ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 61
From जैनकोष
बाहिरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहियपरियम्मो ।
सो सगचरित्तभट्ठो मोक्खपहविणासगो साहू ॥६१॥
बाह्यलिङ्गेन युत: अभ्यन्तरलिङ्गरहितपरिकर्म्मा ।
स: स्वकचारित्रभ्रष्ट: मोक्षपथविनाशक: साधु: ॥६१॥
आगे जो बाह्यलिंग सहित है और अभ्यन्तरलिंग रहित है वह स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट हुआ मोक्षमार्ग का विनाश करनेवाला है, इसप्रकार सामान्यरूप से कहते हैं -
अर्थ - जो जीव बाह्य लिंग-भेष सहित है और अभ्यंतर लिंग जो परद्रव्यों में सर्व रागादिक ममत्वभाव रहित ऐसे आत्मानुभव से रहित है तो वह स्वक-चारित्र अर्थात् अपने आत्मस्वरूप के आचरण-चारित्र से भ्रष्ट है, परिकर्म अर्थात् बाह्य में नग्नता, ब्रह्मचर्यादि शरीरसंस्कार से परिवर्तनवान द्रव्यलिंगी होने पर भी वह स्व-चारित्र से भ्रष्ट होने से मोक्षमार्ग का विनाश करनेवाला है ॥६१॥ (अत: मुनि-साधु को शुद्धभाव को जानकर निज शुद्ध बुद्ध एकस्वभावी आत्मतत्त्व में नित्य भावना (एकाग्रता) करनी चाहिए ।) (श्रुतसागरी टीका से)
भावार्थ - यह संक्षेप से कहा जानो कि जो बाह्यलिंग संयुक्त है और अभ्यंतर अर्थात् भावलिंग रहित है, वह स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट हुआ मोक्षमार्ग का नाश करनेवाला है ॥६१॥