ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 70
From जैनकोष
अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचरित्तणं ।
होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्तणं ॥७०॥
आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां दृढचारित्राणाम् ।
भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तनाम् ॥७०॥
आगे इस अर्थ को संक्षेप से कहते हैं -
अर्थ - पूर्वोक्त प्रकार जिनका चित्त विषयों से विरक्त है, जो आत्मा का ध्यान करते रहते हैं, जिनके बाह्य अभ्यन्तर दर्शन की शुद्धता है और जिनके दृढ़ चारित्र है उनको निश्चय से निर्वाण होता है ।
भावार्थ - पहिले कहा था कि जो विषयों से विरक्त हों, आत्मा का स्वरूप जानकर आत्मा की भावना करते हैं वे संसार से छूटते हैं । इस ही अर्थ को संक्षेप में कहा है कि जो इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर बाह्य अभ्यन्तर दर्शन की शुद्धता से दृढ़ चारित्र पालते हैं उनको नियम से निर्वाण की प्राप्ति होती है, इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति सब अनर्थों का मूल है, इसलिए इनसे विरक्त होने पर उपयोग आत्मा में लगे तब कार्यसिद्धि होती है ॥७०॥