ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ देशभाषा वचनिका समाप्त
From जैनकोष
छप्पय
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवकारण जानूं,
ते निश्चय व्यवहाररूप नीकैं लखि मानूं।
सेवो निशदिन भक्तिभाव धरि निजबल सारू,
जिन आज्ञा सिर धारि अन्यमत तजि अघ कारूँ॥
इस मानुषभव कूं पाय कै अन्य चारित मति धरो।
भविजीवनिकूं उपदेश यह गहिकरि शिवपद सञ्चरो॥१॥
(दोहा)
वन्दूं मङ्गलरूप जे अर मङ्गलकरतार।
पञ्च परम गुरु पद कमल गंरथ अन्त हितकार॥२॥
यहाँ कोई पूछे कि ग्रन्थों में जहाँ तहाँ पंच णमोकार की महिमा बहुत लिखी है, मंगलकार्य में विघ्न को दूर करने के लिए इसे ही प्रधान कहा है और इसमें पंच परमेष्ठी को नमस्कार है वह पंच परमेष्ठी की प्रधानता हुई, पंचपरमेष्ठी को परम गुरु कहे इसमें इसी मंत्र की महिमा तथा मंगलरूपपना और इससे विघ्न का निवारणपना, पंच परमेष्ठी का प्रधानपना और गुरुपना तथा नमस्कार करने योग्यपना कैसे है ? वह कहो।
इसके समाधानरूप कुछ लिखते हैं - प्रथम तो पंच णमोकार मंत्र है, इसके पैंतीस अक्षर हैं, ये मंत्र के बीजाक्षर हैं तथा इनका योग सब मंत्रों से प्रधान है, इन अक्षरों का गुरु आम्नाय से
शुद्ध उङ्खारण हो तथा साधन यथार्थ हो तब ये अक्षर कार्य में विघ्न दूर करने में कारण हैं
इसलिए मंगलरूप हैं। ‘म’ अर्थात् पाप को गाले उसे मंगल कहते हैं। ‘मंग’ अर्थात् सुख को
लावे, दे, उसको मंगल कहते हैं, इससे दोनों कार्य होते हैं। उङ्खारण से विघ्न टलते हैं, अर्थ का विचार करने पर सुख होता है, इसी से इसको मंत्रों में प्रधान कहा है, इसप्रकार तो मंत्र के आश्रय की महिमा है।
इसमें पंचपरमेष्ठी को नमस्कार है, वे पंचपरमेष्ठी अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये हैं, इनका स्वरूप तो ग्रन्थों में प्रसिद्ध है तो भी कुछ लिखते हैं - यह अनादिनिधन अकृत्रिम सर्वज्ञ की परंपरा से सिद्ध आगम में कहा है ऐसा षट्द्रव्यस्वरूप लोक है, इसमें जीवद्रव्य अनंतानंत हैं और पुद्गलद्रव्य इनसे अनंतानंत गुणे हैं, एक-एक धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य हैं और कालद्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। जीव तो दर्शनज्ञानमयी चेतना स्वरूप है।
अजीव पाँच हैं ये चेतनारहित ज९ड हैं, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो जैसे हैं वैसे ही रहते हैं इनके विकारपरिणति नहीं है, जीव-पुद्गलद्रव्य के परस्पर निमित्त नैमित्तिकभाव से विभावपरिणति है इनमें भी पुद्गल तो ज९ड है, इसके विभावपरिणति का, दु:ख-सुख का संवेदन नहीं है और जीव चेतन है इसके सुख-दु:ख का संवेदन है।
जीव अनंतानंत हैं, इनमें कई तो संसारी हैं, कई संसार से निवृत्त होकर सिद्ध हो चुके हैं। संसारी जीवों में कई तो अभव्य हैं तथा अभव्य के समान हैं। ये दोनों जाति के संसार से निवृत्त कभी नहीं होते हैं। इनके संसार अनादिनिधन है। कई भव्य हैं, ये संसार से निवृत्त होकर सिद्ध होते हैं, इसप्रकार जीवों की व्यवस्था है। अब इनके संसार की उत्पत्ति कैसे है, वह कहते हैं -
जीवों के ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का अनादिबंधपर्याय है, इस बंध के उदय के निमित्त से जीव रागद्वेषमोहादि विभावपरिणतिरूप परिणमता है, इस विभावपरिणति के निमित्त से नवीन कर्मबंध होता है।
इसप्रकार इनके संतानपरंपरा से जीव के चतुर्गतिरूप संसार की प्रवृत्ति होती है, इस संसार में चारों गतियों में अनेक प्रकार सुख-दु:खरूप हुआ भ्रमण करता है, तब कोई काल ऐसा आवे जब मुक्त होना निकट हो तब सर्वज्ञ के उपदेश का निमित्त पाकर अपने स्वरूप को और कर्मबंध के स्वरूप को, अपने भीतरी विभाव के स्वरूप को जाने, इनका भेदज्ञान हो, तब परद्रव्य को संसार का निमित्त जानकर इससे विरक्त हो, अपने स्वरूप के अनुभव का साधन करे - दर्शन-ज्ञानरूप स्वभाव में स्थिर होने का साधन करे तब इसके बाह्यसाधन हिंसादिक पंच पापों का त्यागरूप निर्ग्रंथ पद, सब परिग्रह की त्यागरूप निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्रा धारण करे, पाँच महाव्रत, पाँच समितिरूप, तीन गुप्तिरूप प्रवर्ते तब सब जीवों पर दया करनेवाला साधु कहलाता है।
इसमें तीन पद होते हैं - जो आप साधु होकर अन्य को साधुपद की शिक्षादीक्षा दे वह आचार्य कहलाता है, साधु होकर जिनसूत्र को प९ढे-प९ढावे वह उपाध्याय कहलाता है, जो अपने स्वरूप के साधन में रहे वह साधु कहलाता है, जो साधु होकर अपने स्वरूप साधन के ध्यान के बल से चार घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य को प्राप्त हो वह अरहंत कहलाता है, तब तीर्थंकर तथा सामान्यकेवली जिन इन्द्रादिक से पूज्य होता है इनकी वाणी खिरती है जिससे सब जीवों का उपकार होता है, अहिंसा धर्म का उपदेश होता है, जिससे सब जीवों की रक्षा होती है, यथार्थ पदार्थों का स्वरूप बताकर मोक्षमार्ग दिखाते हैं, इसप्रकार अरहंत पद होता है और जो चार अघातिया कर्मों का भी नाश कर सब कर्मों से रहित हो जाते हैं, वह सिद्ध कहलाते हैं।
इसप्रकार ये पाँच पद हैं, ये अन्य सब जीवों से महान हैं, इसलिए पंच परमेष्ठी कहलाते हैं, इनके नाम तथा स्वरूप के दर्शन, स्मरण, ध्यान, पूजन, नमस्कार से अन्य जीवों के शुभपरिणाम होते हैं इसलिए पाप का नाश होता है, वर्तमान विघ्न का विलय होता है, आगामी पुण्य का बंध होता है इसलिए स्वर्गादिक शुभगति पाता है। इनकी आज्ञानुसार प्रवर्तने से परम्परा से संसार से निवृत्ति भी होती है इसलिए ये पांच परमेष्ठी सब जीवों के उपकारी परमगुरु हैं, सब संसारी जीवों से पूज्य हैं। इनके सिवाय अन्य संसारी जीव राग-द्वेष-मोहादिक विकारों से मलिन हैं, ये पूज्य नहीं हैं, इनके महानपना, गुरुपना, पूज्यपना नहीं है, आप ही कर्मों के वश मलिन हैं तब अन्य का पाप इनसे कैसे कटे ?
इसप्रकार जिनमत में इन पंच परमेष्ठी का महानपना प्रसिद्ध है और न्याय के बल से भी ऐसे ही सिद्ध होता है, ययोंकि जो संसार के भ्रमण से रहित हो वे ही अन्य के संसार का भ्रमण मिटाने को कारण होते हैं। जैसे जिसके पास धनादि वस्तु हो वही अन्य को धनादिक दे और आप दरिद्री हो तब अन्य की दरिद्रता कैसे मेटे, इसप्रकार जानना। जिनको संसार के दु:ख मेटने हों और संसारभ्रमण के दु:खरूप जन्म-मरण से रहित होना हो वे अरहंतादिक पंच परमेष्ठी का नामरूप मंत्र जपो, इनके स्वरूप का दर्शन, स्मरण, ध्यान करो, इससे शुभ परिणाम होकर पाप का नाश होता है, सब विघ्न टलते हैं, परम्परा से संसार का भ्रमण मिटता है, कर्मों का नाश होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है, ऐसा जिनमत का उपदेश है, अत: भव्यजीवों के अंगीकार करने योग्य है।
यहाँ कोई कहे - अन्यमत में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदिक इष्टदेव मानते हैं उनके भी विघ्न टलते देखे जाते हैं तथा उनके मत में राजादि ब९डे-ब९डे पुरुष देखे जाते हैं, उनके भी ये इष्ट विघ्नादिक को मेटनेवाले हैं ऐसे ही तुम्हारे भी कहते हो, ऐसा ययों कहते हो कि यह पंचपरमेष्ठी ही प्रधान हैं, अन्य नहीं हैं ? उसको कहते हैं हे भाई ! जीवों के दु:ख तो संसारभ्रमण का है और संसारभ्रमण के कारण रागद्वेषमोहादिक परिणाम हैं तथा रागादिक वर्तमान में आकुलतामयी दु:खस्वरूप है, इसलिए ये ब्रह्मादिक इष्टदेव कहे, ये तो रागादिक तथा काम क्रोधादि युक्त हैं, अज्ञानतप के फल से कई जीव सब लोक में चमत्कारसहित राजादिक ब९डा पद पाते हैं, उनको लोग ब९डा मानकर ब्रह्मादिक भगवान कहने लग जाते हैं और कहते हैं कि यह परमेश्वर ब्रह्मा का अवतार है तो ऐसे मानने से तो कुछ मोक्षमार्गी तथा मोक्षरूप होता नहीं है, संसारी ही रहता है।
ऐसे ही अन्यदेव सब पदवाले जानने, वे आप ही रागादिक से दु:खरूप हैं, जन्म-मरण सहित हैं, वे पर का संसार दु:ख कैसे मेंटेगे ? उनके मत में विघ्न का टलना और राजादिक ब९डे पुरुष कहे जाते हैं वहाँ तो उन जीवों के पहिले शुभ कर्म बंधे थे उनका फल है। पूर्वजन्म में किंचित् शुभ परिणाम किया था इसलिए पुण्यकर्म बंधा था, उसके उदय से कुछ विघ्न टलते हैं और राजादिक पद पाते हैं, वह तो पहिले कुछ अज्ञानतप किया है, उसका फल है यह तो पुण्यपापरूप संसार की चेष्टा है, इसमें कुछ बडाई नहीं है, बडाई तो वह है जिससे संसार का भ्रमण मिटे सो यह तो वीतराग-विज्ञान भावों से ही मिटेगा, इस वीतराग-विज्ञान भावयुक्त पंच परमेष्ठी हैं ये ही संसारभ्रमण का दु:ख मिटाने में कारण हैं।
वर्तमान में कुछ पूर्व शुभकर्म के उदय से पुण्य का चमत्कार देखकर तथा पाप का दु:ख देखकर भ्रम में नहीं प९डना, पुण्य पाप दोनों संसार हैं इनसे रहित मोक्ष है, अत: संसार से छूटकर मोक्ष हो ऐसा उपाय करना। वर्तमान का विघ्न जैसा पंचपरमेष्ठी के नाम, मंत्र, ध्यान, दर्शन, स्मरण से मिटेगा वैसा अन्य के नामादिक से तो नहीं मिटेगा, ययोंकि ये पंचपरमेष्ठी ही शांतिरूप हैं, केवल शुभ परिणामों ही के कारण हैं। अन्य इष्टदेव के रूप तो रौद्ररूप हैं, इनके दर्शन स्मरण तो रागादिक तथा भयादिक के कारण हैं, इनसे तो शुभ परिणाम होते दीखते नहीं हैं। किसी के कदाचित् कुछ धर्मानुराग के वश से शुभ परिणाम हों तो वह उनसे हुआ नहीं कहलाता, उस प्राणी के स्वाभाविक धर्मानुराग के वश से होता है। इसलिए अतिशयवान शुभ परिणाम का कारण तो शांतिरूप पंचपरमेष्ठी ही का रूप है, अत: इसी का आराधन करना, वृथा खोटी युक्ति सुनकर भ्रम में नहीं पडना, ऐसे जानना।
इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित मोक्षप्राभृत की जयपुरनिवासी पण्डित जयचन्द्र छाब९डा कृत देशभाषामयवचनिका का हिन्दी भाषानुवाद समाप्त॥६॥