ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 95
From जैनकोष
मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ।
जम्मजरमरणपउरे दुयखसहस्साउले जीवो॥९५॥
मिथ्यादृष्टि: य: स: संसारे संसरति सुखरहित:।
जन्मजरामरणप्रचुरे दु:खसहस्राकुल: जीव:॥९५॥
आगे कहते हैं कि जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह संसार में दु:खसहित भ्रमण करता है -
अर्थ - जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह जन्म जरा मरण से प्रचुर और हजारों दु:खों से व्याप्त इस संसार में सुखरहित दुखी होकर भ्रमण करता है।
भावार्थ - मिथ्याभाव का फल संसार में भ्रमण करना ही है, यह संसार जन्म जरा मरण आदि हजारों दु:खों से भरा है, इन दु:खों को मिथ्यादृष्टि इस संसार में भ्रमण करता हुआ भोगता है। यहाँ दु:ख तो अनन्त हैं हजारों कहने से प्रसिद्ध अपेक्षा बहुलता बताई है॥९५॥