ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 110
From जैनकोष
अथ केऽस्यातीचारा इत्याह --
ग्रहणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरणे
यत्प्रोषधोपवासव्यतिलंघनपंचकं तदिदम् ॥110॥
टीका:
प्रोषधोपवासस्य व्यातिलङ्घनपञ्चकमतिचारपञ्चकम् । तदिदं पूर्वार्धप्रतिपादितप्रकारम् । तथा हि । ग्रहणविसर्गास्तरणानि त्रीणि । कथम्भूतानि ? अदृष्टमृष्टानि दृष्टं दर्शनं जन्वत: सन्ति न सन्तीति वा चक्षुषावलोकनं मृष्टं मदुनोपकरणेन प्रमार्जनं तदुभौ न विद्येते येषु ग्रहणादिषु तानि तथोक्तानि तत्र बुभुक्षापीडितस्यादृष्टमृष्टस्यार्हदादिपूजोपकरणस्यात्मपरिधानाद्यर्थस्य च ग्रहणं भवति । तथा अदृष्टमृष्टायां भूमौ मूत्रपुरीषादेरुत्सर्गो भवति । तथा अदृष्टमृष्टे प्रदेशे आस्तरणं संस्तरोपक्रमो भवतीत्येतानि त्रीणि । अनादरास्मरणे च द्वे । तथा आवश्यकादौ हि बुभुक्षा पीडितत्वादनादरोऽनैकाग्रतालक्षणमस्मरणं च भवति ॥
प्रोषधोपवासव्रत के अतिचार
ग्रहणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरणे
यत्प्रोषधोपवासव्यतिलंघनपंचकं तदिदम् ॥110॥
टीकार्थ:
यहाँ पर जीव जन्तु हैं कि नहीं ? इस प्रकार चक्षु से अवलोकन करना दृष्ट कहलाता है और कोमल उपकरण से परिमार्जन करना मृष्ट कहलाता है । जिसमें ये दोनों न हों, वह अदृष्टमृष्ट कहलाता है । अदृष्टमृष्ट का सम्बन्ध ग्रहण, विसर्ग, आस्तरण इन तीनों के साथ है। इसलिए अदृष्टमृष्ट ग्रहण, अदृष्टमृष्ट विसर्ग, अदृष्टमृष्टास्तरण ये तीन अतिचार हैं। अदृष्टमृष्टग्रहण अतिचार उसके होता है जो भूख से पीडि़त होकर अर्हन्तादि की पूजा के उपकरण तथा अपने वस्त्रादि को बिना देखे और बिना शोधे ग्रहण करता है । अदृष्टमृष्टविसर्ग जो भूख से पीडि़त होने के कारण बिना देखी, बिना शोधी भूमि पर मलमूत्रादि विसर्जित करते हैं । अदृष्टमृष्टास्तरण भूख से पीडि़त होकर बिना देखी, बिना शोधी भूमि पर बिस्तर आदि बिछाना । इन तीन के सिवाय अनादर और अस्मरण ये दो अतिचार और हैं । यथा- भूख से पीडि़त होने के कारण आवश्यक कार्यों में आदर नहीं करना, उपेक्षा का होना अनादर नाम का अतिचार है और चित्तविक्षिप्त होना एकाग्रता नहीं होना अस्मरण नाम का अतिचार है ।