिश्चित: साधु:।
ध्यानाध्ययने सुरत: स: प्राप्नोति उत्तमं स्थानम्॥१०२॥
आगे कहते हैं कि ऐसा साधु मोक्ष पाता है -
अर्थ - ऐसा साधु उत्तम स्थान रूप मोक्ष की प्राप्ति करता है अर्थात् जो साधु वैराग्य में तत्पर हो संसार-देह भोगों से पहिले विरक्त होकर मुनि हुआ उसी भावनायुक्त हो, परद्रव्य से पराङ्मुख हो, जैसे वैराग्य हुआ वैसे ही परद्रव्य का त्याग कर उससे पराङ्मुख रहे, संसार संबंधी इन्द्रियों के द्वारा विषयों से सुख-सा होता है, उससे विरक्त हो, अपने आत्मीक शुद्ध अर्थात् कषायों के क्षोभ से रहित निराकुल, शांतभावरूप ज्ञानानन्द में अनुरक्त हो, लीन हो, बारंबार उसी की भावना रहे।
जिसका आत्मप्रदेशरूप अंग गुण के गण से विभूषित हो, जो मूलगुण उत्तरगुणों से आत्मा को अलंकृत-शोभायमान किये हो, जिसके हेय उपादेय तत्त्व का निश्चय हो, निज आत्मद्रव्य तो उपादेय है और ऐसा जिसके निश्चय हो कि अन्य परद्रव्य के निमित्त से हुए अपने विकारभाव ये सब हेय हैं। साधु होकर आत्मा के स्वभाव के साधने में भलीभांति तत्पर हो, धर्म-शुयलध्यान और अध्यात्मशास्त्रों को प९ढकर ज्ञान की भावना में तत्पर हो, सुरत हो, भलेप्रकार लीन हो। ऐसा साधु उत्तमस्थान लोकशिखर पर सिद्धक्षेत्र तथा मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों से परे शुद्धस्वभावरूप मोक्षस्थान को पाता है।
भावार्थ - मोक्ष के साधने के ये उपाय हैं, अन्य कुछ नहीं है॥१०१-१०२॥