ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 66
From जैनकोष
ताम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्ठए जाम ।
विसए विरत्तचित्ते जोई जाणेइ अप्पाणं ॥६६॥
तावन्न ज्ञायते आत्मा विषयेषु नर: प्रवर्तते यावत् ।
विषये विरक्तचित्त: योगी जानाति आत्मानम् ॥६६॥
आगे कहते हैं कि जबतक विषयों में यह मनुष्य प्रवर्तता है तबतक आत्मज्ञान नहीं होता -
अर्थ - जबतक यह मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में प्रवर्तता है तबतक आत्मा को नहीं जानता है, इसलिए योगी ध्यानी मुनि है वह विषयों से विरक्त चित्त होता हुआ आत्मा को जानता है ।
भावार्थ - जीव के स्वभाव के उपयोग की ऐसी स्वच्छता है कि जो जिस ज्ञेय पदार्थ में उपयुक्त होता है, वैसा ही हो जाता है, इसलिए आचार्य कहते हैं कि जबतक विषयों में चित्त रहता है, तबतक उनरूप रहता है, आत्मा का अनुभव नहीं होता है, इसलिए योगी मुनि इसप्रकार विचार कर विषयों से विरक्त हो आत्मा में उपयोग लगावे तब आत्मा को जाने, अनुभव करे, इसलिए विषयों से विरक्त होना यह उपदेश है ॥६६॥