ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 42
From जैनकोष
जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं ।
तं चारित्तं भणियं अवियप्प कम्मरहिएहिं ॥४२॥
यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापानाम् ।
तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्मरहितै: ॥४२ ॥
आगे सम्यक्चारित्र का स्वरूप कहते हैं -
अर्थ - योगी ध्यानी मुनि उस पूर्वोक्त जीवाजीव के भेदरूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञान को जानकर पुण्य तथा पाप इन दोनों का परिहार करता है, त्याग करता है वह चारित्र है, जो निर्विकल्प है अर्थात् प्रवृत्तिरूपक्रिया के विकल्पों से रहित है, वह चारित्र घातिकर्म से रहित ऐसे सर्वज्ञदेव ने कहा है ।
भावार्थ - चारित्र निश्चय-व्यवहार के भेद से दो भेदरूप है, महाव्रत-समिति-गुप्ति के भेद से कहा है वह व्यवहार है । इसमें प्रवृत्तिरूप क्रिया शुभकर्मरूप बंध करती है और इन क्रियाओं में जितने अंश निवृत्ति है (अर्थात् उसीसमय स्वाश्रयरूप आंशिक निश्चय-वीतराग भाव है) उसका फल बंध नहीं है, उसका फल कर्म की एकदेश निर्जरा है । सब कर्मों से रहित अपने आत्मस्वरूप में लीन होना वह निश्चय चारित्र है, इसका फल कर्म का नाश ही है, वह पुण्य-पाप के परिहाररूप निर्विकल्प है । पाप का तो त्याग मुनि के है ही और पुण्य का त्याग इसप्रकार है -
शुभक्रिया का फल पुण्यकर्म का बंध है, उसकी वांछा नहीं है ,बंध के नाश का उपाय निर्विकल्प निश्चय चारित्र का प्रधान उद्यम है । इसप्रकार यहाँ निर्विकल्प अर्थात् पुण्य-पाप से रहित ऐसा निश्चय चारित्र कहा है । चौदहवें गुणस्थान के अंतसमय में पूर्ण चारित्र होता है, उसमें लगते ही मोक्ष होता है - ऐसा सिद्धान्त है ॥४२॥