ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 86
From जैनकोष
गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णियकंपं।
तं झाणे झाइज्जइ सावय दुयखयखयट्ठाए॥८६॥
गृहीत्वा च सम्ययत्वं सुनिर्मलं सुरगिरेरिव निष्कम्पम्।
तत् ध्याने ध्यायते श्रावक! दु:खक्षयार्थे॥८६॥
आगे श्रावकों को पहिले यया करना, वह कहते हैं -
अर्थ - प्रथम तो श्रावकों को सुनिर्मल अर्थात् भले प्रकार निर्मल और मेरुवत् नि:कंप
अचल तथा चल मलिन अगा९ढ दूषणरहित अत्यंत निश्चल ऐसे सम्ययत्व को ग्रहण करके
दु:ख का क्षय करने के लिए उसको अर्थात् सम्यग्दर्शन को (सम्यग्दर्शन के विषय का) ध्यान में ध्यान करना।
भावार्थ - श्रावक पहिले तो निरतिचार निश्चल सम्ययत्व को ग्रहण करके उसका ध्यान करे, इस सम्ययत्व की भावना से गृहस्थ के गृहकार्य संबंधी आकुलता, क्षोभ, दु:ख हेय है वह मिट जाता है, कार्य के बिग९डने सुधरने में वस्तु के स्वरूप का विचार आवे तब दु:ख मिटता है। सम्यग्दृष्टि के इसप्रकार विचार होता है कि वस्तु का स्वरूप सर्वज्ञ ने जैसा जाना है वैसा निरन्तर परिणमता है वही होता है, इष्ट-अनिष्ट मानकर दु:खी सुखी होना निष्फल है। ऐसा विचार करने से दु:ख मिटता है, यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है इसीलिए सम्ययत्व का ध्यान करना कहा है॥८६॥