ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 91
From जैनकोष
जहजायरूवरूवं सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं।
लिंगं ण परावेयखं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं॥९१॥
यथाजातरूपरूपं सुसंयत सर्वसङ्गपरित्यक्तम्।
लिङ्गं न परापेक्षं य: मन्यते तस्य सम्ययत्वम्॥९१॥
आगे इसी अर्थ को दृ९ढ करते हुए कहते हैं -
अर्थ - मोक्षमार्ग का लिंग-भेष ऐसा है कि यथाजातरूप तो जिसका रूप है, जिसमें बाह्य परिग्रह वस्त्रादिक किंचित् मात्र भी सुसंयत अर्थात् सम्यक् प्रकार इन्द्रियों का निग्रह और जीवों की दया जिसमें पाई जाती है ऐसा संयम है, सर्वसंग अर्थात् सब ही परिग्रह तथा सब लौकिक जनों की संगति से रहित है और जिसमें पर की अपेक्षा कुछ भी नहीं है, मोक्ष के प्रयोजन सिवाय अन्य प्रयोजन की अपेक्षा नहीं है। ऐसा मोक्षमार्ग का लिंग माने-श्रद्धान करे उस जीव के सम्ययत्व होता है।
भावार्थ - मोक्षमार्ग में ऐसा ही लिंग है, अन्य अनेक भेष हैं वे मोक्षमार्ग में नहीं हैं ऐसा श्रद्धान करे उनके सम्ययत्व होता है। यहाँ परापेक्षा नहीं है - यहाँ बताया है कि ऐसे निर्ग्रन्थ रूप को जो किसी अन्य आशय से धारण करे तो वह भेष मोक्षमार्ग नहीं है, केवल मोक्ष ही की अपेक्षा जिसके हो वह सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना॥९१॥