ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 47
From जैनकोष
जिणमुद्दं सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण १जिणवरुद्दिट्ठं ।
सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ॥४७॥
जिनमुद्रा सिद्धिसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा ।
स्वप्नेऽपि न रोचते पुन: जीवा: तिष्ठन्ति भवगहने ॥४७॥
आगे कहते हैं कि जिनमुद्रा से मोक्ष होता है, किन्तु यह मुद्रा जिन जीवों को नहीं रुचती है वे संसार में ही रहते हैं -
अर्थ - जिन भगवान के द्वारा कही गई जिनमुद्रा है वही सिद्धिसुख है, मुक्तिसुख ही है, यह कारण में कार्य का उपचार जानना, जिनमुद्रा मोक्ष का कारण है, मोक्षसुख उसका कार्य है । ऐसी जिनमुद्रा जिनभगवान् ने जैसी कही है वैसी ही है । ऐसी जिनमुद्रा जिस जीव को साक्षात् तो दूर ही रहो, स्वप्न में भी कदाचित् भी नहीं रुचती है उसका स्वप्न आता है तो भी अवज्ञा होती है तो वह जीव संसाररूप गहन वन में रहता है, मोक्ष के सुख को प्राप्त नहीं कर सकता ।
भावार्थ - जिनदेवभाषित जिनमुद्रा मोक्ष का कारण है वह मोक्षरूप ही है, क्योंकि जिनमुद्रा के धारक वर्तमान में भी स्वाधीन सुख को भोगते हैं और पीछे मोक्ष के सुख को प्राप्त करते हैं । जिस जीव को यह नहीं रुचती है वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता, संसार में ही रहता है ॥४७॥