ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 50
From जैनकोष
चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो ।
सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो ॥५०॥
चरणं भवति स्वधर्म: धर्म: स: भवति आत्मसमभाव: ।
स: रागदोषरहित: जीवस्य अनन्यपरिणाम: ॥५०॥
आगे दर्शन, ज्ञान, चारित्र से निर्वाण होता है ऐसा कहते आये वह दर्शन, ज्ञान तो जीव का स्वरूप है, उसको जाना, परन्तु चारित्र क्या है ? ऐसी आशंका का उत्तर कहते हैं -
अर्थ - स्वधर्म अर्थात् आत्मा का धर्म है वह चरण अर्थात् चारित्र है । धर्म है वह आत्मसमभाव है, सब जीवों में समानभाव है । जो अपना धर्म है वही सब जीवों में है अथवा सब जीवों को अपने समान मानना है और जो आत्मस्वभाव से ही (स्वाश्रय के द्वारा) रागद्वेष रहित है, किसी से इष्ट-अनिष्ट बुद्धि नहीं है - ऐसा चारित्र है वह जैसे जीव के दर्शन-ज्ञान है वैसे ही अनन्य परिणाम है, जीव का ही भाव है ।
भावार्थ - चारित्र है वह ज्ञान में रागद्वेष रहित निराकुलतारूप स्थिरभाव है वह जीव का ही अभेदरूप परिणाम है, कुछ अन्य वस्तु नहीं है ॥५०॥