ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 83
From जैनकोष
णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो।
सो होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं॥८३॥
निश्चयनयस्य एवं आत्मा आत्मनि आत्मने सुरत:।
स: भवति स्फुटं सुचरित्र: योगी स: लभते निर्वाणम्॥८३॥
आगे ऐसा कहते हैं कि निश्चयनय से ध्यान इसप्रकार करना -
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि निश्चयनय का ऐसा अभिप्राय है जो आत्मा आत्मा ही में अपने ही लिये भलेप्रकार रत हो जावे वह योगी, ध्यानी, मुनि सम्यक्चारित्रवान् होता हुआ निर्वाण को पाता है।
भावार्थ - निश्चयनय का स्वरूप ऐसा है कि एक द्रव्य की अवस्था जैसी हो उसी को कहे। आत्मा की दो अवस्थायें हैं - एक तो अज्ञान अवस्था और एक ज्ञान अवस्था। जबतक अज्ञान अवस्था रहती है तबतक तो बंधपर्याय को आत्मा जानता है कि मैं मनुष्य हँ, मैं पशु हँ, मैं क्रोधी हँ, मैं मानी हँ, मैं मायावी हँ, मैं पुण्यवान् धनवान् हँ, मैं निर्धन दरिद्री हँ, मैं राजा हँ, मैं रंक हँ, मैं मुनि हँ, मैं श्रावक हँ इत्यादि पर्यायों में आपा मानता है, इन पर्यायों में लीन होता है तब मिथ्यादृष्टि है, अज्ञानी है, इसका फल संसार है उसको भोगता है।
जब जिनमत के प्रसाद से जीव-अजीव पदार्थों का ज्ञान होता है तब स्व-पर का भेद जानकर ज्ञानी होता है, तब इसप्रकार जानता है कि मैं शुद्धज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूप हँ, अन्य मेरा कुछ भी नहीं है। जब भावलिंगी निर्ग्रन्थ मुनिपद की प्राप्ति करता है, तब यह आत्मा आत्मा ही में अपने ही द्वारा अपने ही लिये विशेष लीन होता है तब निश्चयसम्यक्चारित्रस्वरूप होकर अपना ही ध्यान करता है, तब ही (साक्षात् मोक्षमार्ग में आरू९ढ) सम्यग्ज्ञानी होता है इसका फल निर्वाण है, इसप्रकार जानना चाहिए॥८३॥ (नोंध - प्रवचनसार गाथा २४१-२४२ में जो सातवें गुणस्थान में आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्व और निश्चय आत्मज्ञान में युगपत् आरू९ढ को आत्मज्ञान कहा है वह कथन की अपेक्षा यहाँ है।) (गौण-मुख्य समझ लेना)