ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 122
From जैनकोष
अथ सागोरणाणुव्रतादिवत् सल्लेखनाप्यनुष्ठातव्या। सा च किं स्वरूपा कदा चानुष्ठातव्येत्याह-
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥122॥
टीका:
आर्या गणधरदेवादय: सल्लेखनामाहु: । किं तत् ? तनुविमोचनं शरीरत्याग: । कस्मिन् सति ? उपसर्गे तिर्यङ्मनुष्यदेवाचेतनकृते । नि:प्रतीकारे प्रतीकारागोचरे । एतच्च विशेषणं दुर्भिक्षजरारुजानां प्रत्येकं सम्बन्धनीयम् । किमर्थं तद्विमोचनम् ? धर्माय रत्नत्रयाराधनार्थं न पुन: परस्य ब्रह्महत्याद्यर्थम् ॥
सल्लेखना का लक्षण
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥122॥
टीकार्थ:
उपद्रव को उपसर्ग कहते हैं । वह तिर्यंच, मनुष्य, देव और अचेतनकृत इस प्रकार चार प्रकार का है । जब अन्न की एकदम कमी हो जाती है, सभी जीव-जन्तु भूख से पीडि़त होने लगते हैं, वह दुर्भिक्ष-अकाल कहलाता है । वृद्धावस्था के कारण शरीर अत्यन्त जीर्ण हो जाता है, उसे जरा कहते हैं । रोग की उद्भूति को रुजा कहते हैं । ये चारों इस रूप में उपस्थित हो जायें कि जिनका प्रतिकार नहीं हो सके, तब रत्नत्रयधर्म की आराधना करने के लिए शरीर छोडऩे को सल्लेखना कहते हैं । किन्तु स्व और पर के प्राणघात के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है, वह सल्लेखना नहीं है ।