ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 62
From जैनकोष
सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि ।
तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए ॥६२॥
सुखेन भावितं ज्ञानं दु:खे जाते विनश्यति ।
तस्मात् यथाबलं योगी आत्मानं दु:खै: भावयेत् ॥६२॥
आगे कहते हैं कि जो सुख से भावित ज्ञान है वह दु:ख आने पर नष्ट होता है इसलिए तपश्चरणसहित ज्ञान को भाना -
अर्थ - सुख से भाया हुआ ज्ञान है वह उपसर्ग-परीषहादि के द्वारा दु:ख उत्पन्न होते ही नष्ट
हो जाता है, इसलिए यह उपदेश है कि जो योगी ध्यानी मुनि है वह तपश्चरणादि के कष्ट
(दु:ख) सहित आत्मा को भावे । (अर्थात् बाह्य में जरा भी अनुकूल-प्रतिकूल न मानकर निज आत्मा में ही एकाग्रतारूपी भावना करे, जिससे आत्मशक्ति और आत्मिक आनंद का प्रचुर संवेदन बढ़ता ही है ।)
भावार्थ - तपश्चरण का कष्ट अंगीकार करके ज्ञान को भावे तो परीषह आने पर ज्ञानभावना से चिगे नहीं, इसलिए शक्ति के अनुसार दु:ख सहित ज्ञान को भाना, सुख ही में भावे तो दु:ख आने पर व्याकुल हो जावे तब ज्ञानभावना न रहे, इसलिए यह उपदेश है ॥६२॥