ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 18
From जैनकोष
दुट्ठट्ठकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं ।
सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ॥१८॥
दुष्टादुष्टकर्मरहितं अनुपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम् ।
शुद्धं जिनै: भणितं आत्मा भवति स्वद्रव्यम् ॥१८॥
आगे कहते हैं कि आत्मस्वभाव स्वद्रव्य कहा वह इसप्रकार है -
अर्थ - संसार के दु:ख देनेवाले ज्ञानावरणादिक दुष्ट अष्टकर्मों से रहित और जिसको किसी की उपमा नहीं ऐसा अनुपम, जिसका ज्ञान ही शरीर है और जिसका नाश नहीं है ऐसा अविनाशी नित्य है और शुद्ध अर्थात् विकाररहित केवलज्ञानमयी आत्मा जिन भगवान् सर्वज्ञ ने कहा है वह ही स्वद्रव्य है ।
भावार्थ - ज्ञानानन्दमय, अमूर्तिक, ज्ञानमूर्ति अपनी आत्मा है वही एक स्वद्रव्य है अन्य सब चेतन, अचेतन, मिश्र परद्रव्य हैं ॥१८॥