ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 33
From जैनकोष
पंचमहव्वयजुत्ते पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु ।
रयणत्तयसंजुत्ते झाणज्झयणं सया कुणह ॥३३॥
पञ्चमहाव्रतयुक्त: पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु ।
रत्नत्रयसंयुक्त: ध्यानाध्ययनं सदा कुरु ॥३३॥
आगे जिनदेव ने जैसे ध्यान-अध्ययन की प्रवृत्ति कही है, वैसे ही उपदेश करते हैं -
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जो पाँच महाव्रतयुक्त हो गया तथा पाँच समिति व तीन गुप्तियों से युक्त हो गया और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी रत्नत्रय से संयुक्त हो गया - ऐसे बनकर हे मुनिजनों ! तुम ध्यान और अध्ययन-शास्त्र के अभ्यास को सदा करो ।
भावार्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग ये पाँच महाव्रत, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापना ये पाँच समिति और मन, वचन, काय के निग्रहरूप तीन गुप्ति यह तेरह प्रकार का चारित्र जिनदेव ने कहा है, उससे युक्त हो और निश्चय व्यवहाररूप, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र कहा है इनसे युक्त होकर ध्यान और अध्ययन करने का उपदेश है । इनमें भी प्रधान तो ध्यान ही है और यदि इसमें मन न रुके तो शास्त्र के अभ्यास में मन को लगावे, यह भी ध्यानतुल्य ही है, क्योंकि शास्त्र में परमात्मा के स्वरूप का निर्णय है, सो यह ध्यान का ही अंग है ॥३३॥