ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 49
From जैनकोष
होऊण दिढचरित्ते दिढसम्मत्तेण भावियमईओ ।
झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई ॥४९॥
भूत्वा दृछ चरित्र: दृढसम्यक्त्वेन भावितमति: ।
ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ॥४९॥
आगे कहते हैं कि जो ऐसा निर्लोभी बनकर दृढ़ सम्यक्त्व ज्ञान चरित्रवान होकर परमात्मा का ध्यान करता है वह परमपद को पाता है -
अर्थ - पूर्वोक्त प्रकार जिसकी मति दृढ सम्यक्त्व से भावित है ऐसे योगी ध्यानी मुनि दृढचारित्रवान होकर आत्मा का ध्यान करता हुआ परमपद अर्थात् परमात्मपद को प्राप्त करता है ।
भावार्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप दृढ होकर परिषह आने पर भी चलायमान न हो, इसप्रकार से आत्मा का ध्यान करता है वह परमपद को प्राप्त करता है - ऐसा तात्पर्य है ॥४९॥