ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 56
From जैनकोष
जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरो ।
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो ॥५६॥
य: कर्मजातमतिक: स्वभावज्ञानस्य खण्डदूषणकर: ।
स: तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषक: भणित: ॥५६॥
आगे कहते हैं कि जो कर्ममात्र से ही सिद्धि मानता है उसने आत्मस्वभाव को नहीं जाना है वह अज्ञानी है जिनमत से प्रतिकूल है -
अर्थ - जिसकी बुद्धि कर्म ही में उत्पन्न होती है ऐसा पुरुष स्वभावज्ञान जो केवलज्ञान उसको खंडरूप दूषण करनेवाला है, इन्द्रियज्ञान खंड-खंडरूप है, अपने-अपने विषय को जानता है जो जीव इतना मात्र ही ज्ञान को मानता है, इसकारण से ऐसा माननेवाला अज्ञानी है, जिनमत को दूषित करता है । (अपने में महादोष उत्पन्न करता है)
भावार्थ - मीमांसक मतवाला कर्मवादी है, सर्वज्ञ को नहीं मानता है, इन्द्रिय ज्ञानमात्र ही ज्ञान को जानता है, केवलज्ञान को नहीं मानता है, इसका यहाँ निषेध किया है, क्योंकि जिनमत में आत्मा का स्वभाव सबको जाननेवाला केवलज्ञानस्वरूप कहा है, परन्तु वह कर्म के निमित्त से आच्छादित होकर इन्द्रियों के द्वारा क्षयोपशम के निमित्त से खंडरूप हुआ, खंड-खंड विषयों को जानता है (निज बल द्वारा) कर्मों का नाश होने पर केवलज्ञान प्रगट होता है तब आत्मा
सर्वज्ञ होता है| इसप्रकार मीमांसक मतवाला नहीं मानता है, अत: वह अज्ञानी है, जिनमत से प्रतिकूल है, कर्ममात्र में ही उसकी बुद्धि गत हो रही है, ऐसे कोई और भी मानते हैं वह ऐसा ही जानना ॥५६॥