ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 80
From जैनकोष
णिग्गंथमोहमुयका बावीसपरीसहा जियकसाया।
पावारंभविमुयका ते गहिया मोयखमग्गम्मि॥८०॥
निर्ग्रन्था: मोहमुक्ता: द्वाविंशतिपरीषहा: जितकषाया:।
पापारम्भविमुक्ता: ते गृहीता: मोक्षमार्गे॥८०॥
आगे कहते हैं कि मोक्षमार्गी तो ऐसे मुनि हैं -
अर्थ - जो मुनि निर्ग्रन्थ हैं, परिग्रह रहित हैं, मोहरहित हैं जिनके किसी भी परद्रव्य से ममत्वभाव नहीं है, जो बाईस परीषहों को सहते हैं, जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत लिया है और पापारंभ से रहित हैं। गृहस्थ के करने योग्य आरंभादिक पापों में नहीं प्रवर्तते हैं, ऐसे मुनियों को मोक्षमार्ग में ग्रहण किया है अर्थात् माने हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समंतभद्राचार्य ने भी कहा है कि - ‘‘विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रह:। ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्तते॥८०॥
भावार्थ - मुनि हैं वे लौकिक कष्टों और कार्यों से रहित हैं। जैसा जिनेश्वरदेव ने मोक्षमार्ग बाह्य अभ्यंतर परिग्रह से रहित नग्न दिगम्बररूप कहा है वैसे ही प्रवर्तते हैं, वे ही मोक्षमार्गी हैं, अन्य मोक्षमार्गी नहीं हैं॥८०॥