ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 39
From जैनकोष
दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं ।
दंसणविहीणपुरिसो ण लहइ तं इच्छिय लाहं ॥३९॥
दर्शनशुद्ध: शुद्ध: दर्शनशुद्ध: लभते निर्वाणम् ।
दर्शनविहीनपुरुष: न लभते तं इष्टं लाभम् ॥३९॥
आगे सम्यग्दर्शन को प्रधान कर कहते हैं -
अर्थ - जो पुरुष दर्शन से शुद्ध है वह ही शुद्ध है, क्योंकि जिसका दर्शन शुद्ध है वही निर्वाण को पाता है जो पुरुष सम्यग्दर्शन से रहित है वह पुरुष ईप्सित लाभ अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है ।
भावार्थ - लोक में प्रसिद्ध है कि कोई पुरुष कोई वस्तु चाहे और उसकी रुचि प्रतीति श्रद्धा न हो तो उसकी प्राप्ति नहीं होती है इसलिए सम्यग्दर्शन ही निर्वाण की प्राप्ति में प्रधान है ॥३९॥