ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 59
From जैनकोष
तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्ते तवो वि अकयत्थो ।
तम्हा णाणतवेणं संजुत्ते लहइ णिव्वाणं ॥५९॥
तपोरहितं यत् ज्ञानं ज्ञानवियुक्तं तप: अपि अकृतार्थम् ।
तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्त: लभते निर्वाणम् ॥५९॥
आगे कहते हैं कि तप रहित ज्ञान और ज्ञान रहित तप ये दोनों ही अकार्य हैं, दोनों के संयुक्त होने पर ही निर्वाण है -
अर्थ - जो ज्ञान तपरहित है और जो तप है वह भी ज्ञानरहित है तो दोनों ही अकार्य हैं इसलिए ज्ञान तप संयुक्त होने पर ही निर्वाण को प्राप्त करता है ।
भावार्थ - अन्यमती सांख्यादिक ज्ञानचर्चा तो बहुत करते हैं और कहते हैं कि ज्ञान से ही मुक्ति है और तप नहीं करते हैं, विषय-कषायों को प्रधान का धर्म मानकर स्वच्छंद प्रवर्तते हैं । कई ज्ञान को निष्फल मानकर उसको यथार्थ जानते नहीं हैं और तप क्लेशादिक से ही सिद्धि मानकर उसके करने में तत्पर रहते हैं । आचार्य कहते हैं कि ये दोनों ही अज्ञानी हैं जो ज्ञानसहित तप करते हैं वे ज्ञानी हैं वे ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं, यह अनेकान्तस्वरूप जिनमत का उपदेशहै ॥५९॥