ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 97
From जैनकोष
बाहिरसंगविमुक्को ण वि मुक्को मिच्छ भाव णिग्गंथो।
किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि १अप्पसमभावं॥९७॥
बहि: सङ्गविमुक्त: नापि मुक्त: मिथ्याभावेन निर्ग्रन्थ:।
किं तस्य स्थानमौनं न अपि जानाति २आत्मसमभावं॥९७॥
आगे कहते हैं कि यदि मिथ्यात्व भाव नहीं छो९डा तब बाह्य भेष से कुछ लाभ नहीं है -
अर्थ - जो बाह्य परिग्रह रहित और मिथ्याभाव सहित निर्ग्रन्थ भेष धारण किया है वह परिग्रह रहित नहीं है, उसके ठाण अर्थात् ख९डे होकर कायोत्सर्ग करने से यया साध्य है ? और मौन धारण करने से यया साध्य है ? ययोंकि आत्मा का समभाव जो वीतराग परिणाम उसको नहीं जानता है।
भावार्थ - आत्मा के शुद्ध स्वभाव को जानकर सम्यग्दृष्टि होता है और जो मिथ्याभावसहित परिग्रह छो९डकर निर्ग्रन्थ भी हो गया है, कायोत्सर्ग करना, मौन धारण करना इत्यादि बाह्य क्रियायें करता है तो उनकी क्रिया मोक्षमार्ग में सराहने योग्य नहीं है, ययोंकि सम्ययत्व के बिना बाह्य क्रिया का फल संसार ही है॥९७॥