ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 35
From जैनकोष
सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरिसी य ।
सो जिणवरेहिं भणिओ जाण तुमं केवलं णाणं ॥३५॥
सिद्ध: शुद्ध: आत्मा सर्वज्ञ: सर्वलोकदर्शी च ।
स: जिनवरै: भणित: जानीहि त्वं केवलं ज्ञानं ॥३५॥
आगे कहते हैं कि शुद्धात्मा है वह केवलज्ञान है और केवलज्ञान है वह शुद्धात्मा है -
अर्थ - आत्मा को जिनवर सर्वज्ञदेव ने ऐसा कहा है कि सिद्ध है - किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है, स्वयंसिद्ध है, शुद्ध है, कर्ममल से रहित है, सर्वज्ञ है - सब लोकालोक को जानता है और सर्वदर्शी है - सब लोक-अलोक को देखता है, इसप्रकार आत्मा है, वह हे मुने ! उसे ही तू केवलज्ञान जान अथवा उस केवलज्ञान को ही आत्मा जान । आत्मा में और ज्ञान में कुछ प्रदेशभेद नहीं है, गुण-गुणी भेद है वह गौण है । यह आराधना का फल पहिले केवलज्ञान कहा, वही है ॥३५॥