ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 57
From जैनकोष
णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं ।
अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ॥५७॥
ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहीनं तपोभि: संयुक्तम् ।
अन्येषु भावरहितं लिङ्गग्रहणेन किं सौख्यम् ॥५७॥
आगे कहते हैं कि जो ज्ञान-चारित्र रहित हो और तप सम्यक्त्व रहित हो तथा अन्य भी
क्रिया भावपूर्वक न हो तो इसप्रकार केवल लिंग भेषमात्र ही से क्या सुख है ? अर्थात् कुछ
भी नहीं है -अर्थ - जहाँ ज्ञान तो चारित्र रहित है, तपयुक्त भी है, परन्तु वह दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व से रहित है, अन्य भी आवश्यक आदि क्रियायें हैं, परन्तु उनमें भी शुद्ध भाव नहीं है, इसप्रकार लिंग-भेष ग्रहण करने में क्या सुख है ?
भावार्थ - कोई मुनि भेषमात्र से तो मुनि हुआ और शास्त्र भी पढ़ता है । उसको कहते हैं कि शास्त्र पढ़कर ज्ञान तो किया, परन्तु निश्चय चारित्र तो शुद्ध आत्मा का अनुभवरूप तथा बाह्य चारित्र निर्दोष नहीं किया, तप का क्लेश बहुत किया, सम्यक्त्व भावना नहीं हुई और आवश्यक आदि बाह्य क्रिया की, परन्तु भाव शुद्ध नहीं किये तो ऐसे बाह्य भेषमात्र से तो क्लेश ही हुआ, कुछ शांतभावरूप सुख तो हुआ नहीं और यह भेष परलोक के सुख में भी कारण नहीं हुआ; इसलिए सम्यक्त्वपूर्वक भेष (जिन-लिंग) धारण करना श्रेष्ठ है ॥५७॥